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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1865
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
49
अ꣣मित्रसेनां꣡ म꣢घवन्न꣣स्मा꣡ञ्छ꣢त्रुय꣣ती꣢म꣣भि꣢ । उ꣣भौ꣡ तामि꣢꣯न्द्र वृत्रहन्न꣣ग्नि꣡श्च꣢ दहतं꣣ प्र꣡ति꣢ ॥१८६५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣मित्रसेना꣢म् । अ꣣मित्र । सेना꣢म् । म꣣घवन् । अस्मा꣢न् । श꣣त्रुयती꣢म् । अ꣣भि꣢ । उ꣡भौ꣢ । ताम् । इ꣣न्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अग्निः꣢ । च꣣ । दहतम् । प्र꣡ति꣢꣯ ॥१८६५॥
स्वर रहित मन्त्र
अमित्रसेनां मघवन्नस्माञ्छत्रुयतीमभि । उभौ तामिन्द्र वृत्रहन्नग्निश्च दहतं प्रति ॥१८६५॥
स्वर रहित पद पाठ
अमित्रसेनाम् । अमित्र । सेनाम् । मघवन् । अस्मान् । शत्रुयतीम् । अभि । उभौ । ताम् । इन्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अग्निः । च । दहतम् । प्रति ॥१८६५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1865
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर उसी विषय को कहा गया है।
पदार्थ
हे (मघवन्) दिव्य ऐश्वर्यवाले, (वृत्रहन्) शत्रुहन्ता (इन्द्र) वीर जीवात्मन् ! (अस्मान् अभि) हमारे प्रति (शत्रुयतीम्) शत्रुता का आचरण करनेवाली (ताम्) उस विकराल (अमित्रसेनाम्) रिपु-सेना को, तू (अग्निः च) और तैजस मन (उभौ) दोनों (प्रतिदहतम्) भस्म कर दो ॥२॥
भावार्थ
जैसे राजा और सेनापति के उद्योग से सब बाह्य शत्रु निःशेष हो जाते हैं, वैसे ही आन्तरिक देवासुरसङ्ग्राम में जीवात्मा और मन सब विघ्नों और रिपुओं को दग्ध करने में समर्थ होते हैं ॥२॥
पदार्थ
(मघवन्-इन्द्र-अग्निः-च) ऐश्वर्यवन् परमात्मन् तथा ज्ञानप्रकाश-स्वरूप परमात्मन् (उभौ) दोनों रूपों वाले तू (अस्मान्-अभि) हमारे प्रति (तां शत्रुयतीम्-अमित्रसेनाम्) उस शत्रुभाव को प्राप्त हुई काम आदि शत्रु सेना को (प्रति दहतम्) प्रति दग्ध कर—सर्वथा भस्म कर—नष्ट कर॥२॥
विशेष
<br>
विषय
इन्द्र और अग्नि अमित्र-सेना को भस्म कर दें
पदार्थ
काम, क्रोध आदि की एक फ़ौज है । यह हमपर सदा आक्रमण करती है और हमारी शक्तियों को छिन्न-भिन्न [Shatter] करती रहती है । ज्ञान के ऐश्वर्यवाला जीव ही इसे नष्ट कर सकता है, बशर्ते कि वह सब वृत्रों – वासनाओं का नाश करनेवाले अग्निरूप प्रभु को अपना साथी बनाये। जीव स्वयं ज्ञान-प्राप्ति आदि उद्योगों में लगा रहे और प्रभु का सदा स्मरण करे तभी इन कामादि का दहन [विनाश] हो सकता है । मन्त्र में इस सारी भावना को इस प्रकार कहते हैं कि हे (मघवन्) = ज्ञानैश्वर्य से सम्पन्न (इन्द्र) = जीवात्मन्! हे (वृत्रहन्) = वृत्रों के विनाश करनेवाले जीव! (अग्निः च) = और यह अग्निरूप परमात्मा (उभौ) = आप दोनों (ताम्) = उस (अमित्रसेनाम्) = कामादि शत्रुओं की सेना को (प्रतिदहतम्) = एक-एक करके जला दो जो (अस्मान् अभिशत्रुयतीम्) = हमारी शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर रही है ।
वस्तुतः वासनाओं की सेना का विनाश तो तभी होगा जब १. मघवन् - जीव ज्ञान-ऐश्वर्यसम्पन्न बनेगा। २. वृत्रहन्-इन वासनाओं को नष्ट करने का दृढ़ संकल्प करेगा । ३. अग्निः च=उस प्रभु को अपना अगुआ बनाएगा [अग्रेणी:] । प्रभु को अपना साथी बनाये बिना अकेला जीव इस कार्य में कभी समर्थ नहीं हो सकता ।
भावार्थ
प्रभु को अपना सारथि बनाने पर विजय निश्चित है।
विषय
missing
भावार्थ
हे (मघवन्) इन्द ! राजन् ! (अस्मान्) हमारे प्रति (अभि शत्रुयतीम्) साक्षात् शत्रुरूप होकर चढ़ाई करती हुई, (ताम्) असह्य बलवती (अमित्रसेनां) शत्रु सेना का आप (अग्निः च) और अग्नि अग्रणी दोनों मिलकर (प्रति दहतं) भस्म कर डालो। अध्यात्मपक्ष में—हे (इन्द्र) वृत्रहन् ! अज्ञाननाशक ! मघवन् ज्ञानवन् पुरुष ! तुम उस अमित्र=द्वेषभावों की परम्परा को अग्निरूप परमात्मा से मिलकर भस्म करदो।
टिप्पणी
तं युवं ‘तामिन्द्र वृत्रहन्’ इति अथर्व०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे (मघवन्) दिव्यैश्वर्यवन्, (वृत्रहन्) शत्रुहन्तः (इन्द्र) वीर जीवात्मन् ! (अस्मान् अभि) अस्मान् प्रति (शत्रुयतीम्) शत्रुत्वमाचरन्तीम्, (ताम्) विकरालाम् (अमित्रसेनाम्) रिपुसेनाम्, त्वम् (अग्निः च) तैजसं मनश्च (उभौ) द्वावपि (प्रतिदहतम्) भस्मीकुरुतम् ॥२॥
भावार्थः
यथा नृपतेः सेनापतेश्चोद्योगेन सर्वे बाह्याः शत्रवो निःशेषा जायन्ते तथैवाभ्यन्तरे देवासुरसंग्रामे जीवात्मा मनश्च सर्वान् विघ्नान् रिपूंश्च प्रतिदग्धुं प्रभवतः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O philanthropic, foe-slaying king and the leader of the army, Ye both, burn down the host of foemen, that cometh on us in a warlike fashion!
Meaning
Indra commander of the mighty defence force, march upon the enemy army that attacks us. Indra, breaker of dark clouds over the land, and Agni, commander of the fire force, both counter, rout and burn them with your fire power.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मघवन् इन्द्र अग्निः च) ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (उभौ) બન્ને રૂપોવાળો તું (अस्मान् अभि) અમારા પ્રત્યે (तां शत्रुयतीम् अमित्रसेनाम्) તે શત્રુભાવને પ્રાપ્ત થયેલ કામ આદિ શત્રુ સેનાને (प्रति दहतम्) પ્રતિ દગ્ધ કર, સર્વથા બાળી નાખ અને નષ્ટ કર. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे राजा व सेनापतीच्या कार्यामुळे सर्व बाह्य शत्रू नि:शेष होतात, तसेच आंतरिक देवासुर संग्रामात जीवात्मा व मन सर्व विघ्ने व शत्रूंना दग्ध करण्यास समर्थ असतात. ॥२॥
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