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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 272
    ऋषिः - कलिः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    24

    व꣣य꣡मे꣢नमि꣣दा꣡ ह्योपी꣢꣯पेमे꣣ह꣢ व꣣ज्रि꣡ण꣢म् । त꣡स्मा꣢ उ अ꣣द्य꣡ सव꣢꣯ने सु꣣तं꣡ भ꣣रा꣢ नू꣣नं꣡ भू꣢षत श्रु꣣ते꣢ ॥२७२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व꣣य꣢म् । ए꣣नम् । इदा꣢ । ह्यः । अ꣡पी꣢꣯पेम । इ꣣ह꣢ । व꣣ज्रि꣡ण꣢म् । त꣡स्मै꣢꣯ । उ꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । स꣡व꣢꣯ने । सु꣣त꣢म् । भ꣣र । आ꣢ । नू꣣न꣢म् । भू꣣षत । श्रुते꣢ ॥२७२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमेनमिदा ह्योपीपेमेह वज्रिणम् । तस्मा उ अद्य सवने सुतं भरा नूनं भूषत श्रुते ॥२७२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । एनम् । इदा । ह्यः । अपीपेम । इह । वज्रिणम् । तस्मै । उ । अद्य । अ । द्य । सवने । सुतम् । भर । आ । नूनम् । भूषत । श्रुते ॥२७२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 272
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    प्रथम—अध्यात्म पक्ष में। (वयम्) हम उपासक लोग (वज्रिणम्) दुर्जनों वा दुर्गुणों के प्रति वज्रधारी अर्थात् उनके विनाशक, (एनम्) प्रसिद्ध गुणोंवाले इस इन्द्र परमेश्वर को (इदा) इस समय और (ह्यः) कल (इह) इस उपासना-यज्ञ में (अपीपेम) स्तुतिगान से रिझा चुके हैं। हे भाई ! तू भी (तस्मै उ) उस इन्द्र परमेश्वर के लिए (अद्य) आज (सवने) अपने जीवन-यज्ञ में (सुतम्) श्रद्धारूप सोमरस को (भर) हृदय में धारण कर अथवा अर्पित कर। हे साथियो ! तुम सब भी (नूनम्) निश्चय ही (श्रुते) वेदादि द्वारा उसकी महिमा सुनी जाने पर, उसे (आभूषत) स्तोत्ररूप उपहारों से अलंकृत करो ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। (वयम्) हम लोगों ने (वज्रिणम्) दुष्ट शत्रुओं तथा चोर, ठग, लुटेरों आदियों के प्रति दण्डधारी (एनम्) इस अपने सम्राट् को (इदा) वर्तमान काल में, और (ह्यः) भूतकाल में (इह) इस राष्ट्र-यज्ञ में (अपीपेम) कर-प्रदान द्वारा बढ़ाया है। हे भाई ! तू भी (तस्मै उ) उस सम्राट् के लिए (अद्य) आज (सवने) राष्ट्ररूप यज्ञ में (सुतम्) अपनी आमदनी की राशि में से पृथक् किये हुए राजदेय कर को (भर) प्रदान कर। हे दूसरे प्रजाजनों ! तुम भी (नूनम्) निश्चयपूर्वक (श्रुते) राजाज्ञा के सुनने पर, राजा को (आभूषत) अपना-अपना देय अंश देकर अलङ्कृत करो ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१०॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिए कि दुर्जनों और दुर्गुणों के विनाशक तथा सज्जनों और सद्गुणों के पोषक परमेश्वर की उपासना करें। उसी प्रकार दुष्ट शत्रुओं, चोर, लम्पट, ठग, लुटेरे आदियों तथा अशान्ति फैलानेवालों को दण्ड देनेवाले और सज्जनों तथा शान्ति के प्रेमियों को बसानेवाले सम्राट् का भी कर (टैक्स) देकर सम्मान करना चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र के गुणों का वर्णन करके उसकी महिमा गाने की प्रेरणा होने से, उससे गृह आदि की याचना होने से, उसका आह्वान होने से और इन्द्र नाम से राजा आदि का भी वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ तृतीय प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (वयम्) हम (एनं वज्रिणम्) इस ओजस्वी परमात्मा को “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (इह) इस जीवन में (ह्यः-इदा) कल और अब—आज (अपीपेम) स्तुतियों से प्रवृद्ध करें और करते हैं (तस्मै-उ) उसके लिये ही (अद्य सवने) आरम्भ होने वाले स्तुति प्रसङ्ग में (सुतंभर ‘भरामः’) निष्पन्न उपासनारस को समर्पित करते हैं (नूनम्) निश्चित (श्रुते) ‘श्रुतेन’ श्रुत—श्रवण चतुष्टय—श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार से (आभूषत) ‘आभूषेम’ पुरुषव्यत्ययः पूजित करें, ध्यावें।

