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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1759
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
29
य꣢द्यु꣣ञ्जा꣢थे꣣ वृ꣡ष꣢णमश्विना꣣ र꣡थं꣢ घृ꣣ते꣡न꣢ नो꣣ म꣡धु꣢ना क्ष꣣त्र꣡मु꣢क्षतम् । अ꣣स्मा꣢कं꣣ ब्र꣢ह्म꣣ पृ꣡त꣢नासु जिन्वतं व꣣यं꣢꣫ धना꣣ शू꣡र꣢साता भजेमहि ॥१७५९॥
स्वर सहित पद पाठयत् । यु꣣ञ्जा꣢थे꣢इ꣡ति꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णम् । अ꣣श्विना । र꣡थ꣢꣯म् । घृ꣣ते꣡न꣢ । नः꣣ । म꣡धु꣢꣯ना । क्ष꣣त्र꣢म् । उ꣣क्षतम् । अस्मा꣡क꣢म् । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । पृ꣡त꣢꣯नासु । जि꣣न्वतम् । वय꣢म् । ध꣡ना꣢꣯ । शू꣡र꣢꣯साता । शू꣡र꣢꣯ । सा꣣ता । भजेमहि ॥१७५९॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतम् । अस्माकं ब्रह्म पृतनासु जिन्वतं वयं धना शूरसाता भजेमहि ॥१७५९॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । युञ्जाथेइति । वृषणम् । अश्विना । रथम् । घृतेन । नः । मधुना । क्षत्रम् । उक्षतम् । अस्माकम् । ब्रह्म । पृतनासु । जिन्वतम् । वयम् । धना । शूरसाता । शूर । साता । भजेमहि ॥१७५९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1759
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में प्राणापान से चालित शरीर-रथ का विषय है।
पदार्थ
हे (अश्विना) प्राणापानो ! (यत्) जब, तुम (वृषणम्) बलवान् (रथम्) शरीर-रथ को (युञ्जाथे) चलने के लिए नियुक्त करते हो तब (नः) हमारे (क्षत्रम्) क्षात्रबल को (घृतेन) तेज से और (मधुना) माधुर्य से (उक्षतम्) सींचो (अस्माकम्) हम वीरों की (पृतनासु) सेनाओं में (ब्रह्म) ब्रह्मबल को (जिन्वतम्) प्रेरित करो। (वयम्) हम वीर (शूरसाता) देवासुरसङ्ग्राम में (धना) दिव्य और भौतिक ऐश्वर्यों को (भजेमहि) प्राप्त करें ॥२॥
भावार्थ
क्षत्रियों में केवल क्षात्रबल ही नहीं, प्रत्युत ब्रह्मबल भी अपेक्षित होता है। वैसे ही ब्राह्मणों में ब्रह्मबल के अतिरिक्त क्षात्रबल भी अभीष्ट होता है। दोनों के समन्वय से ही व्यक्तियों और राष्ट्रों की उन्नति होती है ॥२॥
पदार्थ
(अश्विना) हे ज्योतिःस्वरूप एवं आनन्दरसरूप परमात्मन्! (यम्-वृषणं रथं युञ्जाथे) जब संसार रथ से भिन्न मन रथ४ रमण स्थान को—में युक्त होता है (नः) हमारे लिये (मधुना घृतेन क्षत्रम्-उक्षतम्) मधुर तेज से ओज५ आत्मबल को सींचता है (अस्माकम् ‘अस्मासु’ पृतनासु ब्रह्म जिन्वतम्) हम उपासकजनों में६ अमृत७ को प्रेरित कर (शूरसाता वयं धना भजेमहि) बलवान्—प्रबल कामादि संघर्ष८ में अध्यात्मधनों—शम-दम आदि को भजें—सेवन करें॥२॥
विशेष
<br>
विषय
शक्तिशाली रथ
पदार्थ
(यत्) = जब (अश्विना) = प्राणापान (वृषणं रथम्) = शक्तिशाली रथ को युञ्जाथे जोतते हैं, तब (न:) = हमारे (क्षत्रम्) = बल को (घृतेन) = दीप्ति से [घृ= दीप्ति] (मधुना) = और माधुर्य से (उक्षतम्) = सींचते हैं । प्राणापान की साधना से शरीर शक्तिशाली बनता है - और हमारी शक्ति ज्ञान की दीप्ति तथा वाणी के माधुर्य से परिपूर्ण होती है । दण्ड-बैठकों व कुश्ती से उत्पन्न शक्ति में ज्ञान की दीप्ति का तो प्राय: अभाव ही है, वाणी का माधुर्य भी कम ही मिलता है । यह प्राणापान की साधना से जनित शक्ति ज्ञान व माधुर्य से सिक्त होती है।
ज्ञान का प्रचार – यह प्राणोपासक दीर्घतमा चाहता है कि वह ज्ञान का प्रकाश औरों को भी दे पाये अतएव वह प्राणापान को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि (अस्माकम्) = हमारे (ब्रह्म) = ज्ञान को (पृतनासु) = मनुष्यों में (जिन्वतम्) = दो | हमारे ज्ञान के द्वारा मनुष्य प्रीणित हों। ।
