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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 212
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    37

    इ꣣मे꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣡माः꣢ सु꣣ता꣢सो꣣ ये꣢ च꣣ सो꣡त्वाः꣢ । ते꣡षां꣢ मत्स्व प्रभूवसो ॥२१२

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣मे꣢ । ते꣣ । इन्द्र । सो꣡माः꣢꣯ । सु꣣ता꣡सः꣢ । ये । च꣣ । सो꣡त्वाः꣢꣯ । ते꣡षा꣢꣯म् । म꣣त्स्व । प्रभूवसो । प्रभु । वसो ॥२१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे त इन्द्र सोमाः सुतासो ये च सोत्वाः । तेषां मत्स्व प्रभूवसो ॥२१२


    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । ते । इन्द्र । सोमाः । सुतासः । ये । च । सोत्वाः । तेषाम् । मत्स्व । प्रभूवसो । प्रभु । वसो ॥२१२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 212
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमरसों के प्रति निमन्त्रित किया जा रहा है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (ते) आपके लिए (इमे) ये वर्तमान काल में प्रस्तुत (सोमाः) हमारे मैत्रीरस हैं, (ये) जो (सुतासः) भूतकाल में भी निष्पादित हो चुके हैं, (सोत्वाः च) और भविष्य में भी निष्पादित होते रहेंगे। हे (प्रभूवसो) प्रचुर रूप से हमारे अन्दर सद्गुणों के बसानेवाले परमात्मन् ! आप (तेषाम्) उनसे (मत्स्व) प्रमुदित हों ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ते) तेरे लिए (इमे) ये वर्तमान काल में प्रस्तुत (सोमाः) ज्ञानरस, कर्मरस और श्रद्धारस हैं, (ये) जो (सुतासः) पहले भूतकाल में भी निष्पादित हो चुके हैं, (सोत्वाः च) और भविष्य में भी निष्पादित किये जानेवाले हैं। हे (प्रभूवसो) मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि को बहुत अधिक बसानेवाले जीवात्मन् ! (तेषाम्) उन रसों से (मत्स्व) तृप्ति प्राप्त कर, अर्थात् ज्ञानवान्, कर्मण्य और श्रद्धावान् बन ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥

    भावार्थ

    सबको चाहिए कि उपासकों के मन में सद्गुणों को बसानेवाले, दिव्य धन के स्वामी परमेश्वर को सब कालों में मैत्री-रस से सिक्त करें और अपने आत्मा को ज्ञानरसों, कर्मरसों और श्रद्धारसों से तृप्त करें ॥९॥

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    पदार्थ

    (प्रभूवसो-इन्द्र) संसार में प्रभू—अपनी स्वामिनी शक्तियों के बसाने वाले परमात्मन्! (ते) तेरे लिये (इमे सोमाः सुतासः) ये उपासनारस हमारे द्वारा निष्पादित हैं (च) और (ये सोत्वाः) जो उपासनारस निष्पादन किये जाने वाले हैं “कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः” [अष्टा॰ ३.४.१४] ‘त्वन् प्रत्ययः’ (तेषां मत्स्व) उनके प्रतीकार में—उनसे हम पर प्रसन्न हो।

    भावार्थ

    संसार में अपनी स्वामिनी शक्तियों को बसाने वाले परमात्मन्! हमारे द्वारा जो उपासनारस निष्पन्न किए हैं या किये जाने वाले हैं उनके द्वारा तू हम पर प्रसन्न हो जिससे हम आगे-आगे बढ़ते हुए तेरे साथ समागम लाभ लेते रहें॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय—उपासनीय देव वाला)॥<br>

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    विषय

    प्रभु जीव के प्रति

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि 'वामदेव गोतम' है- सुन्दर दिव्य गुणोंवाला तथा प्रशस्तेन्द्रिय | इसे प्रभु कहते हैं कि (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (इमे) = ये (सोमाः)=शक्ति के कण (ये)=जो (सुतास:) = पैदा किये गये हैं (च)= और जो (सोत्वा) = आगे उत्पन्न किये जाएँगे ये सब (ते)= तेरे लिए हैं। वीर्यशक्ति अत्यन्त मूल्यवान् वस्तु है, उसे प्रभु जीव के लिए उत्पन्न करने की व्यवस्था करते हैं। यदि जीव उसका अपव्यय कर देता है तो वह प्रभु का प्यारा कैसे हो सकता है?

