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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1730
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    57

    व꣣च्य꣡न्ते꣢ वां ककु꣣हा꣡सो꣢ जू꣣र्णा꣢या꣣म꣡धि꣢ वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । य꣢द्वा꣣ꣳ र꣢थो꣣ वि꣢भि꣣ष्प꣡ता꣢त् ॥१७३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व꣣च्य꣡न्ते꣢ । वा꣣म् । ककुहा꣡सः꣢ । जू꣣र्णा꣡या꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । यत् । वा꣣म् । र꣡थः꣢꣯ । वि꣡भिः꣢꣯ । प꣡ता꣢꣯त् ॥१७३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्वाꣳ रथो विभिष्पतात् ॥१७३०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वच्यन्ते । वाम् । ककुहासः । जूर्णायाम् । अधि । विष्टपि । यत् । वाम् । रथः । विभिः । पतात् ॥१७३०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1730
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे मन और आत्मा का महत्त्व कहा गया है।

    पदार्थ

    हे मन और आत्मा रूप अश्वी-युगल ! (वाम्) तुम दोनों के (ककुहासः) महान् स्तोत्र (वच्यन्ते) गान किये जाते हैं, (यत्) क्योंकि (जूर्णायाम्) वृद्ध (विष्टपि अधि) अवस्था में भी (विभिः) इन्द्रिय-रूप अश्वों द्वारा (वाम्) तुम्हारा (रथः) शरीररूप रथ (पतात्) चलता है ॥३॥

    भावार्थ

    वृद्धावस्था में भी जो शरीर भली-भाँति कार्य करता है, वह सब प्राण-अपान सहित मन और आत्मा का ही प्रताप है ॥३॥

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    पदार्थ

    (ककुहासः) महान् आत्मा जीवन्मुक्त२ (जूर्णायाम्) जीर्ण तनु अन्तिम देह समाप्त हो जाने पर (अधिविष्टपि) मोक्षधाम में५ (वां वच्यन्ते) तुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं६ (यत्-वाम्-रथः) जो तेरा रमणस्थान मोक्ष (विभिः-पतात्) उपासकों द्वारा प्राप्त किया जाता है७॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वृद्ध भी युवा [ वृद्ध, पर युवा से भी युवा ]

    पदार्थ

    यह शरीर आयु साथ धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है और एक दिन कहते हैं कि यह जीर्ण हो गया। अपने कर्मफलों को भोगने व नवीन कर्मों को करने के लिए हमने इस शरीर में प्रवेश किया था, अत: ‘विशन्ति अत्र' इस व्युत्पत्ति से इसे 'विष्टप्' कहने लगे । जब यह विष्टप् दीर्घकाल की क्षति [wear and tear] से घिसकर क्षीण हो जाता है तब यह जीर्ण या 'जूर्णा विष्टप्' कहलाता है। यही विष्टप् ‘रथ' है, क्योंकि जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए दिया गया है। (जूर्णायां अधि विष्टपि) = इस जीर्ण हो जानेवाले शरीर में (यत्) = यदि यह (वाम्) = हे अश्विनीदेवो! आपका (रथ:) = रथ (विभिः) = पक्षियों से स्पर्धा करता हुआ (पतात्) = गतिशील होता है, अर्थात् यदि इस रथ में वृद्धावस्था से किसी प्रकार की क्षीणता नहीं आती, क्षीणता आनी तो दूर रही, यह पक्षियों की गति के समान तीव्रता व स्फूर्ति से आगे और आगे बढ़ता है तो (वाम्) = हे प्राणापानो ! आपकी ही (ककुहास:) = महत्ताएँ [ककुभ् महान्] (वच्यन्ते) = कही जाती हैं । यह प्राणापानों की साधना का ही परिणाम है कि अन्त तक सशक्त बना रहता है – इसकी गति मन्द नहीं होती, यह तो पक्षियों की तरह फुदकता है इसमें स्फूर्ति होती है— यह वृद्ध नहीं, युवा ही प्रतीत होता है। प्राणापान की साधना से शरीर नीरोग बना रहता है, वीर्य का संयम होता है, मन में चिड़चिड़ापन नहीं होता । ये सब बातें मनुष्य को युवा बनाये रहती हैं । 

