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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 239
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    25

    पि꣡बा꣢ सु꣣त꣡स्य꣢ र꣣सि꣢नो꣣ म꣡त्स्वा꣢ न इन्द्र꣣ गो꣡म꣢तः । आ꣣पि꣡र्नो꣢ बोधि सध꣣मा꣡द्ये꣢ वृ꣣धे꣢३ऽस्मा꣡ꣳ अ꣢वन्तु ते꣣ धि꣡यः꣢ ॥२३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि꣡बा꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । र꣣सि꣡नः꣢ । म꣡त्स्व꣢꣯ । नः꣣ । इन्द्र । गो꣡म꣢꣯तः । आ꣣पिः꣢ । नः꣣ । बोधि । सधमा꣡द्ये꣢ । स꣣ध । मा꣡द्ये꣢꣯ । वृ꣣धे꣢ । अ꣣स्मा꣢न् । अ꣣वन्तु । ते । धि꣡यः꣢꣯ ॥२३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिबा सुतस्य रसिनो मत्स्वा न इन्द्र गोमतः । आपिर्नो बोधि सधमाद्ये वृधे३ऽस्माꣳ अवन्तु ते धियः ॥२३९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पिबा । सुतस्य । रसिनः । मत्स्व । नः । इन्द्र । गोमतः । आपिः । नः । बोधि । सधमाद्ये । सध । माद्ये । वृधे । अस्मान् । अवन्तु । ते । धियः ॥२३९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 239
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह प्रार्थना है कि परमेश्वर और राजा हमारी बुद्धि के लिए होवें।

    पदार्थ

    प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप (रसिनः) रसीले (सुतस्य) निष्पादित भक्तिभावरूप सोमरस का (पिब) पान कीजिए। (गोमतः) प्रशस्त इन्द्रियों और प्रशस्त वेदवाणियों का पाठ करनेवाले (नः) हमें (मत्स्व) आनन्दित कीजिए। (सधमाद्ये) जिसमें सब राष्ट्रों के लोग परस्पर मिलकर आनन्दलाभ करते हैं, ऐसे विश्वयज्ञ में (वृधे) वृद्धि के लिए (आपिः) बन्धु बनकर (नः) हमें (बोधि) बोध प्रदान कीजिए। (ते) आपकी (धियः) बुद्धियाँ और कर्म (अस्मान्) हमें (अवन्तु) रक्षित करें ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यशाली राजन् ! आप (रसिनः) रसीले (सुतस्य) निचोड़कर तैयार किये हुए सोमादि ओषधियों के रस का (पिब) पान कीजिए। उससे शक्तिशाली होकर आप (गोमतः) प्रशस्त भूमियों के स्वामी (नः) हम लोगों को (मत्स्व) आनन्दित कीजिए। (सधमाद्ये) जिसमें सब प्रजाजन मिलकर सुखी होते हैं, ऐसे राष्ट्रयज्ञ में (वृधे) वृद्धि के लिए (आपिः) बन्धु बनकर (नः) हम प्रजाजनों को (बोधि) जागरूक कीजिए। (ते) आपकी (धियः) राजनीति में चतुर बुद्धियाँ और राष्ट्रोत्थान के कर्म (अस्मान्) हमें (अवन्तु) रक्षित करें ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की कृपा और राजाओं के पुरुषार्थ से ही राष्ट्र की उन्नति, प्रजाओं का आनन्द और विश्वशान्ति हो सकती है ॥७॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (सुतस्य) निष्पादित—(गोमतः) स्तुति वाणी से युक्त—(रसिनः) मधुर उपासनाप्रवाह को ‘द्वितीयार्थे षष्ठी’ “रसो वै मधु” [श॰ ६.४.३.२] (पिब) पान कर—स्वीकार कर (नः-मत्स्व) हमें तृप्त कर “मद तृप्तियोगे” [चुरादि॰] (आपिः) हमें प्राप्त होने वाला होकर (बोधि) बोध दे (ते धियः) तेरी बोध धारायें “धीः प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.९] (सधमाद्ये) साथ बर्ष सम्पादन योग्य अध्यात्म यज्ञ में (वृधे-अस्मान्-अवन्तु) वृद्धि—उन्नति के लिये हमें रक्षित करें।

