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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 275
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
41
वा꣡स्तो꣢ष्पते ध्रु꣣वा꣡ स्थूणाꣳ स꣢꣯त्रꣳ सो꣣म्या꣡ना꣢म् । द्र꣣प्सः꣢ पु꣣रां꣢ भे꣢त्ता꣡ शश्व꣢꣯तीना꣣मि꣢न्द्रो꣣ मु꣡नी꣢ना꣣ꣳ स꣡खा꣢ ॥२७५॥
स्वर सहित पद पाठवा꣡स्तोः꣢꣯ । प꣣ते । ध्रुवा꣢ । स्थू꣡णा꣢꣯ । अँ꣡सत्रम् । सो꣣म्या꣡ना꣢म् । द्र꣣प्सः꣢ । पु꣣रा꣢म् । भे꣣त्ता꣢ । श꣡श्व꣢꣯तीनाम् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । मु꣡नी꣢꣯नाम् । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ ॥२७५॥
स्वर रहित मन्त्र
वास्तोष्पते ध्रुवा स्थूणाꣳ सत्रꣳ सोम्यानाम् । द्रप्सः पुरां भेत्ता शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनाꣳ सखा ॥२७५॥
स्वर रहित पद पाठ
वास्तोः । पते । ध्रुवा । स्थूणा । अँसत्रम् । सोम्यानाम् । द्रप्सः । पुराम् । भेत्ता । शश्वतीनाम् । इन्द्रः । मुनीनाम् । सखा । स । खा ॥२७५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 275
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा तथा शिल्पी के गुण-कर्मों का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (वास्तोः पते) ब्रह्माण्डरूप घर के स्वामी इन्द्र परमात्मन् ! आप (सोम्यानाम्) शान्तिमय, दूसरों को शान्ति देनेवाले अथवा ब्रह्मानन्दरूप सोमरस को प्रवाहित करने योग्य स्तोता जनों के (ध्रुवा स्थूणा) स्थिर आधारस्तम्भ अर्थात् आधारस्तम्भ के समान आश्रयभूत हैं, एवं (अंसत्रम्) धनुष् तथा कवच हैं अर्थात् धनुष् के समान विघ्नकर्ताओं पर बाण-प्रहार करनेवाले और कवच के समान रक्षक हैं। (द्रप्सः) रसमय अथवा सूर्य के समान ज्योतिष्मान् तथा (शश्वतीनाम्) चिरकाल से चली आ रही (पुराम्) काम-क्रोधादि शत्रुओं की किलेबन्दियों के (भेत्ता) तोड़नेवाले (इन्द्रः) इन्द्र नामक आप (मुनीनाम्) मुनियों के (सखा) मित्र हैं ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे (वास्तोः पते) राष्ट्ररूप गृह के अधिपति इन्द्र राजन् ! आप राष्ट्रयज्ञ रूप सोमयाग करनेवाले प्रजाजनों के (ध्रुवा स्थूणा) स्थिर आधार-स्तम्भ और (अंसत्रम्) धनुष् तथा कवच बनें अर्थात् आप आधारस्तम्भ बनकर प्रजाजनों को सहारा दें और धनुष् बनकर शत्रुओं पर आक्रमण करें एवं कवच बनकर प्रजा का शत्रुजन्य आघातों से त्राण करें। साथ ही (द्रप्सः) प्रेमरस के अगार और सूर्य के समान तेजस्वी तथा (शश्वतीनाम्) चिरकाल से सुदृढ़ रूप में बनायी हुई (पुराम्) शत्रु-नगरियों को (भेत्ता) विदीर्ण करनेवाले (इन्द्रः) सम्राट् आप (मुनीनाम्) मुनिवृत्ति से वनों में बसनेवाले वानप्रस्थों के (सखा) मित्र के समान हितचिन्तक हों ॥ तृतीय—वास्तुकला-विशेषज्ञ शिल्पी के पक्ष में। हे (वास्तोः पते) वास्तुकला-विशेषज्ञ, गृहनिर्माण-कुशल शिल्पी ! ध्यान रख कि (सोम्यानाम्) यज्ञ अथवा ऐश्वर्य के अधिकारी गृहस्थ जनों की (स्थूणा) मकानों के आधारभूत खम्भे व दीवारें (ध्रुवा) सुदृढ़ हों, और (अंसत्रम्) मकानों के कंधों के तुल्य खम्भों, दीवारों आदि की रक्षक छतें भी सुदृढ़ हों, क्योंकि कभी-कभी (द्रप्सः) वर्षा-जल (शश्वतीनाम्) चिरकाल से भी स्थित (पुराम्) नगरियों का, उनमें बने हुए मकानों का (भेत्ता) तोड़कर गिरा देनेवाला हो जाता है। यदि कहो कि मुनियों के घरों के विषय में निवेदन क्यों नहीं करते हो, तो उसका उत्तर है कि—(मुनीनाम्) वानप्रस्थ वृत्ति से वन में निवास करनेवाले मुनियों का तो (इन्द्रः) परमेश्वर (सखा) मित्र होता है, अर्थात् वे तो एक परमेश्वर की ही शरण में स्थित रहते हुए, बाह्य सुख की अपेक्षा न करते हुए वन के वृक्षों के नीचे कुटियों में रहते हुए भी स्वयं को सुखी मानते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। प्रथम दो व्याख्याओं में इन्द्र में अंसत्र और स्थूणा का आरोप होने से रूपक अलङ्कार भी है ॥३॥
भावार्थ
वही राजा श्रेष्ठ है, जो परमेश्वर के गुणों का अनुसरण करता हुआ प्रजा का आधारस्तम्भ, शत्रुओं का संहारक, स्वजनों का रक्षक, प्रेमरस का अगार, सूर्य के समान तेजस्वी और ऋषि-मुनियों का मित्र-सदृश हितकर्ता हो। और वास्तुकला के विशेषज्ञ इंजीनियरों का कर्त्तव्य है कि वे राष्ट्र में ऐसे सुदृढ़ मकान कुशल शिल्पियों द्वारा बनवाये कि वे मूसलाधार वर्षा, आँधी आदि से भी कुछ भी क्षतिग्रस्त न हों ॥३॥
पदार्थ
(सोम्यानाम्) हम सोम—उपासनारस सम्पादक उपासकों के (वास्तोः-पते) वासस्थान हृदय गृह के स्वामिन् परमात्मन्! “वास्तुर्वसतेर्निवास-कर्मणः” [निरु॰ १०.१६] (ध्रुवा स्थूणा) ध्रुव, स्थापक जीवन स्तम्भ है (अंसत्रम्) पाप से बचाने वाला है “अंसत्रमंहस्त्राणम्” [निरु॰ ५.२६] (इन्द्रः) ‘इन्द्र’ सुविभक्तेरलुक्छान्दसः हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (शश्वतीनां पुराम्) शाश्वतिक—आत्मा के साथ चली आई मन बुद्धि चित्त अहङ्कार स्थलियों का “मन एव पुरः ‘अन्तःकरणम्’ मनो हि प्रथमं प्राणानाम्—इन्द्रियाणाम्” [श॰ १०.३.५.७] (भेत्ता) उद्घाटयिता उद्घाटन करने वाला, तथा (द्रप्सः) हर्षयिता—विकसित करने वाला “दृप हर्षे” [दिवा॰] (मुनीनां सखा) मननशील—तेरा मनन चिन्तन करने वालों का तू सखा है—मित्र है।
भावार्थ
उपासनारस सम्पादक उपासकों के हृदय गृह के स्वामी परमात्मन्! तू उनके जीवन का स्तम्भ—सहारा—आधार तथा उन्हें पापों से बचाने वाला है एवं ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू शरीर में आत्मा के साथ प्रथम होने वाली मन बुद्धि चित्त अहङ्कार शक्तियों को उद्घाटित करता तथा विकसितकर्त्ता एवं अपने मननशील चिन्तन करने वालों का मित्र भी है॥३॥
