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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 271
    ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    39

    क्वे꣢꣯यथ꣣ क्वे꣡द꣢सि पुरु꣣त्रा꣢ चि꣣द्धि꣢ ते꣣ म꣡नः꣢ । अ꣡ल꣢र्षि युध्म खजकृत्पुरन्दर꣣ प्र꣡ गा꣢य꣣त्रा꣡ अ꣢गासिषुः ॥२७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्व꣢꣯ । इ꣣यथ । क्व꣢꣯ इत् । अ꣣सि । पुरुत्रा꣢ । चि꣣त् । हि꣢ । ते꣣ । म꣡नः꣢꣯ । अ꣡ल꣢꣯र्षि । यु꣣ध्म । खजकृत् । खज । कृत् । पुरन्दर । पुरम् । दर । प्र꣢ । गा꣣यत्राः꣢ । अ꣣गासिषुः ॥२७१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः । अलर्षि युध्म खजकृत्पुरन्दर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥२७१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्व । इयथ । क्व इत् । असि । पुरुत्रा । चित् । हि । ते । मनः । अलर्षि । युध्म । खजकृत् । खज । कृत् । पुरन्दर । पुरम् । दर । प्र । गायत्राः । अगासिषुः ॥२७१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 271
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे इन्द्र जगदीश्वर अथवा राजन् ! तू (क्व) कहाँ (इयथ) चला गया है? (क्व इत्) कहाँ (असि) है? (पुरुत्रा चित्) बहुतों में अर्थात् बहुतों के उद्धार में (ते) तेरा (मनः) मन लगा हुआ है। हे (युध्म) युद्ध-कुशल ! हे (खजकृत्) शत्रुओं का मन्थन करनेवाले ! हे (पुरन्दर) शत्रु की नगरियों को विदीर्ण करनेवाले ! तू (अलर्षि) गतिमय अर्थात् कर्मण्य है। (गायत्राः) प्रभुस्तुति के अथवा राष्ट्रगान के गायक जन (अगासिषुः) तेरा यशोगान कर रहे हैं ॥ वास्तव में परमात्मा हमें छोड़कर कहीं नहीं चला जाता, हम ही उसे छोड़ते हैं। यह भाषा की शैली है कि स्वयं को उपालम्भ देने के स्थान पर परमात्मा को उपालम्भ दिया जा रहा है। कहीं-कहीं परमात्मा के अनुग्रह-रहित होने पर स्वयं को ही उपालम्भ दिया गया है। जैसे हे वरुण परमात्मन् ! मुझसे क्या अपराध हो गया है कि आप मुझ अपने सबसे बड़े स्तोता का वध करना चाह रहे हैं? मेरा अपराध मेरे ध्यान में ला दीजिए, जिससे मैं उस अपराध को छोड़कर नमस्कारपूर्वक आपकी शरण में आ सकूँ। ऋ० ७।८६।४। एवं दोनों प्रकार की शैली वेदों में प्रयुक्त हुई है। राजा-परक अर्थ में शत्रु से पीड़ित प्रजाजन राजा को पुकार रहे हैं और उसे उद्बोधन दे रहे हैं, यह समझना चाहिए ॥९॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है। ‘क्वे क्वे’ में छेकानुप्रास और ‘युध्म, खजकृत्, पुरन्दर’ में पुनरुक्तवदाभास है ॥९॥

    भावार्थ

    जैसे काम, क्रोध आदि शत्रुओं से पीड़ित जन सहायता के लिए परमात्मा को पुकारते हैं, वैसे ही मानव-शत्रुओं से और दैवी विपत्तियों से व्याकुल किये गये आर्त प्रजाजन राजा को बुलाते हैं ॥९॥

