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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1731
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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    उ꣢ष꣣स्त꣢च्चि꣣त्र꣡मा भ꣢꣯रा꣣स्म꣡भ्यं꣢ वाजिनीवति । ये꣡न꣢ तो꣣कं꣢ च꣣ त꣡न꣢यं च꣣ धा꣡म꣢हे ॥१७३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡षः꣢꣯ । तत् । चि꣣त्र꣢म् । आ । भ꣣र । अस्म꣡भ्य꣢म् । वा꣣जिनीवति । ये꣡न꣢꣯ । तो꣣क꣢म् । च꣣ । त꣡न꣢꣯यम् । च꣣ । धा꣡म꣢꣯हे ॥१७३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषस्तच्चित्रमा भरास्मभ्यं वाजिनीवति । येन तोकं च तनयं च धामहे ॥१७३१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उषः । तत् । चित्रम् । आ । भर । अस्मभ्यम् । वाजिनीवति । येन । तोकम् । च । तनयम् । च । धामहे ॥१७३१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1731
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में उषा नाम द्वारा जगदम्बा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (वाजिनीवति) विवेकपूर्ण क्रियावाली (उषः) तेजोमयी जगन्माता ! तू (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (तत्) वह प्रसिद्ध (चित्रम्) अद्भुत भौतिक तथा दिव्य ऐश्वर्य (आ भर) ला, (येन) जिससे, हम (तोकं च तनयं च) पुत्र और पौत्र को (धामहे) परिपुष्ट करें ॥१॥

    भावार्थ

    उषा के समान तेजस्विनी जगन्माता जगत् की व्यवस्था के लिए सब क्रियाओं को करती हुई अपनी सन्तानों को सब आध्यात्मिक और भौतिक ऐश्वर्य प्रदान करती हुई सुखकारिणी होती है ॥१॥

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    पदार्थ

    (वाजिनीवति-उषः) हे अमृत अन्नवाली परमात्मदीप्ति! या परमात्मज्योति! तू (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (तत्-चित्रम्-आभर) उस चायनीय दर्शनीय अमृत अन्नभोग को आभरित कर (येन) जिससे (तोकं तनयं च धामहे) तोदने व्यथित करने वाले मन को९ और इन्द्रियगण को१० तेरे अन्दर धरते समर्पित करते हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—गोमतः (परमात्मा में अत्यन्त गति करनेवाला उपासक)॥ देवता—उषाः (परमात्मदीप्ति या परमात्मज्योति)॥<br>

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    विषय

    सात्त्विक अन्न

    पदार्थ

    वेद में ‘वाजिनीवती' शब्द जब उषा के लिए प्रयुक्त होता है तब 'वाजिनी' शब्द का अर्थ 'अन्न' food होता है । मन्त्र का ऋषि ‘गोतम' उषा से प्रार्थना करता है कि हे (वजिनीवति) = अन्नोंवाली (उष:) = उषे ! तू (तत्) = वह (चित्रम्) = [चित्+र] ज्ञान देनेवाला, अर्थात् सात्त्विक अन्न (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (आभर) = प्राप्त करा, (येन) जिस सात्त्विक अन्न से (तोकम्) = अपने पुत्रों को (तनयं च) = और अपने पौत्रों को (धामहे) = हम धारण कर सकें ।

    वस्तुत: उष:काल की शान्ति व पवित्रता प्राप्त करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि हम सात्त्विक भोजन करनेवाले बनें। सात्त्विक भोजन ही हमारे ज्ञान की वृद्धि करके हमारा कल्याण करनेवाला होगा।

    उषा 'वाजिनीवती' है- उत्तम सात्त्विक अन्नवाली है। हम इस सात्त्विक अन्न के सेवन के परिणामरूप जैसे जीवनवाले बनेंगे उसका कुछ चित्रण अगले मन्त्र में किया जाएगा।

