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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1808
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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    अ꣢त्रा꣣ वि꣢ ने꣣मि꣡रे꣢षा꣣मु꣢रां꣣ न꣡ धू꣢नुते꣣ वृ꣡कः꣢ । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥१८०८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡त्र꣢꣯ । वि । ने꣣मिः꣢ । ए꣣षाम् । उ꣡रा꣢꣯म् । न । धू꣡नुते । वृ꣡कः꣢꣯ । दि꣡वः꣢꣯ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥१८०८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्रा वि नेमिरेषामुरां न धूनुते वृकः । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥१८०८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र । वि । नेमिः । एषाम् । उराम् । न । धूनुते । वृकः । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो । दिवा । वसो ॥१८०८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1808
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में उपासक फिर परमेश्वर को निमन्त्रण दे रहा है।

    पदार्थ

    (वृकः) सूर्य (उरां न) जैसे अन्धकार से ढकनेवाली रात्रि को (वि धूनुते) विकम्पित करता है, वैसे ही (अत्र) इस देह-पुरी में (एषाम्) इन मरुतों अर्थात् प्राणों का (नेमिः) नेता जीवात्मा (उराम्) आच्छन्न करनेवाली अविद्या-रूपिणी रात्रि को (वि धूनुते) विकम्पित करता है। उस (दिवः) देह-पुरी के (शासतः) शासक (अमुष्य) इस जीवात्मा की (दिवम्) तेजोमयी देह-पुरी में, हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! आप (यय) आओ ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है। दिवो, दिवं, दिवा में वृत्त्यनुप्रास है ॥२॥

    भावार्थ

    सूर्य के समान तेजस्वी जीवात्मा जहाँ स्थित होता हुआ अज्ञान, पाप आदि की रात्रि का विदारण करता है, वह देह-पुरी निश्चय ही प्रशंसायोग्य और परमात्मा के निवासयोग्य है ॥२॥

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    पदार्थ

    (अत्र) इस अध्यात्मयज्ञ में (एषां नेमिः) परमात्मन्! इन हरियों अज्ञान पाप हरने वाली शक्तितरङ्गों की नयनप्रवृत्ति५ गतिविधि (उरां न) ऊन के लिये भेड़ को जैसे (वृकः-धूनुते) भेड़िया विकम्पित कर देता है—निःसत्त्व बना देता है ऐसे पापवासना६ को विकम्पित कर देता है—निःसत्त्व बना देता है७ (दिवावसो) हे प्रकाश धन वाले या प्रकाश में वसाने वाले परमात्मन्! (अमुष्य दिवः शासतः) उस प्रकाशमय अमृतलोक मोक्षधाम के शासन करते हुए के अपने (दिवं यय) प्रकाशमय अमृतधाम को मुझ उपासक को ले-जा॥२॥

    विशेष

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    विषय

    मर्यादामय जीवन

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘नीपातिथि'=[नीप deep] सदा गहराई की ओर चलनेवाला है, जो विषयों की आपातरमणीयता से आकृष्ट नहीं होता, अपितु उनके तत्त्व तक पहुँचकर अपने को कभी उनका शिकार नहीं होने देता । (एषाम्) = इन नीपातिथि-जैसे व्यक्तियों की (अत्र) = इस मानवजीवन में (वि) = विशिष्ट (नेमिः) = मर्यादा होती है। ये नेमिवृत्ति होते हैं । वेदोपदिष्ट मार्ग से कभी विचलित नहीं होते । प्रत्येक क्षेत्र में इनका जीवन एक विशिष्ट मर्यादा को तोड़ नहीं देता । वासनाओं को तो ये (वि-धूनुते) = उस प्रकार विशेषरूप से कम्पित करके दूर फेंक देते हैं (न) = जैसे कि (वृकः) = भेड़िया (उराम्) = भेड़ को । भेड़िया भेड़ को नष्ट कर देता है— नीपातिथि निकृष्ट भावों को नष्ट करता है ।

    यह दिवावसु = ज्ञानरूप धनवाला बनता है और अपना आत्मोद्बोधन करता हुआ कहता है कि
    (दिवावसो) = हे दिवावसो ! (दिवः) = ज्ञानमय अमुष्य उस शासतः = सारे ब्रह्माण्ड के शासक प्रभु के (दिवं यय) = प्रकाशमय लोक को तू प्राप्त कर । 

