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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1818
    ऋषिः - अग्निः पावकः देवता - अग्निः छन्दः - सतोबृहती स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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    ऊ꣡र्जो꣢ नपाज्जातवेदः सुश꣣स्ति꣢भि꣣र्म꣡न्द꣢स्व धी꣣ति꣡भि꣢र्हि꣣तः꣢ । त्वे꣢꣫ इषः꣣ सं꣡ द꣢धु꣣र्भू꣡रि꣢वर्पसश्चि꣣त्रो꣡त꣢यो वा꣣म꣡जा꣢ताः ॥१८१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ꣡र्जः꣢꣯ । न꣣पात् । जातवेदः । जात । वेदः । सुशस्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । शस्ति꣡भिः꣢ । म꣡न्द꣢꣯स्व । धी꣣ति꣡भिः꣢ । हि꣣तः꣢ । त्वे꣡इति꣢ । इ꣡षः꣢꣯ । सम् । द꣣धुः । भू꣡रि꣢꣯वर्पसः । भू꣡रि꣢꣯ । व꣣र्पसः । चित्रो꣡त꣢यः । चि꣣त्र꣢ । ऊ꣣तयः । वाम꣡जा꣢ताः । वा꣣म꣢ । जा꣣ताः ॥१८१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः । त्वे इषः सं दधुर्भूरिवर्पसश्चित्रोतयो वामजाताः ॥१८१८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जः । नपात् । जातवेदः । जात । वेदः । सुशस्तिभिः । सु । शस्तिभिः । मन्दस्व । धीतिभिः । हितः । त्वेइति । इषः । सम् । दधुः । भूरिवर्पसः । भूरि । वर्पसः । चित्रोतयः । चित्र । ऊतयः । वामजाताः । वाम । जाताः ॥१८१८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1818
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (ऊर्जः नपात्) बल और प्राणशक्ति को न गिरने देनेवाले, प्रत्युत बढ़ानेवाले (जातवेदः) सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी जगत्पति परमात्मन् ! (धीतिभिः) ध्यान-क्रियाओं से (हितः) हृदय में धारण किये हुए आप (सुशस्तिभिः) उत्तम प्रशस्तियों से (मन्दस्व) हमें आनन्दित करो। (भूरिवर्पसः) बहुत से रूपों अर्थात् गुणोंवाले, (चित्रोतयः) मञ्जुल आचरणोंवाले (वामजाताः) सेवनीय आचार्य से श्रेष्ठ जन्म को प्राप्त उपासक (त्वयि) आप में (इषः) अपनी अभिलाषाओं को (संदधुः) सञ्जोये हुए हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपने आपको परमात्मा में समर्पित कर देते हैं, वे सुप्रशस्तिमान् और सुकीर्तिमान् होते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (ऊर्जः-नपात्-जातवेदः) हे उपासक के बल को न गिराने वाले अपितु बढ़ाने वाले उत्पन्न मात्र के ज्ञाता परमात्मन्! (सुशस्तिभिः-धीतिभिः) उत्तम प्रशंसाओं स्तुतियों और योगाभ्यास कर्मों से६ (हितः) धारण किया हुआ (मन्दस्व ‘मन्दयस्व’) आनन्दित कर (भूरिवर्पसः) बहुत रूप में उपासना करने वाले—बहुत प्रकार वरने वाले७ (चित्रोतयः) अद्भुत प्रीति वाले (वामजाताः) श्रेष्ठगुणजात—श्रेष्ठ गुणों से संजात प्रसिद्ध उपासक (त्वे) तेरे अन्दर (इषः) कामनाएँ (सन्दधुः) सन्धानित कर देते हैं और हम उपासकों ने तुझे ही ऐसा अपना आधार बनाया है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘अग्नि-पावक’, प्रभु का ध्यान करता हुआ कहता है— १. (ऊर्जः नपात्) = आप मेरी शक्ति को न गिरने देनेवाले हैं [ऊर्ज्=शक्ति, न=नहीं, पात= गिरने देनेवाला] । सदा आपके समीप रहने से मैं व्यसनों से बचा रहता हूँ — भोगों में न फँसने से रोगों का शिकार भी नहीं होता, मेरी शक्ति स्थिर रहती है । २. (जातवेदः) = आप प्रत्येक उत्पन्न हुई वस्तु को जानते हैं—प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान हैं। मैंने कर्म किया और आपने जाना, किया ही क्या, करने की सोची और आपने मेरी भावना जानी। आपसे मेरा छिपा ही क्या है, अतः आपके सामने ही धर्म के मार्ग का उल्लंघन करके आपका निरादर थोड़े ही करूँगा ? ३. (सुशस्तिभिः मन्दस्व) = आप मेरे उत्तम शंसनों व स्तुतियों द्वारा आनन्दित हों। मेरी आराधनाएँ आपको रिझाने में समर्थ हों। मैं अपनी स्तुतियों से आपको प्रसन्न कर सकूँ । ४. (धीतिभिः हितः) = आप ध्यान-क्रियाओं के द्वारा मुझमें स्थापित होते हैं। सर्वव्यापकता के नाते आप सर्वत्र हैं, परन्तु मैं ध्यान से ही तो आपको अपने अन्दर प्रतिष्ठित कर पाता हूँ। मेरे लिए तो आपकी प्रतिष्ठा मेरे हृदय मन्दिर में तभी होती है जब मैं ध्यानावस्थित होकर आपका दर्शन करने का प्रयत्न करता हूँ ।५. ऐसे ही लोग जोकि ध्यान से आपको हृदय-मन्दिर में प्रतिष्ठित पाते हैं (त्वे इषः सन्दधुः) = आप में स्थित होते हुए प्रेरणाओं को धारण करते हैं। आपकी प्रेरणा को सुनते हैं और तदनुसार ही अपने जीवन को बनाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे ६. (भूरिवर्पसः) = [वर्पस्=form, figure या praise] बड़ी सुन्दर आकृतिवाले होते हैं—आपके दर्शन के आनन्द की झलक उनके चेहरों को भी दीप्त करती है और उनके मुख से आपका अधिकाधिक स्तवन होने लगता है ७. (चित्र-ऊतयः) = इनका जीवन अद्भुत रक्षणोंवाला होता है । उस अमृत प्रभु के रक्षण में इनपर कोई भी आसुर वृत्ति आक्रमण कर ही कैसे सकती है ? अमृत आपसे आवेष्टित होने पर मृत्यु इन तक पहुँच ही कैसे सकती है ? ८. (वाम-जाता:) = परिणामतः इनका जीवन [जात] बड़ा सुन्दर [वाम] बन जाता है। प्रभु के दर्शन में जीवन सुन्दर नहीं बनेगा तो बनेगा ही कब ?

