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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 298
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    49

    य꣡दि꣢न्द्र꣣ शा꣡सो꣢ अव्र꣣तं꣢ च्या꣣व꣢या꣣ स꣡द꣢स꣣स्प꣡रि꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म꣣ꣳशुं꣡ म꣢घवन्पुरु꣣स्पृ꣡हं꣢ व꣣स꣢व्ये꣣ अ꣡धि꣢ बर्हय ॥२९८

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢त् । इ꣣न्द्र । शा꣡सः꣢꣯ । अ꣣व्रत꣢म् । अ꣣ । व्रत꣢म् । च्या꣣व꣡य꣢ । स꣡द꣢꣯सः । प꣡रि꣢꣯ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अँ꣣शु꣢म् । म꣣घवन् । पुरुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् । व꣣स꣡व्ये꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हय ॥२९८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र शासो अव्रतं च्यावया सदसस्परि । अस्माकमꣳशुं मघवन्पुरुस्पृहं वसव्ये अधि बर्हय ॥२९८


    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । शासः । अव्रतम् । अ । व्रतम् । च्यावय । सदसः । परि । अस्माकम् । अँशुम् । मघवन् । पुरुस्पृहम् । पुरु । स्पृहम् । वसव्ये । अधि । बर्हय ॥२९८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 298
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर और राजा को सम्बोधित किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (यत्) क्योंकि, हे (इन्द्र) दुर्गुणनिवारक जगदीश्वर ! आप (शासः) शासक और नियामक हैं, इस कारण (अव्रतम्) व्रतहीन और कर्महीन मनुष्य को (सदसः परि) सज्जनों के समाज से (च्यावय) निकाल दीजिए। हे (मघवन्) सद्गुणरूप धनों के धनी ! (अस्माकम्) हमारे (पुरुस्पृहम्) बहुत अधिक प्रिय (अंशुम्) मन को (वसव्ये अधि) आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक दोनों प्रकार के धन-समूह की प्राप्ति के निमित्त से (बर्हय) श्रेष्ठ बना दीजिए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (यत्) क्योंकि, हे (इन्द्र) पाप और पापियों के विनाशक राजन् ! आप (शासः) शासक हैं, इस कारण (अव्रतम्) वर्णाश्रम की मर्यादा का पालन न करनेवाले मनुष्य को (सदसः परि) राष्ट्ररूप यज्ञगृह से (च्यावय) निष्कासित कर दो। अथवा (अव्रतम्) राष्ट्रसेवा के व्रत से रहित मनुष्य को (सदसः परि) संसत् की सदस्यता से (च्यावय) च्युत कर दो। हे (मघवन्) धनों के स्वामिन् ! (अस्माकम्) हमारे (पुरुस्पृहम्) अतिशय प्रिय (अंशुम्) प्रदत्त कर-रूप अंशदान को (वसव्ये अधि) राष्ट्रहित के कार्यों में (बर्हय) व्यय करो ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥

    भावार्थ

    वे ही राष्ट्रपरिषद् के सदस्य होने योग्य हैं, जो राष्ट्रसेवा के व्रत में दीक्षित हों। प्रजाजनों को भी वर्णाश्रम की मर्यादा का पालन करनेवाला और कर्मपरायण होना चाहिए। प्रजाओं को चाहिए कि स्वेच्छा से राजा को कर प्रदान करें और राजा को चाहिए कि कर द्वारा प्राप्त धन को राष्ट्रहित के कार्यों में व्यय करे ॥६॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन्! (यत्) जिस कारण (शासः) तू शासक—शिक्षक है मुझे यथावत् आचरण की शिक्षा देने वाला है अपने आन्तरिक सदुपदेश से (अव्रतम्) विहित कर्म सत्य आदि के विरुद्ध अनाचरणीय पापकर्म या पाप सङ्कल्प को (सदसः-परिच्यावय) (मघवन्) ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (अस्माकम्) हमारे (पुरुस्पृहम्) बहुत वाञ्छनीय—स्वीकरणीय (अंशुम्) जीवन के लिये कल्याणकर उपासनारस प्राणस्वरूप को “अननाय शम्भवतीति” [निरु॰ २.५] “प्राण एवांशु” [श॰ ११.५.९.२] (वसव्ये-अधिबर्हय) मेरे वसने योग्य हृदयस्थान में अधिकाधिक बढ़ा।

