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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1753
    ऋषिः - अत्रिर्भौमः देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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    न꣡ स꣢ꣳस्कृ꣣तं꣡ प्र मि꣢꣯मीतो꣣ ग꣢मि꣣ष्ठा꣡न्ति꣢ नू꣣न꣢म꣣श्वि꣡नोप꣢꣯स्तुते꣣ह꣢ । दि꣡वा꣢भिपि꣣त्वे꣢ऽव꣣सा꣡ग꣢मिष्ठा꣣ प्र꣡त्यव꣢꣯र्त्तिं दा꣣शु꣢षे꣣ श꣡म्भ꣢विष्ठा ॥१७५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । स꣣ꣳस्कृत꣢म् । स꣣म् । कृत꣢म् । प्र । मि꣣मीतः । ग꣡मि꣢꣯ष्ठा । अ꣡न्ति꣢꣯ । नू꣣न꣢म् । अ꣣श्वि꣡ना꣢ । उ꣡प꣢꣯स्तुता । उ꣡प꣢꣯ । स्तु꣣ता । इह । दि꣡वा꣢꣯ । अ꣡भिपित्वे꣢ । अ꣢भि । पित्वे꣢ । अ꣡व꣢꣯सा । आ꣡ग꣢꣯मिष्ठा । आ । ग꣣मिष्ठा । प्र꣡ति꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯र्तिम् । दा꣣शु꣡षे꣢ । श꣡म्भ꣢꣯विष्ठा । शम् । भ꣣विष्ठा ॥१७५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सꣳस्कृतं प्र मिमीतो गमिष्ठान्ति नूनमश्विनोपस्तुतेह । दिवाभिपित्वेऽवसागमिष्ठा प्रत्यवर्त्तिं दाशुषे शम्भविष्ठा ॥१७५३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न । सꣳस्कृतम् । सम् । कृतम् । प्र । मिमीतः । गमिष्ठा । अन्ति । नूनम् । अश्विना । उपस्तुता । उप । स्तुता । इह । दिवा । अभिपित्वे । अभि । पित्वे । अवसा । आगमिष्ठा । आ । गमिष्ठा । प्रति । अवर्तिम् । दाशुषे । शम्भविष्ठा । शम् । भविष्ठा ॥१७५३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1753
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में प्राणापान का महत्त्व वर्णित है।

    पदार्थ

    (उपस्तुता) महत्त्व-वर्णन द्वारा प्रशंसा किये गये, (नूनम्) निश्चय ही (इह) इस शरीर में (अन्ति) समीप होकर (गमिष्ठा) अतिशय गमन-आगमन करनेवाले (अश्विना) प्राणापान (संस्कृतम्) संस्कृत जीवन-यज्ञ की (न प्र मिमीतः) हिंसा नहीं करते हैं। (दिवा अभिपित्वे) दिन के प्राप्त होने पर अर्थात् प्रातःकाल (अवसा) रक्षा के साथ (आगमिष्ठा) आनेवाले प्राणापान (अवर्तिम्) आधि, व्याधि, दुर्गति, दुर्बलता आदि को (प्रति) रोक कर (दाशुषे) हवि देनेवाले अग्निहोत्री के लिए (शम्भविष्ठा) अतिशय सुख देनेवाले होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    भली-भाँति सेवित प्राणापान रोग आदि के पाशों से मनुष्य का उद्धार करके उसे दीर्घायु करते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (उपस्तुता-अश्विना) पास से स्तुत किया गया ज्योतिःस्वरूप एवं आनन्दरसरूप परमात्मा (संस्कृतं न प्रमिमीतः) सम्पन्न अध्यात्मयज्ञ को हिंसित नहीं करता है अपितु बढ़ाता रक्षित करता है (इह) इस अध्यात्मयज्ञ में (अन्ति नूनं गमिष्ठा) समीप—आन्तरिक भाव से निश्चय प्राप्त होने वाला है (दिवा-अभिपित्वे) दिन के अभिप्राप्त—उभयतः प्राप्त—प्रातःकाल और सायंकाल में (अवसा) रक्षण साधन से (आगमिष्ठा) समन्तरूप से प्राप्त होने वाला है (अवति प्रति) वृत्तिरहित चित्त को लक्ष्य कर (दाशुषे) समर्पित करने वाले उपासक के लिये (शम्-भविष्ठा) कल्याणरूप होने वाला है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    मोक्ष की ओर

