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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 197
ऋषिः - श्रुतकक्ष आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
24
आ꣡ त्वा꣢ विश꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः समु꣣द्र꣡मि꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः । न꣢꣫ त्वामि꣣न्द्रा꣡ति꣢ रिच्यते ॥१९७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । त्वा꣣ । विशन्तु । इ꣡न्द꣢꣯वः । स꣣मुद्र꣢म् । स꣣म् । उद्र꣢म् । इ꣣व । सि꣡न्ध꣢꣯वः । न । त्वाम् । इ꣣न्द्र । अ꣡ति꣢꣯ । रि꣣च्यते ॥१९७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा विशन्त्विन्दवः समुद्रमिव सिन्धवः । न त्वामिन्द्राति रिच्यते ॥१९७॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । त्वा । विशन्तु । इन्दवः । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । इव । सिन्धवः । न । त्वाम् । इन्द्र । अति । रिच्यते ॥१९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 197
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति का विषय है।
पदार्थ
(इन्दवः) चन्द्र-किरणों के सदृश आह्लादक मेरे स्तुतिरूप सोम (त्वा) तुझ परमेश्वर को (आ विशन्तु) प्राप्त करें, (सिन्धवः) नदियाँ (समुद्रम् इव) जैसे समुद्र को प्राप्त करती हैं। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् दुःखविदारक, सुखदाता परमात्मन् ! (त्वाम्) तुझसे, कोई भी (न अतिरिच्यते) महिमा में अधिक नहीं है ॥४॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ
जैसे नदियाँ रत्नाकर समुद्र को प्राप्त करके रत्नों से मण्डित हो जाती हैं, वैसे ही सब प्रजाएँ स्तुति द्वारा गुण-रूप रत्नों के खजाने परमेश्वर को प्राप्त करके गुणों की निधि हो जाएँ ॥४॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (इन्दवः) मेरे ये आर्द्र उपासनारस (त्वा आविशन्तु) तेरे में आविष्ट हो जावें (सिन्धवः समुद्रम्-इव) नदियाँ जैसे समुद्र में आविष्ट हो जाती हैं, परन्तु भेद यह है कि नदियां तो समुद्र में खारी हो जाती है, परन्तु आर्द्र स्निग्ध उपासनारस तेरे अन्दर मेरे लिये तुझे आर्द्र स्नेहपूर्ण कर देती हैं (त्वां-न अतिरिच्यते) तुझे कोई अतिरिक्त नहीं कर सकता तेरे से बढ़कर गुणवान् दयालु स्नेहवान् कोई नहीं है।
भावार्थ
परमात्मन्! उपासक के द्वारा तेरे प्रति समर्पित आर्द्र स्निग्ध उपासनारस तुझ में ऐसे आविष्ट होते हैं जैसे नदियाँ समुद्र में आविष्ट हो जाती हैं, परन्तु समुद्र तो उन्हें खारी बनाकर अपने अन्दर ही रख लेता है किन्तु परमात्मन्! तू तो उपासनारसों को अपने आनन्द रस से संयुक्त कर उपासक के अन्दर प्रतिवर्तित करता है क्योंकि तू महान् दयालु है तुझ जैसा मधुर दयासागर कोई नहीं॥४॥
विशेष
ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा उपासक)॥<br>
विषय
मै शिखर पर कब पहुँचूँगा?
पदार्थ
इस मन्त्र है, प्रभु कहते के ऋषि 'श्रुतकक्ष' से, जिसने ज्ञान को ही शरण बनाने का निश्चय किया हैं (त्वा इन्दवः आविशन्तु) = तुझमें सोमकण उसी प्रकार सब ओर प्रविष्ट हो जाएँ (इव)=जैसे (सिन्धवः समुद्रम्) = नदियाँ समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। समुद्र में प्रविष्ट होकर नदियाँ अब और नीचे की ओर प्रवाहित नहीं होतीं, अपितु अब नदियों का जल सूर्य की उष्णता से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठता है। इसी प्रकार तुझमें प्रविष्ट होकर ये सोमकण भी प्राणों की उष्णता से ऊर्ध्वगतिवाले हों और तू 'ऊर्ध्वरेतस्' = उत्तर मार्ग से जानेवाला-उत्तरायण से चलनेवाला बन । यही मोक्ष का मार्ग है और यही ज्ञानाग्नि को दीप्त करने का साधन है।
हम सोमकणों की रक्षा करेंगे तो ये रक्षित सोमकण हमारी रक्षा करेंगे, हमारी ज्ञानाग्नि दीप्त होगी और अन्त में हम मोक्षलाभ भी करेंगे । शारीरिक क्षेत्र में भी हमें इतनी शक्ति प्राप्त होगी कि हम संसार को हिलाने में समर्थ हो जाएँगे । ('हन्ताहं पृथिवीमिमां निदधानीह वेह वा। कुवित् सोमस्य अपामिति') =हम कह सकेंगे कि मैंने खूब सोमपान किया है, अब तो मैं पृथिवी को भी उठाकर जहाँ कहो वहाँ रख दूँ। उस दिन मेरे अन्दर अद्भुत शक्ति होगी, परन्तु यह शक्ति क्या मुझे मदवाला कर देगी? नहीं, सोमजनित यह शक्ति मुझे और अधिक सौम्य बना देगी। तब मैं नम्रता से अपना उत्थान करता हुआ उन्नति के शिखर पर पहुँच जाऊँगा। प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्य को प्राप्त जीव! आज (त्वाम् न अतिरिच्यते) = तुझे कोई लांघ नहीं सकता, कोई तुझसे अधिक नहीं हो सकता । तेरा जीवन सभी को लाँघ गया है—ex-cel=आगे निकल गया है, अतएव तू उत्तम [ Excellent] बन गया है।