    भावार्थ

    परमात्मन्! स्तुतियों से युक्त निष्पादित मधुर उपासनाप्रवाह का पान कर—स्वीकार कर, पुनः हमें तृप्त कर तू अध्यात्म यज्ञ में हमें प्राप्त हुआ बोध दे तेरी बोध धारायें उन्नति के लिए हमारी रक्षा करें॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से गमन प्रवेश करने वाला)॥<br>

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    विषय

    कृपालु प्रभु का उपदेश

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वसिष्ठ प्रभु को अपने प्रति कृपालु बनाता हैं। प्रभु कृपालु होकर अपने प्रिय जीव से कहते हैं (पिब नः सुतस्य) = तू मेरे द्वारा उत्पादित सोम-वीर्यशक्ति का अपने अन्दर पान कर और इस के द्वारा अपनी ज्ञानाग्नि को समिद्ध करके (सुतस्य) = उत्पादित ज्ञान का पान कर। इस सोम का पान तू इसलिए कर कि यह १. (रसिन:) = तेरे जीवन को रसमय बनाएगा - तेरी वाणी से उच्चारित शब्दों में माधुर्य होगा तथा २. (गोमतः) = [गावः इन्द्रियाणि, मतुप्=प्रशंसायाम्] यह तुझे प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनाएगा। यह सोम का पान तेरे चरित्र में उत्तमता तथा व्यवहार में मधुरता उत्पन्न करेगा। इस प्रकार हे (इन्द्र) =  इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (मत्स्व) = जीवन को आनन्दमय बना। जीवन का वास्तविक आनन्द माधुर्य व इन्द्रिय नैर्मल्य में ही है।
    प्रभु के इस उपदेश को सुनकर 'मेधातिथि' = निरन्तर मेधा की ओर चलने की कामना करनेवाला यह जीव प्रभु से कहता है

    १. (आपिः नः)=आप ही हमारे बन्धु हो । आपने हमें अपने अन्दर व्याप्त किया हुआ है, तभी आप हमारे हृदयों में व्याप्त हो रहे हो। २. (बोधि) = आप हमें बोध दीजिए। इसलिए कि [क] (सधमाद्ये) = हम आपके साथ [सह] रहने में हर्ष का अनुभव करें, [ख] (वृधे) = हम सदा वृद्धि व उन्नति के मार्ग का आक्रमण करनेवाले बनें । हे परम उदात्त मित्र ! अस्मान्-हमें (ते) = आपकी (धियः) = दी हुई बुद्धियाँ (अवन्तु) = संसार - समुद्र में डूबने से बचाएँ। हम आपके निर्देशों के अनुसार चलते हुए अपना कल्याण सिद्ध करनेवाले हों।

    भावार्थ

    मैं सोम=शक्ति व ज्ञान के पान से अपने जीवन को मधुर व प्रशस्तेन्द्रिय बनाऊँ। ज्ञान-रुचिवाला बनकर प्रभु के सम्पर्क में आनन्द का अनुभव करूँ और सदा उन्नति–पथ पर आगे बढ़ता चलूँ।
     

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( इन्द्र ) = हे आत्मन् ! ( नः ) = हम इन्द्रियों के ( गोमतः ) = अपनी गति से सम्पादित ( रसिनः ) = भोग या ज्ञान के सुख या बल से सम्पन्न ( सुतस्य ) = उत्पादित ज्ञान का ( पिब  ) = पान कर, उपभोग कर ( मत्स्व ) = और प्रसन्न और तृप्त हो । ( नः ) = हमारे ( सधमाद्ये ) = एक ही साथ आनन्द भोग करने के स्थान, शरीर में ( आपिः ) = बन्धु के समान हमें सदा प्राप्त होकर तू ( नः ) = हमें ( बोधि ) = ज्ञानवान् कर | ( ते धियः ) = तेरी ज्ञानमय वृत्तियां ( वृधे ) = और भी अधिक उन्नति, वृद्धि के लिये ( अस्माँ ) = हमें ( अवन्तु ) = रक्षा करें । 

