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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1752
    ऋषिः - अत्रिर्भौमः देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    34

    आ꣡ भा꣢त्य꣣ग्नि꣢रुष꣣सा꣢म꣣नी꣡क꣢मु꣣द्वि꣡प्रा꣢꣯णां देव꣣या꣡ वाचो꣢꣯ अस्थुः । अ꣣र्वा꣡ञ्चा꣢ नू꣣न꣡ꣳ र꣢थ्ये꣣ह꣡ या꣢तं पीपि꣣वा꣡ꣳस꣢मश्विना घ꣣र्म꣡मच्छ꣢꣯ ॥१७५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣡ । भा꣢ति । अग्निः꣣ । उ꣣ष꣡सा꣢म् । अ꣡नी꣢꣯कम् । उत् । वि꣡प्रा꣢꣯णाम् । वि । प्रा꣣णाम् । देवयाः꣢ । दे꣣व । याः꣢ । वा꣡चः꣢꣯ । अ꣣स्थुः । अर्वा꣡ञ्चा꣢ । नू꣣न꣢म् । र꣣थ्या । इह꣢ । या꣣तम् । पीपिवा꣡ꣳस꣢म् । अ꣣श्विना । घर्म꣢म् । अ꣡च्छ꣢꣯ ॥१७५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद्विप्राणां देवया वाचो अस्थुः । अर्वाञ्चा नूनꣳ रथ्येह यातं पीपिवाꣳसमश्विना घर्ममच्छ ॥१७५२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । भाति । अग्निः । उषसाम् । अनीकम् । उत् । विप्राणाम् । वि । प्राणाम् । देवयाः । देव । याः । वाचः । अस्थुः । अर्वाञ्चा । नूनम् । रथ्या । इह । यातम् । पीपिवाꣳसम् । अश्विना । घर्मम् । अच्छ ॥१७५२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1752
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में प्राणायाम का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अग्निः) यज्ञाग्नि (आ भाति) आभासित हो रही है, (उषसाम्) उषाओं की (अनीकम्) किरण-सेना भी (आ भाति) आभासित हो रही है। (विप्राणाम्) मेधावी उपासकों की (देवयाः) परमात्माराधना की इच्छुक (वाचः) वाणियाँ (उद् अस्थुः) उठ रही हैं। हे (रथ्या) शरीर-रथ को चलानेवाले (अश्विना) प्राणापानो ! तुम दोनों (अर्वाञ्चा) हमारे अभिमुख होते हुए (नूनम्) निश्चय ही (इह) यहाँ (पीपिवांसम्) समृद्ध (घर्मम्) प्रातःकालीन ब्रह्मयज्ञ के (अच्छ) प्रति (आ यातम्) आओ ॥१॥

    भावार्थ

    उषाकाल में स्वच्छ प्राभातिक वायु में ब्रह्मयज्ञ में किया गया प्राणायाम अपूर्व, तेज, जागृति, स्फूर्ति, आरोग्य और बल प्रदान करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (उषसाम्) कामनाओं का४ (अनीकम्-अग्निः) आधार ज्ञानप्रकाश-स्वरूप परमात्मा (आ भाति) उपासक आत्मा में समन्तरूप से भासित होता है—साक्षात् होता है, जिसको (विप्राणां देवयाः-वाचः-उदस्थुः) ब्राह्मणों—ब्रह्मज्ञानियों—उपासकों की५ देव तक जाने वाली—स्तुतिवाणियाँ उसमें आश्रित होती हैं वही (अश्विना) ज्योतिःस्वरूप एवं आनन्दरसरूप परमात्मन्! तू (रथ्या) रमणीय मोक्षधाम के स्वामिन्! (नूनम्) निश्चय (अर्वाञ्चा) इधर प्रवृत्त हुआ (इह) इस जीवन में (पीपिवांसं धर्मम्) प्रवृद्ध अध्यात्मयज्ञ को (आयातम्) भलीभाँति प्राप्त हो॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—अत्रिः३ (इस जन्म में तृतीयधाम मोक्ष को प्राप्त करने योग्य हो जाने वाला उपासक)॥ देवता—अश्विनौ (ज्योतिःस्वरूप परमात्मा एवं आनन्दरसरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    सत्त्वगुणी पुरुष के घर में