    ‘वाजिनम्' शब्द का अर्थ 'शक्ति' भी है। इस अर्थ को लेकर मन्त्रार्थ इस रूप में होगा - (वाजिनीवति) = शक्ति देनेवाली (उषः) = उषे ! तू (अस्मभ्यम्) = हमें (तत्) = वह (चित्रम्) = ज्ञान भी (आभर) = प्राप्त करा (येन) = जिससे हम (तोकं तनयं च) = पुत्रों व पौत्रों को (धामहे) = धारण करें । सन्तानों के उत्तम निर्माण के लिए 'शक्ति व ज्ञान' दोनों ही अपेक्षित हैं।

    भावार्थ

    हम सात्त्विक अन्न के सेवन से शक्ति व ज्ञान की वृद्धि करके सन्तानों का उत्तम धारण करें।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (उषः*) कमनीय कन्या के समान विशोकप्रज्ञे ! ज्योतिष्मति ! हे (वाजिनी वति) ज्ञानमय वाणी से युक्त ! (अस्मभ्यं) हमें (तत्) वह (चित्रं) संग्रह योग्य प्राप्तव्य ज्ञान (आभर) प्राप्त करा। (येन) जिससे (तोकं) पुत्र के समान प्रिय एवं क्रीड़ाशील चित्त और (तनयं) समान लालन पालन योग्य इस देह को (धामहे) धारण करें, चिरकाल तक जितेन्द्रिय, चिरायु होकर रहें।

    टिप्पणी

    *उष दाहे (भ्वादिः) उषस् प्रभातभावे (कण्ड्वादिः) तयो रुषः किच्चेति असिरौणादिः (उणादि० ४। २३४)। ओषति दहतीति उषः, (कर्णच्छिद्रं पर्वतभेदो वा, (स्त्रियां) प्रभातप्रकाशः (दया०)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादावुषर्नाम्ना जगदम्बां प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (वाजिनीवति) विवेकपूर्णक्रियामयि (उषः) तेजोमयि जगन्मातः ! त्वम् (अस्मभ्यम्) अस्मदर्थम् (तत्) प्रसिद्धम् (चित्रम्) अद्भुतं भौतिकं दिव्यं चैश्वर्यम् (आभर) आहर, (येन) ऐश्वर्येण, वयम् (तोकं च तनयं च) पुत्रं च पौत्रं च (धामहे) पुष्णीयाम। [अत्र धाञ् धातोर्लेटि ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ इति श्लोरभावः] ॥१॥२ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याख्यातवान्—[“उषस्तच्चित्रं चायनीयं मंहनीयं धनमाहरास्मभ्यम् अन्नवति येन पुत्रांश्च पौत्रांश्च दधीमहि” इति (निरु० १२।६)]।

    भावार्थः

    उषर्वत् तेजोमयी जगन्माता जगद्व्यवस्थायै सकलाः क्रिया निष्पादयन्ती स्वसन्तानेभ्यः सर्वमाध्यात्मिकं भौतिकं चैश्वर्यं प्रयच्छन्ती सुखकारिणी जायते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O bright intellect. full of learning, grant us that attainable knowledge, where with we may support our sons and grandsons!

    Translator Comment

    $ Pt. Jaidev Vidyalankar has translated तोकं as mind and तनयं as body.

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    Meaning

    O Dawn, harbinger of food, energy and rejuvenation of thought, will and action, bear and bring that health and wealth of wondrous and various kinds for us by which we may be able to beget, maintain and advance our children and grand-children and others, friends and assistants in life. (Rg. 1-92-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાથ : (वाजिनीवति उषः) હે અમૃત અન્નવાળી પરમાત્મ દીપ્તિ ! અર્થાત્ પરમજ્યોતિ ! તું (अस्मभ्यम्) અમારે માટે (तत् चित्रम् आभर) તે ચાયનીય-દર્શનીય અમૃત અન્નભોગને ભરપૂર કરી દે. (येन) જેથી (तोकं तनयं च धामहे) તોદને-વ્યથિત કરનાર મનને તથા ઇન્દ્રિયગણને તારી અંદર ધરીએ છીએ-સમર્પિત કરીએ છીએ. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उषेप्रमाणे तेजस्विनी जगन्माता (परमेश्वर) जगाच्या व्यवस्थेसाठी सर्व क्रिया करत आपल्या संतानांना सर्व आध्यात्मिक व भौतिक ऐश्वर्य प्रदान करत सुखकारक असते. ॥१॥

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