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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 213
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    20

    तु꣡भ्य꣢ꣳ सु꣣ता꣢सः꣣ सो꣡माः꣢ स्ती꣣र्णं꣢ ब꣣र्हि꣡र्वि꣢भावसो । स्तो꣣तृ꣡भ्य꣢ इन्द्र मृडय ॥२१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तु꣡भ्य꣢꣯म् । सु꣣ता꣡सः꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । स्ती꣣र्ण꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । वि꣣भावसो । विभा । वसो । स्तो꣡तृभ्यः꣢ । इ꣣न्द्र । मृडय ॥२१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यꣳ सुतासः सोमाः स्तीर्णं बर्हिर्विभावसो । स्तोतृभ्य इन्द्र मृडय ॥२१३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम् । सुतासः । सोमाः । स्तीर्णम् । बर्हिः । विभावसो । विभा । वसो । स्तोतृभ्यः । इन्द्र । मृडय ॥२१३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 213
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि परमेश्वर स्तोताओं को सुख प्रदान करे।

    पदार्थ

    हे (विभावसो) तेज रूप धनवाले परमेश्वर ! (तुभ्यम्) आपके लिए (सोमाः) हमारे प्रीतिरस (सुतासः) निष्पादित किये गये हैं, और (बर्हिः) हृदयरूप आसन (स्तीर्णम्) बिछाया गया है। हृदयासन पर बैठकर, हमारे प्रीतिरूप सोमरसों का पान करके, हे (इन्द्र) परमेश्वर्यशाली परब्रह्म ! आप (स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (मृडय) आनन्द प्रदान कीजिए ॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की उपासना से और उसके प्रति अपना प्रेमभाव समर्पण करने से उपासकों को ही सुख मिलता है॥१०॥ इस दशति में इन्द्र का तरणि आदि रूप में वर्णन होने से, इन्द्र के सहचारी मित्र, मरुत् और अर्यमा की प्रशंसा होने से, इन्द्र द्वारा जल-फेन आदि साधन से नमुचि का सिर काटने आदि का वर्णन होने से और इन्द्र नाम से विद्वान्, वैद्य, राजा और सेनापति आदि के अर्थों का भी प्रकाश होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (विभावसो-इन्द्र) विशेष दीप्ति को बसाने वाले परमात्मन्! (तुभ्यम्) तेरे लिये (सोमाः सुतासः) उपासनारस निष्पन्न किए हैं (बर्हिः-स्तीर्णम्) तेरे विराजने के लिये हृदयसदन भी विस्तृत है (स्तोतृभ्यः-मृडय) स्तोताओं के लिये सुख पहुँचा दे।

    भावार्थ

    विशेष दीप्तियों को बसाने फैलाने वाले परमात्मन्! तेरे लिये उपासनारस निष्पन्न किये हैं और तेरे विराजने को हृदयसदन भी विशाल बनाया हुआ है तू आ विराजमान हो हम-स्तोताओं को अपने समागम से आनन्दित कर॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया है अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा उपासक)॥<br>

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    विषय

    जीव प्रभु के प्रति

    पदार्थ

    गत मन्त्र में प्रभु ने जीव से कहा था कि ये सोमकण मैंने तेरे लिए उत्पन्न किये हैं, तूने इनका ठीक उपयोग करके 'वामदेव गोतम' बनना है । सुन्दर दिव्यगुणों को उत्पन्न करने में और इन्द्रियों को प्रशस्त बनाने में इनका उपयोग करना है। जीव कितने उत्तम शब्दों में इसका उत्तर देता है कि ये (सुतासः सोमा:) = उत्पन्न सोमकण (तुभ्यम्) = तेरे लिए विनियुक्त किये गये हैं, अर्थात् इनका अपव्यय करना तो दूर रहा, तेरी प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग किया है। इससे बढ़कर उत्तम इनका विनियोग हो ही क्या सकता है? जड़ जगत् की यह सर्वोत्तम वस्तु है, इससे मैंने चेतन जगत् की सर्वोत्तम वस्तु आपको पाने का प्रयत्न किया है। हे विभावसो= ज्ञानधन प्रभो! आपके स्वागत के लिए ही मैंने (बर्हिः) = निर्मल हृदय को (स्तीर्णम्) = बिछाया है। ‘बर्हि' उस हृदयान्तरिक्ष का नाम है जिसमें से सब वासनारूप झाड़-झंखाड़ को उखाड़कर परे फेंक दिया गया है। वस्तुतः सोमकणों की रक्षा का यह भी परिणाम है कि हृदय वासनामुक्त हो जाता है। इस वीर्यरक्षा से हम उस ज्ञानधन प्रभु से ज्ञान को प्राप्त करनेवाले भी बनते हैं। एवं, वीर्यरक्षा के तीन लाभ होते हैं १. प्रभु की प्राप्ति २. हृदय की वासना शून्यता तथा ३. ज्ञान की प्राप्ति।

