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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 20
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    57

    आ꣢꣫दित्प्र꣣त्न꣢स्य꣣ रे꣡त꣢सो꣣ ज्यो꣡तिः꣢ पश्यन्ति वास꣣र꣢म् । प꣣रो꣢꣫ यदि꣣ध्य꣡ते꣢ दि꣣वि꣢ ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢त् । इत् । प्र꣣त्न꣡स्य꣢ । रे꣡त꣢꣯सः । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । प꣣श्यन्ति । वासर꣢म् । प꣣रः꣢ । यत् । इ꣣ध्य꣡ते꣢ । दि꣣वि꣢ ॥२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्प्रत्नस्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् । परो यदिध्यते दिवि ॥२०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । इत् । प्रत्नस्य । रेतसः । ज्योतिः । पश्यन्ति । वासरम् । परः । यत् । इध्यते । दिवि ॥२०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 20
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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    हिन्दी (4)

    विषय

    योगी जन कब परमेश्वर की अलौकिक ज्योति का दर्शन करते हैं, इस विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    (आत् इत्) उसके अनन्तर ही (प्रत्नस्य) सनातन, (रेतसः) वीर्यवान् परमसामर्थ्यशाली परमात्म-सूर्य की (वासरम्) राग, द्वेष, मोह आदि के अन्धकार को दूर करनेवाली, अथवा अणिमा आदि ऐश्वर्यों की निवासक, अथवा दिव्य दिन उत्पन्न कर देनेवाली (ज्योतिः) ज्योति को—योगदर्शनोक्त ज्योतिष्मती वृत्ति को, ज्ञानदीप्ति को या (विवेकख्याति) को, योगीजन (पश्यन्ति) देख पाते हैं, (यत्) जब, वह परमात्म-सूर्य (परः) परे (दिवि) आत्मारूप द्युलोक में (इध्यते) प्रदीप्त हो जाता है ॥१०॥ श्लेष से सूर्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे प्रातःकाल उदित सूर्य जब मध्याह्न के आकाश में पहुँच जाता है, तभी लोग उसके अन्धकार-निवारक, देदीप्यमान, दिन को उत्पन्न करनेवाले सम्पूर्ण प्रभामण्डल को देख पाते हैं, वैसे ही जब योगियों से ध्यान किया गया परमात्मा उनके आत्म-लोक में जगमगाने लगता है, तभी वे उसके राग, द्वेष आदि के विनाशक, योगसिद्धियों के निवासक, जीवन्मुक्तिरूप दिन के जनक दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार करने में समर्थ होते हैं ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन करते हुए उसे रिझाने का, उसके प्रति नमस्कार करने का, उसे स्तोत्र अर्पण करने का, मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति के साथ-साथ कर्म में भी प्रेरित करने का और परम ज्योति के दर्शन का वर्णन है, अतः इस दशति के अर्थ की पूर्व दशति के अर्थ के साथ संगति है ॥ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध में द्वितीय दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (आत्-इत्) अनन्तर ही—निदिध्यासनरूप अभ्यास के अनन्तर ही (प्रत्नस्य रेतसः) इस जगत् से पूर्व वर्तमान शाश्वतिक तथा सर्वत्र जगत् में प्राप्त अग्नि—प्रकाशस्वरूप परमात्मा की “रेतो वा अग्निः” [मै॰ ३.२.१] (वासरं ज्योतिः) ‘वास-र’ मुक्त आत्माओं को वास देने वाले ज्योति को (पश्यन्ति) देखते हैं ध्यानीजन (यत्-दिवि परः-इध्यते) जो द्योतनात्मक अमृतरूप मोक्षधाम में “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] अत्यन्त दीप्त हो रही है।

