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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1817
ऋषिः - अग्निः पावकः
देवता - अग्निः
छन्दः - विष्टारपङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
43
पा꣣वक꣡व꣢र्चाः शु꣣क्र꣡व꣢र्चा꣣ अ꣡नू꣢नवर्चा꣣ उ꣡दि꣢यर्षि भा꣣नु꣡ना꣢ । पु꣣त्रो꣢ मा꣣त꣡रा꣢ वि꣣च꣢र꣣न्नु꣡पा꣢वसि पृ꣣ण꣢क्षि꣣ रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣢ ॥१८१७॥
स्वर सहित पद पाठपावक꣡व꣢र्चाः । पा꣣वक꣢ । व꣣र्चाः । शुक्र꣡व꣢र्चाः । शु꣣क्र꣢ । व꣣र्चाः । अ꣡नू꣢꣯नवर्चाः । अ꣡नू꣢꣯न । व꣣र्चाः । उ꣣त् । इ꣣यर्षि । भानु꣡ना꣢ । पु꣣त्रः꣢ । पु꣣त् । त्रः꣢ । मा꣣त꣡रा꣢ । वि꣣च꣡र꣢न् । वि꣣ । च꣡र꣢꣯न् । उ꣡प꣢꣯ । अ꣣वसि । पृण꣡क्षि꣢ । रो꣡द꣢꣯सीइ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ ॥१८१७॥
स्वर रहित मन्त्र
पावकवर्चाः शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥१८१७॥
स्वर रहित पद पाठ
पावकवर्चाः । पावक । वर्चाः । शुक्रवर्चाः । शुक्र । वर्चाः । अनूनवर्चाः । अनून । वर्चाः । उत् । इयर्षि । भानुना । पुत्रः । पुत् । त्रः । मातरा । विचरन् । वि । चरन् । उप । अवसि । पृणक्षि । रोदसीइति । उभेइति ॥१८१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1817
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा कैसा है और क्या करता है, यह कहते हैं।
पदार्थ
हे अग्रनायक जगदीश्वर ! (पावकवर्चाः) पवित्रकारी तेजवाले, (शुक्रवर्चाः) उज्ज्वल और पवित्र तेजवाले, (अनूनवर्चाः) अन्यून तेजवाले आप (भानुना) ज्योति के साथ, उपासकों के अन्तरात्मा में (उदियर्षि) उदित होते हो। (मातरा) माता-पिता के समीप (विचरन्) विचरण करते हुए (पुत्रः) पुत्र के समान (मातरा) द्युलोक और भूलोक में (विचरन्) विचरण करते हुए आप उनकी (उपावसि) रक्षा करते हो। साथ ही (रोदसी) द्युलोक और भूलोक (उभे) दोनों को (पृणक्षि) आपस में संयुक्त करते हो ॥२॥ यहाँ तीसरे चरण में शिलष्ट लुप्तोपमा अलङ्कार है। ‘वर्चा’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर सूर्य के समान अपने दिव्य तेज से स्तोताओं के हृदय को पवित्र करता है, द्यावापृथिवी की रक्षा करता है और उनके मध्य आपस का सामञ्जस्य स्थापित करता है ॥२॥
पदार्थ
(पावकवर्चाः) हे अग्रणायक परमात्मन्! तू पवित्रकारक—तेज वाला (शुक्रवर्चाः) शुभ्र तेज वाला (अनूनवर्चाः) पूर्ण तेज वाला हुआ (भानुना-उदियर्षि) अपने ज्ञानप्रकाश से उपासक के अन्दर उदित रहता है या उस आस्तिक को संसार में सदा भासता रहता है (पुत्रः-मातरा विचरन्-उप-अवसि) पुत्र जैसे माता पिता के पास विचरण करता हुआ उन्हें तृप्त करता है ऐसे मुझ उपासक को भी तृप्त कर३ (उभे रोदसी पृणक्षि) दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक को—अपवर्ग स्थान मोक्षधाम को४ और भोगस्थान प्रथित संसार को अभ्युदय को आत्मा के दोनों आश्रय को (पृणक्षि) हमारे लिये सम्पृक्त कराता है५, सम्बद्ध कराता है, उनके भोग और अमृत को भुगाता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
पवित्र व क्रियाशील तेजस्विता [ प्रकृति के समीप ]
पदार्थ
