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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1741
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
31
या꣡ सु꣢नी꣣थे꣡ शौ꣢चद्र꣣थे꣡ व्यौच्छो꣢꣯ दुहितर्दिवः । सा꣡ व्यु꣢च्छ꣣ स꣡ही꣢यसि स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥१७४१॥
स्वर सहित पद पाठया꣢ । सु꣣नीथे꣢ । सु꣣ । नीथे꣢ । शौ꣣चद्रथे꣢ । शौ꣣चत् । रथे꣢ । व्यौ꣡च्छः꣢꣯ । वि꣣ । औ꣡च्छः꣢꣯ । दु꣣हितः । दिवः । सा꣢ । वि । उच्छ । स꣡ही꣢꣯यसि । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सू꣣नृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥१७४१॥
स्वर रहित मन्त्र
या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिवः । सा व्युच्छ सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१७४१॥
स्वर रहित पद पाठ
या । सुनीथे । सु । नीथे । शौचद्रथे । शौचत् । रथे । व्यौच्छः । वि । औच्छः । दुहितः । दिवः । सा । वि । उच्छ । सहीयसि । सत्यश्रवसि । सत्य । श्रवसि । वाय्ये । सुजाते । सु । जाते । अश्वसूनृते । अश्व । सूनृते ॥१७४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1741
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर जगन्माता से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (सुजाते) सुप्रसिद्ध, (अश्वसूनृते) व्यापक प्रिय सत्य वेदवाणीवाली (दिवः दुहितः) दिव्य प्रकाश को दुह कर देनेवाली जगन्माता ! (या) जो प्रसिद्ध तू (शौचद्रथे) अतिशय पवित्र आत्मा रूप रथवाले, (सुनीथे) उत्तम नेतृत्व करनेवाले मनुष्य में (व्यौच्छः) प्रकाश देती है, (सा) वह तू (सहीयसि) अतिशय सहनशील, (सत्यश्रवसि) सच्ची कीर्तिवाले (वाय्ये) खड्डी में धागों के समान फैलाने योग्य मेरे जीवन में भी (व्युच्छ) विवेकख्याति का प्रकाश कर ॥२॥
भावार्थ
जो पवित्र आचरणवाले नेता लोग होते हैं, उनमें पवित्रता और नेतृत्व का बल जगन्माता ही निहित करती है, वैसे ही वह हमारा भी जीवन पवित्र करके, विवेकख्याति का प्रकाश उत्पन्न कर हमें मोक्ष का अधिकारी बना देवे ॥२॥
पदार्थ
(या) जो तू परमात्मा की दीप्ति या ज्योति! (सुनीथे) हे अध्यात्ममार्ग में शोभननेत्री—सम्यक् ले जाने वाली१ (शौचद्रथे) प्रकाशमान रमणीय स्वरूप वाली (दिवः-दुहितः) मोक्षधाम की तत्रस्थ आनन्दरस की दूहने वाली (व्यौच्छः तू मुझ उपासक के अन्दर प्रकाशित हो (सा सहीमसि व्युच्छ) वह तू पापों अज्ञानों को अत्यन्त प्रसहन करने दबाने वाली मेरे अन्दर प्रकाशित हो, तथा (सत्यश्रवसि) हे सत्यस्वरूप परमात्मा का श्रवण कराने वाली (वाय्ये) वरणीय (सुजाते) सुप्रसिद्ध (अश्वसुनृते) व्यापक परमात्मा की वाणी जिसमें हो ऐसी परमात्मदीप्ति या परमात्मज्योति मेरे अन्दर प्रकाशित हो॥२॥
विशेष
<br>
विषय
किनका अन्धकार दूर होता है
पदार्थ
हे (दिवः दुहितः) = प्रकाश का पूरण करनेवाली उषे! (या) = जो तू (सुनीथे) = प्रशस्त मार्ग पर चलनेवाले में— इन्द्रियों को विषयपंक में न फँसने देनेवाले में तथा (शौचद्रथे) = देदीप्यमान रथवाले में, स्वास्थ्य को स्थिर रखने के द्वारा चमकते हुए तेजस्वी शरीररूप रथवाले पुरुष में (व्यौच्छः) = अन्धकार को दूर करती हैं; (सा) = वह तू निम्न पुरुषों में भी (व्युच्छ) = अन्धकार को दूर कर
१. (सहीयसि) = उत्तम सहन शक्तिवाले पुरुष में । आनन्दमय कोष के बल को सहस् कहते हैं ।
इस सहस् से युक्त पुरुष में अज्ञानान्धकार का निवास नहीं होता ।
२. (सत्यश्रवसि) = सदा सत्यज्ञान का श्रवण करनेवाले में। जो व्यक्ति सत्सङ्ग के द्वारा उत्तम वेदज्ञान का श्रवण करता है, उसमें अज्ञानान्धकार का प्रसङ्ग नहीं रहता।
३. (वाय्ये) = जो अपने हृदय को विस्तृत बनाता है।
४. (सुजाते) = जो अपना उत्तम विकास करता है ।
५. (अश्वसूनृते) = व्यापक उत्तम दुःखनाशक न्याय्य कर्म करनेवाले में । उल्लिखित व्यक्तियों के आज्ञानान्धकार का उषा नाश करती है । वस्तुतः प्रातः काल उठकर हम इन शब्दों के अनुसार अपना जीवन बनाने का प्रयत्न करेंगे तो हम अवश्य अज्ञानान्धकार को नष्ट करके उस प्रकाश में पहुँचेंगे जहाँ हम प्रभु का साक्षात्कार कर रहे होंगे।
