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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 210
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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धा꣣ना꣡व꣢न्तं कर꣣म्भि꣡ण꣢मपू꣣प꣡व꣢न्तमु꣣क्थि꣡न꣢म् । इ꣡न्द्र꣢ प्रा꣣त꣡र्जु꣢षस्व नः ॥२१०॥
स्वर सहित पद पाठधा꣣ना꣡व꣢न्तम् । क꣣रम्भि꣡ण꣢म् । अ꣣पूप꣡व꣢न्तम् । उ꣣क्थि꣡न꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । प्रा꣣तः꣢ । जु꣣षस्व । नः ॥२१०॥
स्वर रहित मन्त्र
धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम् । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः ॥२१०॥
स्वर रहित पद पाठ
धानावन्तम् । करम्भिणम् । अपूपवन्तम् । उक्थिनम् । इन्द्र । प्रातः । जुषस्व । नः ॥२१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 210
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और विद्वान् अतिथि को बुलाया जा रहा है।
पदार्थ
प्रथम—विद्वान् अतिथि के पक्ष में।हे (इन्द्र) विद्वन् ! आप (प्रातः) इस प्रभातकाल में (नः) हमारे (धानावन्तम्) भुने हुए जवों से युक्त, (करम्भिणम्) घृतमिश्रित सत्तुओं से युक्त, (अपूपवन्तम्) घी मिले जौ या चावल के पूड़ों से युक्त और(उक्थिनम्) वेदमन्त्रों के स्तोत्रों से युक्त यज्ञ में (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक आइए ॥ द्वितीय—अध्यात्म-पक्ष में।हे (इन्द्र) परमात्मन् ! आप (प्रातः) प्रभात-वेला में (नः) हमारे (धानावन्तम्) धारणा, ध्यान, समाधियों से युक्त अर्थात् उपासनाकाण्ड से युक्त, (करम्भिणम्) कर्मकाण्ड से युक्त, (अपूपवन्तम्) ज्ञानकाण्ड से युक्त और(उक्थिनम्) सामगान से युक्त उपासना-यज्ञ को (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को चाहिए कि वे जौ, सत्तू, पूड़े आदि सुगन्धित, मधुर, पुष्टिप्रद तथा आरोग्यदायक द्रव्यों का अग्नि में होम करके वायुमण्डल को स्वच्छ करें। इसी प्रकार ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड उपासनाकाण्ड का आश्रय लेकर सामगान करते हुए परमात्मा की पूजा करें। इससे अभ्युदय और मोक्ष को साधें ॥७॥
पदार्थ
(इन्द्र) परमात्मन्! तू (नः) हम मनुष्यों में से (धानावन्तम्) धारणाओं वाले “डुधाञ् धारणपोषणयोः” [जुहो॰] एकाग्रमन वाले योगी को (करम्भिणम्) प्राण का आरम्भ नियन्त्रण करने वाले प्राणाभ्यासी को “प्राणो वाव कः” [जै॰ उ॰ ४.११.२.४] (अपूपवन्तम् प्रशस्त इन्द्रियों वाले संयमी जन को “इन्द्रियमपूपः” [ऐ॰ २.२४] (उक्थिनम्) स्तुति वचन वाले को (प्रातः-जुषस्व) प्रातःकाल या सर्वप्रथम अवसर पर प्रेमपात्र बना—बनाता है।
भावार्थ
हे परमात्मन्! यह हम जानते हैं कि जो हम मनुष्यों में धारणा वाला एकाग्र मन वाला ध्यानी प्राणायामाभ्यासी इन्द्रियसंयमी स्तुति करने वाला होता है उसको प्रातःकाल या प्रथम अवसर पर तू प्रेमपात्र बनाता है॥७॥
विशेष
ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र सबको मित्ररूप से देखने वाला)॥<br>
विषय
चतुर्भद्र
पदार्थ
रभु इन्द्र हैं–परमैश्वर्यशाली हैं। कौन-सा ऐश्वर्य प्रभु के कोश में नहीं है। ऐश्वर्यशाली होते हुए वे प्(रातः) = हैं- सब ऐश्वर्य से हमारा पूरण करनेवाले हैं [प्रा पूरणे] । हे प्रभो! आप (नः) = हमें (जुषस्व) = प्रेम दीजिए [जुष्= प्रीति] । हम योग्य बनकर आप के प्रेम के पात्र बनें। मन्त्र के पूर्वार्ध के चार शब्दों द्वारा उसी योग्यता का संकेत हुआ -