'अग्नि-पावक'=प्रगतिशील - पवित्र जीव से ही प्रभु कहते हैं— ३
(पावकवर्चा:) = तू पवित्र करनेवाली तेजस्वितावाला है । वस्तुत: 'वर्चस्' शरीर में सब प्रकार के रोगकृमियों को समाप्त करता हुआ शरीर को अत्यन्त निर्मल बनाता है और मन को भी द्वेषादि मलों से मलिन नहीं होने देता । (शुक्रवर्चा:) = [शुक् गतौ] तू गतिशील तेजस्वितावाला है, तेरी तेजस्विता तुझे सदा क्रियामय बनाये रखती है। इस प्रकार तू (अनूनवर्चा:) = न्यूनता को उत्पन्न न होने देनीवाली तेजस्वितावाला है। तेज के दो ही कार्य हैं- १. प्रथम मल को दूर करके पवित्र बनाना और २. सब प्रकार की रुकावटों को दूर करके गतिशील बनाना । इन दोनों बातों के होने पर मनुष्य में न्यूनता नहीं आती।
प्रभु कहते हैं कि 'पावक, शुक्र व अनूनवर्चस्वाला' होता हुआ तू (भानुना) = ज्ञान की दीप्ति से (उत् इयर्षि) = ऊर्ध्वगतिवाला होता है। तेजस्विता व ज्ञान का प्रकाश – दोनों मिलकर तुझे उन्नत करनेवाले होते हैं ।
(पुत्र:) = तू पुत्र है, (मातरा) = अपने माता-पिता – द्युलोक व पृथिवीलोक के अनुकूल (विचरन्) = गति करता हुआ, (उपावसि) =उनसे अपने को दूर न ले जाता हुआ तू [उप] अपनी रक्षा करता है [अवसि]। द्यौष्पिता, पृथिवीमाता इन मन्त्रांशों से यह स्पष्ट है कि द्युलोक पिता है और पृथिवी माता है तथा जीव उनका पुत्र है। उनके अनुकूल चलता हुआ यह अपने को पु - पवित्र बनाता है, और त्रअपना त्राण करता है।‘द्यौः उग्रा, पृथिवी च दृढा' द्युलोक सूर्य व सितारों से तेजस्वी है - यह भी अपने को ज्ञान से तेजस्वी बनाता है । पृथिवी दृढ़ है - यह भी अपने शरीर को शक्तिशाली बनाता है। अपने को ऐसा बनाने के लिए ही यह उप=उनके समीप रहता है । इसका जीवन कृत्रिम नहीं हो जाता, अपितु स्वाभाविक बना रहता है । भोजनाच्छादनादि में यह बहुत बखेड़ा नहीं करता, भोजनों को अधिक पकाता नहीं रहता, वस्त्रों की संख्या को बढ़ाता नहीं रहता । वस्तुत: 'पवित्रता व दीर्घजीवन का रहस्य' प्रकृति के समीप बने रहना ही है [उप] । आधुनिक युग में तथाकथित सभ्यता के विकास में जीव प्रकृति से सुदूर चला गया और कुछ कटु अनुभवों से उसने फिर [प्रकृति की ओर लौटने] 'Back to the Nature' का नारा लगाया।
वस्तुतः जीव अपने माता-पिता पृथिवीलोक व द्युलोक के समीप रहता हुआ ही उभे-दोनों (रोदसी) = लोकों का - - द्यावापृथिवी का (पृणक्षि) = पालन करता है । पिण्ड में शरीर ही पृथिवीलोक है तथा मस्तिष्क द्युलोक । जब हम अपने जीवन को प्रकृति से दूर व अस्वाभाविक नहीं बनने देते तब वस्तुत: अपने शरीर व मस्तिष्क को स्वस्थ, सुरक्षित व सुन्दर बनाये रखते हैं । अस्वाभाविकता ही हमें बीमार व कुण्ठमति बना देती है ।
भावार्थ
मैं शारीरिक तेजस्विता व मस्तिष्क दीप्ति प्राप्त करके उन्नत होऊँ । यथासम्भव स्वाभाविक जीवन बिताता हुआ स्वस्थ व सूक्ष्मबुद्धिवाला रहूँ ।
विषय
missing
भावार्थ