    भावार्थ

    मैं प्राणापन की साधना करूँ और इनकी कृपा से वृद्धावस्था में भी नवयुवक ही बना रहूँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    पूर्वोक्त रूप से वर्णित किये गये हे अश्वियो ! (वां) आप दोनों का (रथः) रमणस्थान यह आत्मा (यत्) जब (विभिः) पदार्थों तक पहुंचने वाले प्राणगणों सहित (जूर्णायाम्) अतिप्रशंसा योग्य या सनातन (अधि विष्टपि) मोक्षस्थान पर (पतात्) गमन करता है तब (वां) आप दोनों के (ककुहासः) उत्तम गुण (वच्यन्ते) वर्णन किये जाते हैं। उन दोनों का (रथः) रमण स्थान यह देह (जूर्णायाम् अधिविष्टपि) जीर्णदशा, वृद्धावस्था तक पहुंच जाता है। पूर्णायु भोग लेता है तब उन दोनों के गुण वणर्न किये जाते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनआत्मनोर्महत्त्वमुच्यते।

    पदार्थः

    हे अश्विनौ मनआत्मानौ ! (वाम्) युवयोः (ककुहासः) महान्तः स्तोमाः (वच्यन्ते) उच्यन्ते, (यत्) यतः (जूर्णायाम्) जीर्णायाम्, वृद्धायाम् (विष्टपि अधि) अवस्थायामपि (विभिः) इन्द्रियरूपैः अश्वैः (वाम्) युवयोः (रथः) देहरथः (पतात्) गच्छति। [ककुहासः, ककुह इति महन्नामसु पठितम्। निघं० ३।३। वच्यन्ते, सम्प्रसारणाच्च अ० ६।१।१०८ इत्यत्र ‘वा छन्दसि’ अ० ६।१।१०६ इत्यनुवृत्तेः पूर्वरूपाभावाद् यणादेशः। विष्टप् इति निरुक्ते (२।१४) द्युलोकवाचकोऽपि सन् अत्र आयुरवस्थाविशेषवाचको बोध्यः। विभिः वयन्ति गच्छन्तीति वयः अश्वाः, वी गत्यादिषु। पतात्, पत्लृ धातोर्लेटि रूपम्] ॥३॥२

    भावार्थः

    वृद्धावस्थायामपि यच्छरीरं सम्यक् कार्यं करोति स सर्वोऽपि प्राणापानसहचरितयोर्मनआत्मनोरेव प्रतापः ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Ashwins, when the soul, your chariot, along with a host of breaths, reaches the final stage of salvation, then are you nice characteristics eulogised!

    Translator Comment

    Ashwins: Prana and Apana.

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    Meaning

    Ashvins, harbingers of light, knowledge and wealth across the Vasus, scientists and technologists, veterans of vision and wisdom celebrate your achievement when your chariot flies like a bird into the ancient sky over the heavens. (Rg. 1-46-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

     

    પદાર્થ : (ककुहासः) મહાન આત્મા જીવન મુક્ત (जूर्णायाम्) જીર્ણ શરીર અન્તિમ દેહ સમાપ્ત થઈ જતાં (अधिविष्टपि) મોક્ષધામમાં (वां वच्यन्ते) તુંજ પરમાત્માને પ્રાપ્ત થાય છે. (यत् वाम् रथः) જે તારું રમણસ્થાન મોક્ષ (विभिः पतात्) ઉપાસકો દ્વારા પ્રાપ્ત કરવામાં આવે છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वृद्धावस्थेतही जे शरीर चांगल्या प्रकारे कार्य करते, तो प्राण-अपानासह मन व आत्म्याचाच प्रताप आहे. ॥३॥

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