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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 3
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
316
अ꣣ग्निं꣢ दू꣣तं꣡ वृ꣢णीमहे꣣ हो꣡ता꣢रं वि꣣श्व꣡वे꣢दसम् । अ꣣स्य꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सु꣣क्र꣡तु꣢म् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । दू꣣त꣢म् । वृ꣣णीमहे । हो꣡ता꣢꣯रम् । वि꣣श्व꣡वे꣢दसम् । वि꣣श्व꣢ । वे꣣दसम् । अस्य꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । सु꣣क्र꣡तु꣢म् । सु꣣ । क्र꣡तु꣢꣯म् ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । दूतम् । वृणीमहे । होतारम् । विश्ववेदसम् । विश्व । वेदसम् । अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् । सु । क्रतुम् ॥३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 3
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
वह परमेश्वर हमारे द्वारा दूतरूप में वरण करने योग्य है, यह कहते हैं।
पदार्थ
हम (होतारम्) दिव्य गुणों का आह्वान करनेवाले, (विश्ववेदसम्) विश्व के ज्ञाता, विश्व-भर में विद्यमान तथा सब आध्यात्मिक एवं भौतिक धन के स्रोत, (अस्य) इस अनुष्ठान किये जा रहे (यज्ञस्य) अध्यात्म-यज्ञ के (सुक्रतुम्) सुकर्ता, सुसंचालक ऋत्विग्रूप (अग्निम्) परमात्मा को (दूतं वृणीमहे) दिव्य गुणों के अवतरण में दूतरूप से वरते हैं ॥३॥
भावार्थ
जैसे दूतरूप में वरा हुआ कोई जन हमारे सन्देश को प्रियजन के समीप ले जाकर और प्रियजन के सन्देश को हमारे पास पहुँचाकर उसके साथ हमारा मिलन करा देता है, वैसे ही सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, न्याय, विद्या, श्रद्धा, सुमति इत्यादि दिव्य गुणों के और हमारे बीच में दूत बनकर परमात्मा हमारे पास दिव्य गुणों को बुलाकर लाता है, इसलिए सब उपासकों को उसे दूतरूप में वरण करना चाहिए ॥३॥
पदार्थ
(अस्य यज्ञस्य) इस अध्यात्म यज्ञ के (होतारम्) सम्पादनकर्ता (दूतम्) अपने दिव्य गुणों के सन्देश के वाहक तथा प्रेरक “दूतो देवानामसि” [निरु॰ ५.१] “दु गतौ” [भ्वादि॰] (विश्ववेदसम्) समस्त ऐश्वर्य वाले “वेदस्—धननाम” [निघं॰ २.१०] (सुक्रतुम्) सुप्रज्ञान वाले तथा सुप्रज्ञा के हेतुरूप सुकर्मा होते हुए “क्रतुः प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.९] “क्रतुः कर्मनाम” [निघं॰ २.१] (अग्निम्) परमात्मा को (वृणीमहे) वरता हूँ “अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा॰ १.२.५९]।
भावार्थ
परमात्मन्! तू मेरे अध्यात्मयज्ञ का होता—सम्पादनकर्ता ही नहीं अपितु अपने दिव्यगुणों—सृष्टिकर्तृत्व कर्मफलदातृत्व नियन्तृत्व आदि का सन्देशवाहक भी है। प्रिय! ‘पत्ती-पत्ती तुझे दर्शा रही है, वसन्त तेरी याद दिला रही है, फूलकली तेरा राग सुना रही है, चन्द्र तारों की चाल तुझे बता रही है, विविध देह तेरा कर्मफलदातृत्व दर्शा रही है।’ साथ में तू प्रेरक भी है मेरे जीवन का उत्कर्षक है—मुमुक्षुओं का मार्ग दर्शक है, शोभन प्रज्ञानवान् तथा शोभन प्रज्ञाप्रद शोभन कर्मकुशल तू मेरे अध्यात्म यज्ञ को प्रवृद्ध कर, समस्त सुख-सम्पत्ति वाले हमें समस्त सुखसम्पत्ति का प्रसाद दे, तुझे मैं वरता हूँ॥३॥