    भावार्थ

    हे परमात्मन्! जबकि तू मेरा शासक है—शिक्षक है फिर मुझे आन्तरिक भाव से उपदेश देकर अज्ञात अनाचरणीय पाप कर्म या अचिन्त्य पापसङ्कल्प को मेरे अन्तःसदन—अन्तःकरण—मन से पृथक् कर दूर रख, हमारे जीवन के लिये बहुत वाञ्छनीय कल्याण कर प्राणस्वरूप उपासनारस को हमारे वसने योग्य हृदय स्थान में अधिकाधिक बढ़ा॥६॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय—उपासनीय इष्टदेव वाला उपासक)॥<br>

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    विषय

    घर से निकाला जाना

    पदार्थ

    हे (इन्द्र)=परम ऐश्वर्यशाली प्रभो! सबको शासन चलानेवाले प्रभो ? (यत्) = क्योंकि आप (अव्रतम्)=मिलकर खाने व जीवन को यज्ञिय बनाने के व्रत को धारण न करनेवाले को (शासः) = शासित करते हो, दण्डव्यवस्था से उसे अपने अनुशासन में चलाने की व्यवस्था करते हो। इतना ही नहीं, इस व्यक्ति को (सदसः) = घर से (परिच्यावया) = च्युत कर देते हो अतः हमारे ज्ञान को तो आप ऐसा बढ़ाईये कि हम अव्रती न बनें। 

    हमारा वास्तविक घर तो ब्रह्मलोक है। अपने घर में पहुँचने के लिए आवश्यक है कि हम स्वार्थ की भावना छोड़कर परार्थ की भावना फिर से विकसित करें। उसी के विकास के लिए प्रभु से याचना है कि (मघवन्) = पाप के लवलेश से शून्य ऐश्वर्यवाले प्रभो! (वसव्य) = सर्वोत्तम निवासस्थानभूत प्रभो! आप (अस्माकम्) = हमारे (पुरुस्पृहम्) = पालक व पूरक, अतएव स्पृहणीय (अंशुम्) = ज्ञान की किरण को (अधिबर्हय) = खूब बढ़ाइए ।

    यह ज्ञान मुझे स्वार्थ से ऊपर उठाते हुए फिर अपने घर में पहुँचाएगा। यह घर वस्तुतः ही sweet=मधुर है। हे प्रभो! आप में रहता हुआ मैं सचमुच अनुभव करता हूँ कि आप 'वसव्य' हैं। आज मेरा जीवन अधिक-से-अधिक सुन्दर, दिव्यतावाला बनकर मुझे 'वामदेव' कहलाने का अधिकारी बनाता है, मेरी इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं, मैं 'गोतम' बन जाता हूँ।

    भावार्थ

    मैं फिर से अपने घर में वापस पहुँचूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = राजन् ! आत्मन् ! ( यत् ) = क्योंकि ( सदसः परि ) = हमारे देह, घर या सभा स्थान के पास रहने वाले ( अव्रतम् ) = व्रत या नियम का पालन न करने हारे पुरुष का तू ( शास: ) = शासन कर और ( च्यावय ) = अधिकार से च्युत करदे ।  हे मघवन् ! ( पुरुस्पृहम् ) = इन्द्रियों या प्रजा के अभिलाषाओं के योग्य, उनके प्रिय, ( अस्माकं ) = हमारे ( अंशुं ) = भाग को ( वसव्ये ) = इस वास योग्य देह या देश में ( अधि वर्हय ) = और अधिक बढ़ा दे । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरं राजानं च सम्बोधयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। (यत्) यस्मात्, हे (इन्द्र) दुर्गुणविदारक जगदीश्वर ! त्वम् (शासः) शासकः नियामकः असि, तस्मात् (अव्रतम्१) व्रतहीनं कर्महीनं वा जनम्। व्रतं दीक्षा। यद्वा, व्रतमिति कर्मनाम। निघं० २।१। तद्रहितम्। ‘अव्रतम्’ इत्यत्र बहुव्रीहौ ‘नञ्सुभ्याम्’ अ० ६।२।१७२ इत्यन्तोदात्तत्वम्। (सदसः परि) सज्जनसमाजात् (च्यावय) निर्गमय। हे (मघवन्) सद्गुणधन ! (अस्माकम्) नः (पुरुस्पृहम्) बहुस्पृहायुक्तम्। पुरु स्पृहयतीति पुरुस्पृक् तम्। ‘गतिकारकोपपदात् कृत्’ अ० ६।२।१३९ इत्युत्तरपदस्य प्रकृतिस्वरः। (अंशुम्) मनः। मनो ह वा अंशुः। श० ११।५।९।२। (वसव्ये अधि२) आध्यात्मिकाधिभौतिकोभयविधधनसमूहप्राप्तिनिमित्तम्। निमित्तार्थे सप्तमी ‘वसोः समूहे च’ अ० ४।४।१४० इति समूहार्थे यत्। (बर्हय) श्रेष्ठतामापादय। बर्ह प्राधान्ये भ्वादिः, णिजन्तं रूपम् ॥ अथ द्वितीयः—राजन्यपरः। (यत्) यस्मात्, हे (इन्द्र) पापस्य पापिनां च विद्रावक राजन् ! त्वम् (शासः) शासकः असि, तस्मात् (अव्रतम्) वर्णाश्रममर्यादापालनव्रतरहितं जनम् (सदसः परि) राष्ट्ररूपात् यज्ञगृहात् (च्यावय) पृथक् कुरु। यद्वा (अव्रतम्) राष्ट्रसेवाव्रतहीनं जनम् (सदसः परि) संसदः सदस्यतायाः (च्यावय) बहिष्कुरु। हे (मघवन्) धनानां स्वामिन् ! (अस्माकम् पुरुस्पृहम्) अतिशयस्पृहणीयम् (अंशुम्) अंशदानम्, प्रदत्तं करम् (वसव्ये अधि) राष्ट्रहितकार्येषु। वसवे राष्ट्राय हितं वसव्यम्, हितार्थे यत्। (बर्हय) व्ययीकुरु। बर्ह हिंसायाम्, चुरादिः ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥

    भावार्थः

    त एव राष्ट्रपरिषदः सदस्या भवितुमर्हन्ति ये राष्ट्रसेवाव्रते दीक्षिता भवेयुः। प्रजाजनैरपि वर्णाश्रममर्यादापालकैः कर्मपरायणैश्च भाव्यम्। प्रजाभिः स्वेच्छया राज्ञे करः प्रदेयः, राज्ञा च करद्वारा प्राप्तं धनं राष्ट्रहितकार्येषु व्ययितव्यम् ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. व्रतरहितं यज्ञे अप्रवृत्तम्—इति वि०। अकर्माणं अस्तोतारम् अयज्वानं च—इति भ०। अकर्माणं यागविरोधिनम् इत्यर्थः—इति सा०। २. वसव्ये यजमाने यज्ञानां वासयितरि—इति वि०। वसव्येवास्तुनि यज्ञगृहे—इति भ०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, the denizen of our body, control and remove from his seat the person who does not fulfil his vow. Increase in this body, a worthy house, our share, desired by many a one!

    Translator Comment

    Our means those who stick to their vow.^Riteless persons should be discouraged and those devoted to their pledge discouraged. Share means reward, the fruit of our fulfilling the vow.

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    Meaning

    Indra, ruler of the common wealth, as you are ruler of the law and keeper of the discipline of creativity and yajnic production, pray remove from the house of yajna the person who cannot observe the discipline and does not keep the pace of creativity and contribution. O lord of power and wealth, advance and on top promote our soma sanative of universal value and interest for the peace, progress and affluence of the nation.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (यत्) જે કારણે (शासः) તું શાસક-શિક્ષક છે મને યથાવત્ આચરણની શિક્ષા આપનાર છે. તારા આન્તરિક સદુપદેશથી (अव्रतम्) વિહિત કર્મ સત્ય આદિથી વિરુદ્ધ અનાચરણીય પાપકર્મ અથવા પાપ સંકલ્પોને (सदसः परीच्यावय) મારા અન્તઃગૃહ-અંતઃકરણ મનથી પૃથક્ કર દૂર રાખ.

    (मघवन) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (अस्माकम्) અમારા (पुरुष्पृहम्) બહુ જ વાંછનીય-સ્વીકારણીય (अंशुम्) જીવનને માટે કલ્યાણકારક ઉપાસનારસ પ્રાણસ્વરૂપને (वसव्ये अभिबर्हय) મારા વસવા યોગ્ય હૃદયસ્થાનમાં અધિકાધિક વૃદ્ધિ કર. (૬)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું મારો શાસક છે-શિક્ષક છે. માટે મને આન્તરિક ભાવથી ઉપદેશ આપીને અજ્ઞાત અનાચરણીય પાપ કર્મ અથવા અચિંત્ય પાપ સંકલ્પોને મારા અંતઃગૃહ-અન્તઃકરણથીમનથી પૃથક્ - દૂર રાખ, અમારા જીવન માટે ખૂબ જ વાંછનીય, કલ્યાણકારક, પ્રાણસ્વરૂપ ઉપાસનારસની અમારા વસવા યોગ્ય હૃદયસ્થાનમાં અત્યંત વૃદ્ધિ કર. (૬)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آپ کا بسیرا میرے اندر سدا رہے!

