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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1816
ऋषिः - अग्निः पावकः
देवता - अग्निः
छन्दः - विष्टारपङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
27
अ꣢ग्ने꣣ त꣢व꣣ श्र꣢वो꣣ व꣢यो꣣ म꣡हि꣢ भ्राजन्ते अ꣣र्च꣡यो꣢ विभावसो । बृ꣡ह꣢द्भानो꣣ श꣡व꣢सा꣣ वा꣡ज꣢मु꣣क्थ्य꣢ꣳ३ द꣡धा꣢सि दा꣣शु꣡षे꣢ कवे ॥१८१६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ । व꣡यः꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । भ्रा꣣जन्ते । अर्च꣡यः꣢ । वि꣣भावसो । विभा । वसो । बृ꣡ह꣢꣯द्भानो । बृ꣡ह꣢꣯त् । भा꣣नो । श꣡व꣢꣯सा । वा꣡ज꣢꣯म् । उ꣣क्थ्य꣢म् । द꣡धा꣢꣯सि । दा꣣शु꣡षे꣢ । क꣣वे ॥१८१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो । बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यꣳ३ दधासि दाशुषे कवे ॥१८१६॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । तव । श्रवः । वयः । महि । भ्राजन्ते । अर्चयः । विभावसो । विभा । वसो । बृहद्भानो । बृहत् । भानो । शवसा । वाजम् । उक्थ्यम् । दधासि । दाशुषे । कवे ॥१८१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1816
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा के स्वरूप और उपकार का वर्णन है।
पदार्थ
हे (अग्ने) जगन्नायक परमेश ! (तव) आपका (श्रवः) यश और (वयः) ऐश्वर्य (महि) महान् है। हे (विभावसो) दीप्तिधन ! आप ही की (अर्चयः) दीप्तियाँ (भ्राजन्ते) अग्नि, सूर्य, नक्षत्र आदियों में चमक रही हैं। हे (बृहद्भानो) महातेजस्वी ! हे (कवे) क्रान्तद्रष्टा ! आप (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले को (शवसा) बल के साथ (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (वाजम्) आनन्द-रूप ऐश्वर्य (दधासि) देते हो ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर स्वयं प्रकाशमान होता हुआ दूसरों को प्रकाशित करता है, स्वयं बलवान् होता हुआ दूसरों को बल देता है, स्वयं यशस्वी होता हुआ दूसरों को यशस्वी करता है, स्वयं आनन्दवान् होता हुआ दूसरों को आनन्दित करता है ॥१॥
पदार्थ
(विभावसो बृहद्भानो-अग्ने) हे विशेष ज्ञानज्योति में बसानेवाले महादीप्तिमान् अग्रणेता परमात्मन्! (तव श्रवः-वयः-महि) तेरा श्रवणीय यश१ ज्ञान२ महान् है (अर्चयः शवसा भ्राजन्ते) तेरी ज्ञानरश्मियाँ जगद्रचन विषयक जगत् में प्रबलरूप से भासित हो रही हैं (कवे) हे क्रान्तदर्शी! (दाशुषे) आत्मदानी उपासक के लिये तू (उक्थ्यं वाजं दधासि) प्रशंसनीय अमृतान्न—मोक्षानन्द को धारण करता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—पावकोऽग्निः (पवित्र अग्रगन्ता उपासक)॥ देवता—अग्निः (अग्रणायक परमात्मा)॥ छन्दः—विष्टारपंक्तिः॥<br>
विषय
ज्ञान-कर्म-उपासना
पदार्थ
प्रभु प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘अग्नि-पावक' से, जिसने अपने जीवन को उन्नतिशील व पवित्र बनाया है, कहते हैं— हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! हे (विभावसो) = ज्ञान को ही वास्तविक धन समझनेवाले जीव ! (तव) = तेरे (श्रवः) = श्रवणसाध्य ज्ञान (वयः) = गतिरूप कर्म [वय=गतौ] तथा (अर्चय:) = [अर्च=पूजायाम्] उपासनाएँ (महि भ्राजन्ते) = खूब दीप्त होती हैं। अग्नि-प्रगतिशील जीव सदा अपने ज्ञान को बढ़ाने के दृष्टिकोण से ही क्रियाशील रहता है और इस प्रकार ज्ञान के साथ कर्मों को करता हुआ प्रभु का सच्चा उपासक बनता है । इसके 'ज्ञान, कर्म व अर्चन' सभी खूब चमकनेवाले– देदीप्यमान होते हैं । परन्तु यह अग्नि=प्रगतिशील जीव इस प्रकार उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता हुआ भी पावक
पवित्र बना रहता है। किसी प्रकार गर्व की भावना को अपने अन्दर उत्पन्न नहीं होने देता । यह प्रभु की अर्चना इन शब्दों में करता है—