    पदार्थ

    ब्रह्मचर्य में- [गाव इन्द्रियाणि] (गमिष्ठा) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता प्राणापानो! आप मेरे जीवन के प्रारम्भिक काल में (संस्कृतम्) = संस्कार को, परिमार्जन को (न प्रमिमीत:) = हिंसित नहीं करते हो । प्राणापानों के संयम से इन्द्रियों का संयम होता है । इस प्राणापान की साधना से परिमार्जन व शोधन की प्रक्रिया चलती ही रहती है। प्राणापान की साधना से इन्द्रियों के दोष दूर होते हैं और इस प्रकार शरीर, मन व बुद्धि का संस्कार होता रहता है । इस संस्कार की प्रक्रिया को मेरे प्राणापान कभी समाप्त न करें। ब्रह्मचर्याश्रम में ब्रह्मचारी ने इस प्राणसाधना से अपने जीवन को अधिकाधिक उत्तम बनाना है।

    गृहस्थ – अब गृहस्थ में प्रवेश करने पर मन्त्र का ऋषि कहता है कि ' अश्विना' = हे अश्विनीदेवो! (इह) = इस गृहस्थ में (नूनम्) = निश्चय से (अन्ति) = सदा उस प्रभु के समीप स्थित होकर (उपस्तुता) = उसकी उपासना करनेवाले बनो । यदि गृहस्थ सदा प्रभु की उपासना करता है तो जहाँ अपवित्रता से दूर रहता है, वहाँ अपने अन्दर एक शक्ति का अनुभव करता है ।

    वानप्रस्थ- अब गृहस्थ के पश्चात् (दिवा) = जीवन के दिन के (अभिपित्वे) = प्रस्थान के समय, अर्थात् जीवन ढलने, जीवन के उत्तरार्ध में प्रवेश करने पर (अश्विना) = हे अश्विनीदेवो! आप अपने (अवसा) = रक्षण के साथ (आगमिष्ठा) = हमें प्राप्त होओ। इस समय हमें निर्बल समझकर वासनाएँ हमारा अभिभव न कर लें । वासनाओं का शिकार न होकर हम अपने जीवन को सुरक्षित रख सकें ।

    संन्यास – यदि वानप्रस्थ में एक व्यक्ति अपने को प्राणापान की साधना के प्रति दे डालता है तो ये प्राणापान (दाशुषे) = इस दाश्वान् के लिए (अवर्तिम् प्रति) = फिर इस जन्म-मरण चक्र में न लौटने के लिए (शंभविष्ठा) = अत्यन्त शान्ति का भावन करनेवाले होते हैं । वानप्रस्थ में मुख्य कार्य प्राणायाम होता है। संन्यास में यह व्यक्ति अपने को लोकहित के लिए दे डालता है। यही कार्य इसके जीवन की पूर्ण शान्ति का कारण बनता है और जीवन की समाप्ति पर यह मोक्ष का भागी होता है । (अवर्तिम्) = फिर न लौटना – फिर जन्म न प्राप्त करना ही तो मोक्ष है। इस मार्ग से जीवन-यापन करने से यह व्यक्ति 'परान्तकाल' के लिए जन्म-मरण चक्र से ऊपर उठ जाता है । यह सचमुच जन्म मरण का 'संन्यास' कर देता है ।

    भावार्थ

    जीवन का संस्कार, प्रभु-स्तवन, आसुरी आक्रमणों से अपनी रक्षा तथा शान्त जीवन और मोक्ष का क्रमिक आविर्भाव हमारे जीवन में हो । 
     