    भावार्थ

    हम ने इस ओजस्वी परमात्मा को गत कल स्तुतियों से प्रवृद्ध किया और आज भी करते हैं उसके लिये ही आरम्भ होने वाले भावी स्तुति प्रसङ्ग में निष्पन्न उपासनारस को समर्मित करते हैं निश्चित श्रवण चतुष्टय-श्रवण मनन निदिध्यासन साक्षात्कार से उसे पूजित करें ध्यावें-ध्याते हैं॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—कलिः (गुण कथनकर्त्ता)॥<br>

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    विषय

    कलि के दो निश्चय

    पदार्थ

    जो व्यक्ति अच्छी प्रकार हिसाब-किताब लगाकर समझ लेते हैं कि 'श्रेय और प्रेय में श्रेय ही उपादेय है, न कि प्रिय [pleasant] होता हुआ भी प्रेय'–वे इस (संख्यान) = हिसाब-किताब के कारण (‘कलि') = [कल् संख्याने] कहलाते हैं। इनका जीवन प्रभु के गुणगान में व्यतीत होता है, (अतः) = ये ('प्रागाथ') = कहलाते है।

    इनका निश्चय है कि (वयम्) = कर्मतन्तु को (अविच्छन्न) रखनेवाले (इत्) - निश्चय से (आ) = सब प्रकार से (ह्यः) = जैसे कल उसी प्रकार इह आज के दिन भी (एनम्) = इस प्रभु को ही (अपीपेम) = आप्यायित करते हैं। स्तोत्रों के द्वारा उस प्रभु की महिमा को बढ़ाते हैं, क्योंकि ये प्रभु (वज्रिणम्) = वज्रवाले हैं। वज्र गतिशीलता से मेरे सब शत्रुओं को कुचलनेवाले हैं [वज् गतौ] गतिशीलता से वासनाओं व मलों का नाश सुप्रसिद्ध है।

    (तस्मै) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (उ) = ही (अद्य) = आज (सवने सुतम्) = [हवने हुतम, सह ] अग्निहोत्र में आहुतियों को (भर)= डालता हूँ। (यज्ञ) = स्वार्थत्याग प्रभु-प्राप्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। प्रकृति को छोड़े बिना हम प्रभु को पा ही नहीं सकते। उस प्रभु की प्राप्ति के लिए ही कलि कहता है कि (नूनम्) = निश्चय से (श्रुते)= शास्त्र - श्रवण व ज्ञान के विषय में (भूषत) = अपने को अलंकृत करो। ज्ञान के बिना यज्ञिय भावना का उदय सम्भव नहीं है। एवं ज्ञान और यज्ञ ये दो प्रभु-प्राप्ति के उपाय हैं।

