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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1815
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
29
स꣢꣫ हि पु꣣रू꣢ चि꣣दो꣡ज꣢सा वि꣣रु꣡क्म꣢ता꣣ दी꣡द्या꣢नो꣣ भ꣡व꣢ति द्रु꣢ह꣣न्त꣡रः प꣢र꣣शु꣡र्न द्रु꣢꣯हन्त꣣रः꣢ । वी꣣डु꣢ चि꣣द्य꣢स्य꣣ स꣡मृ꣢तौ꣣ श्रु꣢व꣣द्व꣡ने꣢व꣣ य꣢त्स्थि꣣र꣢म् । नि꣣ष्ष꣡ह꣢माणो यमते꣣ ना꣡य꣢ते धन्वा꣣स꣢हा꣣ ना꣡य꣢ते ॥१८१५॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । पु꣣रु꣢ । चि꣣त् । ओ꣡ज꣢꣯सा । वि꣣रु꣡क्म꣢ता । वि꣣ । रु꣡क्म꣢꣯ता । दी꣡द्या꣢꣯नः । भ꣡व꣢꣯ति । द्रु꣣हन्तरः꣢ । द्रु꣣हम् । तरः꣢ । प꣣रशुः꣢ । न । द्रु꣣हन्तरः꣢ । द्रु꣣हम् । तरः꣢ । वी꣣डु꣢ । चि꣣त् । य꣡स्य꣢꣯ । स꣡मृतौ꣢꣯ । सम् । ऋ꣣तौ । श्रु꣡व꣢꣯त् । व꣡ना꣢꣯ । इ꣣व । य꣢त् । स्थि꣣र꣢म् । नि꣣ष्ष꣡ह꣢माणः । निः꣣ । स꣡ह꣢꣯मानः । य꣣मते । न꣢ । अ꣣यते । धन्वास꣡हा꣢ । ध꣣न्व । स꣡हा꣢꣯ । न꣢ । अ꣣यते ॥१८१५॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति द्रुहन्तरः परशुर्न द्रुहन्तरः । वीडु चिद्यस्य समृतौ श्रुवद्वनेव यत्स्थिरम् । निष्षहमाणो यमते नायते धन्वासहा नायते ॥१८१५॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । हि । पुरु । चित् । ओजसा । विरुक्मता । वि । रुक्मता । दीद्यानः । भवति । द्रुहन्तरः । द्रुहम् । तरः । परशुः । न । द्रुहन्तरः । द्रुहम् । तरः । वीडु । चित् । यस्य । समृतौ । सम् । ऋतौ । श्रुवत् । वना । इव । यत् । स्थिरम् । निष्षहमाणः । निः । सहमानः । यमते । न । अयते । धन्वासहा । धन्व । सहा । न । अयते ॥१८१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1815
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जीवात्मा का रणकौशल वर्णित है।
पदार्थ
(विरुक्मता) दीप्तियुक्त (ओजसा) प्रताप से (पुरु चित्) बहुत अधिक (दीद्यानः) द्युतिमान् (स हि) वह अग्नि अर्थात् अग्रनायक जीवात्मा (द्रुहन्तरः) द्रोह करनेवाले काम, क्रोध आदि शत्रु को पार करनेवाला (भवति) हो जाता है, (परशुः न) परशु के समान (द्रुहन्तरः) द्रोहकर्ता का वध करनेवाला हो जाता है, (यस्य) जिस जीवात्मा की (समृतौ) टक्कर होने पर (वीडु चित्) बलवान् भी, (वना इव) वन के समान (यत् स्थिरम्) जो स्थिर है, वह भी (श्रुवत्) विनष्ट हो जाता है या डगमगा जाता है, जो (निष्षहमाणः) शत्रुओं को तिरस्कृत करता हुआ, उन्हें (यमते) युद्ध से हटा देता है, (न अयते) स्वयं युद्ध से पलायन नहीं करता, अपितु (धन्वसहा न) धनुर्धारी के समान (अयते) देवासुरसङ्ग्राम में जाता है ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है, तीन उपमाएँ हैं। ‘द्रुहन्तरः’ और ‘नायते’ की आवृत्ति में यमक है ॥३॥
भावार्थ
देहधारी जीवात्मा जड़ जमाये हुए भी आन्तरिक तथा बाह्य सब शत्रुओं का उन्मूलन करके रणकुशल सेनापति के समान देवासुरसङ्ग्राम में विजयी हो ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा और जीवात्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
पदार्थ
(सः-हि) वह अग्रणायक परमात्मा ही (ओजसा) स्वात्मबल से (विरुक्मता) विशेष तेजस्विता से (पुरुचित्-दीद्यानः भवति) बहुत ही द्योतमान है (द्रुहन्तरः) द्रोही—नास्तिक को तरने—ताड़ने वाला है (परशुः-न द्रुहन्तरः) कुठार जैसा द्रु—काष्ठ का हननकर्ता होता है (यस्य समृतौ) जिस की टक्कर में (वीडु चित् स्थिरम्) दृढ़ स्थिर भी पाप—पापी (श्रुवत्) शीर्ण हो जावे (वनाइव) जल जैसे ताप से बिखर जाता है—भाप बन जाता है (निष्षहमाणः) पापों को नितान्त हटाता हुआ (यमते) स्वाधीन करता है (न-अयते) उपासक से अलग नहीं होता है (धन्वासहा न-अयते) हृदयाकाश पर आसहन—आश्रय बनाता हुआ अलग नहीं होता है॥३॥
