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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 196
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    23

    स꣡दा꣢ व꣣ इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्कृ꣢ष꣣दा꣢꣫ उपो꣣ नु꣡ स स꣢꣯प꣣र्य꣢न् । न꣢ दे꣣वो꣢ वृ꣣तः꣢꣫ शूर꣣ इ꣡न्द्रः꣢ ॥१९६

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣡दा꣢꣯ । वः꣣ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣡र्कृ꣢꣯षत् । आ । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । नु꣢ । सः । स꣣पर्य꣢न् । न । दे꣣वः꣢ । वृ꣣तः꣢ । शू꣡रः꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥१९६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सपर्यन् । न देवो वृतः शूर इन्द्रः ॥१९६


    स्वर रहित पद पाठ

    सदा । वः । इन्द्रः । चर्कृषत् । आ । उप । उ । नु । सः । सपर्यन् । न । देवः । वृतः । शूरः । इन्द्रः ॥१९६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 196
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर और राजा के वरण का विषय है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (सदा) हमेशा (वः) तुम्हें, जो (इन्द्रः) परमेश्वर वा सुयोग्य जन (आ चर्कृषत्) अतिशय बार-बार कर्मों में प्रेरित करे, और (उप उ) समीप आकर (नु) शीघ्र ही (सः) वह (सपर्यन्) तुम्हारा सत्कार करे, प्रेम से तुम्हें शुभ कर्मों के लिए साधुवाद और प्रोत्साहन प्रदान करे, वैसा (देवः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाला (शूरः) वीर (इन्द्रः) परमेश्वर वा सुयोग्य मनुष्य (वृतः न) तुमने अभी तक नेता रूप में या राजा रूप में वरा नहीं है? बिना वरे पूर्वोक्त लाभ कैसे मिल सकते हैं? अतः अवश्य ही उसका वरण करो ॥३॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे वरण किया हुआ परमेश्वर मनुष्यों को पुरुषार्थ में प्रवृत्त करता है और शुभ कर्म करनेवालों को साधुवाद देकर उत्साहित करता है, वैसे ही प्रजाओं द्वारा चुना गया राजा प्रजाओं के लिए करे ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (वः) तुम मनुष्यों को (सदा) सभी कालों में (आचर्कृषत्) आकर्षित करता है (सः) वह (नु) हाँ शीघ्र (उप-उ-सपर्यन् न) समीप में ही परिचर्या कराता हुआ सा (शूरः-देवः-इन्द्रः-वृतः) शूर—पापसंहारक शुभ गुणदाता इन्द्र परमात्मा वरण किया जाना चाहिए।

    भावार्थ

    हे सज्जनो! परमात्मा पापों का संहारक गुणों का दाता वरण किया हुआ—स्वीकार किया हुआ सदा तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करता है अपने समीप लेकर परिचर्या कराने जैसा व्यवहार करता हुआ वर्तमान रहता है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय—सेवनीय—उपास्य देव जिसका है वह परमात्मा का अनन्य उपासक)॥<br>

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    विषय

    हमने ही नहीं वरा? [ कितना दुर्भाग्य]

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि वामदेव है उत्तम, दिव्य गुणोंवाला । यह अपने साथियों से अपने को ही प्रेरणा देता हुआ कहता है कि (स इन्द्रः) = वह परमात्मा तो (वः) = आप सबको [वामदेव भी उनमें सम्मिलित है] (सपर्यन्) = आदर व प्रेम देता हुआ सदाहमेशा (उप उ नु) = निश्चय से अपने समीप (आचकृषत्) = सर्वथा आकृष्ट कर रहा है। हम जब-जब विषय-वासनाओं में भटकते हैं, उस-उस समय वह वह पदार्थ भी प्राप्त तो हमें प्रभु से ही होता है; पर साथ ही प्रभु हमें कह रहे होते हैं कि इस ऐश्वर्य की चमक में मत फँस । 'इन्द्र' तो मैं ही हूँ, वास्तविक ऐश्वर्य तो तुझे मेरे समीप आने पर ही मिलेगा । जिस मार्ग पर तू चल पड़ा है वह प्रेय है- रमणीय है, परन्तु उसकी यह रमणीयता केवल ऊपर- ऊपर की है- पर्यन्त में यह तुझे परिताप प्राप्त कराएगा । तू इधर आ, मेरी ओर आने में ही तेरा अन्तिम 'श्रेय' है। इधर आने पर तुझे मोक्ष व स्थायी शान्ति का लाभ होगा। इस प्रकार वे प्रभु हमें सदा भोगों को प्राप्त कराते हुए भी प्रेरणा दे रहे हैं और अपनी ओर आकृष्ट कर रहे हैं।