    भावार्थ

    हम भी कलि के साथ यह निश्चय करें कि हम अपने हृदयों को यज्ञिय व मस्तिष्क को श्रुतपूर्ण बनाएँगे और इस प्रकार बनकर प्रभु को प्राप्त करनेवाले होंगे ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वयं ) = हम ( एनम् इद् ) = इस ( वज्रिणम् ) = ज्ञानरूप वज्र को धारण करनेहारे आत्मा को ही ( ह्यः ) = गत काल में ( इह ) = इस देह में ( आ अपीपेम ) = खूब ज्ञानरस पान कराते रहे । ( अद्य ) = आज ( श्रुते ) = सबने इस वेदानुकूल यज्ञ उपासना में ( तस्मा उ ) = उस ही इन्द्र के लिये ( सुतं ) = ज्ञानरस या आनन्दरस  को लाओ, और ( नूनं ) = निश्चय से ( भूषत ) = उसकी शोभा बढ़ाओ  ।

    गत जीवन में भी ज्ञान सम्पादन किया, इस जीवन में भी करो और ज्ञान से उसकी शोभा करो । विद्यातपोभ्यां भूतात्मा ।  मनुः । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - कलिः।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मविषयो राजविषयश्चोच्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—अध्यात्मपरः। (वयम्) उपासकाः (एनम्) एतं विश्रुतगुणम् (वज्रिणम्) दुर्जनेषु दुर्गुणेषु वा वज्रधारिणं, स्वशक्त्या तेषां विनाशकमित्यर्थः, इन्द्रं परमेश्वरम् (इदा) इदानीम्। ‘तयोर्दार्हिलौ च छन्दसि। अ० ५।३।२०’ इति इदम् शब्दात् कालेऽर्थे सप्तम्या दा आदेशः। (ह्यः) गतदिवसे च (इह) अस्मिन् उपासनायज्ञे (अपीपेम) स्तुतिगानेन स्वहृदि अवर्धयाम, प्रसादितवन्तः इत्यर्थः। ओप्यायी वृद्धौ धातोर्णिजन्तात् युङ्लुकि प्यायः पी आदेशे रूपम्। हे भ्रातः ! त्वमपि (तस्मै उ) तस्मै इन्द्राय परमेश्वराय खलु (अद्य) अस्मिन् दिने (सवने) जीवनयज्ञे (सुतम्) श्रद्धारूपं सोमरसम् (भर) हृदये धारय अर्पय वा। भृञ् भरणे भ्वादेः हृञ् हरणे इत्यस्य वा रूपम्। हे सखायः ! यूयम् सर्वेऽपि (नूनम्) निश्चयेन (श्रुते) वेदादिद्वारा तन्महिम्नि श्रुते सति (आभूषत तं) स्तोत्ररूपैरुपहारैरलंकुरुत तेन स्वहृदयं वा अलंकुरुत। भूष अलङ्कारे, भ्वादिः ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। (वयम्) जनाः (वज्रिणम्) दुष्टेषु शत्रुषु तस्करवञ्चकलुण्ठकादिषु च वज्रहस्तं, दण्डधारिणम् (एनम्) इन्द्रं सम्राजम् (इदा) इदानीं वर्तमानकाले (ह्यः) गते च काले (इह) अस्मिन् राष्ट्रयज्ञे (अपीपेम) करप्रदानेन वर्द्धितवन्तः। हे (भ्रातः) त्वमपि (तस्मै उ) तस्मै सम्राजे (अद्य) अद्यतने काले (सवने) राष्ट्रयज्ञे (सुतम्) स्वकीयात् आयराशेरभिषुतं पृथक्कृतं राजदेयं करम् (भर) प्रदेहि। हे इतरे प्रजाजनाः ! यूयमपि (नूनम्) निश्चयेन (श्रुते) तदादेशे आकर्णिते सति, तम् (आभूषत) स्वस्वदेयांशदानेन अलंकुरुत ॥१०॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैर्दुर्जनानां दुर्गुणानां च विनाशकः सज्जनानां सद्गुणानां च पोषकः परमेश्वर उपासनीयः। तथैव दुष्टानां रिपूणां, चौरलम्पटप्रतारकलुण्ठकादीनाम्, अशान्तिप्रसारकाणां च दण्डयिता सज्जनानां शान्तिप्रियाणां च निवासकः सम्राडपि सर्वैः करप्रदानेन सम्माननीयः ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य गुणानुपवर्ण्य तन्महिमानं गातुं प्रेरणात्, ततो गृहादिकस्य याचनात्, तस्याह्वानाद्, इन्द्रनाम्ना नृपादीनां चापि वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्ति ॥ इति तृतीये प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः। इति तृतीयाध्याये चतुर्थः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६६।७, अथ० २०।९७।१, साम० १६९१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We, the knowers of God, have in past life been pleasing this God, the Chastiser of the sinners. In this sacrifice of Vedic prayer, verily, Ye worshippers, in this life, glorify Him, and derive the essence of knowledge and pleasure from Him.