    पदार्थ

    १. सत्त्वगुणी पुरुष के घर में (अग्निः आभाति) = अग्निकुण्डों में अग्नि दीप्त होती है, अर्थात् ये लोग अग्निहोत्र प्रारम्भ करते हैं । यह अग्निकुण्ड का अग्नि (उषसाम् अनीकम्) = उष:कालों का मुख है, अर्थात् उष:काल में— सूर्योदय के समय - सबसे प्रथम कार्य अग्निहोत्र होता है ।

    स्वाध्याय -  २. इन यज्ञों में (विप्राणाम्) = इन सात्त्विक ज्ञानी पुरुषों की (देवया:) = प्रभु को प्राप्त करानेवाली [देवं यान्ति] (वाचः) = वाणियाँ (उदस्थुः) = ऊपर उठती हैं, अर्थात् ये सात्त्विक पुरुष वेदवाणियों का उच्चारण करते हैं । यज्ञानन्तर स्वाध्याय में वेद का अध्ययन करते हैं ।

    प्राणायाम – ३. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (नूनम्) = निश्चय से आप (रथ्या) = शरीररूप रथ को उत्तम बनानेवाले हो । प्राण - साधना से शरीर नीरोग बनता है, मन निर्मल व बुद्धि तीव्र और इस प्रकार यह शरीररूप रथ बड़ा सुन्दर बन जाता है। आप इह- यहाँ – शरीर में ही अर्वाञ्चा- शरीर में ही गति करनेवाले [अर्वाङ्-अञ्चति] होकर (आयातम्) = आइए। [मापगातमितो युवम्, इहैव स्तं प्राणापानौ]=हे प्राणापानो! आप यहीं शरीर में होओ, यहाँ से दूर न जाओ ।

    दूध- रस – ४. (पीपिवांसम्) = वृद्धि के साधनभूत [प्यायी वृद्धौ] (घर्मम्) = गोदुग्ध के या फलों के रस की (अच्छ) = ओर आनेवाले होओ, अर्थात् प्रात:काल अग्निहोत्र, स्वाध्याय, व प्राणायाम के पश्चात् ये सात्त्विक पुरुष गोदुग्ध व फलों के रस का सेवन करते हैं। अब इन नित्यकृत्यों से निवृत्त होकर ५. पीपिवांसं घर्मम् (अच्छ) = वृद्धि के साधनभूत यज्ञों लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं [घर्म-यज्ञ]। अपना दिन लोकसंग्रहात्मक कर्मों में ही बिताते हैं । स्वार्थ परिपूर्ण अतएव मलिन अयज्ञिय कर्मों को नहीं करते ।

    इस प्रकार उत्तम जीवन बिताने का परिणाम यह होता है कि ये ‘अत्रि'=काम, क्रोध व लोभ से बचे रहते हैं और आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक कष्टों के पात्र नहीं होते [अ-त्रि] और इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि अत्रि बनते हैं।

