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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1811
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    32

    ते꣢ सु꣣ता꣡सो꣢ विप꣣श्चि꣡तः꣢ शु꣣क्रा꣢ वा꣣यु꣡म꣢सृक्षत ॥१८११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । सु꣣ता꣡सः꣢ । वि꣣पश्चि꣡तः꣢ । वि꣣पः । चि꣡तः꣢꣯ । शु꣣क्राः꣢ । वा꣣यु꣢म् । अ꣣सृक्षत ॥१८११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते सुतासो विपश्चितः शुक्रा वायुमसृक्षत ॥१८११॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ते । सुतासः । विपश्चितः । विपः । चितः । शुक्राः । वायुम् । असृक्षत ॥१८११॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1811
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय को कहा गया है।

    पदार्थ

    (सुतासः) परमात्मा द्वारा प्रेरित, (विपश्चितः) मेधायुक्त, (शुक्राः) पवित्र (ते) वे प्रसिद्ध ब्रह्मानन्द-रस रूप सोम (वायुम्) प्राण को (असृक्षत) ऊपर की ओर प्रेरित करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    प्राप्त हुए ब्रह्मानन्द योगी के प्राणों को ऊपर की ओर प्रेरित करते हुए उसे मोक्ष प्रदान करते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (ते) वह (सुतासः) उपासित१ (विपश्चितः) सर्वज्ञ (शुक्राः) शुभ्र प्रकाशमान शान्तस्वरूप परमात्मा (वायुम्-असृक्षत) उपासक आत्मा को२ मोक्ष पाने योग्य सम्पन्न करता है, बनाता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    जीवन के संयम से प्रभु का संयम

    पदार्थ

    ‘जमदग्निः भार्गवः' इन मन्त्रों का ऋषि है – जिसकी जाठराग्नि ठीक भक्षण [जमु अदने ] करनेवाली है और जो बड़ा तेजस्वी है । यह गतमन्त्र के 'सोमी' आचार्य से सोमरक्षा का महत्त्व समझता है और इस सुरक्षित सोम के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहता है किहे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू १. (मधुमत्तमः) = जीवन में सर्वाधिक माधुर्य को लानेवाली है। वस्तुतः सोम इस शरीर में अत्यन्त सारभूत वस्तु है। इस सोम का अपव्यय होने पर मनुष्य निर्बल व चिड़चिड़ा हो जाता है—इसके जीवन में से माधुर्य जाता रहता है । २. (मन्दयन्) = तू अपनी रक्षा करनेवाले को हर्षित करता है। सोम के सुरक्षित होने पर मनुष्य जीवन में उल्लास का अनुभव करता है । ३. हे सोम तू (इन्द्राय पवस्व) = इस सोमपान करनेवाले, इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को पवित्र बना । सोम की रक्षा से मनुष्य की प्रवृत्ति पाप की ओर न होकर जीवन में पवित्रता का संचार होता है । ४. (ते) = ये (सुतासः) = उत्पन्न हुए-हुए सोम (विपश्चितः) = मनुष्य को सूक्ष्म बुद्धिवाला बनाते हैं, जिससे वह प्रत्येक पदार्थ को विशेष सूक्ष्मता से देखता हुआ चिन्तनशील बनता है।५. (शुक्राः) = [शुच दीप्तौ] ये सोम जीवन को अधिक और अधिक उज्वल बनाते हैं । इनसे जीवन में दीप्ति का संचार होता है । ‘शरीर, मन व बुद्धि' सभी इससे चमक उठते हैं । ६. (वायुम् असृक्षत) = ये जीव को [वा गतौ] बड़ा गतिशील बनाते हैं। इनके अभाव में मनुष्य अकर्मण्य बन जाता है । ७. ये सोम (वाजयन्तः) = मनुष्य को शक्तिशाली बनानेवाले हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण शक्ति के मूल ये ही हैं । मूल क्या ? ये ही तो शक्ति हैं । ८. (रथाः इव) = ये जीवन-यात्रा को पूर्ण करने के लिए रथ के समान हैं। इनके अभाव में जीवन नहीं — मृत्यु है। जीवन ही नहीं तो जीवन यात्रा की पूर्ति का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । ९. ये जीवन-यात्रा को पूर्ण करके (देववीतये) = उस प्रभु को प्राप्त करने के लिए (असृग्रन्) = रचे गये हैं सोम-सृजन का मुख्य उद्देश्य प्रभु-प्राप्ति है। ये सुरक्षित होकर, मनुष्य की ऊर्ध्वगति के द्वारा, उसे ब्रह्म के समीप पहुँचाते हैं । इन सोमों से उस सोम [परमात्मा] को ही तो प्राप्त करना है। 

    भावार्थ

    मैं संयमी आचार्य से शिक्षित हो संयमी जीवनवाला बनूँ। जीवन के संयम से प्रभु का संयम [अपने में बाँधनेवाला] करनेवाला होऊँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (ते) वे (विपश्चितः) ज्ञानसम्पन्न, ज्ञानों का संग्रह करने हारे या ज्ञानरूप अग्नि का चयन करने हारे परमात्मदर्शी (शुक्रः) तेजस्वी, या शुक्ल कर्म करने होरे, (सुतासः) सिद्ध योगी (वायुम्) सर्व प्रेरक प्रभु परमात्मा को (असृक्षत) प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

     (सुतासः) परमात्मना प्रेरिताः, (विपश्चितः) मेधायुक्ताः (शुक्राः) पवित्राः (ते) प्रसिद्धाः सोमाः ब्रह्मानन्दरसाः (वायुम्) प्राणम् (असृक्षत) ऊर्ध्वं प्रेरयन्ति ॥२॥

    भावार्थः

    प्राप्ता ब्रह्मानन्दाः योगिनः प्राणानूर्ध्वं प्रेरयन्तस्तस्मै निःश्रेयसं प्रयच्छन्ति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The accomplished Yogis, the seers of God, the doers of pure acts, attain to God.

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    Meaning

    Your creative spirits of imagination, powerful and most ecstatic, give birth to the vibrant poet creator, the karma yogi of imagination. (Rg. 9-67-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ते) તે (सुतासः) ઉપાસિત (विपश्चितः) સર્વજ્ઞ (शुक्राः) શુભ્ર, પ્રકાશમાન, શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (वायुम् असृक्षत) ઉપાસક આત્માને મોક્ષ પામવા યોગ્ય સંપન્ન કરે છે-બનાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मानंद हा योग्याच्या प्राणांना वर जाण्यास प्रेरित करतो व त्याला मोक्ष प्रदान करतो. ॥२॥

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