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    पदार्थ

    (युध्म खजकृत्-पुरन्दर) हे पापों से संग्राम करने वाले “खजे संग्राम नाम” [निघं॰ २.१७] योद्धा पाप शरीरों को विदीर्ण करने वाले परमात्मन् “आत्मा वै पूः” [श॰ ७.५.१.२] तू (पुरुत्रा) बहुत उपासक जनों में “देवमनुष्य-पुरुषपुरुमर्त्येभ्यो द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम्” [अष्टा॰ ५.४.५६] ‘त्रा’ (ते चित् हि-मनः) तेरे लिये ही निरन्तर मन है (क्व-इयथ क्व-इत्-असि) कि तू कहाँ गया था, कहा हैं? (अलर्षि) तू आ (गायत्रा प्र-अगासिषुः) उपासक लोग प्रकृष्ट स्तुति गान गाते हैं।

    भावार्थ

    हे पापों से संग्राम करने वाले योद्धा! पापात्माओं पाप शरीरों को विदीर्ण करने वाले परमात्मन्! बहुत उपासकों में तेरे दर्शन के लिये मन लगा हुआ है कि तू कहां गया? कहाँ है? तू आ जा। वे ऐसे गुणगानों को प्रकृष्ट गाते हैं॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिर्मेध्यातिथिश्च (मेधा से गमन प्रवेश करने वाला और पवित्र गुणों में गमन शील)॥<br>

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    विषय

    कहाँ भटकते रहे?

    पदार्थ

    युध्म गत मन्त्र में यह स्पष्ट हो चुका है कि जब इन्द्रियाँ मन को हर ले जाती हैं और विषयों में भटकती रहती हैं तो वे प्रभु के वरण से कोसों दूर होती हैं। मेधातिथि- समझदार व्यक्ति शम और दम की साधना करता है और इन्द्रियों व मन को अपने में निरुद्ध करने के लिए यत्नशील होता है। यह अपने को इस रूप में प्रेरणा देता है कि-

    अरे भाई! (क्व इयथ) = कहाँ भटकते रहे? क्(व इत् असि) = अब भी कहाँ भटक रहे हो ? (ते मनः पुरुत्राचित् हि) = तेरा मन निश्चय से अनेक विषयों में जा रहा है। पृथिवी के एक कोने से दूसरे कोने तक यह भटकता है, समुद्रों, पर्वतों व दिशाओं के अन्तों तक यह जाता है। इसी प्रकार यह भटकता रहा तो मुक्ति कैसे होगी। इसलिए तू (अलर्षि) = [अल्-to prevent, ward off] आज अपने मन पर होनेवाले इन विषयों के आक्रमणों को रोकता है और इनको रोकने के द्वारा ही तू अपने मन को [अल्-जव कवतद] उत्तम गुणों से विभूषित करने का निश्चय करता है। (युध्म) = तू इनके साथ युद्ध करने में बड़ा कुशल बनता है, किसी भी प्रकार इनके धोखे में नहीं आता। (खजकृत्) = इनके विनाश के लिए ही तू अपना मन्थन [अन्तः निरीक्षण] करता है । इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में अपना अधिष्ठान बना, ये वासनाएँ हमारे अन्दर ही छिपी बैठी होती हैं। अपने किलों से ढूँढ निकालने के लिए ही अपने अन्दर टटोलता है, इनकी तीनों पुरियों का विदारण करनेवाला तू ('पुरन्दर') बनता है। महादेव त्रिपुरारि हैं—तू भी आज त्रिपुरारि बनकर महादेव-सा ही बन जाता है।

    ऐसा बनने के लिए ही (गायत्रा:) = प्रभु के स्तोत्रों के गायन से अपना त्राण करनेवाले उपासक लोग (प्र अगासिषु) = प्रभु के गुणों का खूब ही गायन करते हैं। यह प्रभु का गुणगान अवद्य भावनाओं को हमसे दूर रखता है। यह गुणगान की ध्वनि असुरों को नहीं सुहाती। इस ध्वनि का उच्चारण हुआ और असुर दूर भागे।

