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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 185
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    31

    य꣡ꣳ रक्ष꣢꣯न्ति꣣ प्र꣡चे꣢तसो꣣ व꣡रु꣢णो मि꣣त्रो꣡ अ꣢र्य꣣मा꣢ । न꣢ किः꣣ स꣡ द꣢भ्यते꣣ ज꣡नः꣢ ॥१८५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢म् । र꣡क्ष꣢꣯न्ति । प्र꣡चे꣢꣯तसः । प्र । चे꣣तसः । व꣡रु꣢꣯णः । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । अ꣣र्यमा꣢ । न । किः꣣ । सः꣢ । द꣣भ्यते । ज꣡नः꣢꣯ ॥१८५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यꣳ रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा । न किः स दभ्यते जनः ॥१८५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । रक्षन्ति । प्रचेतसः । प्र । चेतसः । वरुणः । मित्रः । मि । त्रः । अर्यमा । न । किः । सः । दभ्यते । जनः ॥१८५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 185
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में मित्र, वरुण और अर्यमा का विषय है।

    पदार्थ

    प्रथम—अध्यात्मपक्ष में। ऋचा का देवता इन्द्र होने से इन्द्र को सम्बोधन अपेक्षित है। हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! (यम्) जिस मनुष्य की (प्रचेतसः) हृदय में सदा जागनेवाले (वरुणः) पाप-निवारण का गुण, (मित्रः) मित्रता का गुण और (अर्यमा) न्यायकारिता का गुण (रक्षन्ति) विपत्तियों से बचाते तथा पालते हैं, (सः) वह (जनः) मनुष्य (नकिः) कभी नहीं (दभ्यते) हिंसित होता है ॥ द्वितीय—राष्ट्रपक्ष में। (यम्) जिस राजा की (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चित्तवाले, प्रकृष्ट विज्ञानवाले, सदा जागरूक (वरुणः) पाशधारी, शस्त्रास्त्रों से युक्त, शत्रुनिवारक, सेनापति के पद पर चुना गया सेनाध्यक्ष, (मित्रः) देश-विदेश में मित्रता के संदेश को फैलानेवाला मैत्रीसचिव, और (अर्यमा) न्यायाधीश वा न्यायमन्त्री (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं, (सः) वह (जनः) राजा (नकिः) कभी भी किसी से नहीं (दभ्यते) पराजित या हिंसित होता है ॥१॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिए कि पाप-निवारण, मैत्री तथा न्याय के गुणों को अपने हृदय में धारण करें, और राजा को चाहिए कि वह अपने राष्ट्र में सेनाध्यक्ष, मैत्रीसचिव, न्यायाधीश आदि के विविध पदों पर सुयोग्य जनों को ही नियुक्त करे, जिससे शत्रुओं का उच्छेद और प्रजा का उत्कर्ष निरन्तर सिद्ध होते रहें ॥१॥

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    पदार्थ

    (यम्) हे इन्द्र—ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! जिस उपासक को तेरी उपासना से उसके अन्दर (वरुणः) वरणीय-शरणप्रद (मित्रः) सहायक स्नेही (अर्यमा) आनन्दप्रद स्वामी नाम से ये तेरे स्वरूप (प्रचेतसः) प्रत्यक्ष—साक्षात् हुए (रक्षन्ति) रक्षित रखते हैं, सम्भालते हैं (सः-जनः) वह उपासक जन (न किः-दभ्यते) न कभी दबाया—सताया जा सकता है।

    भावार्थ

    जिस उपासक के अन्तरात्मा में हे परमात्मन्! तेरे वरुण-शरणप्रद, मित्र सहायक स्नेही, अर्यमा आनन्ददाता स्वामी स्वरूप साक्षात् हो जाते हैं वे उसकी नितान्त रक्षा करते हैं वह विपरीत विघ्न या विघ्नकर्ता से दबाया सताया नहीं जा सकता है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—घौरः कण्वः (अति वक्ता मेधावी विद्वान्)॥<br>

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    विषय

    कौन हिंसित नहीं होता ?