विशेष
ऋषिः—इरिम्बिठः (गति-प्रवृत्ति है व्योम समान परमात्मा में जिसकी ऐसा ध्यानी जन)॥<br>
विषय
इरिम्बिठि का प्रभु स्तवन
पदार्थ
(वास्तोष्पते)= हमारे शरीररूप घरों के रक्षक प्रभो ! [वास्तु - घर, गृह] आप हमारे जीवनभवन के ध्(रुवा स्थूणा) = ध्रुव स्तम्भ हो । (सोम्यानाम् अंसत्रम्) = निरभिमान भक्तों के कन्धों के रक्षक हो, अर्थात् उनपर सदा आपके वरदहस्त की छाया बनी रहती है। (द्रप्सः) = उन भक्तों को आप हर्षित करनेवाले हो - उन्हें पवित्र मनःप्रसाद प्राप्त होता है। आप अपने भक्तों के (शश्वतीनाम्) = सनातन काल से चले आ रहे (पुराम्) = शरीररूप नगरियों के (भेत्ता) = विदारण करनेवाले हैं। वासनाएँ इन्द्रियों, मन और बुद्धि को अपना अधिष्ठान बनाती हैं - प्रभु की कृपा से ये पवित्र हो कर वासनओं के दुर्ग नहीं रहते।
प्रभु इन वासनाओं का संहार करके हमें उच्च ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यवाले हैं और अन्त में (मुनीनां सखा)=वे प्रभु मुनियों के सखा हैं। (मौनान्मुनिः) = कम बोलनेवालों के वे प्रभु मित्र हैं। जो बोलते कम हैं और अपने कर्तव्य कर्म को अप्रमाद से करते चलते हैं, वे मुनि कहलाते हैं। प्रभु की मैत्री इन्हीं को प्राप्त होती है।
वस्तुतः ‘इर् गतौ, (बिठं)=हृदयान्तरिक्षम्' जिसके हृदयान्तरिक्ष में कर्म संकल्प है, उस इरिम्बिठि को क्रियाप्रधान व मौनवाला होना ही चाहिए। बहुत बोलने से शक्ति का व्यर्थ में ही यापन होता है।
इस प्रकार स्तुति करता हुआ इरिम्बिठि निम्न बोध लेता है – १. मुझे प्रभु के दिये इस गृह की रक्षा करनी है - इसे स्वस्थ रखना है। २. जीवन का मूलाधार प्रभु को ही मानना है, ३. सौम्य बनकर प्रभु के वरदहस्त को अपने सिर से दूर नहीं होने देना है, ४. मन:प्रसाद को नष्ट नहीं करना है, ५. शरीर, मन व इन्द्रियों को असुर नगरी नहीं बने रहने देना है, ६. प्रभु के सम्पर्क में आकर परमैश्वर्य को पाना है और ७. यथासम्भव कम बोलते हुए प्रभु की मैत्री का पात्र बनना है। इस प्रकार का जीवन बनानेवाला ही ('काण्व') = मेधावी है।
भावार्थ
हम सौम्य बनें, जिससे सदा प्रभु की छत्रछाया में रहें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( वास्तोष्पते ) = सब बसने योग्य गृहों और देहों के स्वामिन् ! आप ( इन्दः ) = परमैश्वर्यवान् ( ध्रुवा स्थूणा ) = अचल आधार स्तम्भ हो। और ( सोम्यानां असत्रम् ) = सोमपान करने हारी इन्द्रियों और सोमपायी विद्वानों के स्कन्धदेश पर लगे कवच के समान मर्म की रक्षा करनेहारे हो । आप ( द्रप्सः ) = हृदय में द्रुत या स्रुत रस का पान करने हारे या स्वतः रसरूप और ( पुरां ) = शत्रुओं के