हे अग्ने ! तू (पावकवर्चाः) पवित्र करने हारे तेज से युक्त (शुक्रवर्चाः) शुक्ल, निर्मल कान्ति से सम्पन्न, (अनूनवर्चाः) सब से अधिक तेजस्वी होकर (भानुना) प्रकाशक तेज के सहित (उद्-इयर्षि) उदय होता है, हृदय में प्रकट होता है। जिस प्रकार (पुत्रः) पुत्र (मातरा) मातृस्वरूप या मां बाप दोनों के समीप (विचरन्) विचरता हुआ उनको पुनः पालता और पोषता हैं और जिस प्रकार यह सूर्य आकाश और पृथिवी दोनों के बीच विचरता हुआ (उभे) दोनों (रोदसी) लोकों को साक्षात् करता और पालन पोषण करता है उसी प्रकार तू भी समस्त लोकों को (उपावसि) स्वयं उन में व्यापक होकर रक्षा करता और (पृणक्षि) पालन करता है। इसी प्रकार देहगत जीवात्मा पर भी यह मन्त्र स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा कीदृशोऽस्ति किं च करोतीत्याह।
पदार्थः
हे अग्ने अग्रनायक जगदीश्वर ! (पावकवर्चाः) पवित्रकारितेजस्कः, (शुक्रवर्चाः) उज्ज्वलतेजस्कः पूततेजस्कश्च, (अनूनवर्चाः) अन्यूनतेजस्कः, त्वम् (भानुना) ज्योतिषा सह, उपासकानाम् अन्तरात्मम् (उदियर्षि) उद्गच्छसि। (मातरा) मात्रोः मातापित्रोः अन्तिके (विचरन्) भ्रमन् (पुत्रः) तनयः इव (मातरा) मात्रोः द्यावापृथिव्योः (विचरन्) भ्रमन् त्वम् तौ (उपावसि) रक्षसि। अपि च (उभे) द्वे अपि (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (पृणक्षि) परस्परं संयोजयसि। [पृची सम्पर्चने, रुधादिः] ॥२॥२ अत्र तृतीये पादे श्लिष्टो लुप्तोपमालङ्कारः। ‘वर्चा’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः ॥२॥
भावार्थः
परमेश्वरो हि सूर्यवत् स्वकीयेन दिव्येन तेजसा स्तोतॄणां हृदयं पुनाति, द्यावापृथिव्यौ रक्षति तयोर्मध्ये परस्परं सामञ्जस्यं च स्थापयति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, with purifying, brilliant sheen, with perfect sheen. Thou manifestest Thyself in the heart. Just as a son residing with his parents protects them, so dost Thou guard both Heaven and Earth!
Translator Comment
See Yajur 12-107.
Meaning
Lord of flames of purity, master of immaculate light and power absolutely free from want and weakness, you rise with self-refulgence and, just as the son closely abides by the parents, serves and protects them, so do you pervade, sustain and protect the heaven and earth. (Rg. 10-140-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (पावकवर्चाः) હે અગ્રણી પરમાત્મન્ ! તું પવિત્રકારક તેજવાળો, (शुक्रवर्चाः) શુભ્ર તેજવાળો, (अनूनवर्चाः) પૂર્ણ તેજવાળો બનીને (भानुना उदिर्यषि) તારા જ્ઞાન પ્રકાશથી ઉપાસકની અંદર ઉદય પામે છે-રહે છે. અથવા એ આસ્તિકને સંસારમાં સદા પ્રકાશતો રહે છે. (पुत्रः मातरा विचरन् उप अवसि) જેમ પુત્ર માતા-પિતાની પાસે ફરતો રહીને તૃપ્ત કરે છે, તેમ મને-ઉપાસકને પણ તૃપ્ત કર. (उभे रोदसी पूर्णक्षि) બન્ને દ્યુલોક અને પૃથિવી લોકને-અપવર્ગ સ્થાન મોક્ષધામને તથા ભોગસ્થાન વિસ્તૃત સંસારને અભ્યુદયને આત્માના બન્ને આશ્રયને (पृणक्षि) અમારા માટે સંપુક્ત કરાવે છે, સંબંધ કરાવે છે, તેના ભોગ અને અમૃતનો ભોગ કરાવે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सूर्याप्रमाणे आपल्या दिव्य तेजाने स्तोत्यांच्या हृदयाला पवित्र करतो. द्यावा पृथ्वीचे रक्षण करतो व त्यांच्यामध्ये आपापसात सामंजस्य स्थापित करतो. ॥२॥
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