    पदार्थ

    (सः जनः) = वह विकासशील मनुष्य (न कि:) = नहीं (दभ्यते) = हिंसित होता (यम्) = जिसकी प्(रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले (वरुणोः मित्रोः अर्यमा) = वरुण, मित्र और अर्यमा (रक्षन्ति) = रक्षा करते हैं।

    ‘जनः’ शब्द मनुष्य के लिए उस समय प्रयुक्त होता है, जब [जनी प्रादुर्भावे] प्रादुर्भाव व विकास का संकेत करना हो । जो मनुष्य अपना विकास करता है वह कण-कण करके अपने अन्दर उत्तमता का संग्रह करता है, अतः वह कण्व कहलाता है। यह कण्व ही मेधावी है, क्योंकि यह धैर्य और अध्यवसायपूर्वक अपने जीवन को उत्तम बनाने में लगा है। यह अपने अन्दर जिन भावनाओं को मूर्तरूप देने का प्रयत्न करता है, उनका संकेत निम्न शब्दों से हो रहा है

    १. (वरुणः)=‘वरुणो नाम वरः श्रेष्ठ : ' = वरुण अर्थात् श्रेष्ठ । श्रेष्ठ वह है जो अपने आन्तर शत्रुओं को जीतकर अपने जीवन को निर्मल बनाता है। बाह्य शत्रुओं के विजय की अपेक्षा इन आन्तर शत्रुओं को जीतना कहीं अधिक महत्त्व रखता है। इन्हें जीतकर हम त्रिभुवन को जीत लेते हैं।

    २. (मित्र:)=यह [प्रमीतेः त्रायते] मृत्यु व पाप से अपने को बचाता है। अथवा [मिद्-स्नेह करना] प्राणिमात्र के प्रति स्नेह की भावना को अपने अन्दर उपजाता है। श्रेष्ठ बनने के लिए द्वेष से दूर होना नितान्त आवश्यक है। यह यथासम्भव औरों को भी मृत्यु व पाप से बचाने के लिए यत्नशील होता है।

    ३. (अर्यमा)='अर्यमेति तमाहुः यो ददाति' इस ब्राह्मणवाक्य के अनुसार अर्यमा का अर्थ है दाता। यह देने की भावना को अपने अन्दर उपजाता है। वस्तुत: दान [ दा = देना] ही मानव जीवन को शुद्ध [दा- शोधने] बनाता है तथा उसके बन्धनों को काटता है [दा- काटना]। ४. उपर्युक्त तीनों शब्दों का विशेषण मन्त्र में ‘प्रचेतसः'='प्रकृष्ट ज्ञानी' दिया गया है। उन सब बातों के साथ 'उत्कृष्ट ज्ञान' होना भी आवश्यक है। वस्तुतः उत्कृष्ट ज्ञान के बिना उनका होना सम्भव भी नहीं ।

    इन सब बातो को जब कण्व अपने जीवन में लाता है तब वह कभी हिंसित नहीं होता, उल्लिखित दिव्य गुण उसकी रक्षा कर रहे होते हैं। वह कण्व धोर बन जाता है।

    भावार्थ

    हम अपने जीवनों को ज्ञान, जितेन्द्रियता, निर्देषता व दानशीलता से अलंकृत करने के लिए प्रयत्नशील हों ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( प्रचेतसः ) = उत्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न ( वरुणः ) = वरुण, सबसे श्रेष्ठ ( मित्रः ) = मित्र ,सबका स्नेही और ( अर्यमा ) = अन्तर्यामी, न्यायकारी जन ( यं ) = जिसकी ( रक्षन्ति ) = रक्षा करते हैं ( सः ) = वह ( जन:) = मनुष्य ( नकिः दभ्यते ) = कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होता ।

    बृहदारण्यकोपनिषद् के ( अ० ३ ) में इन देवों की पिण्ड और ब्रह्माण्ड में स्थिति का निर्णय किया है । 

    टिप्पणी

    १८५ - 'नू चित्स' इति । ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - कण्व:। 

     देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्राद्ये मन्त्रे मित्रवरुणार्यमविषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—अध्यात्मपरः। ऋचः इन्द्रदेवताकत्वाद् इन्द्रः सम्बोध्यः। हे इन्द्र मदीय अन्तरात्मन् ! (यम्) जनम् (प्रचेतसः) हृदि सदा जागरूकाः। प्रकृष्टं चेतः संज्ञानं जागरूकत्वं वा येषां ते। चिती संज्ञाने। (वरुणः) पापनिवारको गुणः। यो वारयति पापादीनि स वरुणः। वृञ् आवरणे चुरादिः, कृवृदारिभ्य उनन् उ० ३।५३ इति उनन् प्रत्ययः. (मित्रः) मित्रतायाः गुणः। डुमिञ् प्रक्षेपणे। मिनोति दोषादीन् प्रक्षिपति यो येन वा स मित्रः। अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः उ० ४।१६५ इति क्त्रः प्रत्ययः। (अर्यमा) न्यायकारितायाः गुणश्च। यः अर्यान् श्रेष्ठान् मिमीते यथार्थतया परिच्छिनत्ति सोऽर्यमा। अर्योपपदाद् माङ् माने धातोः श्वन्नुक्षन्पूषन्० उ० १।१५९ इति कनिन्प्रत्ययान्तो निपातः। (रक्षन्ति) विपद्भ्यस्त्रायन्ते पालयन्ति च, (स जनः) असौ मनुष्यः (न किः) न कदापि (दभ्यते) हिंस्यते। दभ्नोतिः हिंसाकर्मा। निघं० २।१९ ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। (यम्) इन्द्रं राजानम् (प्रचेतसः) प्रकृष्टचित्ताः, प्रकृष्टविज्ञानाः, सदा जागरूकाः (वरुणः) पाशपाणिः२, शस्त्रास्त्रयुक्तः, शत्रुनिवारकः३, सेनापतित्वे वृतः४ श्रेष्ठः सेनाध्यक्षः मित्रः देशे विदेशे च मैत्रीसन्देशप्रसारकः मैत्रीसचिवः, (अर्यमा५) न्यायाधीशो न्यायमन्त्री वा (रक्षन्ति) त्रायन्ते (सः) असौ (जनः) जातो राजा (नकिः) न कदापि (दभ्यते) पराजीयते हिंस्यते वा ॥१॥६ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैः पापनिवारणस्य मैत्र्या न्यायस्य च गुणाः स्वहृदये धारणीयाः, नृपतिना च स्वराष्ट्रे सेनाध्यक्षत्व-मैत्रीसचिवत्व-न्यायाधीशत्वादिविविधपदेषु सुयोग्या एव जना नियोक्तव्याः, येन शत्रूच्छेदः प्रजोत्कर्षश्च सततं सिध्येताम् ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।४१।१, देवता मित्रवरुणार्यमणः। नकिः इत्यत्र नूचित् इति पाठः। २. शतेन पाशैरभिधेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ् नृचक्षः। आस्तां जाल्म उदरं श्रसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः। अथ० ४।१६।७। ३. वारयति शत्रूनिति वरुणः। वृञ् आवरणे, चुरादिः। ४. व्रियते इति वरुणः। वृञ् वरणे। ५. (अर्यमा) यः पक्षपातं विहाय न्यायं कर्तु समर्थः इति ऋ० १।४१।१ भाष्ये, योऽर्यान् मन्यते स न्यायाधीशः इति च य० ३६।९ भाष्ये द०। ६. दयानन्दर्षिर्ऋग्वेदभाष्येऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने भावार्थमेवमाह—“मनुष्यैः (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः सेनासभाध्यक्षः (मित्रः) सर्वमित्रो दूतोऽध्यापकः उपदेष्टा (अर्यमा) धार्मिको न्यायाधीशश्च कर्तव्यः। तेषां सकाशाद् रक्षणादीनि प्राप्य सर्वान् शत्रून् शीघ्रं हत्वा चक्रवर्तिराज्यं प्रशास्य सर्वहितं संपादनीयम्” इति ।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Never does ho suffer mentally whom wisdom, purity, love and justice protect.

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    Meaning

    The man whom Prachetas, men of knowledge and wisdom, Varuna, distinguished and meritorious man, Mitra, friend of all, Aryama, man of justice, all these protect and advance (is really strong). Can he ever be hurt, bullied or suppressed? No! (Rg. 1-41-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઈન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! જે ઉપાસકે તારી ઉપાસનાથી તેની અંદર (वरुणः) વરણીય-શરણપદ (मित्रः) સહાયક સ્નેહી (अर्यमा આનંદપ્રદ સ્વામી નામથી એ તારું સ્વરૂપ (प्रचेतसः) પ્રત્યક્ષ-સાક્ષાત્ થઈને (रक्षन्ति) રક્ષિત રાખે છે, સંભાળે છે (स जनः) તે ઉપાસક જનને (न किः दभ्यते) કદીપણ દબાવી-સતાવી શકાતો નથી. (૧)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જે ઉપાસકના અન્તરાત્મામાં હે પરમાત્મન્ ! તારું વરુણ = શરણપ્રદ, મિત્ર = સહાયક સ્નેહી, અર્યમા = આનંદદાતા સ્વામી સ્વરૂપ સાક્ષાત્ થઈ જાય છે, તે તેની સર્વથા રક્ષા કરે છે, તેને વિપરીત વિઘ્ન અથવા વિઘ્નકર્તાથી દબાવી કે સતાવી શકાતો નથી. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    تِین ایشوری شکتیاں

