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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 240
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    33

    त्व꣢꣫ꣳ ह्येहि꣣ चे꣡र꣢वे वि꣣दा꣢꣫ भगं꣣ व꣡सु꣢त्तये । उ꣡द्वा꣢वृषस्व मघव꣣न्ग꣡वि꣢ष्टय꣣ उ꣢दि꣣न्द्रा꣡श्व꣢मिष्टये ॥२४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्व꣢म् । हि । आ । इ꣣हि । चे꣡र꣢꣯वे । वि꣣दाः꣢ । भ꣡ग꣢꣯म् । व꣡सु꣢꣯त्तये । उत् । वा꣣वृषस्व । मघवन् । ग꣡वि꣢꣯ष्टये । गो । इ꣣ष्टये । उ꣢त् । इ꣣न्द्र । अ꣡श्व꣢꣯मिष्टये । अ꣡श्व꣢꣯म् । इ꣣ष्टये ॥२४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वꣳ ह्येहि चेरवे विदा भगं वसुत्तये । उद्वावृषस्व मघवन्गविष्टय उदिन्द्राश्वमिष्टये ॥२४०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । आ । इहि । चेरवे । विदाः । भगम् । वसुत्तये । उत् । वावृषस्व । मघवन् । गविष्टये । गो । इष्टये । उत् । इन्द्र । अश्वमिष्टये । अश्वम् । इष्टये ॥२४०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 240
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर और राजा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर वा राजन् ! (त्वं हि) आप (चेरवे) मुझ पुरुषार्थी के हित के लिए (आ इहि) आइए। (वसुत्तये) मुझ धन के दानी के लिए (भगम्) धन (विदाः) प्राप्त कराइए। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! आप(गविष्टये) मुझ प्रशस्त इन्द्रिय, पृथिवीराज्य, विद्याप्रकाश आदि के अभिलाषी के लिए (उद्वावृषस्व) धन, विद्या आदि की अतिशय पुनःपुनः वर्षा कीजिए। आप (अश्वमिष्टये) घोड़े, बल, वेग, प्राण आदि के इच्छुक मेरे लिए (उद्वावृषस्व) अतिशयरूप सेपुनःपुनः इन वस्तुओं को बरसाइए ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। आ, जान, बरसा इन सब क्रियाओं का एक कर्ताकारक से सम्बन्ध होने के कारण दीपक अलङ्कार भी है। ‘ष्टय, ष्टये में छेकानुप्रास और द्वितीय तथा चतुर्थ पाद के अन्त में अये होने से अन्त्यानुप्रास भी है ॥८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर और राजा आदि राज्याधिकारीगण उसी की सहायता करते हैं, जो ‘चरैवेति चरैवेति’ ‘पुरुषार्थ करो, पुरुषार्थ करो।‘ (ए० ब्रा० ७।३।३) के उपदेश को अपने जीवन में चरितार्थ करता है और पुरुषार्थ से धन कमाकर सत्पात्रों में उसका दान भी करता है ॥८॥

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    पदार्थ

    (मघवन्-इन्द्र) हे प्रशस्त अध्यात्मैश्वर्यवान् परमात्मन्! तू (चेरवे) तेरे अध्यात्मधन के चयन करने वाले मुझ उपासक के लिये “चिञ् चयने” [स्वा॰] ततः “मीपीभ्यां रुः” [उणा॰ ४.१०१] “बाहुलकाद् रुः प्रत्ययः” (भगं विदा) अध्यात्म धन को प्राप्त करा, तथा (वसुत्तये) प्राणों की दान क्रिया प्राणायाम क्रिया के लिये “प्राणा वै वसवः” [तै॰ ३.२.३.३] (गविष्टये) इन्द्रियों की दृष्टि संयमरूप समर्पण यजन क्रिया के लिये “इन्द्रियं वै वीर्यं गावः” [श॰ ५.४.३.१] (उद्वावृषस्व) मुझे अधिक उल्लसित कर (अश्वम्-‘अश्वस्य’ इष्टये-उद्-उद्वावृषस्व) सर्व विषयव्यापी मन की “षष्ठ्यर्थे द्वितीया” इष्टि—निरोध क्रिया के लिये अधिक उल्लसित कर।

    भावार्थ

    हे प्रशस्त धन वाले परमात्मन्! तू अध्यात्म धन के चयन करने वाले मुझ उपासक के लिये अध्यात्म धन को प्राप्त करा तथा प्राणों की दान क्रिया के लिये—प्राणायाम में तेरा स्मरण हो इसलिये, इन्द्रियों की संयमरूप यजन क्रिया के लिये तथा सर्वविषयव्यापी मन की निरोध क्रिया के लिये मुझे अधिकाधिक उल्लसित कर॥८॥