    भावार्थ

    जगत् से पूर्व वर्तमान तथा जगत् में व्याप्त परमात्मा की ज्योति को जो कि प्रकाशमय मोक्षधाम में अत्यन्त दीप्त हो रही है उसे ध्यानी योगाभ्यास के अनन्तर साक्षात् प्राप्त किया करते हैं। परमात्मा का ज्योतिःस्वरूप अनन्त मोक्षधाम में है वही ध्यानी जन के हृदय में साक्षात् होता है केवल अल्पकालिक है और एक देशी सा प्रतीत होता है, परन्तु परमात्मा तो अनन्त है, किन्तु मनुष्य का अधिकार तो हृदय में ही साक्षात् करने का है वह अनन्त नहीं हो सकता “हृद्यपेक्षा तु मानुष्याधिकारत्वात्” [वेदान्त॰ १.३.२५]॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—वत्सः (अध्यात्म वक्ता जन)॥<br>

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    विषय

    वासर ज्योति का दर्शन

    पदार्थ

    (यत् दिवि) = जिस दिन (पर:)= क्लेश, कर्म, विपाकादि से परे होनेवाला वह प्रभु (इध्यते)= दीप्त किया जाता है (आत् इत्)= ठीक उसी समय प्(रत्नस्य रेतस:)= उस सनातन शक्ति की प्रभु की (वासरम्)=बसानेवाली (ज्योतिः)=ज्योति को (पश्यन्ति)= देखते हैं।

    गत मन्त्र में ज्ञानपूर्वक कर्म करने का वर्णन था। 'मनुष्य उन कर्मों को अपनी शक्ति से होता हुआ न समझ ले, इसलिए इस मन्त्र में कहा गया है कि सनातन शक्ति तो वह प्रभु ही है। उसी से शक्ति प्राप्त कर जीव भी कर्म किया करता है। 'परन्तु बुरे कर्म भी उसी से हो रहे हैं, यह सोचकर जीव उनके फल से छूट नहीं सकता, क्योंकि वह प्रभु तो 'वासर-ज्योति' है। वह तो निवासक है, न कि ध्वंसक। उस प्रभु ने ‘निर्माणात्मक कार्यों' के करने के लिए ही शक्ति दी है–उजाड़ने के लिए नहीं। वह प्रभु निवासक ज्योति है। यह देखकर जीव भी शक्ति का प्रयोग बसाने में करे, नकि उजाड़ने में, तभी वह प्रभु का प्रिय बनेगा और इस मन्त्र का ऋषि 'वत्स' होगा

    भावार्थ

    उस वासर ज्योति का दर्शन कर हम शक्ति का प्रयोग निर्माण के लिए नकि ध्वंस के लिए।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( परः दिवि ) = द्यौलोक से भी परे अति अधिक दूर ( यत् ) = जो सूर्य ( इध्यते ) = प्रकाशमान है । ( आत् इत् ) = और ( वासरम् ) = दिन को प्रकाश करने वाले जिस ( ज्योतिः ) = सूर्य को लोग ( पश्यन्ति ) = देखते हैं वह भी ( प्रत्नस्य ) = अति प्राचीन आदिकाल के परम ( रेतसः ) = वीर्यवान्, जगत् के विधाता ईश्वर की ही ( ज्योतिः ) = तेज है । तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । ( कठ उप० २ । १५ )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वत्स:  काण्व :। 
    छन्द: - गायत्री। 
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    योगिनः कदा परमेश्वरस्यालौकिकं ज्योतिः पश्यन्तीत्याह।