भावार्थ
मैं ब्रह्मचर्य द्वारा, सोमपान करता हुआ, शिखर पर पहुँचूँ और प्रभु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करूँ।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( इन्द्र ) = हे परमेश्वर ( इन्दवः ) = हमारे मन की सब वृत्तियाँ ( त्वा आविशन्तु ) = आप में अच्छी तरह से लग जाएँ ( सिन्धवः समुद्रमिव ) = जैसे नदियाँ समुद्र को प्राप्त होती हैं ( त्वाम् ) = आपसे ( न अतिरिच्यते ) = कोई बढ़कर नहीं है ।
भावार्थ
भावार्थ = हे दयानिधे परमात्मन्! हमारे मन की सब वृत्तियाँ आप में लग जाएँ। जैसे गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियाँ बिना यत्न के समुद्र में प्रवेश करती है । ऐसे ही हमारे मन की सब वृत्तियाँ, आपके स्वरूप में लगी रहें, क्योंकि आपसे बढ़कर न कोई ऐश्वर्यवान् है और न सुखदायक दयालु है। हम आपकी शरण में आये हैं, हम पर कृपा करो, हमारा मन इधर-उधर की सब भटकनाओं को छोड़कर, परमानन्द और शांन्तिदायक आपके ध्यान में मग्न हो जावे ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( इन्दवः ) = समस्त ज्ञानी पुरुष ( त्वा ) = तुझ में ( सिन्धवः,समुद्रम् इव ) = जिस प्रकार नदियां समुद्र में प्रवेश करती हैं उसी प्रकार ( विशन्तु ) = प्रवेश करें । हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( त्वाम् ) = तुझ से ( न अतिरिच्यते ) = कोई भी बढ़ नहीं सकता, तुझ से पृथक् नहीं रह सकता । आत्मपक्ष में - ( इन्दवः ) = द्रवणशील इन्द्रियां प्राणगण आत्मा रूप समुद्र में नदियों के समान प्रविष्ट हैं। उससे कोई भी बढ़ नहीं सकता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्ष:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मस्तुतिविषयमाह।
पदार्थः
(इन्दवः) चन्द्रकिरणवदाह्लादकाः मदीयाः स्तुतिरूपाः सोमाः (त्वा) त्वां परमेश्वरम् (आ विशन्तु) प्रविशन्तु, प्राप्नुवन्तु, (सिन्धवः) स्यन्दमानाः नद्यः (समुद्रम् इव) यथा समुद्रम् आ विशन्ति प्राप्नुवन्ति। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् दुःखविदारक सुखप्रदायक परमात्मन् ! (त्वाम्) अनुपमं भवन्तम् कश्चित् (न अतिरिच्यते) न अतिशेते, महिम्ना त्वत्तोऽधिकतरो न भवतीत्यर्थः ॥४॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥
भावार्थः
यथा नद्यो रत्नाकरं प्राप्य रत्नमण्डिता जायन्ते, तथा सर्वाः प्रजाः स्तुत्या गुणरत्ननिधानं परमेश्वरं प्राप्य गुणानां निधयो भवन्तु ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९२।२२, ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। साम० १६६०।
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the intellectuals plunge in God, as the rivers flow into the sea. O God, naught excelleth Thee !
Meaning
All the flows of soma, joys, beauties and graces of life concentrate in you, and thence they flow forth too, Indra, lord supreme, just as all rivers flow and join in the ocean and flow forth from there. O lord no one can comprehend and excel you. (Rg. 8-92-22)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (इन्दवः) મારો એ આર્દ્ર ઉપાસનારસ (त्वा आविशन्तु) તારામાં એવી રીતે પ્રવિષ્ટ થઈ જાય (सिन्धवः समुद्रम् इव) જેમ નદીઓ સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરી જાય છે, પરન્તુ ભિન્નતા એ છે કે નદીઓ તો સમુદ્રમાં ભળીને ખારી બની જાય છે, પરન્તુ આર્દ્ર સ્નિગ્ધ ઉપાસનારસ તારી અંદર મારા માટે તને આર્દ્ર સ્નેહપૂર્ણ કરી દે છે. (त्वां न अतिरिच्यते) તને કોઈ લાંઘી-ટપી શકતું નથી તારાથી વધીને ગુણવાન, દયાળુ, સ્નેહવાન બીજો કોઈ નથી. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! ઉપાસક દ્વારા તારા પ્રત્યે સમર્પિત આર્ક સ્નિગ્ધ ઉપાસનારસ તારામાં એવી રીતે પ્રવિષ્ટ થાય છે, જેમ નદીઓ સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે છે, પરન્તુ સમુદ્ર તો તેને ખારી બનાવીને પોતાની અંદર રાખી લે છે. જ્યારે પરમાત્મન્ ! તું તો ઉપાસનારસોને તારા આનંદરસથી સંયુક્ત કરીને ઉપાસકની અંદર પરિવર્તિત કરે છે, કારણ કે તું મહાન દયાળુ છે, તારા જેવા મધુર દયાસાગર-દયાનો દરિયો બીજો કોઈ નથી. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
اِیشور سے زیادہ پیار دینے والی اور کوئی سکتی نہیں ہے!