    टिप्पणी

    [*19. “भृगुः-भृज्यमानो न देहे” [निरु॰ ३.१७]।]

    विशेष

    ऋषिः—भर्गः (आत्मप्रतापवान्*19)॥<br>

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    विषय

    धन के तीन विनियोग

    पदार्थ

    हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (चेरवे) = निरन्तर चरणशील-क्रियाशील मेरे लिए (एहि) = आइए । प्रभु उस व्यक्ति को प्राप्त होते हैं जो क्रियाशील है। अकर्मण्य व्यक्ति कभी भी प्रभु का प्रिय नहीं होता। हे प्रभो! मुझ श्रमशील को आप प्राप्त होओ और (भगं विदा:) = ऐश्वर्य प्राप्त कराइए | [विद् provide ] । यह ऐश्वर्य आप मुझे क्यों प्राप्त कराएँ? (वसुत्तये) = धन देने के लिए। [वसु+दा+ति] । धन का सर्वोत्तम विनियोग 'दान' है। मनुष्य दान से अपनी पापवृत्तियों को नष्ट करके अपना परिमार्जन कर लेता है। २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशाली प्रभो! आपसे प्राप्त कराया हुआ धन निष्पाप है [मा+अघ]। उस धन को आप (उत् वृषस्व) = मुझपर खूब बरसाइए, जिससे (गविष्टये) = मेरा ज्ञानेन्द्रियों का यज्ञ खूब चले। [गाव: ज्ञानेन्द्रियाणि, इष्टि यज्ञ ] । धन का दूसरा उत्तम विनियोग यही है कि मैं उससे ज्ञान के साधनों को जुटाने में लग जाऊँ । ज्ञानयज्ञ में धन का व्यय सात्त्विक व्यय है। ३. हे (इन्द्र) = [उत् वृषस्व] अवश्य मुझपर बरसिए, जिससे (अश्वम् इष्टये) = मेरा कर्मेंद्रियों का यज्ञ ठीक चले। अश्व - कर्मों में व्याप्त होनेवाली इन्द्रियाँ । ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानयज्ञ चले, तो कर्मेन्द्रियों से कर्मयज्ञ चलते रहें। ज्ञानयज्ञ के लिए स्वाध्याय के साधनों को जुटाना था, अब कर्मयज्ञ के लिए सामग्री को जुटाना है। धन का इससे सुन्दर विनियोग नहीं है कि १. दान किया जाए, २. उसका ज्ञानयज्ञ में विनियोग किया जाए ३. अग्निहोत्रादि कर्मयज्ञ किये जाएँ। =

    धन के इन तीन विनियोगों को करनेवाला व्यक्ति ही 'धन्य' है। वही सुकृति व पुण्यवान् है। जिसने धन का ठीक विनियोग किया वही ‘भर्ग'=ठीक परिपाकवाला, शुद्ध चमकते हुए जीवनवाला बना। धन का दास न बनकर यह प्रभु का सच्चा गायन करनेवाला ‘प्रगाथ' कहलाया है।

    भावार्थ

    मैं प्रभु-कृपा से धन प्राप्त करूँ और उसे दान, ज्ञानयज्ञ व कर्मयज्ञ में विनियुक्त करूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! तू ( चेरवे ) = तेरी सेवा परिचर्या करने हारे अपने सेवक के पास ( आ इहि ) = आ , साक्षात् हो । और ( वसुत्तये ) = सुख से प्राण धारण करने योग्य वसु या प्राणों का दान करने के लिये ( भंग ) = भजन या सेवन करने योग्य ऐश्वर्य, या सेवने योग्य प्रभु को ( विदा:) = प्राप्त कर, उसका ज्ञान कर । हे ( मघवन् ) = शक्तिमन् ! ( गविष्टये  ) = इन्द्रियों के इष्ट साधन करने के निमित्त ( उद् वावृषस्व ) = उत्तम रीति से सुखों की वर्षा कर । ( उत् अश्वम् इष्टये ) = और इन्द्रियों में व्याप्त जो भोक्ता  रूप आत्मा, अश्व है उसके भले के लिये भी उत्तम रीति से बल दान करो ।