    पदार्थः

    (आत् इत्) तदनन्तरमेव (प्रत्नस्य) सनातनस्य। प्रत्न इति पुराणनाम। निघं० ३।२७। (रेतसः२) रेतस्विनः वीर्यवतः परमसामर्थ्यशालिनः अग्नेः परमात्मसूर्यस्य। अत्र मत्वर्थीयस्य लोपः। (वासरम्) रागद्वेषमोहादितमोविवासनशीलं यद्वा अणिमाद्यैश्वर्यनिवासकम्। वासराणि वेसनानि विवासनानि गमनानीति वा इति निरुक्तम् ४।७। वस स्नेहच्छेदापहरणेषु इति धातोः, यद्वा णिजन्ताद् वस निवासे धातोः अर्तिकमिभ्रमिचमिदेविवासिभ्यश्चित्। उ० ३।१३२ इत्यौणादिकः अर प्रत्ययः। यद्वा वासरम् दिव्यदिवसजनकम्। वासरमित्यहर्नाम। निघं० १।९। (ज्योतिः) प्रकाशम् योगदर्शनोक्तां ज्योतिष्मतीं वृत्तिं, ज्ञानदीप्तिं, विवेकख्यातिं३ वा, योगिजनाः (पश्यन्ति) साक्षात्कुर्वन्ति, (यत्) यदा, असौ (परः) परस्तात् (दिवि) आत्मरूपे द्युलोके (इध्यते) प्रदीप्यते ॥१०॥४ श्लेषेण सूर्यपक्षे ऽपि योजनीयम् ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा प्रातरुदितः सूर्याग्निर्यदा मध्याह्नाकाशमारोहति तदैव जनास्तस्य तमोनिरासकं देदीप्यमानदिवसाधायकं सम्पूर्णप्रभामण्डलं पश्यन्ति, तथैव यदा योगिभिर्ध्यातः परमात्माग्निस्तेषामात्मलोके देदीप्यते तदैव ते तस्य रागद्वेषादिविनाशकं, योगसिद्धिनिवासकं, जीवन्मुक्तिप्राप्तिरूपदिवसजनकं दिव्यं ज्योतिर्द्रष्टुं पारयन्ति ॥१०॥ अत्र परमात्मनो गुणकर्मस्वभाववर्णनपूर्वकं तत्प्रसादनात्, तं प्रति नमस्करणात्, स्तोमार्पणात, परमेश्वरस्तुत्या सह कर्मण्यपि प्रेरणात्, परमज्योतिर्दर्शनवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति प्रथमे प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति प्रथमेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६।३०, इन्द्रो देवता। ज्योतिष्पश्यन्ति, दिवा इति पाठः। २. रेतसः गन्तुः (री गतिरेषणयोः अस्मात् स्रुरीभ्यां तुड् वा उ० ४।२००३ इत्यसुन् तुडागमश्च।) यद्वा रेतस् इत्युदकनाम (निघं० १।१२) रेतस्विनः उदकवतः, सामर्थ्यान्मत्वर्थो लक्ष्यते। ईदृशस्य इन्द्रस्य सूर्यात्मनः वासरं नियामकं वासरस्य निवासहेतुभूतं वा—इति सा०। ३. द्रष्टव्यम्—योग० १।३६, २।२८, ३।५४। ४. इयमासन्नमरणे जप्येति बहवृचोपनिषदि श्रूयते (ऐ० आ० ३।२।४।८)। इयं वैश्वानरस्याग्नेः स्तुतिः। वैश्वानरश्च त्रैलोक्यशरीरः परमात्मेति उपनिषदि स्थितम्। आत् इति निपातः अनन्तरमित्यस्मिन् अर्थे वर्तते। इद् इति एवार्थे। आदित् अनन्तरमेव आत्मविज्ञानात्। प्रत्नस्य पुराणस्य। रेतसः कारणात्मनः स्वरूपभूतम्। ज्योतिः वैश्वानराख्यं सूर्यम्। पश्यन्ति विद्वांसः। वासरं विवासकं तमसाम्। परः परस्तात्। इध्यते दीप्यते। दिवि दिव इत्यर्थः, यत् दिवः परस्ताद् इध्यते इति सम्बन्धः। “अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते (छा० उ० ३।१३।७)” इत्यादि श्रूयते—इति भ०।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    The Sun that shines on the yonder side of heaven, which the people see all the day long, verily receives light from the Refulgent Primeval God.

    Translator Comment

    Which refers to the Sun.

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    Meaning

    And then the devotees see like daylight the self- refulgence of the eternal lord and source of life who shines above and beyond the day through the night of annihilation too. (Rg. 8-6-30)

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    Translation

    The sun that is seen shining inthe most distant sky and that causes day to break, receives light from the Refulgent Eternal God. 