    प्रभु कहते हैं कि (प्रभूवसो)= [प्रभुश्च वसुश्च] इन्द्रियों पर प्रभुत्व पानेवाले और निवास को उत्तम बनानेवाले जीव! (तेषां मत्स्व) = उन वीर्य-कणों की रक्षा के द्वारा तू आनन्द प्राप्त कर। संसार की छोटी-छोटी घटनाओं से मानव जीवन विकल हो उठता है, परन्तु संयमी के जीवन में सांसारिक कष्टों में भी आनन्द की धारा विच्छिन्न नहीं होती। 
     

    भावार्थ

    हम इस बात को सदा स्मरण रक्खें कि वीर्यशक्ति आध्यात्मिक विकास के लिए उत्पन्न की गई है। सन्तान- निर्माण इसका गौण उद्देश्य है।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( इमे ) = ये ( सोमाः ) = सोम, ज्ञान ( ते ) = तेरे लिये ( सुतासः ) = निष्पादन किये हैं ( ये च ) = और जो( सोत्वाः ) = भविष्य में निष्पादन किये जायेंगे ( तेषां ) उनसे हे ( प्रभूवसो ) = सामर्थ्यसम्पन्न ! शरीर के वासी आत्मन् ! ( मत्स्व ) = तु सदा प्रसन्न रह । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेवो:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रः सोमान् प्रत्याहूयते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमे) एते (ते) तुभ्यम् (सोमाः) अस्माकं मैत्रीरसाः, सन्तीति (शेषः), (ये) मैत्रीरसाः (सुतासः) पूर्वमपि अभिषुताः। आज्जसेरसुक्। अ० ७।१।५० इति सुतप्रातिपदिकाज्जसोऽसुगागमः, (सोत्वाः च) इतः परम् अभिषोतव्याः च। षुञ् अभिषवे धातोः ‘कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः। अ० ३।४।१४’ इति त्वन् प्रत्ययः। हे (प्रभूवसो) प्रभूततया सद्गुणानां वासयितः परमात्मन् ! प्रभु प्रचुरं यथा स्यात् तथा वासयतीति प्रभूवसुः। पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः, सम्बुद्धिस्वरः। त्वम् (तेषाम्) तैः। तृतीयार्थे षष्ठी। (मत्स्व) प्रमोदस्व। मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः। आत्मनेपदं छान्दसम् ॥ अथ द्वितीयः—जीवात्मपरः। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ते) तुभ्यम् (इमे) एते (सोमाः) ज्ञानरसाः कर्मरसाः श्रद्धारसाश्च सन्ति, (ये सुतासः) पूर्वम् अभिषुताः, (सोत्वाः च) इतः परम् अभिषोतव्याश्च। हे (प्रभूवसो) मनोबुद्धीन्द्रियादीनां प्रचुरतया वासयितः ! त्वम् (तेषाम्) तैः रसैः (मत्स्व) तृप्तिं लभस्व। ज्ञानवान्, कर्मवान्, श्रद्धावांश्च भवेति भावः ॥९॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥

    भावार्थः

    उपासकानां मनसि सद्गुणानां वासयिता दिव्यवसुः परमेश्वरः सर्वकालेषु सर्वैर्भक्तिरसेन सेचनीयः, स्वात्मा च ज्ञानरसैः, कर्मरसैः, श्रद्धारसैश्च तर्पणीयः ॥९॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, thine are these pleasures and knowledge derived and which are still to be derived. O Lord of strength, remain ever glad, through their enjoyment !

    Translator Comment

    Lord of strength means soul.

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    Meaning

    O lord of exuberance, Indra, these somas of purest homage now ripe and ready and those that will be extracted and matured are all for you. Eternal lord of infinite wealth and excellence, accept these, be gracious, and blesses.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (प्रभूवसो इन्द्र) સંસારમાં પ્રભુ-પોતાની સ્વામિની શક્તિઓને વસાવનાર પરમાત્મન્ ! (ते) તારા માટે (इमे सोमाः सुतासः) એ ઉપાસનારસ અમારા દ્વારા પેદા કરેલ છે (च) અને (ये सोत्वाः) જે ઉપાસનારસ આગળ ઉત્પન્ન કરવામાં આવનાર છે (तेषां मत्स्व) તેના પ્રતિકારમાં-તેનાથી અમારા પર પ્રસન્ન થા. (૯)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સંસારમાં પોતાની સ્વામિની શક્તિઓને વસાવનાર પરમાત્મન્ ! અમારા દ્વારા જે ઉપાસનારસ ઉત્પન્ન કરેલ છે અથવા આગળ કરવામાં આવનાર છે તેના દ્વારા તું અમારા પર પ્રસન્ન થા, જેથી અમે આગળ-આગળ વધતાં રહીને તારી સાથે સમાગમ લાભ લેતા રહીએ. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آپ کی بھگتی کا رس آپ کی ہی نیاز!