१. (धानावन्तम्) = ध्यानी व्यक्ति को आपका प्रेम प्राप्त होता है। वस्तुतः हमें अपने जीवन के प्रथम प्रयाण में ध्यानवाला बनना है। जो कुछ माता-पिता व आचार्य कहें उसे बड़े ध्यान से सुनना है। यदि हम आचार्य - मुख से निकलते शब्दों को बड़े ध्यान से सुनेंगे, उन्हें पीते चलेंगे तो हमारा ज्ञान कितना बढ़ जाएगा? तब हम आचार्यों के प्रिय तो होंगे ही, प्रभु का प्रेम भी हमें प्राप्त होगा। जीवन-यात्रा के प्रथम प्रयाण का आदर्श - वाक्य 'ध्यान' है।
२. (करम्भिणम्)=‘करेण भ्रियते इति करम्भ:'-' जो हाथ से किया जाता है'-इस व्युत्पत्ति से करम्भ शब्द दान का वाचक है। गृहस्थ में हमें सदा कुछ देनेवाला बनना है। गृहस्थ को सदा पञ्चयज्ञों का करनेवाला बनना है। ('अपञ्चयज्ञो मलिम्लुच:') = पञ्चयज्ञ न करनेवाला गृहस्थ ‘चोर' है। यज्ञ की चरम सीमा दान है। दान देनेवाला गृहस्थ अपने जीवन को निर्व्यसन बनाकर प्रभु का प्रिय होता हैं
३. (अपूपवन्तम्)=‘इन्द्रियम् अपूप:'-ऐ० २.२४ के अनुसार अपूपशब्द इन्द्रिय-वाचक है। प्रशस्त इन्द्रियोंवाला पुरुष 'अपूपवान्' है। शतशः प्रयत्न करने पर भी गृहस्थ में इन्द्रियाँ कुछ राग-द्वेष में पड़ गईं थीं । वानप्रस्थ तीव्र तपस्या के द्वारा उस स्नेह की चिक्कणता को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होता है और अपनी इन्द्रियों को राग-द्वेष के मल से पृथक् कर डालता है। यह अपूपवान् वानप्रस्थ प्रभु का प्रिय होता है।
४. (उक्थिनम्)=आचार्य ऋ० १.५.८ में उक्थ का अर्थ करते हैं—‘परिभाषितुमर्हाणि वेदस्थानि सर्वाणि स्तोत्राणि'=वेदमन्त्रों में प्रतिपादित प्रभु के स्तोत्र | इन स्तोत्रोंवाला व्यक्ति प्रभु का प्रिय होता है। ब्रह्मचारी को पठन की चिन्ता, गृहस्थ को कुटुम्ब के पालन की और वानप्रस्थ को भी कुल के पालन की, परन्तु संन्यासी तो प्राणिमात्र के प्रति प्रेमवाला होता है। ऐसा ही व्यक्ति ‘गाथिनः’=प्रभु का सच्चा स्तोता होता है। यह सदा प्रभु का स्मरण करता हुआ प्रभु-स्तोत्रों का गायन करनेवाला 'उक्थी' है- और प्रभु को सर्वाधिक प्रिय है।
भावार्थ
ध्यान, दान, प्रशस्तेन्द्रियता और प्रभु - स्मरण इन चतुर्भद्रों को अपनाकर हम प्रभु के प्रिय बनें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( नः ) = हमारे ( प्रातः ) = प्रातःकाल के अवसर में ( धानावन्तं ) = ध्यान धारणा से सम्पन्न, ( करम्भिणम् ) = सुख को प्रारम्भ करने वाले, ( अषूपवन्तम् ) = अति समीपता दिलाने वाले अथवा दूर और निकट सर्वत्र विद्यमान ( उक्थिनं ) = ज्ञानसम्पन्न सोम, आत्मा को ( ज़ुषस्व ) = ग्रहण करो, स्वीकार करो ।
भुंने जौ 'धाना' कहाते हैं, दही से मिले सत्तू 'करम्भ' कहाते हैं । पके पुरोडाश को 'अपूप ' कहा जाता है । प्रतिनिधिवाद से, सूक्ष्मतत्व जब स्पष्ट हो जायं तो वे ही 'धाना' हैं। ध्यानयोग से विवेक द्वारा पवित्र किया सत्य ज्ञान 'सक्तु' है। उसका विशेष रस अनुभव 'दधि' है, जिसका मथन करने पर या विशेष परिपाक होने पर प्राप्त ब्रह्मज्ञान 'अपूप ' है जिसमें आत्मा उस ब्रह्म के समीपतम होजाता है। अथवा [अप-उप-वत् = अपूपवात् ] वह दूर और निकट के सब पदार्थों को प्राप्त है। उस समय अपूर्व ब्रह्मास्वाद 'उक्थ' है, तद्वान् आत्मा 'उक्थी' है । उसको स्वीकार करने की प्रार्थना है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - विश्वामित्र:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा विद्वानतिथिश्चाहूयते।