    टिप्पणी

    २३९ – 'सधमाद्यः' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेधातिथिः ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरो नृपश्चाऽस्माकं वर्धनाय भूयादित्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपक्षे। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! त्वम् (रसिनः) रसमयस्य (सुतस्य) अस्माभिरभिषुतस्य भक्तिभावरूपस्य सोमस्य (पिब) पानं कुरु। द्वितीयार्थे षष्ठी। संहितायां ‘द्व्यचोऽतस्तिङः’ अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। (गोमतः) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि वेदवाचो वा येषां सन्तीति तान् प्रशस्तेन्द्रियान् वेदपाठिनो वा (नः) अस्मान् (मत्स्व२) मादयस्व आनन्दय। मद तृप्तियोगे चुरादिर्वेदे भ्वादिरपि प्रयुज्यते। (सधमाद्ये३) सह माद्यन्ति जना अत्रेति सधमाद्यो विश्वयज्ञस्तस्मिन्। ‘सधमादस्थयोश्छन्दसि’ अ० ६।३।९६ इति सहस्य सधादेशः। (वृधे) वर्द्धनाय (समुन्नत्यै)। वृधु वर्धने धातोः क्विपि चतुर्थ्येकवचने रूपम्। (आपिः) बन्धुः सन् (नः) अस्मान् (बोधि४) बोधय। (ते) तव (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि च (अस्मान्) नः (अवन्तु) रक्षन्तु ॥ अथ द्वितीयः—राजपक्षे। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यशालिन् राजन् ! त्वम् (रसिनः) रसमयस्य (सुतस्य) निश्च्योतितस्य सोमाद्योषधिरसस्य (पिब) आस्वादनं कुरु। तेन शक्तिशाली भवंस्त्वम् (गोमतः) प्रशस्तभूस्वामिनः (नः) अस्मान् (मत्स्व) आनन्दय। (सधमाद्ये) राष्ट्रयज्ञे (वृधे) वर्धनाय (आपिः) बन्धुः सन् (नः) अस्मान् प्रजाजनान् (बोधि) जागरूकान् कुरु। (ते) तव (धियः) राजनीतिकुशला बुद्धयः राष्ट्रोत्थानकर्माणि च (अस्मान्) प्रजाजनान्(अवन्तु) रक्षन्तु ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥

    भावार्थः

    परमेश्वरस्य कृपया नृपाणां पुरुषार्थेनैव च राष्ट्रोन्नतिः प्रजानामानन्दो विश्वशान्तिश्च सम्भवति ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।३।१ ‘सधमाद्ये’ इत्यत्र ‘सधमाद्यो’ इति पाठः। साम० १४२१। २. मत्स्व अस्माभिः स्तुतः सन् सदा हर्षय। ‘बहुलं छन्दसि’ इति श्यनो लुक्—इति ऋ० १।९।३ भाष्ये द०। ३. सह माद्यन्ते यत्र देवताः स सधमाद्यः यज्ञः तस्मिन्—इति वि०। भरतस्वामिसायणयोर्मतेऽपि यज्ञ एवार्थः। ४. बोधि बोधय, अत्र लोडर्थे लङ् अडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च इति ऋ० १।३१।९ भाष्ये द०। बुध्यस्व। यद्यदहं ब्रवीमि तत् सर्वं शृण्वित्यर्थः—इति वि०। बोधि भव, भवतेर्लोटि रूपमिदम्, हेर्धिः, भकारस्य बकारः, शपो लुक्, गुणश्छान्दसः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, enjoy the knowledge derived from us, the active organs; and be thus delighted. Grant us knowledge, being ever present in our body as a friend. May thy acts of wisdom guard us well for our prosperity!

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    Meaning

    Indra, resplendent and mighty, karma yogi, great performer, come and have a drink of our delicious festive soma distilled and mixed with milk and cream, share the ecstasy, enlighten us, your own people, for progress and prosperity, and may your thoughts and wisdom protect, promote and guide us in life. (Rg. 8-3-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! તું (सुतस्य)  નિષ્પાદિત (गोमतः) સ્તુતિવાણીથી યુક્ત (रसिनः) મધુર ઉપાસના પ્રવાહનું (पिब) પાન કર - સ્વીકાર કર (नः मत्स्वः) અમને તૃપ્ત કર (आपिः) અમને પ્રાપ્ત થઈને (बोधि) બોધ આપ (ते धियः) તારી બોધ ધારાઓ (सधमाद्ये) સાથે હર્ષ સંપાદન યોગ્ય અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (वृधे अस्मान् अवन्तु) વૃદ્ધિ-ઉન્નતિને માટે અમને રક્ષિત કરો. (૭)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! સ્તુતિઓથી યુક્ત નિષ્પાદિત મધુર ઉપાસના પ્રવાહનું પાન કર - સ્વીકાર કર, પુનઃ અમને તૃપ્ત કર. તું અધ્યાત્મયજ્ઞમાં અમને પ્રાપ્ત બોધ આપ, તારી બોધ ધારાઓ ઉન્નતિને માટે અમારી રક્ષા કરે. (૭)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ہمارے سچّے بندھُو