    भावार्थ

    हम सात्त्विक जीवन बितानेवाले बनें। हमारे जीवन का कार्यक्रम १. अग्निहोत्र, २. स्वाध्याय, ३. प्राणायाम, ४. गोदुग्ध व फल-रस का सेवन तथा ५. यज्ञिय कर्मों में प्रवृत्त होना हो । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (अग्निः) सूर्य (उषसाम् अनीकम्) मानो उषाओं का मुख हो ऐसे (आभाति) प्रकाशित होता है। (विप्राणां) मेधावी विद्वान् भक्त पुरुषों की (देवया) इष्टदेव परमात्मा तक पहुंचने वाली (वाचः) वेदमन्त्र ध्वनियां (उद्-अस्थुः) उठने लगती है। हे (अश्विनो) अश्विदेवो ! प्राण और अपान एवं स्त्री पुरुषो ! हे (रथ्या) देहरूप रथपर आरूढ प्राण और अपान आप दोनों ! (इह) इस देह में (अर्वाञ्चम्) निम्न देश में गति करने वाले होकर भी (यातम्) अब ऊपर आओ और (पीपिवांसं) बराबर बढ़ते हुए (घर्मं) ज्योतिस्वरूप रस को (अच्छ) साक्षात् करो। अथवा—(अग्निः, उषसां अनीकं) अग्निहोत्र की अग्नि उषाओं का मुखरूप होकर, (आभाति) प्रकाशित होता है। अथवा—अध्यात्मपक्ष में विशोका प्रज्ञाओं का (अनीकं) पूर्वरूप सुखरूप (अग्निः) विशेष तेज (आभाति) धारणाप्रदेशों में प्रकाशित होता है। उसी समय विद्वान् पुरुषों की इष्टदेव आत्मविषयक वेदवाणियां प्रकट होती हैं। शेष पूर्ववत् हे (अश्विनौ) प्राण और अपान ! तुम दोनों रथपर देह के हितकारी होकर (अर्वाञ्चा) साक्षात् रूप से प्रकट होकर (पीपिवांसं धर्मम्) बराबर बढते हुए तेज को (अच्छ यातं) उत्तम रीति से प्राप्त होओ या प्राप्त करायो। जैसाकि श्वेताश्वर उपनिषद् (अ० २। ११। १२) में लिखा है— नीहारधूमार्कानलानिलानां खद्योतविद्युत् स्फटिकशशिनाम्। एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥ पृथिव्यप्तेजोनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मक योगगुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥ योग समाधि के अभ्यास के अवसर में ब्रह्मसाक्षात् के पूर्व नीहार धूम, सूर्य, अग्नि, विद्युत् स्फटिक आदि के रूप प्रकट होते हैं। उस समय पांचों भूतों पर वश हो जाता है। ज़रा और मृत्यु हट जाती है शरीर योगाग्निमय हो जाता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ प्राणायामविषयं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अग्निः) यज्ञाग्निः (आ भाति) आभासते, (उषसाम्) प्रभातकान्तीनाम् (अनीकम्) किरणसैन्यमपि (आ भाति) आ भासते। (विप्राणाम्) मेधाविनाम् उपासकानाम् (देवयाः) परमात्माराधनकामाः (वाचः) गिरः (उद् अस्थुः) उत्तिष्ठन्ति। हे (रथ्या) रथ्यौ देहरथवोढारौ (अश्विना) अश्विनौ प्राणापानौ। युवाम् (अर्वाञ्चा) अर्वाञ्चौ अस्मदभिमुखौ सन्तौ (नूनम्) निश्चयेन (इह) अत्र (पीपिवांसम्) आप्यायितम्। [ओप्यायी वृद्धौ, लिटः क्वसुः, प्यायः पी आदेशः।] (धर्मम्) प्रातःकालिकं ब्रह्मयज्ञम् (अच्छ) प्रति (आ यातम्) आगच्छतम् ॥१॥२

    भावार्थः

    उषःकाले स्वच्छे प्रभातवायौ ब्रह्मयज्ञे कृतः प्राणायामोऽपूर्वं तेजो जागर्तिं स्फूर्तिमारोग्यं बलं च प्रयच्छति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Sun, the bright face of the Dawns, is shining: the recitation of Vedic verses by the devotees of God is conducted. O Ashwins, (knowledge and action) borne on your chariot of the body, come here before us, and make us acquire dignity and power !

    Translator Comment

    It is a beautiful description of the performance of Havan in the morning, Here means the Yajna (sacrifice).

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    Meaning

    The holy fire of the sun shines here while the splendour of the dawn radiates as advance forces of the solar fire, and the holy voices of the sages arise in adoration. O Ashvins, vitalities of divinity, reach here by chariot of the dawn and join the rising fire of the house-hold yajna of noble men and women. (Rg. 5-76-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उषसाम्) કામનાઓનો (अनीकम् अग्निः) આધાર જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા (आ भाति) ઉપાસક આત્મામાં સમગ્રરૂપથી પ્રકાશિત થાય છે-સાક્ષાત્ થાય છે, જેને (विप्राणां देवयाः वाचः उदस्थुः) બ્રાહ્મણો-બ્રહ્મજ્ઞાનીઓ-ઉપાસકોની દેવ સુધી જનારી-સ્તુતિવાણીઓ તેમાં આશ્રિત થાય છે. તે જ (अश्विना) જ્યોતિ સ્વરૂપ અને આનંદરસરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (रथ्या) રમણીય મોક્ષધામના સ્વામિન્ ! (नूनम्) નિશ્ચય (अर्वञ्चा) આ તરફ પ્રવૃત્ત થઈને (इह) આ જીવનમાં (पीपिवांसं घर्मम्) પ્રવૃદ્ધ આત્મજ્ઞાનને (आयातम्) સારી રીતે પ્રાપ્ત થા. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उष:काळी स्वच्छ प्रभात काळच्या वायूमध्ये ब्रह्मयज्ञामध्ये केला गेलेला प्राणायाम अपूर्व तेज, जागृती, स्फूर्ती, आरोग्य व बल प्रदान करतो. ॥१॥

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