    इस प्रकार इन आसुर वृत्तियों को अपने से दूर भगाकर यह 'मेधातिथि' = समझदार आदमी ‘मेध्य'=उस परम पवित्र प्रभु की ओर ‘अतिथि' चलनेवाला 'मेध्यातिथि' बन जाता

    भावार्थ

     हम मन को वश में करके उसे प्रभु में युक्त करें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( पुरन्दर ) = हे देहरूप अपने पुरी को अपनी शक्ति से विदारण करने हारे आत्मन् ! ( क्व इयथ ) = तू कहां २ गति करता है ? ( क्व इत् असि ) = और तू कहां २ रहता है । ( पुरुत्रा  चित् हि ) = बहुत से स्थलों पर या इन्द्रियों के भीतर चित्स्वरूप में ( ते ) = तेरी ( मनः ) = मननशील संकल्प शक्ति ( अलर्षि ) = गति करती है । हे ( युध्म !) = हे विषयवासना या रागद्वेषादि से युद्ध करनेहारे ! हे ( खजकृत् ) = ख=इन्द्रियों के द्वारों में उत्पन्न विषयग्राहक सामर्थ्य के विधात: ! ( गायत्राः ) = स्तुति करने हारे  विद्वान् जन और प्राणगण ( प्र अगासिषु: ) = तेरी ही महिमा गाते हैं । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथीश्च। 

     देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं राजानं वाऽऽह्वयति।

    पदार्थः

    हे इन्द्र जगदीश्वर राजन् वा ! त्वम् (क्व) कुत्र (इयथ) इयेथ गतोऽसि। इण् गतौ धातोर्लिटि मध्यमैकवचने ‘इययिथ, इयेथ’ इत्यस्य स्थाने छान्दसं रूपम्। (क्व इत्) कुत्र खलु (असि) विद्यसे ? (पुरुत्रा चित्) बहुषु एव, बहूनाम् उद्धारे इत्यर्थः. पुरु इति बहुनाम। निघं० ३।१। ‘देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यो द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम्। अ० ५।४।५६’ इति सप्तम्यर्थे त्रा प्रत्ययः। (ते) तव (मनः) चित्तम्, तिष्ठतीति शेषः। हे (युध्म) युद्धकुशल ! योद्धुं शीलं यस्य स युध्मः। युध सम्प्रहारे धातोः ‘इषियुधीन्धि०। उ० १।१४५’ इति मक् प्रत्ययः। हे (खजकृत्) शत्रुमन्थनकर्तः ! खज मन्थे। शत्रुमन्थनकारणादेव खज इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। हे (पुरन्दर) शत्रुपुरां विदारयितः ! त्वम् (अलर्षि२) इयर्षि, कर्मव्यापृतोऽसि। ऋ गतौ धातोर्लटि, सिपि ‘दाधर्तिदर्धर्ति०। अ० ७।४।६५’ इत्यभ्यास्य हलादिशेषाभावः, रेफस्य लत्वम् इत्वाभावश्च निपात्यते। (गायत्राः३) प्रभुस्तुतेः राष्ट्रगानस्य वा गायका जनाः (प्र अगासिषुः) प्रकर्षेण तव यशोगानं कुर्वन्ति ॥ वस्तुतः परमात्माऽस्मान् परित्यज्य न कुत्रापि गच्छति, वयमेव तं परित्यजामः। भाषाशैलीयं यत् स्वात्मन उपालम्भस्थाने परमात्मोपालभ्यते। क्वचित् परमात्मनि निरनुग्रहे सति स्वात्मैवोपालम्भः। यथा—“किमाग॑ आस वरुण॒ ज्येष्ठं॒ यत् स्तो॒तारं॒ जिघां॑ससि॒ सखा॑यम्। प्र तन्मे॑ वोचो दूळभ स्वधा॒वोऽव॑ त्वाने॒ना नम॑सा तु॒र इ॑याम्” ऋ० ७।८६।४ इति। सेयं द्विविधापि शैली वेदेषु सम्प्रयुक्ता। नृपतिपक्षे तु शत्रुपीडितैः प्रजाजनैर्नृपतिराहूयते समुद्बोध्यते चेति ज्ञेयम् ॥९॥ अत्रार्थश्लेषोऽलङ्कारः। ‘क्वे, क्वे’ इति छेकानुप्रासः। ‘युध्म, खजकृत्, पुरन्दर’ इत्यत्र च पुनरुक्तवदाभासः ॥९॥