टिप्पणी
[*2.“कण्वो मेधावी” (निघं॰ ३.१५) “कण शब्दार्थः” (भ्वादि॰) वक्ता। “कण धातोः क्वन्” (उणादि॰ १.१५१)॥]
विशेष
ऋषिः—काण्वो मेधातिथिः (मननशील मेधावी वक्ता का शिष्य परमात्मा में मेधा से अतनशील प्रवेशशील उपासक*2)॥<br>
विषय
तपस्या की अग्नि में भक्त
पदार्थ
१. हम तो (अग्निम्) =उस अग्र-स्थान के प्रापक प्रभु को (वृणीमहे) वरते हैं। जीव के सामने यह चुनाव है कि 'प्रकृति को वर ले या प्रभु को ।' प्रकृति 'प्रेय-मार्ग' का प्रतीक है, प्रभु ‘श्रेय-मार्ग' का । मन्दमति प्रेय-मार्ग का ही वरण करता है, उसकी हरियावल उसे मनोहर प्रतीत होती है, उसकी मधुरता से वह छला जाता है, परन्तु वह प्रभु तो (दूतम्) - उपतापक हैं [दु उपतापे], अपने भक्तों को तपस्या की अग्नि में तपाकर 'काञ्चन'- सोना बनाना चाहते हैं, (होतारम्)=परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर सब सम्पत्तियों के देनेवाले वही हैं [हु दाने], (विश्ववेदसम्)=वही सब सम्पत्तियों के ईश हैं। प्रकृति भी तो प्रभु की ही है। प्रभु के मिलने पर प्रकृति तो मिल ही जाती है।
२. प्रभु का वरण ही ठीक है, वे प्रभु (अस्य)- इस भक्त के (यज्ञस्य) = जीवनयज्ञ के (सुक्रतुम्)=उत्तम कर्त्ता होते हैं। हमारी जीवन-यात्रा को वे ठीक-ठाक ले-चलते हैं। हम अपने शरीर-रथ का चालक उस प्रभु को ही बनाएँ।
यदि हम प्रकृति के विलासों की ओर न जाकर प्रभु की प्रेरणा के अनुसार जीवन-यापन करेंगे तो इस बुद्धि-मार्ग को अपनाने के कारण इस मन्त्र के ऋषि ‘मेधातिथि' बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ-वे प्रभु तपस्या से परिपक्व हुए भक्त को सब इष्ट- सुख प्राप्त कराते हैं, और उसकी जीवन-यात्रा को सुन्दर प्रकार से पूर्ण करते हैं।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( विश्ववेदसम् ) = सब को जाननेवाले ज्ञानस्वरूप ज्ञान के दाता ( होतारम् ) = व्यापकता से सबके ग्रहण करनेवाले ( दूतम् ) = कर्मों का फल पहुंचानेवाले ( अस्य यज्ञस्य ) = इस ज्ञान यज्ञ के ( सुक्रतुम् ) = सुधारनेवाले ( अग्निं वृणीमहे ) = ऐसे ज्ञानस्वरूप परमात्मा को हम सेवक जन स्वीकार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = आप ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ही वेदों द्वारा सबके ज्ञानप्रदाता हैं। सबके कर्मों के यथायोग्य फलदाता भी आप हैं, सब जगह व्यापक होने से, सब ब्रह्माण्डों को आप ही धारण कर रहे हैं। आप ही हमारी भक्ति उपासना के श्रेष्ठ फल देनेवाले हैं, आप इतने बड़े अनन्त श्रेष्ठ गुणों के धाम और पतित पावन परमदयालु सर्वशक्तिमान् हैं तो हमें भी योग्य है कि सारी मायिक प्रवृत्तियों से उपराम हो, आपकी ही शरण में आएँ, आपको ही अपना इष्ट देव परम पूजनीय समझ निशि-दिन आपके ध्यान और आपकी आज्ञापालन में तत्पर रहें ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हम ( विश्ववेदसम् १ ) = सर्वज्ञानी, सर्वधनी, सर्वेश्वर, ( होतारम् ) = होता, सर्वप्रद, ( अस्य ) = इस ( यज्ञस्य ) = यज्ञ, ब्रह्माण्ड के ( सुक्रतुम् २ ) = सुक्रतु, उत्तम कर्त्ता, विधाता और ज्ञाता ( अग्निम् ) = अग्नि को ( दूतं ३ ) = दूत अर्थात् उपास्यरूप से ( वृणीमहे ) = वरण करते हैं । इस प्रकार बहुत उत्तम विद्वान् को भी कार्यसाधक दूत रूप से वरण करना चाहिये ।