    परन्तु वामदेव कहते हैं कि यह कितना दुर्भाग्य है कि हमने उस (शूरः) = सब वासनाओं व कष्टों की इतिश्री कर डालनेवाले [ शृ हिंसायाम् ] (इन्द्र:)=परमैश्वर्यशाली (देवः) = सम्पूर्ण दिव्य गुणों के निधान उस प्रभु को (न वृतः) = नहीं वरा । उस प्रभु को वरते तो हमें सन्तप्त करनेवाली वासनाएँ कभी की नष्ट हो गई होतीं, हमने वास्तविक ऐश्वर्य को पाया होता और हम दैवी सम्पत्ति के स्वामी बन गये होते! कितने महान् लाभ से हम वञ्चित रह गये। क्यों न अब भी हम चेतें - प्रभु की प्रेरणा को सुनें और उसी के वरण का निश्चय करें। हम माया में न उलझ मायावी की शरण में चलें। उसी दिन हम उत्तम दिव्य गुणोंवाले बन सकेंगे। 

    भावार्थ

    प्रभु तो हमें सदा बुलाते हैं, हम ही नहीं सुनते। कितना दुर्भाग्य है? प्रभु का वरण कर हम सौभाग्यशाली बनें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( वः ) = आप लोगों को ( इन्द्र: ) = ऐश्वर्यशील वह इष्टदेव ( सदा ) = नित्य ( आ चर्कृषत् ) = अपने समीप आकर्षण करता है । और ( सः ) = वह ( नु ) = ही ( सपर्यन् ) = आदर, प्रेम करता हुआ ( इन्द्रः ) = आत्मा परमात्मा ( शूरः ) = शीघ्र गति वाला या ज्ञान सम्पन्न ( देवः ) = देव क्या ( न वृतः ) = नहीं वरण किया जाता ? वह सबसे अधिक वरण करने योग्य है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य नृपतेश्च वरणविषयमाह।

    पदार्थः

    हे जनाः ! (सदा) सर्वदा (वः) युष्मान् यः (इन्द्रः) परमेश्वरः सुयोग्यो जनो वा (आ१ चर्कृषत्२) अतिशयेन पुनः पुनः कर्मसु प्रेरयेत्। कृष विलेखने धातोर्यङ्लुगन्ताल्लेटि रूपम्। यद्वा डुकृञ् करणे धातोर्णिजन्ताद् यङ्लुगन्ताल्लेटि सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४ इति सिबागमे रूपम्। (उप उ) उपेत्य च (नु) क्षिप्रम्। नु इति क्षिप्रनाम। निघं० २।१५। (सः) असौ (सपर्यन्) युष्मान् सत्कुर्वन्, प्रेम्णा युष्मभ्यं शुभकर्मार्थं साधुवादं प्रोत्साहनं च प्रयच्छन् भवेत्, तादृशं (देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावः (शूरः) वीरः (इन्द्रः) परमेश्वरः सुयोग्यो जनो वा (वृतः न३) युष्माभिर्नेतृत्वेन राजत्वेन वा स्वीकृतो न ? वरणाभावे कथं पूर्वोक्ता लाभाः स्युः ? अतोऽवश्यं स वरणीय इति भावः ॥३॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा वृतः परमेश्वरो जनान् पुरुषार्थे प्रवर्तयति, शुभकर्मकारिणश्च साधुवादेन समुत्साहयति, तथैव प्रजाभिर्निर्वाचितो राजा प्रजाभ्यः कुर्यात् ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. आ उप उ नु चत्वारोऽप्येते पादपूरणाः—इति वि०। २. चर्कृषत् अत्यर्थं करोति, पुनः पुनर्वा करोति। किम् ! उच्यते। बलं पुष्टिं हिरण्यं दीर्घं च जीवितम्—इति वि०। आचर्कृषत् आ करोतु, भृशं करोतु। करोतेः यङ्लुकि पञ्चमलकारान्तः चर्कृषदिति। आकरणम् आनयनम्, उपो उप समीपे—इति भ०। ३. न शब्द उपरिष्टादुपचारत्वादुपमार्थीयः, परिचरन्निव—इति वि०। तत्तु चिन्त्यम्, यतो द्वितीयपादसमाप्तौ विरामानन्तरं तृतीयपादादौ प्रयुक्तो न शब्दः सपर्यन् इत्यतः सम्बन्धमुपपादयितुं नार्हतीति। न वृतः न वारितः केनचित्—इति भ०। सायणेन तु न इत्यस्य स्थाने नः इति पाठं मत्वा व्याख्यातम्, तदपि चिन्त्यं कुत्रापि नः इति पाठस्यानुपलम्भात्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God always attracts you near Him. Why don’t you acknowledge Him, Who loves you, is Powerful and Divine.