    भावार्थः

    यथा कामक्रोधादिभिः शत्रुभिः पीडिता जनाः सहायतार्थं परमात्मानमाह्वयन्ति, तथैव मानवशत्रुभिर्दैवीभिर्विपत्तिभिश्च समुद्वेजिता आर्ताः प्रजाजना राजानमाकारयन्ति ॥९॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१।७। २. अलर्षि गच्छसि शत्रून् प्रति—इति वि०। हिंसि शत्रून्—इति भ०। आगच्छ—इति सा०। ३. गायत्राः मन्त्राः—इति वि०। गानकुशलाः स्तोतारः—इति भ०। गानकुशला अस्मदीयाः स्तोतारः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Omnipresent, World-Making-Salvation-Bestowing God, where art Thou, whither hast Thou gone? Thy All-knowing nature is found in all places. Thou pervadest all objects; singers sing Thy glory!

    Translator Comment

    The question in the first part has been answered in the second.

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    Meaning

    Where do you move and reach? Where do you reside and abide? No one can say. Your mind and presence is everywhere, universal. O lord of the war like dynamics of existence, pivot and churner of the universe, breaker of the citadels of darkness and ignorance, come and bless us, the celebrants and singers of Gayatri hymns invoke and adore you. (Rg. 8-1-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (युध्मखजकृत् पुरन्दर) હે પાપોથી સંગ્રામ કરનાર યોદ્ધા પાપ શરીરોને વિદીર્ણ કરનાર પરમાત્મન્ ! તું (पुरुत्रा) અનેક ઉપાસક જનોમાં તે (चित् हि मनः) તારા માટે જ નિરંતર મન છે (क्व इयथ क्व इत् असि) કે તું ક્યાં ગયો હતો , ક્યાં છો ? (अलर्षि) તું આવ (गायत्रा प्र अगासिषुः) ઉપાસક લોકો પ્રકૃષ્ટ સ્તુતિ ગાન ગાય છે . ( ૯ )

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પાપોથી સંગ્રામ કરનાર યોદ્ધા ! પાપાત્માઓ - પાપ શરીરોને વિદીર્ણ કરનાર પરમાત્મન્ ! અનેક ઉપાસકોમાં તારા દર્શન માટે મન લાગેલું હોય છે કે , તું ક્યાં ગયો ? તું ક્યાં છે ? તું આવ આવી જા . તેઓ એવા ગુણગાનોનું પ્રકૃષ્ટ રૂપથી ગાન કરે છે . ( ૯ )

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    کس عابد کے دل میں آپ آتے ہیں؟

    Lafzi Maana

    ہے پرمیشور! کس عابد کے دل میں آپ آتے ہیں؟ کس دل میں آپ رہتے ہیں۔ آپ کا من تو بے شمار بھگتوں میں لگا ہوا ہے۔ دیوتاؤں اور راکھشسوں کی جنگ میں راکھشسوں کو پچھاڑنے والے! آسمان میں ستاروں کو پیدا کرنے والے، پاپیوں کے قلعوں کو توڑنے والے پرمیشور! عابدوں کے بھگتی رس کو سویکار کیجئے۔ گائیتری وغیرہ چھندوں کے ذریعے گانے والے عابد آپ کا عزّت و احترام سے وِرد کر رہے ہیں۔