पदार्थः
प्रथमः—विद्वत्परः। हे (इन्द्र) विद्वन् ! त्वम् (प्रातः) प्रभातकालेऽस्मिन् (नः) अस्माकम् (धानावन्तम्) धानाः भृष्टयवाः तद्वन्तम्, (करम्भिणम्) करम्भो घृतमिश्रिताः सक्तवः तद्वन्तम्, (अपूपवन्तम्) अपूपः घृतमिश्रो यवमयस्तण्डुलमयो वा पुरोडाशः तद्वन्तम्, (उक्थिनम्) स्तोत्रवन्तम् यज्ञम्। उच्यते इति उक्थः स्तोत्रम्। ततो मत्वर्थे इनिः प्रत्ययः। त्वम् (जुषस्व) प्रीतिपूर्वकं सेवस्व। जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन्, त्वम् (प्रातः) प्रभातवेलायाम् (नः) अस्माकम् (धानावन्तम्) धानाः धारणाध्यानसमाधयः तद्वन्तम्, उपासनाकाण्डयुक्तम् इत्यर्थः। (करम्भिणम्) करम्भः कर्मकाण्डं तद्वन्तम्। करोतेर्बाहुलकाद् औणादिकोऽम्भच् प्रत्ययः। (अपूपवन्तम्) अपूपो ज्ञानकाण्डं, तद्वन्तम्। आप्नोति व्याप्नोति जिज्ञासून् इत्यपूपो ज्ञानम्। (उक्थिनम्) सामगानयुक्तम् उपासनायज्ञम् (जुषस्व) प्रीतिपूर्वकं (सेवस्व) ॥७॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैर्यवसक्त्वपूपादीनि सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यकराणि द्रव्याण्यग्नौ हुत्वा वायुमण्डलं स्वच्छं विधेयम्। तथैव ज्ञानकर्मोपासनाकाण्डमाश्रित्य सामगानं कुर्वद्भिः परमात्मा पूजनीयः। एतेन चाभ्युदयनिः श्रेयसयोः सिद्धिः साधनीया ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ३।५२।१, य० २०।२९। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये राजविषये, यजुर्भाष्ये च विद्वद्विषये व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, accept at day-break our soul, absorbed in meditation, lull of pleasure, present in all places far and near, and full of knowledge!
Translator Comment
For fuller explanation see Pt. Jaidev Vidyalankar’s commentary.
Meaning
Indra, lord of wealth, honour and excellence, accept and enjoy in the morning our gift of homage and yajna mixed with roasted rice and curds and sanctified and offered with the chant of holy words. (Rg. 3-52-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) પરમાત્મન્ ! તું (नः) અમારા મનુષ્યોમાંથી (धानावन्तम्) ધારણાવાળા - એકાગ્ર મનવાળા યોગીને (करम्भिणम्) પ્રાણનો આરંભ નિયંત્રણ કરનારા પ્રાણાભ્યાસને (अपूपवन्तम्) પ્રશસ્ત ઇન્દ્રિયોવાળા સંયમીજનને (उक्थिनम्) સ્તુતિ વચનવાળાને (प्रातः जुषस्व) પ્રાતઃકાળ અથવા સર્વ પ્રથમ સમયમાં પ્રીતિ પાત્ર બનાવ - બનાવે છે. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! જે અમે જાણીએ છીએ કે, જે અમારા મનુષ્યોમાં ધારણાવાળા એકાગ્ર મનવાળા ધ્યાની, પ્રાણાયામના અભ્યાસી, ઇન્દ્રિય-સંયમી, સ્તુતિ કરનારા હોય છે, તેઓને પ્રાતઃકાળ અથવા પ્રથમ અવસર પર તું પ્રીતિપાત્ર બનાવે છે. [સંક્ષેપ્તઃ ધ્યાન, પ્રાાયામ, ઇન્દ્રિય સંયમ અને પ્રભુસ્મરણએ ચાર બદ્રોને અપનાવીને અમે પ્રભુના પ્રિય બનીએ.] (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
پراتہ پرارتھنا میں ہمیں پراپت ہوں!