    Comments

    तसः->ज्योतिषां बीजभूतस्य परमात्मनः,   वासरम्‌-नियामकं ज्योतिः“तमेत्र भान्तमनुभाति सवे, तस्यभासा सबमिदं विभाति ॥?? (कठोप० २.५)

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    Translation

    Then, verily, they see the refulgence of primeval seed, kindled on yonder side of heaven. (Cf. Rv VIII.6.30)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (आत् इत्) ત્યાર પછી - નિદિધ્યાસનરૂપ અભ્યાસ પછી (प्रत्नस्य रेतसः) આ જગતમાં પૂર્વ વિદ્યમાન શાસ્વત અને સમસ્ત જગતમાં પ્રાપ્ત (रेतसः)  અગ્નિ-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મા (वासरं ज्योतिः) ‘વાસ-૨’ મુક્ત આત્માઓને વસાવનારી જ્યોતિને (पश्यन्ति) ધ્યાનીજન નિહાળે છે. (यत् दिवि परः इध्यते) જે દેદીપ્યમાન અમૃતરૂપ મોક્ષધામમાં અત્યંત દીપ્ત થઈ રહી છે. (૧૦)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જગતમાં પૂર્વ વિદ્યમાન અને જગતમાં વ્યાપ્ત પરમાત્માની જ્યોતિ જે પ્રકાશમય મોક્ષધામમાં અત્યંત દીપ્ત થઈ રહી છે, તેને ધ્યાનીજન યોગાભ્યાસ પછી સાક્ષાત્ પ્રાપ્ત કર્યા કરે છે.

    પરમાત્માનું જે જ્યોતિસ્વરૂપ અનન્ત મોક્ષધામમાં છે, તેની ધ્યાનીજનના હૃદયમાં સાક્ષાત્ થાય છે. જે અલ્પકાલીન અને એક દેશીય સભાન પ્રતીત થાય છે, પરમાત્મા તો અનંત છે, પરન્તુ મનુષ્ય અનંત બની શકતો નથી, જેથી મનુષ્યનો અધિકાર હૃદયમાં જ સાક્ષાત્ કરવાનો છે. "हृद्यपेक्षा तु मानुष्यधिकारत्वात्’’ (વેદાન્ત. ૧ : ૩ : ૨૫) (૧૦)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اَزلی اَبدی اَمر جیوتی

    Lafzi Maana

    (آت اِت) ایشور اُپاسنا، ابھیاس (مشق) کے پھل من کی شُدھی اور اُس کے مطابق کرم کرنے کے بعد ہی عابد (پرتنسیہ) سناتن (ہمیشہ سے آرہی) (ریتسیہ) سنسار کی بیج رُوپ (جیوتی) ایشوری روشنی خُدائی نُور کا (پشینتی) درشن کر سکتے ہیں۔ (تت) جو جیوتی کہ (واسرم) دن کی طرح پھیلی ہوئی (پرا) سب سے اُتم ہے اور (دِوی) دئیولوک یعنی سورج چاند ستاروں وغیرہ میں چمک رہی ہے۔

    Tashree

    لیکن اُس کے درسن کی نصیبہ کب جاگتا ہے۔ جب شریمد بھگود گیتا کے مطابق اپنے روز مرہ کے کام کاج میں اُس کی پوجا کا عمل استعمال ہو۔ جیساکہ خواجہ دِل محمد نے نے لکھا ہے کہ:
    وہی ذات جس سے خُدائی ہوئی،
    جو سارے جہاں پہ ہے چھائی ہوئی۔
    اُسی کی پرستِش ہے تعمیلِ فرض۔ ہے تکمیل انسان کی تکمیلِ فرض۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा प्रात:काळी उगवलेला सूर्य जेव्हा मध्यान्ही आकाशात तळपतो, तेव्हा सर्व लोक अंधकारनिवारक, देदीप्यमान, दिवसा संपूर्ण प्रभामंडलाला पाहू शकतात, तसेच जेव्हा योग्यांद्वारे ध्यान केलेला परमेश्वर त्यांच्या आत्मलोकात चमकू लागतो, तेव्हा ते रागद्वेषाचा विनाशक, योगसिद्धीचा निवासक, जीवन्मुक्तीरूपी दिवसाचा जनक, दिव्य प्रकाशाचा साक्षात्कार करण्यात समर्थ होतात. ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये परमात्म्याच्या गुण-कर्म-स्वभावाचे वर्णन करत त्याला प्रसन्न करण्याचा, नमस्कार करण्याचा, स्तोत्र अर्पण करण्याचा, माणसांना परमेश्वराच्या स्तुतीबरोबर कर्मातही प्रेरित करण्याचा व परम ज्योतीच्या दर्शनाचे वर्णन आहे. त्यासाठी या दशतिच्या अर्थाची पूर्व दशतिच्या अर्थाबरोबर संगती आहे.