टिप्पणी
१. वेदस्, वेत्तेरसुन् औणादि: । विद् ज्ञाने । वेदो धनं । नि० ३ । २ । १० ॥
२. क्रतु: कर्मनाम । नि० २ । १ । प्रज्ञानाम च । नि० ३ |९
३. दूतं । दवतेरौणादिकः क्तः । दुनोति गच्छति उपतपति वा स दूतः, बहुकार्यसाधको राजभृत्यो वा । द .उ .।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
छन्दः - गायत्री
संस्कृत (1)
विषयः
स परमात्माऽस्माभिर्दूतत्वेन वरणीय इत्याह।
पदार्थः
वयम् (होतारम्) दिव्यगुणानाम् आह्वातारम्। होतारं ह्वातारम् इति निरुक्तम् ७।१५। अत्र ह्वेञ् धातोस्तृन्, बहुलं छन्दसि अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणम्। (विश्ववेदसम्) विश्वं वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः सर्वज्ञः, यद्वा विश्वस्मिन् विद्यते यः स विश्ववेदाः सर्वव्यापकः, यद्वा विश्वं वेदः आध्यात्मिकं भौतिकं च धनं यस्मात् स विश्ववेदाः, तम्। विद जाने। विद सत्तायाम्। वेद इति धननाम। निघं० २।१०। किञ्च, (अस्य) एतस्य अनुष्ठीयमानस्य (यज्ञस्य) अध्यात्मयागस्य (सुक्रतुम्) सुकर्माणं, सुसञ्चालकम् ऋत्विग्रूपम्। क्रतुरिति कर्मनाम। निघं० २।१। अत्र सोरुत्तरः क्रतुशब्दः क्रत्वादयश्च अ० ६।२।११८ इत्याद्युदात्तः। (अग्निम्) परमात्मानम् (दूतं वृणीमहे) दिव्यगुणावतारे दूतत्वेन स्वीकुर्मः ॥३॥
भावार्थः
यथा हि दूतत्वेन वृतः कश्चिज्जनोऽस्माकं सन्देशं प्रियजनसमीपं नीत्वा, प्रियजनस्य च सन्देशमस्मान् प्रति प्रापय्य तेनास्माकं समागमं कारयति, तथैव सत्याहिंसास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहन्यायविद्याश्रद्धासुमतीत्यादि-दिव्यगुणगणानामस्माकं च मध्ये दौत्यं विधाय परमात्माऽस्मान् प्रति दिव्यगुणानाह्वयतीत्यसौ सर्वैरेवोपासकैर्दूतत्वेन वरणीयः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।१२।१। साम० ७९०। अथर्व० २०।१०१।१
इंग्लिश (4)
Meaning
We accept God, the Revealer of the Vedas, as Worshipful, All-knowing, All-Giving, and Maker of the Universe.
Meaning
We choose Agni visible and invisible, it with faith and holy action, Agni which is the protector of the people, carrier of yajnic fragrance, and favourite of the wise. (Rg. 1-12-1)
Translation
We choose God as Messenger
Of the Truth lasting for ever.
He is Omniscient giver
Of true happiness and of succour.
Of this Universe, He is Creator
Of this Sacrifice, He is performer.
Comments
यज्ञस्य-संगतस्य संसारस्य यज-देवपूजा संगतिकरणदानेषु
Translation
We accept adorable God as the messenger of all virtues, presiding over our sacred performances, and the source of all inspirations. We adore Him while we acclaim Him as the perfecter of benevolent deeds. (Cf. S. 790; Rv I.42.)