नगरों, गढ़ों और योगिजनों के देहों के ( भेत्ता ) = अपने ज्ञान, वज्र से भेदन करने हारे हो और ( मुनीनां ) = मननशील ध्यानियों के एकमात्र ( सखा ) = सखा, मित्र हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - इरिमिठिः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो राज्ञः शिल्पिनश्च गुणकर्माणि वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। हे (वास्तोः पते) ब्रह्माण्डगृहस्य स्वामिन् इन्द्र परमेश्वर ! वास्तोष्पतिः, वास्तुः वसतेः निवासकर्मणः, तस्य पाता वा पालयिता वा। निरु० १०।१७। ‘षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु। अ० ८।३।५३’ इति विसर्गस्य सत्वे मूर्धन्यादेशः। त्वम् (सोम्यानाम्२) शान्तिमयानां शान्तिसम्पादिनां ब्रह्मानन्दरूपसोमाभिषवयोग्यानां वा त्वत्स्तोतॄणाम्। सोम्यं सोममयम्। निरु० १०।३७। सोम्याः सोमसम्पादिनः। निरु० ११।१८। यद्वा ‘सोममर्हति यः। अ० ४।४।१३७’ इति अर्हार्थे यः प्रत्ययः। (ध्रुवा स्थूणा३) स्थिरः आधारस्तम्भः असि, आधारस्तम्भ इवाश्रयभूतोऽसीत्यर्थः। किञ्च (अंसत्रम्४) धनुः कवचं च असि, धनुर्वद् विघ्नकारिषु प्रहर्त्ता कवच इव रक्षकश्चासीत्यर्थः। अंसत्रम् अंहसस्त्राणं धनुर्वा कवचं वा। निरु० ५।२६। (द्रप्सः५) रसमयः आदित्यज्योतिष्को वा। द्रप्सः रसः तद्वान् ‘अर्श-आदिभ्योऽच्, अ० ५।२।१२७’ इति मतुबर्थे अच् प्रत्ययः। यो वा अस्याः पृथिव्या रसः स द्रप्सः। मै० ४।१।१०। रसो वै सः। तै० उ० २।७। असौ वा आदित्यो द्रप्सः। श० ७।४।१।२०। (शश्वतीनाम्) चिरन्तनीनाम् (पुराम्) कामक्रोधादिरिपुकृतानां दुर्गपरम्पराणाम् (भेत्ता) भेदकः (इन्द्रः) परमेश्वरस्त्वम् (मुनीनाम्) मुनिसाधनारतानाम् (सखा) मित्रम् असि ॥ अत द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे (वास्तोः पते) राष्ट्रगृहस्य अधिपते राजन् ! त्वम् (सोम्यानाम्) राष्ट्रयज्ञरूपसोमयागसम्पादिनाम् प्रजाजनानाम् (ध्रुवा स्थूणा) स्थिरः आधारस्तम्भः, (अंसत्रम्) धनुः कवचं च भव, आधारस्तम्भो भूत्वा प्रजाजनेभ्य आश्रयं प्रदेहि, धनुः कवचं च भूत्वा शत्रूनाक्रमस्व प्रजाश्च शत्रुजन्याघातेभ्यः त्रायस्वेत्यर्थः। (द्रप्सः) प्रेमरसागारः, आदित्यवद् ज्योतिष्मान् (शश्वतीनाम्) चिरन्तनीनाम् (पुराम्) शत्रुनगरीणाम् (भेत्ता) विदारयिता (इन्द्रः) सम्राट् त्वम् (मुनीनाम्) मुनिवृत्त्या वनेषु वसतां वानप्रस्थानाम् (सखा) मित्रं, (मित्रवद्) हितचिन्तकः, भवेति शेषः ॥ अथ तृतीयः—शिल्पिपरः। हे (वास्तोः पते) वास्तुकलाविशेषज्ञ गृहनिर्माणकुशल शिल्पिन् ! अवधेहि, (सोम्यानाम्) सोमं यज्ञम् ऐश्वर्यं वा अर्हन्तीति सोम्याः याज्ञिका गृहस्थाः तेषाम् (स्थूणा) गृहाधारभित्तिस्तम्भश्रेणी (ध्रुवा) सुदृढा भवेत्, किञ्च (अंसत्रम्) अंसान् गृहस्कन्धभूतान् भित्त्यादिकान् त्रायते रक्षति इति अंसत्रम् छदिः अपि ध्रुवं सुदृढं भवेत्। यतः कदाचित् (द्रप्सः) वर्षोदकम्। द्रप्सः संभृतः प्सानीयो भवति—इति निरुक्तम् ५।