हे (बृहद्भानो )= अत्यन्त बढ़े हुए - निरतिशय प्रकाशवाले प्रभो! हे (कवे) = क्रान्तदर्शिन्– अन्तर्यामितया सब वस्तुओं के तत्त्व को जाननेवाले प्रभो! आप ही तो (दाशुषे) = आपके प्रति समर्पण करनेवाले जीव के लिए (शवसा) = [शवतिः गतिकर्मा] गति व क्रिया के साथ (वाजम्) = [वज गतौ, गतिः–ज्ञानम्] ज्ञान को तथा (उक्थ्यम्) = स्तोत्रों में साधुता को–अर्थात् उत्तम उपासना-वृत्ति को (दधासि) = धारण करते हैं। आपकी कृपा से ही तो 'क्रियाशीलता, ज्ञान व उपासना की वृत्ति' प्राप्त होती है। यह सब तो आपकी ही देन है [ These are the blsessing bestowed upon us by Thee], इसमें हमारा तो कुछ है ही नहीं ।
इस प्रकार निरहंकारता व सौम्यता के साथ इस अग्नि के 'कर्म, ज्ञान व उपासना' और भी अधिक चमक उठते हैं— उसका जीवन सुतरां पवित्र बन जाता है । वह दिव्यता को प्राप्त कर दिव्यता के दर्प से अभिभूत नहीं हो जाता और इस प्रकार उसकी दिव्यता और अधिक दिव्य बन जाती है ।
भावार्थ
मैं ज्ञानी बनूँ, ज्ञानपूर्वक कर्म करूँ और इन कर्मों को प्रभु चरणों में अर्पित करता हुआ प्रभु का सच्चा उपासक होऊँ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप ! प्रकाशक ! परमात्मन् ! (विभावसो) अपने विशेष प्रकाश से सब को बसाने और सर्वत्र स्वयं बसनेहारे व्यापक परमात्मन् ! (तव) तेरा (श्रवः) कीर्ति और (वयः) ज्ञान, बल (महि) महान् है और तेरी (अर्चयः) ज्वालायें सूर्य आदि रूप में (भ्राजन्ते) प्रकाशित हो रही हैं। हे (बृहद्भानो) सब प्रकाशों से महान् ! आप (उक्थ्यं) वेद द्वारा प्रतिपादनीय (वाजं) ज्ञान दो। हे (कवे) मेधाविन् ! तू (दाशुषे) आत्मसमर्पण करने हारे शिष्य को आचार्य के समान (दधासि) धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्राग्निनाम्ना परमात्मनः स्वरूपमुपकारं च वर्णयति।
पदार्थः
हे (अग्ने) जगन्नेतः परमेश ! (तव) त्वदीयम् (श्रवः) यशः (वयः) ऐश्वर्यञ्च (महि) महत् वर्तते। हे (विभावसो) तेजोधन ! तव (अर्चयः) दीप्तयः (भ्राजन्ते) वह्निसूर्यनक्षत्रादिषु दीप्यन्ते। हे (बृहद्भानो) महातेजस्क ! हे (कवे) क्रान्तदर्शिन् ! त्वम् (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय (शवसा) बलेन सह (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (वाजम्) आनन्दरूपमैश्वर्यम् (दधासि) प्रयच्छसि ॥१॥२
भावार्थः
परमेश्वरः स्वयं प्रकाशमानः सन्नन्यान् प्रकाशयति, स्वयं बलवान् सन्नन्येभ्यो बलानि प्रयच्छति, स्वयं यशस्वी सन्नन्यान् यशस्विनः करोति, स्वयमानन्दवान् सन्नन्यानानन्दिनः करोति ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O All-pervading God, great are Thy fame and strength. The fires in the shape of Son blaze forth on high. O Thou Refulgent God, grant us knowledge revealed through the Vedas. O Wise God, out of Thy munificence Thou givest knowledge to Thy devotee, who dedicates himself to Thee, as a preceptor to his devoted pupil!
Translator Comment
See Yajur 12-106.
Meaning
Agni, leading light of life, great is your vigour, power and felicity, shining, inspiring and incessantly flowing. O refulgent lord, your flames rise high and blaze fiercely. Light and fire of Infinity, omniscient poet and creator, by your power, potential and abundance, you bear and bring admirable food, energy and fulfilment with the sense of victory for the generous giver and selfless yajaka. (Rg. 10-140-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विभावसो बृहद्भानो अग्ने) હે વિશેષ જ્ઞાનજયોતિમાં વસાવનાર મહા દીપ્તિમાન અગ્રણી પરમાત્મન્ ! (तव श्रवः वयः महि) તારો શ્રવણીય યશ-જ્ઞાન મહાન છે. (अर्चयः शवसा भ्राजन्ते) તારી જ્ઞાન રશ્મિઓ જગત રચના વિષયક જગતમાં પ્રબળરૂપમાં પ્રકાશિત થઇ રહી છે. જો (कवे) હે ક્રાન્તદર્શી ! (दाशुषे) આત્મદાની ઉપાસકને માટે તું (उक्थ्यम् वाजं दधासि) પ્રશંસનીય અમૃતાન્ન-મોક્ષાનંદને ધારણ કરે છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर स्वत: प्रकाशमान असून इतरांनाही प्रकाशित करतो. स्वत: बलवान असून इतरांना बल देतो, स्वत: यशस्वी असून इतरांनाही यशस्वी करतो, स्वत: आनंदी असून इतरांना आनंदित करतो. ॥१॥
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