Lafzi Maana
پرمیشور! (اِندوہ) چندرماں کی کِرنوں کی طرح آنند دینے والے بھگتی رس (تُوا آوِشنتُو) آپ میں داخل ہو جائیں سما جائیں (اِو سندھوہ سمدرم) جیسے کہ ندی نالے سمندر میں مل جاتے ہیں۔ اِندر پرمیشور (تُوام نہ اتی رِچیتے) آپ سے بڑھ کر پیار دینے والی اور کوئی شکتی نہیں ہے۔
Tashree
آپ کے اندر سما جائیں میرے یہ بھگتی رس، وِشو میں تُم سے بڑا جو اور کوئی ہے نہیں۔
बंगाली (1)
পদার্থ
আ ত্বা বিশন্ত্বিন্দবঃ সমুদ্রমিব সিন্ধবঃ।
ন ত্বামিন্দ্রাতিরিচ্যতে।।২০।।
(সাম ১৯৭)
পদার্থঃ (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ত্বাম) তোমার থেকে (ন অতি রিচ্যতে) বড় আর কেউ নেই। এজন্য (ইন্দবঃ) আমাদের মনের সমস্ত বৃত্তি (ত্বা আ বিশন্তু) তোমাতে এমন ভাবে উত্তমপ্রকারে নিযুক্ত হোক, (সিন্ধবঃ সমুদ্রমিব) যেভাবে নদীসমূহ সমুদ্রকে প্রাপ্ত করে সমুদ্রের সাথে মিলিত হয়।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে দয়ানিধি পরমাত্মা! আমাদের মনের সমস্ত বৃত্তি তোমাতে নিযুক্ত হোক। যেমন নদীসমূহ সমুদ্রে প্রবেশ করে, সেভাবেই আমাদের মনের সমস্ত বৃত্তি তোমার স্বরূপে লেগে থাকুক। কেননা তোমার থেকে দয়ালু, মহান ঐশ্বর্যবান ও সুখদায়ক আর কেউ নেই। আমরা তোমার শরণাগত, আমাদেরকে কৃপা করো। আমাদের মন যেন পারিপার্শ্বিক বিষয়কে ছেড়ে পরমানন্দ এবং শান্তিদায়ক তোমার ধ্যানে মগ্ন হয়ে যায়।।২০।।
मराठी (2)
भावार्थ
जशा नद्या रत्नाकर समुद्राला प्राप्त करून रत्नांनी मंडित होतात, तसेच सर्व प्रजेने स्तुतीद्वारे गुणरूपी रत्नांचा खजिना असलेल्या परमेश्वराला प्राप्त करून गुणांचा निधी बनावे ॥४॥
विषय
पुढीलमंत्रात परमश्वराची स्तुती केली आहे -
शब्दार्थ
(इन्दवः) चंद्रकिरणांप्रमाणे आल्हादक माझे स्तुतिरूप सोम (भक्तिभाव) (त्वा) हे परमेश्वर, तुला (आ विशन्तु) प्राप्त व्हावेत (माझी प्रार्थना तू ऐकावी) जशा (सिन्धवः) न द्या (समुद्रम् इव) समुद्राला भेटतात, (तसे माझे स्तुतिवचने तुझ्यापर्यंत जावीत) हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान परमात्मा, हे दुःखविदारक, सुखदाता परमेश्वरा, (त्वा) तुझ्यापेक्षा कोणीही (न अतिरिच्यते) ब्रह्मरिमाविषयी मोठा नाही. (तूच सर्वाहून महत्त्ववान आहेस.) ।। ४।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे नद्या समुद्राला मिळाल्यामुळे रत्नपूर्णा होतात, तद्वत सर्व उपासक परमेश्वराची स्तुती केल्यामुळे गुणांचा जो कोष, परमेश्वर, त्याला प्राप्त होऊन गुणनिधी होतात.।।४।।
विशेष
या मंत्रात उपमा अलंकार आहे ।। ४।।
तमिल (1)
Word Meaning
நதிகள் (சமுத்திரத்தில்) செல்லுவது போல் சல துளிகள் (துதிகள்) உன்னைப் ப்ரவேசிக்கட்டும். ஒருவனும் உனக்கு [1] மிகுதியாவதில்லை.
FootNotes
[1] உனக்குப் பெரியவன் வேறு எவனுமில்லை.
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