भावार्थ
हम उत्तममार्ग से चलनेवाले, देदीप्यमान शरीररूप रथवाले, सहनशील, विशाल हृदय, उत्तम विकासवाले तथा व्यापक सत्य कर्मोंवाले बनें । ऐसा बनने पर ही हमारा अज्ञानान्धकार विलीन हो पाएगा।
विषय
missing
भावार्थ
(दिवः) हे सूर्य के समान प्रेरक आत्मा के (दुहितः) आनन्दरस का दोहन करने हारी उषः ऋतम्भरे ! (या) जो तू (सुनीथे) उत्तम पद पर प्राप्त, मुक्त (शौचद्रथे) अति पवित्र, शुद्ध, चित्स्वरूप आत्मा में, (व्यौच्छः) अज्ञान आवरण को हटाती रही है वैसे ही अन्न, हे (अश्वसूनृते) आत्मा में सत्य आत्मज्ञान ब्रह्मज्ञान को सभ्यवाणी और धारण करने हारी ऋतम्भरे ! (सा) वह तु (वाय्ये) तन्तु या पट के समान निरतन्तर अविच्छन्न क्रिया साधन करने हारे (सत्यश्रवसि) सत्यज्ञानमय (सुजाते) उत्तम रूप से प्रादुर्भूत (सहीयसि) सहनशील बलवान् आत्मा में भी (व्युच्छ) अज्ञान के प्रावरण को दूर कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि जगन्मातरं प्रार्थयते।
पदार्थः
हे (सुजाते) सुप्रसिद्धे (अश्वसूनृते) अश्वा व्याप्ता सूनृता प्रियसत्यात्मिका वेदवाग् यस्याः तादृशि (दिवः दुहितः) दिव्यप्रकाशदोग्ध्रि उषः जगन्मातः ! (या) प्रसिद्धा, त्वम् (शौचद्रथे) शुचत् पवित्रो रथः आत्मरूपो रथो यस्य स शुचद्रथः, अतिशयेन शुचद्रथः शौचद्रथः तस्मिन्। [छन्दसि अपत्यप्रत्यया अतिशयार्थेऽपि भवन्ति।] (सुनीथे) सुनेतरि मनुष्ये (व्यौच्छः) प्रकाशं करोषि, सा तादृशी त्वम् (सहीयसि) अतिसयेन सोढृ सहीयः तस्मिन् (सत्यश्रवसि) सत्ययशसि (वाय्ये) वातुं योग्ये तन्तुवत् सन्ताननीये मम जीवनेऽपि (व्युच्छ) विवेकख्यातेः प्रकाशं कुरु ॥२॥२
भावार्थः
ये पवित्राचरणा नेतारो जना भवन्ति तेषु पवित्रतां नेतृत्वबलं च जगन्मातैव निदधाति, तथैव सोऽस्माकमपि जीवनं पवित्रं विधाय विवेकख्यातिप्रकाशं जनयित्वाऽस्मान्निःश्रेयसाधिकारिणः करोतु ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Dawn-like intellect, the recipient of the joy of soul, an impeller like the sun, just as thou hast been dispelling the covering of ignorance from the pure emancipated soul, so do thou, O intellect, the retainer of true knowledge in the soul, cast aside fee sheath of nescience from a tolerant, strong, beautiful, learned soul, the constant weaver of actions!
Translator Comment
Weaver means architect. Just as a weaver spins the thread so does soul fashion its acts.
Meaning
Daughter of the light of heaven, lady of justice and moral guidance who ride a chariot of pure brilliance, as you have shone before, so may you ever shine now and after in future, O lady, forbearing and challenging, renowned for truth and righteousness, extensive, nobly born and blest with prosperity, achievement and discrimination between truth and untruth of thought and speech. (Rg. 5-79-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (या) જે તું પરમાત્માની દીપ્તિ વા જ્યોતિ ! (सुनीथे) હે અધ્યાત્મમાર્ગમાં શોભનનેત્રી-સમ્યક્ લઈ જનારી (शौचद्रथे) પ્રકાશમાન રમણીય સ્વરૂપવાળી (दिवः दुहितः) મોક્ષધામની ત્યાં રહેલી આનંદરસની દોહનારી (व्यौच्छः) તું મુજ ઉપાસકની અંદર પ્રકાશમાન થા. (सा सहीमसि व्युच्छ) તે તું પાપો અજ્ઞાનોને અત્યંત પ્રસહન કરનારી-દબાવનારી મારી અંદર પ્રકાશિત થા; તથા (सत्यश्रवसि) હે સત્યસ્વરૂપ પરમાત્માનું શ્રવણ કરાવનારી (वाय्ये) વરણીય (सुजाते) સુપ્રસિદ્ધ (अश्वसुनृते) વ્યાપક પરમાત્માની વાણી જેમાં છે, એવી પરમાત્મ દીપ્તિ વા પરમાત્મજ્યોતિ મારી અંદર પ્રકાશિત થાય. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जे पवित्र आचरणयूक्त नेतृत्व असते, त्यांच्यामध्ये पवित्रता व नेतृत्वाचे बल जगन्माताच निहित करते, तसेच त्याने आमचे जीवन पवित्र करून विवेकख्यातीचा प्रकाश उत्पन्न करून आम्हाला मोक्षाचा अधिकारी बनवावे. ॥२॥
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