    भावार्थ

    प्रभु की उपासना में मेरा जीवन सुन्दर, सुन्दरतर व सुन्दरतम होता चले।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (ऊर्जो नपात्) बल को, सामार्थ्य को एवं ब्रह्मानन्दरस को कभी न परित्याग करने हारे ! हे (जातवेदंः) सर्वज्ञ ! तू (सुशस्तिभिः) उत्तम स्तुतियों से और (धीतिभिः) वेदाध्ययन और अग्निहोत्रादि यज्ञाधानों से (मन्दस्व) प्रसन्न हो, अपना आनन्दमय स्वरूप प्रकट कर। (भूरिवर्चसः) नानारूप (चित्रोतयः) विचित्र या मनोहर बुद्धि वाले (वामजाताः) उत्तम प्रकृति के कुलीन, विद्वान् लोग भी (त्वे) तेरे निमित्त ही (इषः) नाना अन्न आदि हवियों को (संदधुः) अग्नि में डालते हैं। या तेरे आश्रय नाना कामनाएं करते है।

    टिप्पणी

    ‘मन्दस्वधीतिभिः’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (ऊर्जः नपात्) बलस्य प्राणशक्तेश्च न पातयितः प्रत्युत प्रवर्धक (जातवेदः) सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामिन् जगत्पते ! (धीतिभिः) ध्यानक्रियाभिः (हितः) हृदि निहितस्त्वम् (सुशस्तिभिः) सुप्रशस्तिभिः, अस्मान् (मन्दस्व) मोदयस्व [मन्दतिरत्र ण्यर्थगर्भो बोध्यः] (भूरिवर्पसः) बहुरूपाः, विविधगुणा इत्यर्थः। [वर्प इति रूपनाम। निघं० ३।७।] (चित्रोतयः) चित्रा मञ्जुला ऊतिः गतिः आचारो येषां ते। [ऊतिः, अव रक्षणगत्यादिषु। ‘ऊतियूतिजूति०’ अ० ३।३।९७ इत्युदात्ते क्तिनि ‘ज्वरत्वर०’ अ० ६।४।२० इति ऊठ्।] (वामजाताः) सेवनीयात् आचार्यात् प्राप्तश्रेष्ठजन्मानः उपासकाः (त्वे) त्वयि (इषः) स्वकीयान् अभिलाषान् (संदधुः) समर्पयन्ति ॥३॥२

    भावार्थः

    ये जनाः स्वात्मानं परमात्मने समर्पयन्ति ते सुप्रशस्तयः सुकीर्तिमन्तश्च जायन्ते ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God of unfailing strength. Omniscient, be gratified with our praises and Vedic recitations. Various sorts of noble well-bred learned persons, possessing a fine intellect, depend upon Thee, for fulfillment of their desires!

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    Meaning

    O divine light and fire of life, child as well as protector and sustainer of energy pervasive in the entire world of existence, rise and rejoice as well as exhilarate us, with hymns and noble thoughts and actions as you are invoked and kindled in the vedi and in the heart and soul. Faithful celebrants bring you food in homage, and in you they vest their desires and aspirations of various forms and wondrous efficacy arisen from love of the heart and soul. (Rg. 10-140-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ऊर्जः नपात् जातवेदः) હે ઉપાસકના બળને ન પડવા દેનાર પરંતુ વધારનાર-રક્ષક, ઉત્પન્ન થયેલા પ્રાણી-પદાર્થ માત્રના જ્ઞાતા પરમાત્મન્ ! (सुशस्तिभिः धीतिभिः) ઉત્તમ પ્રશંસાઓ સ્તુતિઓ અને યોગાભ્યાસ કર્મો દ્વારા (हितः) ધારણ કરેલાં (मन्दस्व "मन्दयस्व") આનંદિત કર (भूरिवर्पसः) બહુજ રૂપમાં ઉપાસના કરનારા-બહુજ પ્રકારથી વરણીય (चित्रोतयः) અદ્ભુત પ્રીતિવાળા (वामजाताः) શ્રેષ્ઠ ગુણ જાતશ્રેષ્ઠ ગુણોથી સંજાત-ઉત્પન્ન પ્રસિદ્ધ ઉપાસક (त्वे) તારી અંદર (इषः) કામનાઓ (सन्दधुः) સંધાનિત કરી દે છે, તેમ અમે ઉપાસકોએ તને જ પોતાનો આધાર બનાવેલ છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे स्वत:ला परमात्म्याला समर्पित करतात ते सुप्रशस्तिमान व सुकीर्तिमान असतात. ॥३॥

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