उर्दू (1)
Mazmoon
پاپیوں کا دَنڈ داتا
Lafzi Maana
(اگنِم) جگت کے سوامی پرم آتما کو (ورنی مہہے) ہم ورن کرتے ہیں، سویکار کرتے ہیں۔ جو (دُوتم) سب جگہ موجود ہونے۔ اپنے کرم پھل ودھان اور وِشو پر کنٹرول کرنے کی شکتی کا سندیش پل پل میں دے رہا ہے۔ تتھا پاپیوں کا دَنڈ داتا ہونے سے ہماری بُرائیوں کا ناش کرتا ہے۔ (وِشو وید سم) سب کُچھ جاننے ہارا، ویدوں کے دوارہ گیان دے کر (اسسیّہ یگییہ) اِس سنسار کا یگیہ (سُوکرُتم) اُتم پرکار سے سنچالن کر رہا ہے۔
Tashree
جگدیشور ہی وید گیان سے سب کا گیان گورو ہے۔ سب کے کرموں کا پھل دینے والا۔ سب جگہ حاضر ناظر، سب کو اپنی پکڑ میں رکھنے والا اور دھارن کرتا ہے۔ اور ہمارے دوارہ کی ہوئی اُپاسنا کے سُندر پھل کا سمپادک بھی وہی ہے۔ اُس کی ہی ہم بھگتی کریں۔ یہ ہے منتر کی شکھشا۔
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अस्य यज्ञस्य)આ અધ્યાત્મ યજ્ઞના (होतारम्) સંપાદક (दूतम्) પોતાના દિવ્ય ગુણોના સંદેશવાહક તથા પ્રેરક (विश्ववेदसम्) સમસ્ત ઐશ્વર્યવાન્ (सुक्रतुम्) શ્રેષ્ઠ પ્રજ્ઞાનયુક્ત તથા ઉત્તમ પ્રજ્ઞા-બુદ્ધિને માટે શ્રેષ્ઠ કર્મ કરતા (अग्निम्) પરમાત્માનું (वृणीमहे) વરણ કરું છું. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું માત્ર મારા અધ્યાત્મ યજ્ઞનો હોતા-સંપાદક જ નહિ, પરંતુ પોતાના દિવ્યગુણો-સૃષ્ટિકર્તા, કર્મફળદાતા, નિયંતા આદિનો સંદેશવાહક પણ છે.
હે પ્રિય ! “પત્ર-પત્ર તને દર્શાવી રહ્યાં છે, વસંત તારી યાદ આપી રહી છે, ફૂલ અને કળીઓ તારા ગીત ગાઈ રહી છે. ચંદ્ર અને તારાઓની ગતિ તને જણાવી રહી છે. વિવિધ શરીરો તારા કર્મફળદાતાના દર્શન કરાવી રહ્યાં છે."
હે પરમેશ્વર ! એ જ રીતે તું પ્રેરક પણ છે, મારા જીવનનો ઉત્કર્ષક-મુમુક્ષુઓ અર્થાત્ મોક્ષના ઇચ્છુકોનો માર્ગદર્શક છે, શ્રેષ્ઠ પ્રજ્ઞાનવાન, ઉત્તમ પ્રજ્ઞાપ્રદ અને સર્વોત્તમ કર્મકુશળ છે; તું મારા અધ્યાત્મ યજ્ઞની અત્યંત વૃદ્ધિ કર. હે સમસ્ત સુખ-સંપત્તિવાન્ ! અમને સમસ્ત સુખ-સંપત્તિનો પ્રસાદ પ્રદાન કર. હું તારું વરણ-સ્થાપન કરું છું. (૩)
बंगाली (1)
পদার্থ
অগ্নিং দূতং বৃণীমহে, হোতারং বিশ্ববেদসম্ ।
অস্য যজ্ঞস্য সুক্রতুম্।।২।।
(সাম ৩)