    Lafzi Maana

    اِندر پرمیشور! (نہ گومتہ) ہم عابدوں کے (رسی ناسُتیہ پِب) بھگتی رس کو منظور فرمائیں اور (متسوا) ہم پر مہربان ہوویں۔ آپ (نہ آپی) ہمارے سچّے بندھُو ہیں۔ ہماری بھاوناؤں (جذبات) کو (بودھی) جانئے۔ اپنا گیان کرائیے (سدھ مادیئے وِرودھے) ہماری آپسی خوشیوں میں اضافہ بخشئے۔ (نے دِھیا اسمان اَونتُو) آپ کا دھیان ہماری رکھشا میں لگا رہے۔

    Tashree

    سچّے بندھُو آپ ہیں جذبات ہمارے جانیئے، بھگتی رس منظور کر آنند کو برسائیے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या कृपेने व राजाच्या पुरुषार्थानेच राष्ट्राची उन्नत्ती, प्रजेचा आनंद व विश्वशांती मिळू शकते ॥७॥

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    विषय

    परमेश्वर आणि राजा आमची वृद्धी करोत

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (परमेश्वरपर) हे (इन्द्र) परमेश्वर, आपण (रसिनः) सरस (सुतस्य) आणि योग्य रीतीने निष्पादित भक्तिरभावरूप सोमरस (पिब) प्या (गोमतः) इन्द्रयांवर वश मिळविलेल्या आणि प्रशंसनीय वेदवाणीचा पाठ करणाऱ्या (नः) आम्हा उपासकांना (मत्स्व) आनंदित करा. (अधमाघे) ज्यात सर्व राष्ट्रांचे लोक मिळून आनंद प्राप्त करात अशा या विश्वयज्ञात (वृधे) बुद्धी वा प्रमतीकरिता (आपिः) आमचा बंधू (सहाय्यक) होऊन (नः) आम्हाला (बोधि) बोध प्रदान करा. (ते) तुमच्या (धियः) बुद्धी, ज्ञान व कर्म यांनी (अस्मान्) आमचे (अवन्तु) रक्षण करावे ( ही प्रार्थना)।। द्वितीय अर्थ - (राजापर) - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली राजा, आपण (सुलस्य) योग्य पद्धतीने तयार केलेल्या या (रसिनः) सरस व स्वादिष्ट हा सोमरस (पिव) प्या. त्याने शक्तिशाली होऊन आपण (गोमतः) विशाल भू प्रदेशाचे स्वामी असलेल्या (नः) आम्हाला (मत्स्व) आनंदित करा. (आम्ही आपल्या स्वागतार्थ दिलेल्या सोमरसाचे पान केल्यामळे आपण वीरत्व व उत्साहाने परिपूर्ण व्हाल व त्यामुळे आम्हाला आनंद होईल) (सधमाघे) ज्यामध्ये सहभागी होऊन सर्व प्रजाजन सुखी आनंदित होतात, त्या राष्ट्र यज्ञात (वृधे) वृद्धी वा उन्नती प्राप्तीसाठी (आपिः) आपण आमचे बंधू होऊन आम्हा प्रजाजनांना (बोधि) सावध व चैतन्य करा. प्रेरक व्हा. (ते) तुमच्याजवळ असलेली (धियः) बुद्धी व सत्कर्मे राष्रोन्नतीच्या कार्यात (अस्मान्) आमचे (अधन्तु) रक्षण करतो.।।७।।

    भावार्थ

    परमेश्वराची कृपा आणि राजांचा पुरुषार्थ यांनीच राष्ट्राची उन्नती, प्रजेचे हित आणि विश्वशांती संभवनीय आहे.।।७।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंका आहे।।७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ரசமான சோமனை இந்திரனே எங்கள் பசுபால் சம்பந்தங்களால் பருகவும். மகிழ்வுடனாகவும். யக்ஞத்தில் வியாப்தமாய் பந்துவாய் எங்கள் அபிவிருத்திக்கு
    போதமுடனாகவும். உன் அறிவுகள் எங்களைக் காப்பாற்றட்டும்.

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