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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1760
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    39

    अ꣣र्वा꣡ङ्त्रि꣢च꣣क्रो꣡ म꣢धु꣣वा꣡ह꣢नो꣣ र꣡थो꣢ जी꣣रा꣡श्वो꣢ अ꣣श्वि꣡नो꣢र्यातु꣣ सु꣡ष्टु꣢तः । त्रि꣣वन्धुरो꣢ म꣣घ꣡वा꣢ वि꣣श्व꣡सौ꣢भगः꣣ शं꣢ न꣣ आ꣡ व꣢क्षद्द्वि꣣प꣢दे꣣ च꣡तु꣢ष्पदे ॥१७६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣र्वा꣢ङ् । त्रि꣣चक्रः꣢ । त्रि꣣ । चक्रः꣢ । म꣣धुवा꣡ह꣢नः । म꣣धु । वा꣡ह꣢꣯नः । र꣡थः꣢꣯ । जी꣣रा꣡श्वः꣢ । जी꣣र꣢ । अ꣣श्वः । अश्वि꣡नोः꣢ । या꣣तु । सु꣡ष्टु꣢꣯तः । सु । स्तु꣣तः । त्रिवन्धुरः꣢ । त्रि꣣ । वन्धुरः꣢ । म꣣घ꣡वा꣢ । वि꣣श्व꣡सौ꣢भगः । वि꣣श्व꣡ । सौ꣣भगः । श꣢म् । नः꣣ । आ꣢ । व꣣क्षत् । द्विप꣡दे꣢ । द्वि꣣ । प꣡दे꣢꣯ । च꣡तु꣢꣯ष्पदे । च꣡तुः꣢꣯ । प꣣दे ॥१७६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वाङ्त्रिचक्रो मधुवाहनो रथो जीराश्वो अश्विनोर्यातु सुष्टुतः । त्रिवन्धुरो मघवा विश्वसौभगः शं न आ वक्षद्द्विपदे चतुष्पदे ॥१७६०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वाङ् । त्रिचक्रः । त्रि । चक्रः । मधुवाहनः । मधु । वाहनः । रथः । जीराश्वः । जीर । अश्वः । अश्विनोः । यातु । सुष्टुतः । सु । स्तुतः । त्रिवन्धुरः । त्रि । वन्धुरः । मघवा । विश्वसौभगः । विश्व । सौभगः । शम् । नः । आ । वक्षत् । द्विपदे । द्वि । पदे । चतुष्पदे । चतुः । पदे ॥१७६०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1760
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अश्विनोः) प्राणापानों का (त्रिचक्रः) आत्मा, मन और प्राण इन तीन चक्रोंवाला, (मधुवाहनः) मधुर गतिवाला, (जीराश्वः) वेगवान् इन्द्रिय-रूप घोड़ोंवाला, (सुष्टुतः) सुप्रंशसित, (त्रिबन्धुरः) सत्त्व, रजस्, तमस् इन तीन बन्धनोंवाला, (मघवा) ब्रह्मबल और क्षात्रबल रूप धनवाला, (विश्वसौभगः) सब सौभाग्यों से युक्त (रथः) देह-रूप रथ (अर्वाङ्) हमारे अनुकूल (यातु) चले। साथ ही (नः) हमारे (द्विपदे) दोपायों और (चतुष्पदे) चौपायों को (शम्) सुख (आवक्षत्) प्राप्त कराये ॥३॥

    भावार्थ

    प्राणापानों के ही सामर्थ्य से मनुष्यों का शरीर-रथ सबल, सफल क्रियावाला, सज्जनों का हितकारी, गाय-घोड़े आदि उपयोगी पशुओं को सुख देनेवाला और दुष्टों का विध्वंस करनेवाला होता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अश्विनोः) ज्योतिःस्वरूप एवं आनन्दरसरूप परमात्मा का (मधुवाहनः) आत्मा को९ वहन करनेवाला (त्रिचक्रः) तीन तृप्तियोंवाला—कर्मेन्द्रियों ज्ञानेन्द्रियों और मन की तृप्ति करनेवाला१० (जीराश्वः) क्षिप्र शीघ्र व्यापन शक्तिवाला (रथः) रमणीयस्वरूप (सुष्टुतः) सम्यक् प्रशंसनीय (अर्वाङ्यातु) हमारी ओर गति करे—हमें प्राप्त हो (त्रिबन्धुरः) तीन बन्धनवाला—स्तुति प्रार्थना उपासना हैं बान्धनेवाले जिसके ऐसा (मघवा) ऐश्वर्यवान् (विश्वसौभगः) सारे सौभाग्य जिसमें हैं जिससे प्राप्त होते हैं ऐसा (नः) हमारे लिये (शम्-आवक्षत्) कल्याण वहन करे—प्राप्त करावे (द्विपदे चतुष्पदे) दो पैरवाले के लिये चार पैरवाले के लिये भी॥३॥

