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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
257
अ꣣ग्नि꣢र्वृ꣣त्रा꣡णि꣢ जङ्घनद्द्रविण꣣स्यु꣡र्वि꣢प꣣न्य꣡या꣢ । स꣡मि꣢द्धः शु꣣क्र꣡ आहु꣢꣯तः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्निः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । ज꣣ङ्घनत् । द्रविणस्युः꣢ । वि꣣पन्य꣡या꣢ । स꣡मि꣢꣯द्धः । सम् । इ꣣द्धः । शुक्रः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तः । आ । हु꣣तः ॥४॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः । वृत्राणि । जङ्घनत् । द्रविणस्युः । विपन्यया । समिद्धः । सम् । इद्धः । शुक्रः । आहुतः । आ । हुतः ॥४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 4
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
वरण किया हुआ परमात्मा पापों को सर्वथा नष्ट कर दे, यह प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
(द्रविणस्युः) उपासकों को आध्यात्मिक धन और बल देने का अभिलाषी (अग्निः) तेजोमय परमात्मा (विपन्यया) विशेष स्तुति से (समिद्धः) संदीप्त, (शुक्रः) प्रज्वलित और (आहुतः) उपासकों की आत्माहुति से परिपूजित होकर (वृत्राणि) अध्यात्म-प्रकाश के आच्छादक पापों को (जङ्घनत्) अतिशय पुनः-पुनः नष्ट कर दे ॥४॥ श्लेष से यज्ञाग्नि-पक्ष में भी इस मन्त्र की अर्थ-योजना करनी चाहिए ॥४॥
भावार्थ
याज्ञिक जनों द्वारा हवियों से आहुत प्रदीप्त यज्ञाग्नि जैसे रोग आदिकों को निःशेषरूप से विनष्ट कर देता है, वैसे ही परमात्मा-रूप अग्नि योगाभ्यासी जनों के द्वारा हार्दिक स्तुति से बार-बार संदीप्त तथा प्राण, इन्द्रिय, आत्मा, मन, बुद्धि आदि की हवियों से आहुत होकर उनके पाप-विचारों को सर्वथा निर्मूल कर देता है ॥४॥
पदार्थ
(अग्निः) ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा (विपन्यया) हमारे द्वारा की गई विशिष्ट स्तुति—ध्यानोपासना से (समिद्धः शुक्रः-आहुतः) प्रदीप्त किया हुआ, प्रकाशस्वरूप में आया हुआ, भली-भाँति हृदय में बिठाया हुआ—अपनाया हुआ (द्रविणस्युः) हमारे लिये ज्ञानसुखैश्वर्य चाहने वाला “छन्दसि परेच्छायां चेति वक्तव्यम्, क्यच्” (वृत्राणि जङ्घनत्) ज्ञानसुखैश्वर्य के आवरकों—प्रतिबन्धकों अज्ञान रोग दुःखदारिद्र्य को भली प्रकार नष्ट करता है।
भावार्थ
मानव जब परमात्मदेव की विशेष स्तुति-ध्यानोपासना करता है तो मानव के अन्दर परमात्मा प्रकाशित होकर अज्ञान आदि बाधकों को भली-भाँति विनष्ट करके उपासक के ज्ञानसुखैश्वर्य को चाहता है—पूरा करता है अपितु बिना माँगे ही सब कामनाएँ पूरी हो जाया करती हैं। सचमुच मनुष्य व्यर्थ चाहना को बढ़ा-बढ़ा कर अपने को अशान्त कर बैठता है। यदि एक परमात्मा की ही चाह रखे तो अन्य चाह के उठने का प्रसङ्ग ही न रहे, चाहनाओं के स्वामी के पा लेने से सम्पत्तिमान् को अपनाने का लाभ सम्पत्तिभागी बनना ही है॥४॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चन बल को धारण करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
काम-संहार
पदार्थ
मनुष्य की यह विवशता है कि वह चाहता हुआ भी काम-क्रोधादि वासनाओं को विनष्ट नहीं कर पाता। ये वासनाएँ अत्यन्त प्रबल हैं। ये मनुष्य की समझ पर परदा डाले रहती हैं और उसे अपना शिकार बना लेती हैं। इसलिए इस वासना को ‘वृत्र' कहते हैं। इस वृत्र को वह (अग्निः) = प्रभु ही (जंघनत्)=नष्ट करता है। परमेश्वर का स्मरण ही एकमात्र उपाय है जिससे वासनाओं का संहार होता है, परन्तु वह अग्नि (द्रविणस्युः)= द्रविण को चाहता है। यदि मनुष्य अपने पास धन का संचय किये रक्खे और यह चाहे कि प्रभु उसकी वासनाओं को विनष्ट कर दें तो यह नहीं हो सकता। वस्तुतः (विपन्यया) = विशिष्ट स्तुति के द्वारा ही हम यह कार्य प्रभु से करा पाते हैं। उस प्रभु की विशिष्ट स्तुति यही है कि हम उसी से प्रीति करें, हमें धन से प्रीति न हो। प्रभु की यही 'ऐकान्तिकी भक्ति' है। प्रभु और धन दोनों की उपासना युगपत् सम्भव नहीं है, अतः हम धन उस प्रभु को अर्पित कर दें और तब हमारी इस विशिष्ट स्तुति से वे प्रभु हमारे लिए वृत्रों का संहार करेंगे ।