    Lafzi Maana

    پرمیشور کی (ورُون) پاپ نوارن کی شکتی (مِتر) اُس کی مترتا اور (اریما) طرف داری سے الگ مُنصفانہ شکتی نیائے کی (یم چرچتیسہ) جس عابد عارف کی یہ تینوں طاقتیں (رکھشنتی) حفاظت کرتی ہیں (سہ جنہ نہ کی دمیتّے) وہ اُپاسک منش کسی بھی بدی کے خیال سے دبایا نہیں جا سکتا۔ یعنی جو بدی سے دُور بھگوان کا پیارا اور ہمیشہ انصاف پسند بنا رہتا ہے، اُس کو کوئی نشٹ نہیں کر سکتا۔

    Tashree

    اِیشور کا دوست بن عادل ہو اور بدیوں سے دُور، کیا مجال ہے کون تیرا بال بینکا کر سکے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी पापनिवारण, मैत्री व न्यायाचे गुण आपल्या हृदयात धारण करावे व राजाने आपल्या राष्ट्रात सेनाध्यक्ष, मैत्रीसचिव, न्यायाधीश इत्यादी विविध पदांवर सुयोग्य लोकांनाच नियुक्त करावे, ज्यामुळे शत्रूंचा उच्छेद व प्रजेचा उत्कर्ष निरंतर सिद्ध व्हावा. ॥१॥

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    विषय

    या दशतीच्यारथम मंत्रात मित्र, वरूण आणि अर्थमा याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (अध्यात्मपर) या ऋचेची देवता इन्द्र असल्यामुळे इन्द्राला संबोधित केले आहे. हे इन्द्र, हे माझी अंतरात्मा (यम्) ज्या मनुष्याच्या (प्रचेतसः) हृदयात सदैव जागृत असणारे (वरुणः) पाप - निवारण गुण (मित्रः) मैत्रीचे गुण आणि (अर्यमा) न्यायकारितेचे गुण (रक्षन्ति) त्याची सदैव रक्षा करतात, विपत्तींपासून त्याला वाचवतात आणि त्याचे पालन करतात (सः) तो (जनः) मनुष्य (नकिः) कधीही (दभ्यते) कोणाकडून पराजित वा हिंसित होत नाही. (द्वितीय अर्थ) - (राष्ट्रपर) - ज्या राजाचा (प्रचेतसः) एक उदात्त चित्त अतिविज्ञत्रानवान व सदैव जागरूक असा (वरुणः) पाराधारी, शस्त्रास्त्रधारी, शत्रुपराजेता व्यक्ती सेनापती असतो, तसेच एक (मित्रः) देश- विदेशापर्यंत मैत्रीचा संदेश देणारा मैत्रीसचिव (विदेश मंत्री) असतो आणि एक (अर्यमा) निष्पक्ष न्यायाधीश (कायदा मंत्री) असतो व हे तिघे (यम्) ज्या राजाचे (ऱक्षन्ति) रक्षण करतात, (सः) तो (जनः) राजा (नकिः) कधीही कोणाकडून (दभ्यते) पराजित वा हिंसित होत नाही. ।। १।।

    भावार्थ

    सर्वांचे हे कर्तव्य आहे की त्यानी आपल्या हृदयात पाप- निवारण, मैत्री आणि न्याय हे सद्वुण धारण करावेत. तसेच राजाचेही कर्तव्य आहे की त्याने आपल्या राष्ट्रात सेनाध्य्क्ष, मैत्री सचिव आणि न्यायाधीश आदी विविध पदांवर सुयोग्य व्यक्तींनाच नेमावे. यामुळे राज्यात प्रजेचा उत्कर्ष होत राहील आणि शत्रूंचा विनाश होईल. ।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    பெருமையான ஞானமுள்ள (வருணன் மித்ரன் அர்யமானான தேவர்கள்) [1]எவனை இரட்சிக்கிறார்களோ அவன் எப்பொழுதும் இம்சிக்கப்படுவதில்லை.

    FootNotes

    [1].எவனை - சத் புருஷர்கள்

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