    विशेष

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    विषय

    मधुवाहन रथ

    पदार्थ

    अन्तर्मुख यात्रा- - यह (अश्विनो:) = प्राणापानों का (रथः) = शरीररूप रथ (अर्वाङ्) = अन्तर्मुख यात्रावाला (यातु) = अपने लक्ष्य-स्थान को प्राप्त करे । सामान्यतः रथ किसी बाह्य लक्ष्य की ओर तीव्र गति से आगे चले जाते दिखते हैं, परन्तु इस शरीररूप रथ की यात्रा तो अन्तर्मुख होती है । इसने सबसे अन्दर गुहा में स्थित — आनन्दमयकोश में विराजमान उस आत्मतत्त्व के दर्शन करने हैं । 

    तीन पहिये – (त्रिचक्र:) = कर्म, ज्ञान व उपासना—ये तीन इस रथ के चक्र हैं। किसी एक के भी अभाव में इसकी गति समाप्त हो जाती है ।

    माधुर्य — यह शरीररूपी रथ (मधुवाहनः) = माधुर्य के बोझ को ढोनेवाला है। यह माधुर्य-हीमाधुर्य को स्थानान्तर में सदा प्राप्त कराता है। प्रभु ने यात्रा के प्रारम्भ में यही तो कहा था ('भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुष:') , अतः हमें भद्र ही शब्द बोलने चाहिएँ ।

    (जीराश्वः) = यह रथ अत्यन्त तीव्र गतिवाले इन्द्रियरूप घोड़ों से जुता है (सुष्टुतः) = [शोभनं सुतं यस्मिन्] यह सदा प्रभु की उत्तम स्तुतिवाला हो । (त्रिबन्धुरः) = यह 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप तीन सीटोंवाला है। कभी-कभी असुरों का आक्रमण होने पर ये ही तीन असुरों के तीन दुर्ग बन जाते हैं। इनका संहार देवों के देव महादेव की कृपा से ही होता है । (मघवा) = यह रथ जब प्राण - साधना द्वारा आसुर वृत्तियों से सुरक्षित होता है तब यह पापशून्य ऐश्वर्यवाला होता है । (विश्वसौभगः) = उस समय यह सब सौन्दर्योंवाला होता है ।

    (न:) = हमारा यह रथ (द्विपदे चतुष्पदे) = दोपाये व चौपाये, अर्थात् मनुष्य व तद्भिन्न सभी प्राणियों के लिए शम्= शान्ति को (आवक्षत्) = प्राप्त कराये ।

    भावार्थ

    प्रभु के आदेश के अनुसार हम अपने इस रथ को ‘मधु-वाहन' बनाएँ, मधुर ही बोलें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (अश्विनोः) उन प्राण और अपान का (त्रिचक्रः) तीन चक्रों से युक्त (मधुवाहनः) अमृत=‘ओ३म्’ अथवा एकमात्र वहन करने हारे आत्मारूप अश्व से युक्त (जीराश्वः) बहुत प्राचीन सनातन अमर अविनाशी अश्व अर्थात् आत्मा से युक्त (सुस्नुतः) उत्तमरूप से वर्णित किया गया रथ (अर्वाङ्) साक्षात् रूप से (यातु) गति करता है। (मघवा) वह ज्ञानवान् योगी आत्मा रथरूप, (त्रिबन्धुरः) तीन प्रकार के सारथिपीठों या बन्धनों से युक्त है और उनमें आत्मा मन और इन्द्रिय या तीन गुण या वात, पित्त, कफ आदि तीन धातु ये तीन ही प्रकार के सारथि या बन्धन के हेतु हैं। और वह (विश्वसौभगः) समस्त संसार को सौभाग्य या सुखैश्वर्य का देने द्वारा अथवा समस्त संसार के सब उत्तम ऐश्वर्यों को सिद्ध करने हारा होकर (नः) हमारे (द्विपदे) समस्त मनुष्य संसार और (चतुष्पदे) पशु संसार को (शं) कल्याण (आवक्षत्) करे । इसी सनातन अश्व के पीछे लगे रथ की कल्पना को प्रकारान्तर से श्वेताश्वतर उपनिषद में इस प्रकार बतलाया है:— सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद् उ अनड्वान्। एवं स देवो भगवान् वरेण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः॥ स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा प्रारणाधिपः संचरति स्वकर्मभिः। अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः संकल्पाहंकारसमन्वितेा यः॥ इसी प्रकार मुण्डक में— ‘दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः। मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं संनिधाय। तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद् विभाति।' इत्यादि॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अश्विनोः) प्राणापानयोः (त्रिचक्रः) त्रीणि आत्ममनःप्राणरूपाणि चक्राणि यस्मिन् सः, (मधुवाहनः) मधुरगतिः, (जीराश्वः) जीराः वेगवन्तः अश्वाः इन्द्रियरूपा यस्मिन् सः। [जीराः इति क्षिप्रनामसु पठितम्। निघं० २।१५।] (सुष्टुतः) सुप्रशंसितः, (त्रिबन्धुरः) त्रयः सत्त्वरजस्तमोरूपाः बन्धुराः बन्धाः यस्मिन् सः, (मघवा) ब्रह्मक्षत्ररूपधनः, (विश्वसौभगः) अखिलसौभाग्योपेतः (रथः) देहशकटः (अर्वाङ्) अस्मदनुकूलम् (यातु) चलतु। किञ्च (नः) अस्माकम् (द्विपदे) मनुष्याद्याय (चतुष्पदे) गवाद्याय च (शम्) सुखम् (आ वक्षत्) आवहतु। [वहेर्लेटि सिबडागमौ] ॥३॥२