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    Meaning

    Here today as before we have regaled this lord of the thunderbolt. For him, again, now, all of one mind, bear and bring the distilled soma of homage, and worship him who would, for certain for joy of the song, grace the celebrants. (Rg. 8-66-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वयम्) અમે (एनं वज्रिणम्) એ ઓજસ્વી પરમાત્માને (इह) આ જીવનમાં (ह्यः इदा) કાલ અને આજ (अपीपेम) સ્તુતિઓથી પ્રવૃદ્ધ કરીએ અને કરીએ છીએ (तस्मै उ) તેને માટે જ (अद्य सवने) આરંભ થનાર સ્તુતિ પ્રસંગોમાં (सुतंभर 'भरामः') ઉત્પન્ન ઉપાસનારસને સમર્પિત કરીએ છીએ (नूनम्) નિશ્ચિત (श्रुते) શ્રવણ ચતુષ્ટય = શ્રવણ , મનન , નિદિધ્યાસન , સાક્ષાત્કારથી (आभूषत) પૂજિત કરીએ , ધ્યાન કરીએ . ( ૧૦ ) 

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અમોએ એ ઓજસ્વી પરમાત્માની ગઈકાલે સ્તુતિઓથી પ્રવૃદ્ધ કરેલ અને આજે પણ કરીએ છીએ . તેના માટે જ આરંભ થનાર ભાવિ સ્તુતિ પ્રસંગમાં ઉત્પન્ન ઉપાસનારસને સમર્પિત કરીએ છીએ . નિશ્ચિત શ્રવણ , મનન , નિદિધ્યાસન અને સાક્ષાત્કાર ચતુષ્ટય દ્વારા તેને પૂજિત કરીએ , ધ્યાવે , ધ્યાન કરીએ છીએ . ( ૧૦ )

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    उर्दू (1)

    Lafzi Maana

    برہم گیانی لوگ پاپیوں کو سزا دینے والے پرماتما کو ہی اپنے ماضی میں سب طرح سے پرسن (خوش) کرتے رہے ہیں۔ ہے منشیو! تم بھی آج ویدوں کے مطابق برہم یگیہ میں اُس کے لئے جوڑے گئے گیان اور بھگتی سے اپنی شان کو بڑھاؤ۔

    Tashree

    جو جگت میں پرسدھ ہے اُس کو ہی سب بھجتے رہے، ہم بھی جپیں اُس کو سدا جس کو ہی سب جپتے رہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी दुर्जन व दुर्गुणांचा विनाशक व सज्जन आणि सद्गुणांचा पोषक अशा परमेश्वराची उपासना करावी. त्याचप्रकारे दुष्ट शत्रू, चोर, लम्पट, ठग, लुटारू इत्यादी तसेच शांतिप्रेमींना वसविणाऱ्या सम्राटाचाही कर (टॅक्स) देऊन सन्मान करावा ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राच्या गुणांचे वर्णन करून त्याचा महिमा गाण्याची प्रेरणा असल्यामुळे, त्याला गृह इत्यादीची याचना असल्यामुळे, त्याचे आवाहन असल्यामुळे व इंद्र नावाने राजा इत्यादीचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    परमात्मा आण रिाजा यांना आवाहन