    वीर्यरक्षा के द्वारा इन तीनों परिणामों को अपने जीवन में प्रकट करनेवाले व्यक्ति ही प्रभु के सच्चे स्तोता हैं। वे प्रार्थना करते हैं - हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली, अज्ञानान्धकार के नाशक प्रभो! हम (स्तोतृभ्यः)=स्तोताओं के लिए (मृडय) = सुख दीजिए।

    ये स्तोता ज्ञान को अपनी शरण बनाने के कारण 'श्रुतकक्ष' हैं। ये प्रभु को 'विभावसु' के रूप में देखते हैं। सर्वोत्तम शरण ज्ञान ही है, अतः ये 'सुकक्ष' हैं, भोगमार्ग की ओर न जाने से ये शक्ति-सम्पन्न अङ्गोंवाले 'आङ्गिरस' हैं।

    भावार्थ

    हम वीर्यरक्षा के द्वारा ज्ञान व नैर्मल्य को प्राप्त करके प्रभु को पानेवाले बनें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( विभावसो ) = तेजःकान्तिसम्पन्न ! ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( सोमाः ) = सोम, य समस्त अन्त:- आनन्द रस ( तुभ्यं ) = तेरे लिये ( सुतास: ) = निष्पादन किये गये हैं ( बर्हिः ) = देहरूप यह आसन अथवा ब्रह्मस्वरूप महान् आश्रय ( स्तीर्णं  ) = विस्तृत किया गया है ।  तू ( स्तोतृभ्यः ) = सत्य २ गुणकीर्तन करने वालों को ( मृडय ) = सुखी कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्रुतकक्षः।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरः स्तोतॄन् सुखयेदिति प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे (विभावसो) दीप्तिधन परमेश्वर ! (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (सोमाः) अस्माकं प्रीतिरसाः (सुतासः) सुताः अभिषुताः सन्ति, (बर्हिः) हृदयरूपं दर्भासनं च (स्तीर्णम्) प्रसारितम्। स्तॄञ् आच्छादने, क्र्यादिः, निष्ठायां रूपम्। हृदयासने निषद्य अस्माकं प्रीतिरूपान् सोमरसान् पीत्वा च, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परब्रह्म ! त्वम् (स्तोतृभ्यः) स्तुतिं कुर्वद्भ्योऽस्मभ्यम् (मृडय) सुखं प्रयच्छ। मृड सुखने तुदादिर्वेदे चुरादिरपि दृश्यते। ॥१०॥

    भावार्थः

    परमेश्वरस्योपासनेन तं प्रति स्वप्रीतिसमर्पणेन चोपासकानामेव सुखं जायते ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य तरण्यादिरूपेण वर्णनाद्, इन्द्रसहचारिणां मित्रमरुदर्यम्णां प्रशंसनाद्, इन्द्रद्वाराऽपां फेनादिना नमुच्यादेः शिरःकर्तनादिवर्णनात्, सोमं पातुमिन्द्राह्वानाद्, इन्द्रनाम्ना विद्वद्वैद्यनृपतिसेनापत्यादीनां चाप्यर्थप्रकाशनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विभावनीयम् ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये दशमः खण्डः ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For Thee, O God, Lord of light, have we purified our minds, and spread our hearts. Be gracious to Thy worshippers.