विशेष
<br>
विषय
परुच्छेप के जीवन की तीन बातें
पदार्थ
१. (सः) = यह परुच्छेप (हि) = निश्चय से (विरुक्मता) = विशेष दीप्तिवाले (ओजसा) = ओज से (दीद्यान:) = चमकता हुआ (पुरुचित्) = बहुत बड़ी भी अथवा अपना पालन व पोषण करनेवाली (द्रुहम्) = द्रोह की भावना को (तरः) = तैरनेवाला होता है । यह परुच्छेप किसी व्यक्ति को नष्ट करके अपना महान् पोषण हो सकने पर भी द्रोह–जिघांसा की वृत्ति को तैर जाता है। परुच्छेप तो (परशुः न) = जैसे कुल्हाड़ा वृक्ष का काटनेवाला होता है, इसी प्रकार (द्रुहन्तरः) = द्रुहन्तर होता है - द्रोह की भावना को तैर जानेवाला होता है। २. यह परुच्छेप वह होता है यस्य जिसकी (समृतौ) = सङ्गति में (यत्) = जो वीडु (चित्) = अत्यन्त बलवान् भी (स्थिरम्) = स्थिर हृदय है वह भी वना इव जलों की भाँति (श्रुवत्) = सुनाई पड़ता है । परुच्छेप के सम्पर्क में कठोर-से-कठोर हृदय भी पिघल जाता है और दयार्द्र हो उठता है । यह परुच्छेप स्वयं तो जिघांसा की वृत्ति से ऊपर उठा हुआ होता ही है, यह अपने सम्पर्क में आनेवाले दूसरे कठोर हृदय पुरुष को भी दयार्द्र व कोमल कर देता है ।
३. (नि:षहमाणः न अयते) = सब बुरी वृत्तियों का पराभव-सा करता हुआ यह अपने जीवन में गति करता है । (धन्वासहा न अयते) = अपने धनुष से शत्रुओं का पराभव करनेवाले के समान यह गति करता है। प्रणव-ओम् ही इसका धनुष है - इस प्रणवरूप धनुष के द्वारा यह कामादि सब शत्रुओं का पराभव कर डालता है । (यमते) = यह अपने जीवन में काम, क्रोध, लोभ–सभी का नियमन करके चलता है। ये कामादि उसपर प्रभुत्व नहीं करते, अपितु परुच्छेप ही इन्हें अपने वश में रखता है।
भावार्थ
परुच्छेप के जीवन में निम्न तीन बातें होती हैं— १. यह द्रोह की भावना से ऊपर होता है । २. स्वयं दयार्द्र होता हुआ औरों को भी दयार्द्र बनाता है । ३. काम, क्रोध, लोभ को वश में रखता है ।
विषय
missing
भावार्थ
(सः हि) निश्चय से वह अग्नि (विरुक्मता) विशेष कान्ति से युक्त (ओजसा) तेज से (पुरुचित्) अति अधिक (दीद्यानः) प्रकाशित होता हुआ (द्रुहन्तरः) वृक्षों को विनाश करने हारे (परशुः न) फरसे के समान (द्रुहन्तरः) द्रवणशील, विनाशी इस देह बन्धन को काटने हारा (भवति) होता है, (यस्य) जिसको (सम् ऋतौ) सत्सङ्ग में साक्षात् प्राप्त कर लेने पर (वीडु) दृढ़ और (यत्) जो (स्थिरं) स्थिर, स्थायी यह संसार या देहबन्धन (चित्) भी (वना इव) जंगल या जलों के समान (श्रुवत्=स्रुवत्) छितरा जाता है। अग्नि के संयोग से जिस प्रकार जंगल जल जाता या जल भाफ होकर विलीन होजाता है उसी प्रकार यह समस्त संसार भी जिस में प्रलय काल में विलीन होजाता है वह (निः सहमानः) समस्त संसार की सब विरोधिनी शक्तियों को अपने वश करता हुआ (यमते) समस्त संसार की व्यवस्था करता है और उसी में क्रीड़ा करता है एवं (धन्वा सहा न) धनुर्धर विजयी के समान (अयते) संसार के रणक्षेत्र में भी आता है और (न अयते) इसके भीतर पाश में भी नही आता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मनो रणकौशलं वर्णयति।
पदार्थः