वीर-धन—यह प्राणोपासक यह भी चाहता है कि (वयम्) = हम (शूरसाता) = शूरों से सम्भजनीय (धना) = धनों का (भजेमहि) = सेवन करें। यह कभी माँगे हुए धन के द्वारा अपना पोषण नहीं करना चाहता । इसे पुरुषार्थ प्राप्त धन ही अपने गौरव के योग्य प्रतीत होता है । यह धन मनुष्य को अशक्त नहीं बनाता । यदि मनुष्य अशक्त हो जाए तो अपनी यात्रा को क्या पूरा करेगा? एवं, सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो शक्ति की प्राप्ति है। ‘इस रथ को दुर्बल नहीं होने देना' ही हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है।
भावार्थ
मैं प्राणोपासक बनूँ । परिणामत: ‘शक्ति, ज्ञान, माधुर्य तथा वीर-धनों को प्राप्त करके ज्ञान का प्रचार करूँ ।'
विषय
missing
भावार्थ
हे (अश्विना) प्राण और अपान आप दोनों (यत्) जब (वृषणं) सुखों के वर्षक (रथे) रमणसाधन, चित्त या आत्मरूप रथ को (युञ्जाथे) योगाभ्यास द्वारा समाहित करते हो तब आप (नः) हमारे (क्षत्रम्) प्रेरक आत्मा को (घृतेन) देदीप्यमान तेज से (उक्षतम्) सेचन करते हो और (अस्माकं) हमारे (पृतनासु) विषयों को ग्रहण करने हारी इन्द्रियवृत्तियों में (ब्रह्म) विशेष सत्य संवित् ज्ञान को (जिन्वतं) उत्पन्न करते हो और (वयं) हम (शूरसातौ) आत्मज्ञान की प्राप्ति में (धना) नाना दिव्य ज्ञानों को (भजेमहि) प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्राणापानचालितस्य देहरथस्य विषयमाह।
पदार्थः
हे (अश्विना) प्राणापानौ ! (यत्) यदा, युवाम् (वृषणम्) बलवन्तम् (रथम्) देहशकटम् (युञ्जाथे) गमनाय नियुक्तं कुरुथः, तदा (नः) अस्माकम् (क्षत्रम्) क्षात्रबलम् (घृतेन) तेजसा (मधुना) माधुर्येण च (उक्षतम्) सिञ्चतम्। (अस्माकम्) वीराणां नः (पृतनासु) सेनासु (ब्रह्म) ब्रह्मबलम् (जिन्वतम्) प्रेरयतम्। (वयम्) वीराः (शूरसाता) शूरसातौ देवासुरसंग्रामे। [शूरसातौ इति संग्रामनामसु पठितम्। निघं० २।१७।] (धना) धनानि दिव्यानि भौतिकानि चैश्वर्याणि (भजेमहि) प्राप्नुयाम ॥२॥२
भावार्थः
क्षत्रियेषु केवलं क्षात्रबलमेव न प्रत्युत ब्रह्मबलमप्यपेक्ष्यते। तथैव ब्राह्मणेषु ब्रह्मबलातिरिक्तं क्षात्रबलमप्यभीष्टं भवति। उभयोः समन्वयेनैव व्यक्तीनां राष्ट्राणां चोन्नतिर्जायते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Ashwins, (Prana and Apana) when Ye concentrate on God through Yoga, the soul, the- showerer of joy. Ye then fill our soul with blazing beauty, and create true consciousness in our organs, and we through soul’s knowledge, acquire diverse sorts of wonderful learning!
Meaning
Ashvins, harbingers of new light and life, chariot leaders of the world, you harness and ride your chariot of might and victory and sprinkle and inspire the Kshatra order of our defence and governance with exciting spirit of life and honey sweets of power and prosperity. In our struggle for the joy of life, inspire and strengthen our Brahma system of research and education with new knowledge and self-confidence. We pray, may we achieve the prize of success and victory in our battles of the brave. (Rg. 1-157-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अश्विना) હે જ્યોતિ સ્વરૂપ અને આનંદરસરૂપ પરમાત્મન્ ! (यम् वृषणं रथं युञ्जाथे) જ્યારે સંસા૨૨થથી ભિન્ન મનરથ રમણ સ્થાનને-સ્થાનમાં યુક્ત-જોડાય છે. (नः) અમારે માટે (मधुना घृतेन क्षत्रम् उक्षतम्) મધુર તેજથી ઓજ-આત્મબળને સિંચે છે. (अस्माकम् "अस्मासु" पृतनासु ब्रह्म जिन्वतम्) અમે ઉપાસકજનોમાં અમૃતને પ્રેરિત કર (शूरशाता वयं धना भजेमहि) બળવાન-પ્રબળ કામ આદિના સંઘર્ષમાં અધ્યાત્મધનો-શમ, દમ આદિને ભજીએ-સેવન કરીએ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
क्षत्रियांमध्ये केवळ क्षात्रबलच नाही तर ब्रह्मबलही अपेक्षित असते, तसेच ब्राह्मणामध्येही क्षात्रबल ही अभिष्ट आहे. दोघांच्या समन्वयानेच व्यक्ती व राष्ट्र यांची उन्नती होते. ॥२॥
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