    Lafzi Maana

    ہے اِندر پرمیشور! (یت شاسہ) آپ ہمارے راجہ ہیں، لہٰذا یم نیم کے اعلےٰ اخلاقی اُصولوں (اور تم سد سپری چیاویہ) (برتوں) سے مبّرا جو کاربد وغیرہ بُری عادات ہمارے اندر گھُس گئی ہیں۔ اُنہیں قطعاً باہر نکال دیجئے۔ (مگھوں) ہے زر و مال کے مالک! (پرُوس پرہم) اسماکم انشُم وسویے ادھی آور دھئے) اور اس کی جگہ جس بھگتی رس کو آپ بہت چاہتے ہیں۔ اُس کو میرے دل میں خوب بڑھائیں، جس سے کہ آپ کا بسیرا میرے اندر سدا بنا رہے!

    Tashree

    آپ راجہ ہیں بُرے افوال سے من کو بچائین، میرے دل کو پاک کر اپنی جگہ اُس میں بنائیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे राष्ट्रसेवेच्या व्रतामध्ये दीक्षित असतात, तेच राष्ट्र परिषदेचे सदस्य होण्यायोग्य असतात. प्रजेलाही वर्णाश्रमाच्या मर्यादेचे पालन करणारे व कर्मपरायण बनले पाहिजे. प्रजेने राजाला स्वेच्छेने कर प्रदान करावा. राजानेही कराद्वारे प्राप्त झालेले धन राष्ट्रहिताच्या कार्यात व्यय करावे ॥६॥

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    विषय

    परमेश्वराला आणि राजाला इंद्र नावाने आवाहन करणे.

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) - हे (इन्द्र) दुर्गुणनाशक परमेश्वर, (यत्) ज्याअर्थी (शासः) शासक व नियामक आहात, म्हणून तुम्ही (अव्रतम्) व्रतहीन व कर्मछीन मनुुष्याला (सदसः परि) सज्जनांच्या समाजातून (च्यावय) काढून टाका. हे (मघवन्) सद्गुण रूप धनाचे स्वामी परमेश्वर, (अस्माकम्) आमच्या (पुरुस्पृहम्) अत्यंत प्रिय (अंशुम्) मनाला (वसव्ये अधि) आध्यात्मिक आणि आधिभौतिक दोन्ही प्रकारचे धन प्राप्त करण्यासाठी (बर्हय) आम्हाला श्रेष्ठ पुरुष करा.।। द्वितीय अर्थ - (राजापर) - (यत्) ज्याअर्थी (इंद्र) पापांचे आणि पापीजनांचे विनाशक हे राजा, तुम्ही (शासः) शासक आहात, यामुळे (अव्रतम्) वर्णाश्रमाची मर्यादा न पाळणाऱ्या माणसाला (सदसः परि) राष्ट्ररूप यज्ञगृहातून (च्यावय) निष्कासित करा अथवा (दुसरा अर्थ) (अव्रतम्) राष्ट्रसेवेचे व्रत न घेतलेल्या मनुष्याला (सदसः परि) संसदेच्या सदस्यत्वापासून (च्यावय) वंचित करा वा काढून टाका. हे (मघवन्) धनांचे स्वामी, (अस्माकम्) आम्हा प्रजाजनांनी दिलेल्या (पुरुस्पृहम्) दिलेल्या अत्यंत प्रिय अशा (अंशुम्) कररूप दानाचा (वसवे अधि) राष्ट्रहिताच्या कामांसाठी (बर्हय) उपयोग करा. ।। ६।।

    भावार्थ

    तेच लोक राष्ट्र परिषदेचे (लोकसभेचे वा राज्यसभेचे) सदस्य असावेत, ज्यांनी राष्ट्र सेवेचे व्रत स्वीकारले असेल. प्रजाजनांनीदेखील वर्णाश्रमाच्या मर्यादित राहून कर्म परायण असायला पाहिजे. प्रजेने स्वेच्छेने राजाला निर्धारित कर दिला पाहिजे आणि राजाने ते कराद्वारे प्राप्त धनाचा उपयोग राष्ट्रहिताच्या कामांसाठी केला पाहिजे. ।। ६।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। ६।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (இந்திரனே!) எக்காரணத்தால் அவனை கிரகத்தினின்று வீழ்த்தி விரதமற்றவனை தண்டனை செய்கிறாயோ, தூரத்திலாக்குகிறாயோ அக்காரணத்தால்
    பலர்களால் விரும்பப்படும் எங்கள் சோமனை (அதிகமாய் அபிவிருத்தி) செய்யவும்.

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