     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भर्गः ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरो राजा च प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) परमेश्वर राजन् वा ! (त्वं हि) त्वं खलु (चेरवे२) चरतीति चेरुः तस्मै संचरणकर्त्रे पुरुषार्थिने मह्यम् (आ इहि) आगच्छ, (वसुत्तये३) वसुदानकर्त्रे मह्यम्। वसुपूर्वाद् डुदाञ् धातोः क्तिनि निरुपसर्गत्वेऽपि छान्दसत्वात् ‘अच उपसर्गात्तः’ अ० ७।४।४७ इत्यनेन विहितस्तकारादेशो भवति। (भगम्) वसु (विदाः) लम्भय। विद्लृ लाभे धातोरन्तर्भावितण्यर्थात् लेटि सिपि ‘लेटोऽडाटौ’ अ० ३।४।९४ इति आडागमः। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! त्वम् (गविष्टये४) गवाम् इन्द्रिय-पृथिवीराज्य-विद्याप्रकाशानाम् इष्टयः इच्छाः यस्य स गविष्टिः तस्मै मह्यम् (उद्वावृषस्व५) उद्वरीवृष्यस्व धनविद्यादिकम् अतिशयेन पुनः पुनः उद्वर्षय। अत्र यङि छान्दसत्वात् ‘रीगृदुपधस्य च’ अ० ७।४।९० इति प्राप्तो रीगागमो न भवति। त्वम् (अश्वमिष्टये६) अश्वम् तुरगबलवेगप्राणादिकम् इच्छतीति अश्वमिष्टिः तस्मै मह्यम्। अत्र समासे द्वितीयाया अलुक् छान्दसः। (उद्वावृषस्व) अतिशयेन पुनःपुनरुद्वर्षय ॥८॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘एहि, विदाः, उद्वावृषस्व’, इति सर्वासां क्रियाणामेककर्तृकारकसम्बन्धाद् दीपकमपि। ‘ष्टय, ष्टये’ इति छेकानुप्रासः, द्वितीय-चतुर्थपादान्ते ‘अये, अये’ इति श्रवणादन्त्यानुप्रासश्च ॥८॥

    भावार्थः

    परमेश्वरो राजादयो राज्याधिकारिणश्च तस्यैव साहाय्यं कुर्वन्ति यः ‘चरैवेति चरैवेति’, (ऐ० ब्रा० ७।३।३) इत्युपदेशं स्वजीवने चरितार्थयति, पुरुषार्थेन च धनं संचित्य सत्पात्रेषु तस्य दानमपि करोति ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६१।७, साम० १५८१। २. चेरुः चेतयिता। ज्ञातुर्मम भगस्यार्थाय—इति वि०। चेरुश्चरतेः, आचरते कर्माणि—इति भ०। कर्मपराचारवते मह्यम्—इति सा०। ३. वसूनि हविर्लक्षणानि ददाति इति वसुत्तिः हव्यदातिर्यजमानः तस्मै—इति भ०। धनदानं वसुत्तिः, तस्मै धनदानार्थम् इति वि०। ४. गविष्टौ गवाम् इन्द्रियपृथिवीराज्यविद्याप्रकाशानाम् इष्टयो यस्मिंस्तस्मिन् इति ऋ० १।९१।२३ भाष्ये द०। इषु इच्छायाम् इत्यस्येदं रूपम्। गोकामाय इत्यर्थः—इति वि०। गवामन्वेषणाय—इति भ०। गाः इच्छते मह्यम्—इति सा०। ५. वृषु तृषु मृषु सेचने इत्यस्येदं रूपम्। सेवनं च क्षरणम्। क्षर देहि इत्यर्थः—इति वि०। उद्युक्तो भव—इति भ०। आसिञ्चस्व देहीत्यर्थः—इति सा०। ६. अश्वैषणावते मह्यम्—इति सा०। अश्वान्वेषणाय—इति भ०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, approach the worshipper for the grant of knowledge, O Master of infinite knowledge, grant us strength to control our organs. Strengthen our breath for the performance of Yoga. Grant us the supremacy of Yoga!

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    Meaning

    Come to give gifts of wealth and honour to the devotee so that the people may be happy and prosperous. O lord of honour and majesty, Indra, bring us showers of the wealth of cows, lands, knowledge and culture for the seekers of light, and horses, advancement and achievement for the seekers of progress. (Rg. 8-61-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (मघवन् इन्द्र) હે પ્રશસ્ત અધ્યાત્મ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (चेरवे) તારા અધ્યાત્મધનનું ચયન કરનાર મારા - ઉપાસકના માટે (भगं विदा) અધ્યાત્મધનને પ્રાપ્ત કરાવ તથા (वसुत्तये) પ્રાણોની દાનક્રિયા-પ્રાણાયામ ક્રિયાને માટે (गविष्टये) ઇન્દ્રિયોની દૃષ્ટિ સંયમ રૂપ સમર્પણ યજનક્રિયાને માટે (उद्वावृषस्व મને અધિક ઉલ્લાસિત કર (अश्वम् 'अश्वस्य' इष्टय उद् उद्वावृषस्व) સર્વ વિષયવ્યાપી મનની ઈસ્ટિનિરોધ ક્રિયાને માટે અધિક ઉલ્લાસિત કર. (૮)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પ્રશસ્ત ધનવાળા પરમાત્મન્ ! તું અધ્યાત્મધનનું ચયન કરનાર મારા માટે - ઉપાસકને માટે અધ્યાત્મધનને પ્રાપ્ત કરાવ તથા પ્રાણોની દાનક્રિયાને માટે - પ્રાણાયામમાં તારું સ્મરણ થાય તે માટે, ઇન્દ્રિયોની સંયમરૂપ યજ્ઞક્રિયાને માટે તથા સર્વ-વિષવ્યાપી મનની નિરોધ ક્રિયાને માટે અને અધિકાધિક ઉલ્લાસિત - આનંદિત કર. (૮)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    دھن دو اور دوسروں کو بانٹنے کا من دو!