(विरुक्मता) दीप्तिमता (ओजसा) प्रतापेन (पुरु चित्) अत्यधिकम् (दीद्यानः) द्योतमानः (स हि) स खलु अग्निः अग्रणीः जीवात्मा (द्रुहन्तरः) द्रुहं द्रोग्धारं शत्रुं कामक्रोधादिकं तरति अतिक्रामति यः तथाविधः (भवति) जायते, (परशुः न) परशुः इव (द्रुहन्तरः) द्रुहं द्रोग्धारं तरति हिनस्ति यः तादृशो भवति, (यस्य) अग्नेः जीवात्मनः (समृतौ) संघट्टे सति (वीडु चित्) बलवदपि, (वना इव) वनमिव अरण्यमिव (यत् स्थिरम्) बद्धमूलं, तदपि (श्रुवत्) शीर्यते स्रवति वा। [शॄ हिंसायाम्, स्रु गतौ वा, छान्दसं रूपम्]। सः (निष्षहमाणः) शत्रून् अभिभवन्, तान् (यमते) यमयते युद्धादुपरतान् करोति। [यमु उपरमे, णेर्लुकि रूपम्।] (न अयते) स्वयं युद्धान्न पलायते, अपितु (धन्वसहा२ न) धानुष्कः इव (अयते) देवासुरसंग्रामं गच्छति ॥३॥३ अत्रोपमालङ्कारः, तिस्र उपमाः। ‘द्रुहन्तरः’, ‘नायते’ अनयोरावृत्तौ यमकम् ॥३॥
भावार्थः
देहधारी जीवात्मा बद्धमूलानप्यान्तरान् बाह्यांश्च सर्वाञ्छत्रूनुन्मूल्य रणकुशलः सेनापतिरिव देवासुरसंग्रामे विजयी भवेत् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मजीवात्मनोर्विषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Verily God, with His blazing power, is Refulgent far and wide. Like an axe that cuts the trees. He cuts the bondage of the body. At Whose realisation the stout and strong bondage of the body is cut asunder like a jungle or water. Subduing all the opposing forces of the world, He regulates the universe. He enters the battlefield of the world like a skilled archer, but is not caught in its snare.
Translator Comment
Just as trees in a jungle arc burnt to ashes by coming in contact with fire, or water heated by fire disappears in the shape of steam, so does soul attain to salvation by coming in contact with God, and cut asunder the fetters of the body. God creates, sustains and dissolves the universe. He is not inactive, but remains above the snares and wiles of the world to which an ordinary mortal falls a prey.
Meaning
He surely rises to shine very brilliantly with his own splendid valour and honour who, like the axe which cuts down the trees, mows down the enemies, in whose presence even the strong and firm like the dense forest burst asunder into pieces, and who, commanding brave warriors, dominates and directs the enemies and, like a mighty wielder of the bow and arrow, never wavers but advances in battle against the enemy forces. (Rg. 1-127-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः हि) તે અગ્રણી પરમાત્મા જ (ओजसा) સ્વ આત્મબળથી (विरुक्मता) વિશેષ તેજસ્વિતાથી (पुरुचित् दीद्यानः भवति) અત્યંત પ્રકાશમાન છે. (द्रुहन्तरः) દ્રોહી-નાસ્તિકને તરને તાડન કરનાર છે. (परशुः न द्रुहन्तरः) જેમ વૃક્ષોને કાપનાર કુહાડો માફક-લાકડાને કાપનાર-હોય છે, (यस्य स्मृतौ) તેમ જેની ટક્કર-ધાથી (वीडु चित् स्थिरम्) દૃઢ સ્થિર પાપ-પાપી પણ (श्रुवत्) શીર્ણ બની જાય છે. (वनाइव) જેમ જળ તાપથી ઓગળી-વરાળ બની જાય છે, તેમ (निष्षहमाणः) પાપોને નિતાન્ત હટાવીને (यमते) સ્વાધીન કરે છે. (न अयते) ઉપાસક અલગ થતો નથી. (धन्वसहा न अयते) હૃદયાકાશ પર આસહન-આશ્રય આસન બનાવીને અલગ થતો નથી. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
देहाधारी जीवात्मा आंतरिक व बाह्य शत्रूंचे उन्मीलन करून रणकुशल सेनापतीप्रमाणे देवासुर संगामात विजयी व्हावा. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात परमात्मा व जीवात्म्याच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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