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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1812
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - द्विपदा गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
33
अ꣡सृ꣢ग्रं दे꣣व꣡वी꣢तये वाज꣣य꣢न्तो꣣ र꣡था꣢ इव ॥१८१२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । वाजय꣡न्तः꣢ । र꣡थाः꣢꣯ । इ꣣व ॥१८१२॥
स्वर रहित मन्त्र
असृग्रं देववीतये वाजयन्तो रथा इव ॥१८१२॥
स्वर रहित पद पाठ
असृग्रम् । देववीतये । देव । वीतये । वाजयन्तः । रथाः । इव ॥१८१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1812
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर वही विषय कहा गया है।
पदार्थ
(मैं) इन ब्रह्मानन्द-रूप सोम-रसों को (देववीतये) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (असृग्रम्) अपने अन्तरात्मा में प्रवाहित कर रहा हूँ। ये (वाजयन्तः) अन्न प्रदान करते हुए (रथाः इव) रथों के समान (वाजयन्तः) बल प्रदान कर रहे हैं ॥३॥ यहाँ श्लिष्टोपमा अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
जैसे रथ अन्न आदि को लाने में साधन बनते हैं, वैसे ही ब्रह्मानन्द-रस अध्यात्म-बल अदि की प्राप्ति में साधन होते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जगदीश्वर और ब्रह्मानन्द-रस के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बीसवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(वाजयन्तः) उपासक के लिये अमृत अन्नभोग को चाहता हुआ३ परमात्मा (देववीतये) मुक्तात्माओं की तृप्ति जिसमें हो जाती है उस मुक्ति के लिये४ (असृग्रन्) धारारूप में प्राप्त होता है (रथाः-इव) रथों के समान जैसे रथ प्रवाहरूप से गति करता है तू भी कर॥३॥
विशेष
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विषय
जीवन के संयम से प्रभु का संयम
पदार्थ
‘जमदग्निः भार्गवः' इन मन्त्रों का ऋषि है – जिसकी जाठराग्नि ठीक भक्षण [जमु अदने ] करनेवाली है और जो बड़ा तेजस्वी है । यह गतमन्त्र के 'सोमी' आचार्य से सोमरक्षा का महत्त्व समझता है और इस सुरक्षित सोम के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहता है किहे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू १. (मधुमत्तमः) = जीवन में सर्वाधिक माधुर्य को लानेवाली है। वस्तुतः सोम इस शरीर में अत्यन्त सारभूत वस्तु है। इस सोम का अपव्यय होने पर मनुष्य निर्बल व चिड़चिड़ा हो जाता है—इसके जीवन में से माधुर्य जाता रहता है । २. (मन्दयन्) = तू अपनी रक्षा करनेवाले को हर्षित करता है। सोम के सुरक्षित होने पर मनुष्य जीवन में उल्लास का अनुभव करता है । ३. हे सोम तू (इन्द्राय पवस्व) = इस सोमपान करनेवाले, इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को पवित्र बना । सोम की रक्षा से मनुष्य की प्रवृत्ति पाप की ओर न होकर जीवन में पवित्रता का संचार होता है । ४. (ते) = ये (सुतासः) = उत्पन्न हुए-हुए सोम (विपश्चितः) = मनुष्य को सूक्ष्म बुद्धिवाला बनाते हैं, जिससे वह प्रत्येक पदार्थ को विशेष सूक्ष्मता से देखता हुआ चिन्तनशील बनता है।५. (शुक्राः) = [शुच दीप्तौ] ये सोम जीवन को अधिक और अधिक उज्वल बनाते हैं । इनसे जीवन में दीप्ति का संचार होता है । ‘शरीर, मन व बुद्धि' सभी इससे चमक उठते हैं । ६. (वायुम् असृक्षत) = ये जीव को [वा गतौ] बड़ा गतिशील बनाते हैं। इनके अभाव में मनुष्य अकर्मण्य बन जाता है । ७. ये सोम (वाजयन्तः) = मनुष्य को शक्तिशाली बनानेवाले हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण शक्ति के मूल ये ही हैं । मूल क्या ? ये ही तो शक्ति हैं । ८. (रथाः इव) = ये जीवन-यात्रा को पूर्ण करने के लिए रथ के समान हैं। इनके अभाव में जीवन नहीं — मृत्यु है। जीवन ही नहीं तो जीवन यात्रा की पूर्ति का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । ९. ये जीवन-यात्रा को पूर्ण करके (देववीतये) = उस प्रभु को प्राप्त करने के लिए (असृग्रन्) = रचे गये हैं सोम-सृजन का मुख्य उद्देश्य प्रभु-प्राप्ति है। ये सुरक्षित होकर, मनुष्य की ऊर्ध्वगति के द्वारा, उसे ब्रह्म के समीप पहुँचाते हैं । इन सोमों से उस सोम [परमात्मा] को ही तो प्राप्त करना है।
भावार्थ
मैं संयमी आचार्य से शिक्षित हो संयमी जीवनवाला बनूँ। जीवन के संयम से प्रभु का संयम [अपने में बाँधनेवाला] करनेवाला होऊँ ।
विषय
missing
भावार्थ
सोमस्वरूप योगी गण (वाजयन्तः) संग्राम करने हारे विजयी (रथा इव) रथों के समान स्वयं (वाजयन्तः) ज्ञानस्वरूप होकर (रथाः) केवल आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होकर (देववीतये) ईश्वर को प्राप्त होने के लिये (असृग्रम्) जा रहे हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।
पदार्थः
अहम् एतान् ब्रह्मानन्दरूपान् सोमरसान् (देववीतये) दिव्यगुणानां प्राप्तये (असृग्रम्) स्वान्तरात्मनि सृजामि, प्रवाहयामि। [असृजम् इति प्राप्ते ‘बहलुं छन्दसि’। अ० ७।१।८ इत्यनेन रुडागमः, ततः कुत्वम्।] एते (वाजयन्तः) अन्नानि प्रयच्छन्तः (रथाः इव) शकटाः इव (वाजयन्तः) बलानि प्रयच्छन्तः, सन्तीति शेषः ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
यथा रथा अन्नाद्यानयनाय साधनतां यान्ति तथा ब्रह्मानन्दरसा अध्यात्मबलादीनां प्राप्तये साधनीभवन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य ब्रह्मानन्दरसस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like chariots fighting and conquering, the tranquil Yogis, equipped with knowledge, bent on spiritual elevation continue exerting for the attainment of God.
Meaning
Flowing and creating, Soma streams rush forward like victor chariots in the service of divinity. (Rg. 9-67-17)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वाजयन्तः) ઉપાસકના માટે અમૃત અન્નભોગને ચાહતાં પરમાત્મા (देववीतये) જેમાં મુક્તાત્માઓની તૃપ્તિ થઈ જાય છે, તે મુક્તિને માટે (असृग्रन्) ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે. (रथाः इव) રથોની સમાન-જેમ રથ પ્રવાહરૂપથી ગતિ કરે છે, તેમ તું પણ ગતિ કર. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे रथ अन्न इत्यादी आणण्याचे साधन असते, तसेच ब्रह्मानंद-रस आध्यात्मिक-बल इत्यादींच्या प्राप्तीची साधने आहेत. ॥३॥ या खंडात जगदीश्वर व ब्रह्मानंदरसाच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती असते.
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