१३। (शश्वतीनाम्) चिरात् स्थितानाम् अपि (पुराम्) नगरीणाम्, तद्गतभवनानामित्यर्थः। (भेत्ता) विदारयिता जायते। ननु मुनीनां गृहविषये कुतो न प्रार्थयसे इति चेत् उच्यते—(मुनीनाम्) वानप्रस्थवृत्त्या वने वसतां मुनीनाम् तु (इन्द्रः) परमेश्वरः (सखा) मित्रम् अस्ति, ते तु परमात्मैकशरणा बाह्यसुखनिरपेक्षा वने वृक्षमूले कुटीरस्था अपि स्वात्मनः सुखिनो मन्यन्ते इति भावः ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। आद्ये व्याख्यानद्वये इन्द्रे अंसत्रस्थूणयोरारोपाद् रूपकमपि ॥३॥
भावार्थः
स एव राजा श्रेष्ठोऽस्ति यः परमेश्वरगुणाननुसरन् प्रजाया आधारस्तम्भः, शत्रुहन्ता, स्वजनरक्षकः, स्नेहरसागारः, सूर्यज्योतिष्कः, मुनीनां मित्रवद्धितकर्ता च भवति। वास्तुकलाविदां च कर्तव्यमस्ति यत् ते राष्ट्रे तथा सुदृढानि गृहाणि कुशलैः शिल्पिभिर्निर्मापयेयुर्यथा तानि धारासारवृष्टिझञ्झावातादिभिरपि न कामपि क्षतिं प्राप्नुयुः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१७।१४ देवता इन्द्रः वास्तोष्पतिर्वा। ‘द्रप्सः पुरां भेत्ता’ इत्यत्र ‘द्रप्सो भेत्ता पुरां’ इति पाठः। २. (सोम्यानाम्) सोमवच्छान्त्यादिगुणयुक्तानाम्। इति ऋ० ४।१७।१७ भाष्ये द०। सोमसम्पादिनां यजमानानाम् इत्यर्थः—इति वि०। सोमार्हाणां विप्राणाम्—इति भ०। सोमार्हाणां सोमसम्पादिनां वाऽस्माकम्—इति सा०। ३. लुप्तोपममेतद् द्रष्टव्यम्। ध्रुवा स्थूणा इव। यथा गृहस्य ध्रुवा स्थूणा आश्रयभूता तद्वत् त्वम् आश्रयभूत इत्यर्थः—इति वि०। ध्रुवा स्थूणा इत्युपमा। स्थूणावद् धारकः विश्वस्य—इति भ०। हे वास्तोष्पते गृहपते, स्थूणा गृहाधारभूतः स्तम्भः ध्रुवा स्थिरा भवतु—इति सा०। ४. अंसत्रम्। एतदपि लुप्तोपमम्। अंसत्रमिव। अंसत्रं धनुः कवचं वा। तद् यथा शत्रूणां जेतृ पालयितृ वा तद्वत् त्वं जेता पालयिता वेत्यर्थः—इति वि०। ५. द्रप्सः सोमरसः। अन्तर्णीतमत्वर्थं चेदं द्रष्टव्यम्। द्रप्सवान् सोमरसवानित्यर्थः—इति वि०। द्रप्सः गन्ता सर्वत्र—इति भ०। द्रवणशीलः सोमः तद्वान्। अर्शआदित्वादच् प्रत्ययः—इति सा०। ‘दृप हर्षणमोहनयोः’ इत्यस्मादौणादिकः सः प्रत्ययः, किच्च, ‘अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम्, अ० ६।१।५९’ अमुनाऽमागमः, इति य० १।२६ भाष्ये द०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, the Lord of all homes and bodies. Thou art the strong support, and Guardian like armour! Thou art Omniscient. Thou reinvest the yogis of this old bondage of mortal frame. Thou art the friend of the sages.