Lafzi Maana
جس کے پاس مال و زر، غلّہ وغیرہ دہی، جوَ کے ستّوُ اور جس کے پاس مال پُوڑے وغیرہ کھانے کھلانے کے لئے عمدہ عمدہ بھوجن بکثرت موجود ہیں۔ مانگنے والے ضرورتمند اُسی کو ہی چاہتے ہیں۔ اور جیسے وید منتروں کے وِدوان عالمِ عرفان کو ہی طالبِ علم بصد شوق حاصل کرنا چاہتے ہیں۔ ایسے ہی اِندر پرمیشور! آپ بھگتی رس کو چاہتے ہوئے ہمیں عبادتِ سحری میں پریم سے حاصل ہوں۔
Tashree
مال و دولت ہزاروں کھانے لذیذ شیریں بھرے جہاں میں، وہیں طلب گار پہنچ جاتے، صبح کی سندھیا میں ملیئے ویسے۔
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व माणसांनी जव, सातू इत्यादी सुगंधित, मधुर, पुष्टिप्रद व आरोग्यदायक द्रव्यांचा अग्नीत होम करून वायुमंडल स्वच्छ करावे. या प्रकारे ज्ञानकांड, कर्मकांड, उपासनाकांडाचा आश्रय घेऊन सामगान करत परमेश्वराची पूजा करावी. यानुसार अभ्युदय व मोक्ष साधावा. ॥७॥
विषय
परमेश्वराचे वा विद्वान अतिथीचे उपवाहन (इंद्र नावाने)
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (विद्वान अतिथिविषयी) हे (इन्द्र) विद्वान, आपण ९प्रातः) या प्रभातकाळी (न्) आम्ही करीत असलेल्या या यज्ञात, ज्यात (धानावन्तम्) भाजलेल्या जव आहेत, (करम्भिणम्) तूप मिश्रित सातू आहेत आणि (अपूपवन्तम्) तूप लावलेले जव वा तांदळाच्या पुऱ्या ज्यात आहेत आणि (उक्ऴिनम्) ज्यात वेदमंत्र म्हटले जात आहेत, अशा यज्ञाचे (अतिथी यज्ञाचे (जुषस्व) प्रेमाने सेवन करा (आम्हा गृहस्थांचे आतिथ्य स्वीकारा)।। द्वितीय अर्थ - (अध्यात्मपक्षीं) हे इन्द्र परमेश्वर, आपण (प्रातः) या प्रभातकाळी (नः) आमच्या (धानावन्तम्) धारणा, ध्यान, समाधीने युक्त म्हणजे उपासनामय (करम्भिणम्) कर्मकांड वा विधीद्वारे होत असलेल्या (अपूपवन्तम्) ज्ञानकांडाने संपन्न आणि (उक्थिनम्) सामगानाद्वारे समृद्ध अशा उपासना- यज्ञाचा (जुषस्व) प्रेमाने स्वीकार करा. ।। ७।।
भावार्थ
सर्व मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यानी जव, सातू, पुऱ्या आदी सुवासिक, मधुर, पुष्टिकर आणि आरोग्यदायी द्रव्यांचा अग्नीत होम करावा आणि त्याद्वारे वायुमंडल स्वच्छ व प्रदूषणविरहित करावे. तसेच ज्ञान, कर्म आणि उपासना यांचा आधार घेत सामगान करीत परमेश्वराची पूजा करावी. अशा प्रकारे मनुष्यांनी अश्युदय (ऐहिक उन्नती) व निःश्रेयस (आत्मिक उन्नती वा मोक्ष) प्राप्त करावा.।। ७।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।। ७।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே! தான்யத்தோடு (நோக்கத்துடன்) தயிருடன் (தியானத்துடன்) பிண்டங்களுடன் (சாதனங்களுடன்) தோத்திரங்களோடு எங்களின் சோமனை காலையில் அடையவும்.
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