পদার্থঃ (বিশ্ববেদসম্) সর্বজ্ঞ, জ্ঞানস্বরূপ, জ্ঞানপ্রদাতা, (হোতারম্) ব্যাপকতা দ্বারা সবার ধারণকর্তা, (দূতম্) কর্মের ফল প্রেরণকারী, (অস্য যজ্ঞস্য) এই জ্ঞান যজ্ঞের (সুক্রতুম্) সংশোধক, (অগ্নিম্ বৃণীমহে) সেই জ্ঞানস্বরূপ পরমাত্মাকে আমরা সেবকগণ স্বীকার করছি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ তুমিই সেই জ্ঞানস্বরূপ পরমেশ্বর, তুমি বিদ্যা দ্বারা সবাইকে জ্ঞান প্রদান করো। সবার কর্মের যথাযোগ্য ফলদাতাও তুমি। সমস্ত স্থানে ব্যাপ্ত হয়ে সম্পূর্ণ বিশ্বব্রহ্মাণ্ডকে তুমিই ধারণ করে আছ। তুমিই আমাদের ভক্তি, উপাসনার শ্রেষ্ঠ ফল প্রদানকারী। তুমি উত্তম, অনন্ত, শ্রেষ্ঠ গুণসমূহের আধার এবং পতিত পাবন, পরমদয়ালু, সর্বশক্তিমান। সুতরাং আমাদের কর্তব্য হচ্ছে সকল প্রকার দুষ্ট প্রবৃত্তিকে ত্যাগ করে তোমার শরণে এসে একমাত্র তোমাকেই নিজের ইষ্টদেব, পরম পূজনীয় মেনে নিশিদিন তোমার ধ্যানে নিযুক্ত থাকা এবং তোমার বেদাজ্ঞা পালনে তৎপর থাকা।।২।।
मराठी (2)
भावार्थ
जसा एखादा माणूस दूतरूपाने आमचा संदेश प्रियजनांकडे घेऊन जातो व प्रियजनांचा संदेश आम्हाला पोचवून आमचे मिलन घडवून आणतो. तसेच सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, न्याय, विद्या, श्रद्धा, सुमती इत्यादी दिव्य गुण परमात्मा दूत बनून आमच्याकडे आणतो. त्यासाठी सर्व उपासकांनी दूतरूपाने त्याचे वरण केले पाहिजे ॥३॥
विषय
त्या परमेश्वराला आम्ही दूतरूपाने वरणीय मानतो, हे सांगतात :
शब्दार्थ
आम्ही (उपासक) (होतारम्) दिव्य गुणांचे आव्हान करणाऱ्या (विश्ववेदसम्) विश्वज्ञाता, समस्त विश्वास विद्यामान आणि सर्व आध्यात्मिक व भौतिक धनाचा स्रोत जो परमात्मा, त्याला (अस्य) या अनुष्ठानित वा प्रारंभित ( यज्ञस्य) अध्यात्म यज्ञाच्या (सुक्रतुम्) सुकर्ता, सुसंचालक आणि ऋत्विजरूप असलेल्या (अग्निम) परमात्म्याला (दूतं वृणीमहे) दिव्य गुणांच्या अवतरणासाठी (आमच्या हृदय व आचरणात सद्गुणांचा स्वीकार करण्यासाठी) दूत रूपाने स्वीकार करीत आहोत. ।।३।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे दूत म्हणून नेमलेला माणूस आमचा संदेश आमच्या प्रियजनापर्यंत पोहोचवतो आणि त्याचा निरोप आम्हास येऊन सांगतो व अशाप्रकारे दोघांचे संमिलन घडवून आणतो, त्याप्रमाणे परमेश्वर आमच्या आणि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, न्याय, विद्या, श्रद्धा, सुमति आदी गुणांचे संमिलन घडविण्यास दूतरूपेण कार्य करतो. वरील दिव्य गुणांना बोलावून त्यांच्याशी आमची भेट घडवितो. त्यामुळे सर्व उपसकांनी त्याचेच दूतरूपाने वरण करावे. ।।३।।
तमिल (1)
Word Meaning
ஹோதாவாய் சகல ஐசுவரியமுள்ளவனாய் இந்த (யக்ஞத்தின்) சர்வ கர்த்தாவுமான [1] தூதனான (அக்னியை) அழைக்கிறேன்.
FootNotes
[1] தூதனான - எங்கும் செல்லுபவனான
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