Meaning
O lord of human habitations, creator of the cosmic home of life, may the centre column of our house be firm. May the lord be the protective armour of the makers of soma. May Indra, lover of soma to the last drop, be destroyer of the strongholds of evil which nevertheless persist through time, and may the lord be friends with the sages. (Rg. 8-17-14)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम्यानाम्) અમે સોમ - ઉપાસનારસના સંપાદક ઉપાસકોના (वास्तोः पते) વાસ સ્થાન હૃદય ગૃહના સ્વામી પરમાત્મન્ ! (ध्रुवा स्थूणा) ધ્રુવ , સ્થાપક જીવન સ્તંભ છે . (असंत्रम्) પાપથી બચાવનાર છે (इन्द्रः) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (शश्वतीनां पुराम्) આત્માની સાથે ચાલ્યા આવતા મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત , અહંકારનાં સ્થાનોનું (भेत्ता) ઉદ્ઘાટન કરનાર તથા (द्रप्सः) હર્ષયિતા - વિકાસ કરનાર (मुनीनां सखा) મનનશીલ - તારું મનન ચિંતન કરનારાઓનો તું મિત્ર છે . ( ૩ )
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે ઉપાસનારસ સંપાદક ઉપાસકોના હૃદય ગૃહના સ્વામી પરમાત્મન્ ! તું તેના જીવનનો સ્તંભ - સહારો - આધાર તથા તેને પાપોથી બચાવનાર છે . હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું શરીરમાં આત્માની સાથે પ્રથમ આવનાર મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત અને અહંકાર શક્તિઓને ઉદ્ઘાટિત કરનાર તથા વિકસિત કરનાર અને તારું મનનશીલ ચિંતન કરનારનો મિત્ર છે . ( ૩ )
उर्दू (1)
Mazmoon
سُورج چندر وغیرہ نظامِ شمسی کا بسیرا
Lafzi Maana
(واستو شپتے) سُورج چاند تاروں کو بسانے والے خانئہ دُنیا اِیشور! (دُھرو اسُتھونا) آپ اِس سنسار کے کھمبے ہو کر سہارا دے رہے ہو اور (سومیا نام انس ترم) عابدوں کے حقیقی غلاف یا زرہ بکتر ہو، (درپسیہ بھتیا شاسوتی نام پُرام) ازلی ابدی انسانوں کے ساتھ لگے ہوئے زندگی موت کے بندھنوں کو کاٹ کر نجات دلانے والے آپ ہو، (اندر سُنی نام سَکھا) اور عارفوں کے سچّے دوست رہنا ہو۔
Tashree
چاند سُورج اور ستاروں کے بسیرے ہو پِتا، زرہ بکتر سے محافظ عارفوں کے ہمنوا۔
मराठी (2)
भावार्थ
श्रेष्ठ राजा परमेश्वराच्या गुणांचे अनुसरण करतो. तो प्रजेचा आधारस्तंभ, शत्रूंचा संहारक, स्वजनांचा रक्षक, प्रेमरस आगर, सूर्याप्रमाणे तेजस्वी व ऋषिमुनींचा मित्राप्रमाणे हितकर्ता असावा वास्तुकलेच्या विशेषज्ञ इंजिनियरचे कर्तव्य आहे की त्यांनी राष्ट्रात शिल्पी (कारागीर) लोकांकडून सुदृढ घरे बनवावीत व ती मुसळधार पाऊस आणि वादळ इत्यादीद्वारे क्षतिग्रस्त होता कामा नयेत ॥३॥
विषय
परमेश्वर, राजा आणि शिल्पी यांची गुण कर्मे