    Lafzi Maana

    ہے اِندر پرماتمن! (چیروے توم ہی ایہی) میرے ہردیہ اور جیون میں وِچرنے کے لئے آپ اوشیہ آئیے (وِدابھگم) آپ ہمیں ایشوریہ شری لکھشمی یش کیرتی وغیرہ سمپدائیں عطا کریں۔ تاکہ ہم (وسوتیتئے) ان کو آگے بانٹ سکیں (مگھوں اُد اُو آورشسو) پیارے دھنوان پرمیشور! اپنے زر و مال اور دولتِ عرفان کو خوب ہم پر برساؤ (گوشیٹئے) جن سے ہم ساری دھرتی پر آپ کے دیئے دھن کو بانٹ سکیں۔ (اُت) اور (اشوم) بلوان من دیجئے (اِشٹے) تاکہ ہم دان یگیہ وغیرہ رفاہ عام کے کام کر سکیں۔

    Tashree

    جگت میں دھنوان بھگون ہم کو بھی دھن دیجئے، اور اِس کے بانٹنے کو ایسا من بھی دیجئے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर व राज्याधिकारी गण त्यालाच साह्य करतात, जो ‘चरैवेति चरैवेति’ ‘पुरुषार्थ करा, पुरुषार्थ करा’ (ए.ब्रा. ७।३।३) च्या उपदेशाला आपल्या जीवनात चरितार्थ करतो व पुरुषार्थाने धन प्राप्त करून सत्पात्रांना त्यांचे दानही करतो ॥८॥

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    विषय

    परमेश्वराला व राजाला प्रार्थना

    शब्दार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर अथवा हे राजा, (चेरवे) मी एका पुरुषार्थी मनुष्य, अशा माझ्यासाठी (त्वं हि) आपण (आ इहि) माझ्याकडे (मला साह्य देण्यासाठी) या. माझे सहायायकर्ता व्हा. (वसुत्तये) मी एक दानी स्वभावाचा मनुष्य, मला दान देण्यासाठी आपण (भगम्) धनसंपत्ती (विदाः) मिळेल, असे करा. हे (मधवन) ऐश्वर्यशाली ईश्वर वा राजा, (गविष्टये) मला शांत इंद्रियें, पृथ्वीचे राज्य, विद्या प्रकाश मिळण्यासाठी (उद् वा वृषस्व) धन, विद्या आदींची पुनः पुनः वृष्टी करीत रहा. (अश्वमिष्यमे) घोडे, शक्ती, वेग, प्राण आदींचा मी एक इच्छुक, माझ्यासाठी आपण (उद् वावृषस्व) अत्यधिकरूपाने वरील सर्व पदार्थ मिळण्यास सहाय्यभूत व्हा. (मला हे सर्व पुन्हा पुन्हा मिळत राहतील, असे करा.)।।८।।

    भावार्थ

    परमेश्वर आणि राजा तसेच राज्याधिकारी त्याचीच सहायता करतात, जो ङ्गचरे वैति, चरे वैतिफ ङ्गपुरुषार्थ कराफ ङ्गपुरुषार्थ कराफ (ऐतरेय ब्राह्मण ७/३/३) या उपदेशाला आपल्या जीवनात आचरतात. परमेश्वर व राजा त्यालाच मदत करतात, जो पुरुषार्थाद्वारे धन अर्जित करून सत्पात्री दान करतो.।।८।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे।।८।। ‘या’ ‘व्हा’ ‘करा’ आदी क्रियापदांचा कर्ता एकच (म्हणजे आपण) असल्यामुळे येथे दीपक अलंकार आहे. ‘ष्ट्य’ ‘ष्ट्ये’ येथे छेदानुप्रसा आणि द्वितीय व चतुर्थ पादाच्या अंती ‘अये’ शब्द असल्यामुळे येथे अन्त्यानुप्रासही आहे.।।८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே! நீயே வரவும். எங்களை ஐசுவரியமுடனாக்க பொருளை நீ அளிப்பவனாகும். ஐசுவரியமளிக்கும் இந்திரனே ! பசுக்களை விரும்பும் எமக்கு வர்ஷிக்கவும். நிரப்பவும். குதிரைகளை அடைய வர்ஷிக்கவும்.

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