    Lafzi Maana

    دُنیا کی دولتوں کے سرچشمہ پربھُو! آپ کی بھگتی سے اکٹھے کئے گئے یہ امرت رس آپ کی نیاز کے لئے ہی بنائے ہیں اور آگے بھی یہ بھگتی رس بناتا رہوں گا۔ بس آپ سدا مہربان اور مجھ پر شاد کام رہیں۔

    Tashree

    آپ کی بھگتی سے بھگتی رس ملا اور آگے بھی، آپ کے قدموں پر نیو چھاور کروں ہو گی خوشی۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्वांनी उपासकाच्या मनात सद्गुण वसविणाऱ्या, दिव्य धनाचा स्वामी असलेल्या परमेश्वराला सर्वकाळी मैत्रीरसाने सिंचित करून आपल्या आत्म्याला ज्ञानरस, कर्मरस व श्रद्धारसांनी तृप्त करावे. ॥९॥

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    विषय

    सोम रसपान करण्यासाठी इन्द्राला निमंत्रण

    शब्दार्थ

    प्रथम अर्थ - (परमात्मपर अर्थ) हे (इन्द्र) परमेश्वर, (ते) तुमच्याकरिता (इमे) आम्ही वर्तमानकाळी प्रस्तुत करीत असलेला जो (सोमाः मैत्रीपूर्ण रस (भक्तीभावात रंगलेले ध्यान) आहे आणि (ये) जे (सुतासः) भूतकाळी निष्पादित (भक्ति वा उपासनारूप रस) आहेत, ते व तसे भाव (सोत्वाःच) भविष्यकाळीदेखील निष्पादित होत राहतील (आम्ही तुमची भक्ती करती आलो आहोत, करीत आहोत व पुढेही करीत राहू.) हे (प्रभूवसो) आमच्या हृदयात सद्गुणांची स्थापना करणआऱ्या हे परमेश्वरा, तू (तेषाम्) त्या आनंद रसाने (मत्स्व) प्रभुदित व्हा।। द्वितीय अर्थ - (जीवात्मा पक्षी) - हे (इन्द्र) जीवात्मा, (ते) तुझ्यासाठी (इमे) हे वर्तमानकाळी आम्ही प्रस्तुत करीत असेले (ये) जे (सोमाः) ज्ञानरस, कर्मरस व श्रद्धारस आहेत, तसेच (सुतासः) पूर्वी भूतकाळी व्यक्त केलेले जे रस आहेत (सोत्वाःच) ते भविष्यकाळीदेखील व्यक्त होत राहतील. हे (प्रभूवसो) मन, बुद्धी, इंद्रिये आदींना अत्यधिक स्थिर वा शांत करणाऱ्या जीवात्मा, (तेषाम्) त्या रसाद्वारे तू (भत्स्व) तृप्त होत म्हणजे अधिक ज्ञानवान, अधिक कर्मण्य आणि श्रद्धावान हो।। ९।।

    भावार्थ

    सर्वांचे कर्तव्य आहे की उपासकांच्या मनात सद्गुणांची स्थापना करणाऱ्या आणि दिव्य संपदेचा जो स्वामी त्या परमेश्वराला सदा सर्वकाळी मैत्री रसाने तृप्त करावे (त्याला आपला सर्वश्रेष्ठ मित्र मानावे) आणि आपल्या आत्म्यास ज्ञानरस, कर्मरस व श्रद्धारसाने तृप्त करावे.।। ९।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।। ९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஐசுவரியங்களின் தலைவனே! உன் பொருட்டு இதோ காணப்படும் சோம பானங்கள் (ஆன்ம சிந்தனைகள்) . இனி பொழியப்படுபவைகளும். அவைகளை அனுபவிக்கவும்.

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