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) - (परमात्मपर) - हे (वास्तोःपते) ब्रह्मांडरूप गृहाचे स्वामी इंद्र परमेश्वर, आपण (सोम्यानाम्) शान्तिमय, इतरांना शांती देणारे अथवा ब्रह्मानंदरूप सोमरस प्रवाहित करणाऱ्या स्तोताजनांसाठी (ध्रुवा स्थूणा) स्थिर आधारस्तंभ म्हणजे आधारस्तंभाप्रमाणे आधार वा आश्रय देणारे आहेत. तसेच आपण (असंत्रक) त्यांच्यासाठी धनुष व कवच सम असून विघ्नकर्त्यांवर बाण- प्रहार करणारे आणि कवचाप्रमाणे रक्षक आहात. (द्रप्सः) रसमय वा सूर्याप्रमाणे ज्योतिष्मान तथा (शाश्वतीनाम्) दीर्घकाळापासून चालत आलेल्या (पुराम्) काम, क्रोध आदी शत्रूंच्या (भेत्ता) तोडणारे (इंद्रः) इन्द्रनाम ईश्वर आहात आणि (मुनीनाम्) मुनिजनांचे (सखा) मित्र आहात.।। द्वितीय अर्थ - (राष्ट्रपर) हे (वास्तोःपते) राष्ट्ररूप गृहाचे अधिपती इंद्र राजा, आपण राट्र यज्ञरूप समयाग करणाऱ्या प्रजाजनांसाठी (ध्रुवा स्थूणा) स्थिर आधारस्तंभ आहात (अंसत्रम्) आपण त्यांचे धनुष्य व कवच व्हा, म्हणजे त्यांचे आधारस्तंभ होऊन प्रजेला आधार द्या आणि धनुष्याप्रमाणे त्यांच्यासाठी धनुष्य म्हणजे शत्रूवर आक्रमण करणारे आणि त्यांच्यासाठी कवच म्हणजे शत्रूकडून होणाऱ्या आघातांपासून प्रजेला वाचविणारे व्हा. तसेच (द्रप्सः) प्रेम रसाचे आगार आणि सूर्याप्रमाणे तेजस्वी आपण (शश्वतीनाम्) दीर्घकाळापासून सुदृढ केलेल्या (पुराम्) शत्रु-नगरीला (भेत्ता) उद्ध्वस्त करणारे (इंद्रः) आमचे सम्राट आहात. आपण (मुनीनाम्) मुनिवृत्तीने वनात निवास करणाऱ्या वानप्रस्थांचे (सखा) मित्र वा हितचिंतक आहात.।। तृतीय अर्थ - (वास्तुकला - विशेषज्ञ शिल्पीविषयी) हे (वास्तोःपते) वास्तुकला विशेषज्ञ, गृहनिर्माण कुशल शिल्पी, तू लक्ष ठेव की (सोम्यानाम्) यज्ञ करणाऱ्या वा ऐश्वर्य इच्छुक गृहस्थजनांच्या (स्थूणा) घरांचा आधार जे स्तंभ वा भिंती तयार करशील, तसेच (अंसत्रम्) घरांचा खांदा असल्याप्रमाणे जे स्तंभ, भिंती वा छत असतील, ते सर्व सुदृढ सू दे. कारण की कधी कधी पावसाच्या पाण्याने (शश्वतीनाम्) दीर्घकाळापासून उभ्या असलेल्या नगरी अथवा त्यातील घरांना ते वृष्टिजल (भेत्ता) तोडून टाकते वा पाडते. जर म्हणाल की येथे मुनिजनांच्या घराविषयी का काही सांगत नाही ? तर त्याचे उत्तर असे की (मुनीनाम्) वानप्रस्थ वृत्तीने वनात निवास करणाऱ्या मुनिजनांचा तर तो (इंद्रः) परमेश्वरच (सखा) मित्र असतो. अर्थात ते तर एका परमेश्वराच्या शरणी असतात, बाह्य सुखाविषयी ते कोणतीच अभिलाषा बाळगत नाहीत आणि वनाच्या वृक्षाखाली बांधलेल्या आपल्या कुटीमध्येच ते आनंदी असतात. ।। ३।।
भावार्थ
राजा तोच श्रेष्ठ असतो, जो परमेश्वराच्या गुणांचे अनुसरण करीत प्रजेसाठी आधारस्तंभ असतो. शत्रु-संहारक, स्वजन- रक्षक, प्रेमर सागार, सूर्यमन तेजस्वी आणि ऋषीमुनींकरिता मित्रवत हितकर्ता असतो. वास्तुकलेचे तज्ज्ञ जे अभियंता आदी असतात, त्यांचेही कर्तव्य आहे की त्यांनी राष्ट्रात इतकी सुदृढ घरे कुशल शिल्पी (गवंडी) द्वारे तयार करवून घ्यावीत की जी मुसळधार पावसाने अथवा वादळानेही क्षतिग्रस्त होणार नाहीत. ।। ३।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. प्रथम आणि द्वितीय अर्थांमध्ये ङ्गअंसत्रफ व ङ्गस्थूणाफ या दोन शब्दांचा आरोप असल्यामुळे येथे रूपक अलंकारदेखील आहे. ।। ३।।
तमिल (1)
Word Meaning
நீ[1] சோம்யர்களின் கவசமாகும். [2] சோம துனிகள் வெகு அசுரபுரிகளை உடைக்கிறார்கள். இந்திரன் முனிகளின் நண்பனாகட்டும்.
FootNotes
[1] சோம்யர்களின்-சோம சம்பந்தமானவர்களின்
[2] சோம துனிகள்-அறிவு நிறைபவர்கள்
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