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    विषय

    योगीजन परमेश्वराची अलौकिक ज्योती केव्हा पाहतात, याविषयी सांगत आहेत. -

    शब्दार्थ

    त्या (प्रत्नस्य) सनातन (रेतस:) वीर्यवान् परमसामर्थ्यवान परमात्म सूर्याच्या ज्योतीला की जी (वासरम्) राग, द्वेष, मोह आदीचा अंध:कार दूर करणारी आहे. जी अणिमा आदी ऐश्वर्याची निवासक आहे अथवा दिव्य दिन उत्पन्न करणारी आहे. त्या (ज्योति:) ज्योतीला, योगदर्शनात ज्याला ज्योतिष्मती वृत्ती म्हटले आहे, त्या ज्योतीला ज्ञानदीप्ती अथवा विवेकख्यातीला योगीजन (आत् इत्) त्यानंतरच (पश्यन्ति) पाहू शकतात की (यत्) जेव्हा तो परमात्म सूर्य (पर:) पलीकडे (दिवि) आत्मारूप भुलोकात (इध्यते) प्रदीप्त होतो. ।।१०।।

    भावार्थ

    सकाळी उदित झालेला सूर्य माध्यान्हकाळी जेव्हा आकाशात उंचावर पोहोचतो, तेव्हाच लोक त्याच्या अंधकारनिवारक देदीप्यमान, दिवस निर्माण करणाऱ्या संपूर्ण प्रभामंडळाला पाहू शकतात. त्याप्रमाणेच योगिजनांद्वारे ध्यात परमात्मा जेव्हा त्यांच्या आत्मलोकात जगमग दीप्त होतो, तेव्हाच योगीजन परमेश्वराच्या रागद्वेषादी निवारक, योगसिद्धीप्रदायक तसेच जीवन्मुक्तिरूप दिवस उत्पन्न करणाऱ्या दिव्य प्रकाशाचा साक्षात्कार करण्यास यशस्वी होतात. ।।१०।। या दशतीमध्ये परमेश्वराच्या गुण, कर्म, स्वभावाचा वर्णन करीत त्याला प्रसन्न करणे त्याच्याप्रत नमस्कार, त्याला स्त्रोतांचे समर्पण, मनुष्यांनी परमेश्वराची स्तुतीसह त्या व्यतिरिक्त कर्माविषयी प्रेरणा, आणि परम ज्योतीचे दर्शन या विषयांचे वर्णन आहे. यामुळे या दशतीच्या अर्थाशी पूर्व दशतीच्या (प्रथम दशतीच्या) अर्थाशी संगती आहे, असे जाणावे. ।। प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध्यातील द्वितीय दशति समाप्त.

    विशेष

    श्लेषाने या मंत्रशचा सूर्यपरक अर्थही करता येतो. ।।१०।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    திவ்ய உலகத்திற்கு அப்பால் எழுச்சியாக்கப்பட்ட ஆதியான புராதன (ரேதசின்) [1] பகல் சோதியை [2] அவர்கள் அப்பால் பார்க்கிறார்கள்.

    FootNotes

    [1] பகல் சோதியை - ஈசனை
    [2] அவர்கள் - அறிஞர்கள்

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