    Tashree

    تم ہو کہاں! جاتے کہاں ہو، یہ کہو مجھ سے پربھو، سب کی بھلائی میں لگا ہے من تمہارا ہے وِبھو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे काम, क्रोध इत्यादी शत्रूंमुळे पीडित झालेले लोक साह्यासाठी परमेश्वराला हाक मारतात, तसेच मानव-शत्रूंद्वारे व दैवी विपत्तीने व्याकुळ झालेले आर्त प्रजाजन राजाला बोलावितात ॥९॥

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    विषय

    परमात्म्याला आणि राजाला आवाहन

    शब्दार्थ

    हे इन्द्र जगदीश्वर अथवा हे राजा, आपण (क्व) कुठे (इयथ) गेला आहात ? (क्व इत्) (असि) आहात. (पुरुत्रचित्) अनेकांच्या उद्धार कार्यामध्ये (ते) तुझे (मनः) मन लागलेले आहे का ? हे (युघ्म) युद्धकुशल, हे (खजकृत्० शत्रुमंथन करणाऱ्या हे (पुरन्दर) शत्रुनगरी उद्ध्वस्त करणारे हे राजा, आपण (अलर्षि) गतिमान (शीघ्र आक्रमणकारी) व कर्मण्य आहात (हे परमेश्वरा, तू आमच्या मनातील काम, क्रोधादी शत्रूचा नाश करणारा आणि शीघ्ररक्षक आहेस) (गायत्राः) प्रभूची स्तुती करणारे अथवा राष्ट्रभक्तीचे गायकजन (आगासिषुः) हे परमेश्वर आणि हे राज्य तुमचे निरतेर यशोगान करीत आहेत. खरे पाहता परमात्मा आम्हाला सोडून कुठे जात नाही. आम्हीच त्याला सोडतो, विसरतो. भाषेची ही अशी विशिष्ट अभिव्यक्ती शैली आहे. यात स्वतःला उपालम्भ न देता परमेश्वराला उपालंभाचा विषय केला आहे, पण इतर अनेक ठिकाणी परमेश्वराचा अनुग्रह न झाल्यामुळे भक्ताने स्वतःला उपालंभ दिला आहे - ‘‘हे वरुण परमेश्वरा, माझ्याकडून असा कोणता गुन्हा घडला की ज्यामुळे जो तुझा सर्वाहून मोठा स्तोता आहे (म्हणजे मी). तू माझा वध करू पाहतोस ? माझा अपराध तरी कळू दे, कारण त्यामुळे तो गुन्हा करणे सोडून नमस्कारपूर्वक तुझे शरण स्वीकारीन.’’ (ऋ ७/८६/४) वेदांमध्ये अशा प्रकारे दोन्ही प्रकारची शैली प्रयुक्त आहे. राजापर अर्थ करताना असा संदर्भ घ्यावा लागेल की पीडित प्रजानन रक्षणासाठी राजाचे आवाहन करीत आहे अथवा त्याला उद्बोधित करती आहेत.।। ९।।

    भावार्थ

    जसे काम, क्रोध आदी दोषांनी त्रस्त जन परमेश्वराला साह्यासाठी हाक मारतात, तद्वत मानव शत्रूंपासून पीडित वा भयभीत प्रजाजन आपल्या राजाचे आवाहन करतात. ।। ९।।

    विशेष

    या मंत्रात अर्थवलेष अलंका आहे. ङ्गक्वे क्वेफमध्ये छेकानुप्रास आणि (युघ्म, खजकृत्, पुरंदरफ या शब्दामध्ये पुनरुक्तवदाभास अलंकार आहे. ।। ९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே ! நீ எங்கே? எங்கு சென்றுள்ளாய், வெகு நிலயங்களில் உன் மனம் சஞ்சரிக்கின்றது. யுத்தகுசலனே, புரந்தரனே வரவும். காயத்திரிகள் கானஞ் செய்கின்றன.

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