    भावार्थ

    वासना का क्षय ही प्रभु प्राप्ति का साधन है।

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    विषय

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    भावार्थ

    (वृकः) भेड़िया (उतरां न) जिस प्रकार भेड़ को (धुनुते) धुन देता है, भय से कंपित करता है उसी प्रकार (एषां) इन प्राणों का (नेभिः) नमन करने हारा वश करने हारा, आत्मा भी उस (उरां) चित्तिशक्ति को (विधूनुते) अपने बल से प्रचलित करता है। (दिवः) प्रकाशमान, प्रकाशस्वरूप, विश्व में रमण या क्रीड़ा करने हारे (शासतः) शासक रूप (अमुष्य) इस परमात्मा के (दिवः) ज्योतिर्मय ज्ञान को हे (दिवावसो) ज्योतिरूप प्रकाश में वास करने हारे जीवात्मन् ! तू (यय) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरप्युपासकेन परमेश्वरो निमन्त्र्यते।

    पदार्थः

    (वृकः) आदित्यः (उरां न) यथा तमसा आच्छादिकां रात्रिम् (वि धूनुते) विकम्पयति, तथा (अत्र) अस्या देहपुर्याम् (एषाम्) एतेषां मरुतां प्राणानाम् (नेमिः) नेता जीवात्मा (उराम्) आच्छादिकाम् अविद्यारात्रिम् (वि धूनुते) विकम्पयति। तस्याः (दिवः) देहपुर्याः (शासतः) शासकस्य (अमुष्य) अस्य जीवात्मनः (दिवम्) द्योतमानां देहपुरीम्, हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! त्वम् (यय) आयाहि। [वृकः, ‘आदित्योऽपि वृक उच्यते, यदावृङ्क्ते।’ निरु० ५।२१। उराम्, ऊर्णोति तमसा आच्छादयति भुवम् आकाशं च या सा उरा रात्रिः। नेमिः, णीञ् प्रापणे, ‘नियो मिः’ उ० ४।४४ इति मिः प्रत्ययः। नयतीति नेमिः नेता] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः। दिवो, दिवं, दिवा इत्यत्र वृत्त्यनुप्रासः ॥२॥

    भावार्थः

    सूर्य इव तेजस्वी जीवात्मा यत्र स्थितः सन्नज्ञानपापादिरात्रिं विदृणाति सा देहपुरी नूनं प्रशंसनीया परमात्मनिवासयोग्या च ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    lust as a wolf shakes with terror a sheep, so does the soul subduing these breaths control the mind. O soul, thou dweller in happiness, attain to the knowledge of this God, the Refulgent Lord!

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    Meaning

    Here the very edge and foundation of these sages of knowledge and wisdom would shake you and reveal you to yourself as thunder shakes the earth and lightning lights it up all over. And then from the light and thunder of these commanders you would rise, liberated, to your own heights of heaven, O lover and ruler of the light of day. (Rg. 8-34-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अत्र) એ અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (एषा नेमिः) પરમાત્મન્ ! એ હરિયો-અજ્ઞાન પાપ હરનારી શક્તિતરંગોની નયન પ્રવૃત્તિ-ગતિવિધિ (उरां न) જેમ ઊનને માટે ઘેટાંને (वृकः धूनुते) વરુ ધ્રુજાવી દે છે નિઃસત્વ બનાવી દે છે, તેમ (दिवावसो) હે પ્રકાશ ધનવાળા અથવા પ્રકાશમાં વસાવનાર પરમાત્મન્ ! (अमुष्य दिवः शासतः) તે પ્રકાશમય અમૃતલોક મોક્ષધામનું શાસન ચલાવનાર પોતાનાં (दिवं यय) પ્રકાશમય અમૃતધામમાં મને-ઉપાસકને લઈ જા-પ્રાપ્ત કરાવ. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याप्रमाणे तेजस्वी जीवात्मा जेथे स्थित असतो तेथे जर अज्ञान, पाप इत्यादी अंधाराचे निवारण करेल तर ती देह-पुरी निश्चयपूर्वक प्रशंसायोग्य व परमात्म्याच्या निवासायोग्य असते. ॥२॥

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