    भावार्थः

    प्राणापानयोरेव सामर्थ्येन मनुष्याणां शरीररथः सबलः सफलक्रियः सज्जनानां हितावहो गवाश्वादीनामुपयोगिनां पशूनां सुखकरो दुष्टानां विध्वंसकरश्च जायते ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The three wheeled chariot of Prana and Apana, yoked with Om, and immemorial, immortal soul, highly praised in the Vedas, moves manifestly. May the learned and concentrated soul, the giver of prosperity to mankind, with its three charioteers, bring weal to our bipeds and quadrupeds.

    Translator Comment

    $ There wheeled: Jagrat (Waking), Swapan (sleeping) and Sushupti (Intense sleep) stages of the soul. Three charioteers of the soul are Ida, Pingala and Sushumna Veins, or Satva. Rajas, Tamas conditions of the soul, or three humours. Vata वात (Wind), Pitta पित्त (Bile), Kaph कफ (Phlegm).

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    Meaning

    Here, may the three engined, three staged, honey carrier, super fast chariot of the Ashvins come, the chariot all-acclaimed, mighty, laden with wealth and splendours of the world, and may that chariot, we pray, bring us peace, prosperity and well-being for our humans and for our animal world. (Rg. 1-157-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अश्विनोः) જ્યોતિસ્વરૂપ અને આનંદરસરૂપ પરમાત્માના (मधुवाहनः) આત્માને વહન કરનાર, (त्रिचक्रः) ત્રણ તૃપ્તિઓ વાળા-કર્મેન્દ્રિયો, જ્ઞાનેન્દ્રિયો અને મનને તૃપ્તિ કરનાર, (जीराश्वः) ક્ષીપ્ર-શીઘ્ર વ્યાપન શક્તિવાળા, (रथः) ૨મણીય સ્વરૂપ (सुष्टुतः) સમ્યક્ પ્રશંસનીય, (अर्वाङ्यातु) અમારી તરફ ગતિ કરેઅમને પ્રાપ્ત થાય. (त्रिबन्धुरः) ત્રણ બંધનવાળા સ્તુતિ, પ્રાર્થના અને ઉપાસના છે બાંધનારા જેના એવા (मघवा) ઐશ્વર્યવાન (विश्वसौभगः) સમસ્ત સૌભાગ્ય જેમાં છે જેનાથી પ્રાપ્ત થાય છે એવા (नः) અમારે માટે (शम् आवक्षत्) કલ્યાણનું વહન કરે-પ્રાપ્ત કરાવે (द्विपदे चतुष्पदे) બે પગા અને ચોપગાને માટે પણ [પ્રાપ્ત કરાવે.] (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राण अपानच्या सामर्थ्यानेच माणसांचा शरीर-रथ सबल, सफल, क्रियायुक्त सज्जनांचा हितकारक, गाय घोडे इत्यादी उपयोगी पशूंना सुख देणारा व दुष्टांचा विध्वंस करणारा असतो. ॥३॥

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