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (अध्यात्मपर) - (वयम्) आम्ही ईश्वराचे उपासक (वष्रिणम्) दुर्जनांच्या व दुर्गुणांना जो विनाशक (एनम्) त्या या प्रख्यात गुणवान इंद्र परमेश्वराला (इदा) या वेळी म्हणजे आज आणि (हयः) उद्या (इह) या आमच्या उपासना - यज्ञामध्ये केलेल्या (उलीपेम) स्तुतीद्वारे प्रसन्न करू शकलो आहोत. हे माझ्या बांधवा (ईशभक्ता) तूदेखील (तस्मै उ) त्या इंद्र परमेश्वराला (अघ) आज (सवने) आपल्या जीवनरूप यज्ञामध्ये (सुतम्) उत्कर्षित श्रद्धारूप रसाने (भवः) हृदयात धारण कर अथवा त्याला आपली उपासना अर्पित कर. हे बांधवांनो, तुम्ही सर्वजण देखील (नूवम्) अवश्यमेव )श्रृते) वेदादीद्वारे त्याचा महिमा ऐका आणि तो ऐकून (आभूषत) स्तोत्ररूप उपहार त्याला देऊन अलंकृत करा.।। द्वितीय अर्थ - (राष्ट्रपर) - (वयम्) आम्ही राष्ट्रभक्तांनी (वज्रिणम्) शत्रू, दुर्जन, चोर- लुटारू आदींना दंड देणाऱ्या (एतम्) या आपल्या सम्राटाला (इदा) या वर्तमान (संकटकाळी) आणि (हयः) काल भूतकाली (इह) या राष्ट्रोन्नती यज्ञात (अपीपेम) राजस्व कर व संपत्ती देऊन वाढविले आहे. हे मित्रा, बांधवा, (तस्मै उ) तूदेखील त्या सम्राटाप्रत (अघ) आज (सवने) राष्ट्ररूप यज्ञात (सुतम्) आपल्या आर्थिक प्राप्तीपैकी काही धनराशी वेगळी ठेऊन ती राजदेय कराच्या रूपाने (भर) प्रदान कर. हे अन्य प्रजाजनहो, तुम्हीदेखील (नूनम्) अवश्यमेष (श्रृते) राजाज्ञा ऐकल्यानंतर राजाला (आभूषत) आपापल्या देय भाग देऊन अलंकृत करा. ।। १०।। या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। १०।।

    भावार्थ

    सर्व मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी दुर्गुण-नाशक, दुर्जन- विनाशक, सद्गुण पोषक परमेश्वराची उपासना करावी. त्याचप्रमाणे शत्रू, चोर, ठक, लुटारू आदी लोकांना तसेच अशांती पसरविणाऱ्या दुर्जनांना दंडित करणाऱ्या सज्जनांना आणि शांतिप्रेमी राष्ट्रनिवासींना आनंदित करणाऱ्या राजाला कर (राजस्व-कर) देऊन सम्मान केला पाहिजे. ।। १०।। या दशतीमध्ये इंद्राच्या गुणांचे वर्णन, त्याच्या महिमेने गान करणे, विषयी प्रेरणा, त्याच्यापासून गृहादी पदार्थांची याचना साह्याकरिता त्याचे आवाहन आणि इंद्र नावाने राजा आदींचे वर्णन, हे विषय असल्यामुळे या दशतीतील मंत्राच्या अर्थाची संगती मागील दशतीच्या मंत्रांच्या अर्थाशी आहे, हे जाणावे.।। तृतीय प्रपाठकातील द्वितीय अर्धाची तृतीय समाप्त । तृतीय अध्यायातील चतुर्थ खंड संपला.

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நேற்று நாங்கள் வச்சிரயுக்தனான இந்திரனை பருகச் செய்தோம். (மூன்று காலங்களிலும் செய்வோம்) இன்று யக்ஞத்தில் பொழியப்பட்ட சோமனைக் கொண்டுவரவும். செவி கொடுக்கத் தயாராகவும்.

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