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (उपस्तुता) प्रशंसनीय ! आदर योग्य ! हे (अश्विनौ) अश्विगण प्राण और अपान ! या स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (अन्ति) अत्यन्त समीप (गमिष्ठा) प्राप्त होने हारे (संस्कृतं) उत्तम रूप से तैयार किये इस ब्रह्मरस को (न प्रमिमीते) विनाश नहीं करते। प्रत्युत (दिवा अभिपित्वे) प्रकाश या दीप्ति के प्राप्तिकाल में आप दोनों (अवसा) अपने पालक बल सहित (आगमिष्टा) अवश्य प्राप्त होते हो और (दाशुषे) अपने को समर्पण करने हारे आत्मा के (अवर्ति प्रति) पुनः जीवन में लौट कर न आने अर्थात् मुक्त हो जाने के निमित्त (शम्भविष्टा) कल्याणकारी होते हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्राणापानयोर्महत्त्वमुच्यते।

    पदार्थः

    (उपस्तुता) उपस्तुतौ, महत्त्ववर्णनेन प्रशंसितौ (नूनम्) निश्चयेन (इह) अस्मिन् देहे (अन्ति) अन्तिके (गमिष्ठा) अतिशयेन कृतगमनागमनौ (अश्विना) प्राणापानौ (संस्कृतम्) कृतसंस्कारं जीवनयज्ञम् (न प्र मिमीतः) न प्र हिंस्तः। [माङ् माने शब्दे च जुहोत्यादिः प्रपूर्वोऽत्र हिंसाया वर्तते परस्मैपदं व्यत्ययेन।] (दिवा अभिपित्वे) दिवसे प्राप्ते, प्रातःकाले इत्यर्थः (अवसा) रक्षणेन सह (आगमिष्ठा) आगमिष्ठौ अतिशयेन आगन्तारौ प्राणापानौ (अवर्तिम्) आधिव्याधिदुर्गतिदुर्बलतादिकम् (प्रति) प्रतिरुध्य (दाशुषे) हविर्दत्तवते अग्निहोत्रिणे (शं भविष्ठा) अतिशयेन सुखस्य भावयितारौ, जायेते इति शेषः। [गमिष्ठा, अश्विना इत्यादौ सर्वत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इत्यनेन प्रथमाद्विवचनस्याकारादेशः] ॥२॥२

    भावार्थः

    सम्यक् सेवितौ प्राणापानौ मनुष्यं रोगादिपाशेभ्य उद्धृत्य दीर्घायुषं कुरुतः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In this spiritual sacrifice, O Ashwins, the forces of knowledge and determination, verily Ye destroy not the refined bliss of God, near at hand. On the dawn of the light of learning. Ye assert yourselves with full force, and conduce to the betterment of the self-abnegating soul !

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    Meaning

    Ashvins, divinities of nature and humanity, most auspicious harbingers of peace and joy, invoked and invited to the yajna here, celebrated and adored, coming at the fastest, almost instantly reaching with protection and promotion at the rise of the day, you do not destroy, nor restrict, nor confine what has been refined, seasoned and sanctified by yajna. In fact, you bring safety and security against adversity and self-betrayal for the generous yajamana at his closest. (Rg. 5-76-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उपस्तुता अश्विना) નિકટથી સ્તુતિ કરેલ જ્યોતિ સ્વરૂપ અને આનંદરસરૂપ પરમાત્મા (संस्कृतं न प्रमिमीतः) સંપન્ન અધ્યાત્મયજ્ઞને હિંસિત કરતો નથી પણ વધારે-રક્ષિત કરે છે (इह) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (अन्ति नूनं गमिष्ठा) સમીપ-આન્તરિક ભાવથી નિશ્ચય પ્રાપ્ત થનાર છે. (दिवा अभिपित्वे) દિવસ નીકળતાં જ પ્રાપ્ત-બન્ને પ્રાપ્ત પ્રાતઃકાલ અને સાયંકાલમાં (अवसा) રક્ષણ સાધનથી (आगमिष्ठा) સમગ્રરૂપથી પ્રાપ્ત થનાર છે. (अवति प्रति) વૃત્તિ રહિત ચિત્તને લક્ષ્ય કરીને (दाशुषे) સમર્પિત કરનારા ઉપાસકોને માટે (शम् भविष्ठा) કલ્યાણકારી થનાર છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चांगल्या प्रकारे किंवा योग्य तऱ्हेने केलेले प्राण व अपान रोगाच्या पाशातून माणसाचा उद्धार करून त्याला दीर्घायू प्रदान करतात. ॥२॥

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