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    Meaning

    O lord of light, Indra, the soma delicacies distilled and seasoned are ready for you. The holy grass seats are spread on the vedi. Pray come in, be gracious, and bring wealth, honour and excellence of life for the celebrants with peace and joy. (Rg. 8-93-25)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विभावसो इन्द्र) વિશેષ દીપ્તિને વસાવનાર પરમાત્મન્ ! (तुभ्यम्) તારા માટે (सोमाः सुतासः) ઉપાસનારસ ઉત્પન્ન કરેલ છે (बर्हिः स्तीर्णम्) તારા બિરાજવા માટે હૃદયગૃહ પણ વિસ્તૃત છે (स्तोतृभ्यः मृडयः) સ્તોતાઓને (સ્તુતિ કરનારાઓ) માટે સુખ પહોંચાડી દે. (૧૦)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : વિશેષ દીપ્તિઓને વસાવનાર ફેલાવનાર પરમાત્મન્ ! તારા માટે ઉપાસનારસ ઉત્પન્ન કરેલ છે અને તારા બેસવા માટે હૃદયગૃહ પણ વિશાળ બનાવેલ છે, તું આવ વિરાજમાન થા. અમને સ્તોતાઓને (સ્તુતિ કરનારાઓને) તારા સમાગમથી આનંદિત કર. (૧૦)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    دل کے مندر میں بِراجیں!

    Lafzi Maana

    نُورِ تجّلی خداوند کریم! علم معرفت کا یہ لامثال بھگتی دھن کا آنند آپ کی سُپردگی کے لئے ہی ہے۔ جس کے لئے دل کا مندر آپ کے لئے کھُل گیا ہے۔ آئیے! اِس میں براجئے اور عابد کو خوشیوں سے سرفراز کیجئے!

    Tashree

    علمِ عِرفاں کے خزانے بندہ پرور آئیے، میرے من مندر کو اپنے نُور سے چمکائیے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराची उपासना करण्याने व त्याला आपला प्रेमभाव समर्पण करण्याने उपासकालाही सुख मिळते. ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राचे तरणि इत्यादी रूपात वर्णन असल्यामुळे इंद्राचे सहचारी मित्र, मरुत व अर्यमा (परमेश्वर) ची प्रशंसा असल्यामुळे, इंद्राद्वारे जल-फेस इत्यादी साधनाने नमूचिचे मस्तक छाटणे इत्यादीचे वर्णन असल्यामुळे व इंद्र नावाचे विद्वान, वैद्य, राजा व सेनापती इत्यादी अर्थांचा प्रकाश असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    उपासकांना परमेश्वराने सुख द्यावे -

    शब्दार्थ

    हे (विभावसो) तेजरूप संपदा असलेल्या परमेश्वरा, (तुभ्यम्) तुझ्यासाठी (सोमाः आम्ही प्रेमरस (सुतासः) निष्पादित केले आहेत (भक्तिभाव अर्पित केले आहेत) आणि तुझ्या स्वागतासाठी (बर्हिः) हृदयरूप आसन (स्वीर्णम्) आंथरले आहे. या हृदयासनावर बसून आमच्या प्रीतीरूप सोमरसाचे प्राशन करून हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमेश्वरा, तू (स्तोतृभ्यः) आम्हा स्तोत्यांना / उपासकांना (मृडय) आनन्द प्रदान कर।। १०।।

    भावार्थ

    परमेश्वराची उपासना केल्यामुळे आणि त्याच्या प्रत आपल्या प्रेमभावना समर्पित केल्यामुळे उपासकांनाच आनंद मिळतो.।। १०।। या दशतीमध्ये इंद्राचे वर्णन तरणि (नौका) या रूपाने केले असून त्याचे सहचारी असलेल्या मित्र, वरूण आणि मरुत् आदींची प्रशंसा आहे. या दशतीत इंद्राने जल फेनाद्वारे नमुचिचे मस्तक भंग करणे तसेच इंद्र नावाने विद्वान, वैद्य, राजा, सेनापती आदी विषयीदेखील विचार प्रकट केले आहेत. याकरिता या दशतीतील मंत्रांच्या अर्थाची संगती मागील दशतीच्या अर्थाशी आहे, असे जाणावे.।। तृतीय प्रपाठकातील प्रथम अर्धाची द्वितीय दशती समाप्त. द्वितीय अध्यायातील दशम खंड समाप्त.

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நானாவித ஐசுவரியமுள்ளவனே! இந்திரனே சோமன்கள் பொழியப்படுகின்றன. [1] தர்ப்பைகளும் தீட்டப்பட்டிருக்கின்றன. தோத்திரிப்பவர்களுக்கு இன்பமளிக்கவும்.

    FootNotes

    [1] தர்ப்பைகளும் - ஆயுதங்களும்

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