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    Meaning

    Indra, the lord omnipotent, always draws you close to himself, caring for you. Indra, refulgent, brave and generous, is ever free, never bound.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (वः) તું મનુષ્યોને (सदा) સર્વ કાલોમાં (आचर्कृषत्) આકર્ષિત કરે છે. (सः) તે (नु) હા, શીઘ્ર (उप उ सपर्यन् न) સમીપમાં જ પરિચર્યા - સત્કાર કરાવવા સમાન (शूरः देवः इन्द्रः वृतः) શૂર = પાપસંહારક દેવ = શ્રેષ્ઠ ગુણદાતા ઇન્દ્ર પરમાત્માનું વરણ કરવું જોઈએ. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે સજ્જનો ! પરમાત્મા પાપોનો સંહારક, ગુણોનો દાતા, વરણ-સ્વીકાર કરેલ સદા તમને પોતાની તરફ આકૃષ્ટ કરે છે, પોતાની સમીપ લાવીને પરિચર્યા - સત્કાર કરવા જેવો વ્યવહાર કરતો વિદ્યમાન રહે છે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگت ہی بھگوان کو ورن کرتے ہیں!

    Lafzi Maana

    عابد و بھگت آتماؤ! (اِند دہ سدا چر کرشت) اِندر پرمیشور تمہیں ہمیشہ اپنی طرف کھینچتا رہتا ہے (سہ نُو اُپ سپرینّ) یقیناً وہ تمہارے قریب ہو کر تم سے پیار آدر اور سیوا کر رہا ہے۔ (نہ شُور اِندر ویوہ ) جیسے بہادر راجہ سمراٹ رعایا کے ذریعے منتخب کیا جاتا ہے۔ ویسے ہی وہ پرمیشور اُپاسکوں کے دوارہ ورن کیا جاتا ہے۔

    Tashree

    کھینچتا بھگتوں کو ہے وہ پیار سے توقیر سے، منتخب کرتے ہیں جو اُس کو سدا تقدیر سے۔

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा वरण केलेला (स्वीकारलेला) परमेश्वर माणसांना पुरुषार्थ करण्यास प्रवृत्त करतो व शुभ कर्म करणाऱ्यांना उत्साहित करतो, तसेच प्रजेद्वारे निवडलेल्या राजाने प्रजेला उत्साहित करावे. ॥३॥

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரன் எப்பொழுதும் உங்களுக்கு நன்மையைச் செய்ய விரும்புகிறான். உங்களைப் ப்ரீதியுடன் பாதுகாக்கிறான். தேவ வீரனான இந்திரன் தடுக்கப்படுவது இல்லை.

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