प्रभु की प्राप्ति का क्रम यह होता है कि हम उसे अपने हृदयों में (समिद्धः) = दीप्त करते हैं। प्रकृति के सौन्दर्य, व्यवस्था आदि से उसका आभास [दीप्ति] हमारे हृदयों में होता है। तब हम उसकी ओर चलते हैं। वह हमसे (शुक्रः) = जाया जाता है [शुक् गतौ] और अन्त में उसकी ओर चलते-चलते हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, वह (आहुत:)= हमसे समर्पित होता है। हम उसके प्रति आत्मसमर्पण करते हैं। किसी भी वस्तु की प्राप्ति का क्रम 'ज्ञान, गमन और प्राप्ति' ही है।
हमने प्रभु के प्रति अपना अर्पण किया, उसने हमें 'वृत्रविनाशरूप' कार्य के लिए शक्ति-सम्पन्न बनाया और हम इस मन्त्र के ऋषि ‘भरद्वाज कहलाये।
भावार्थ
अनन्य भक्ति, स्तुति के अनुरूप व्यवहार से आराधित प्रभु जीव की वासनाओं का विनाश करते हैं ।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( विपन्यया ) = स्तुति से ( द्रविणस्युः ) = अपने प्यारे उपासकों के लिए आत्मिक बल रूप धन को चाहनेवाला ( समिद्धः ) = विज्ञात हुआ ( शुक्र: ) = ज्ञान और बलवाला तथा ज्ञान और बल का दाता ( आहुत: ) = अच्छे प्रकार से भक्ति किया हुआ ( अग्निः ) = ज्ञानस्वरूप ईश्वर ( वृत्राणि ) = अविद्यादि अन्धकार दुःखों और दुःख साधनों को ( जङ्घनत् ) = हनन करे ।
भावार्थ
भावार्थ = हे जगत्पते ! आपकी प्रेम से स्तुति प्रार्थना उपासना करनेवालों को आप आत्मिक बल देते हैं, जिससे आपके प्यारे उपासक भक्त,अविद्यादि पञ्च क्लेश और सब प्रकार के दुःख और दुःख साधनों को दूर करते हुए, सादा आपके ब्रह्मानन्द में मग्न रहते हैं। कृपासिन्धो भगवन्! हम पर ऐसी कृपा करो कि हम भी आपके ध्यान में मग्न हुए, अविद्यादि सब क्लेशों और उनके कार्य दुःखों और दुःख-साधनों को दूर कर, आपके स्वरूपभूत ब्रह्मानन्द को प्राप्त होवें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( विपन्यया ) = विशेष स्तुति द्वारा ( द्रविणस्यु:१ ) = उपासकों के द्रव्य, बल और भक्तिभाव को स्वीकार करने वाला 'अग्नि', परमेश्वर ( समिद्धः) = चमकता हुआ, ( शुक्रः ) = शुद्ध, कान्तिमान् ( आहुतः ) = भली प्रकार से स्तुति किया या स्मरण किया हुआ ( वृत्राणि २ ) = आत्मा को घेरने वाले पापों को, विघ्नों को और अन्धकारों को ( जंघनद् ) = नाश करे |
टिप्पणी
१. छन्दसि परेच्छायां क्यच् । द्रविणमिति बलनाम ( नि० २ । ९ ) धननाम पदनाम च ( नि० २ । १० )
२. रक्षः प्रभृतीनि, तमांसि वा । सा० । शत्रुकुलानि । मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
छन्दः - गायत्री
संस्कृत (1)
विषयः
वृतः परमात्मा पापानि भृशं हन्यादिति प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(द्रविणस्युः) उपासकानां द्रविणः आध्यात्मिकं धनं बलं वा कामयमानः। द्रविणम् इति धननामसु बलनामसु च पठितम्। निघं० २।१०, २।९। एष शब्दः सकारान्तोऽपि वेदे प्रयुज्यते, यथा द्रविणोदाः इत्यत्र। द्रविणः परेषां कामयते इति द्रविणस्युः। छन्दसि परेच्छायामिति वक्तव्यम्। अ० ३।१।८ वा० इति परेच्छायां क्यच्। ‘क्याच्छन्दसि अ० ३।२।१७० इत्युप्रत्ययः। दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। अ० ७।४।३६ इति सकारस्य रुत्वाभावो निपात्यते।३ (अग्निः) तेजोमयः परमात्मा (विपन्यया) विशेषस्तुत्या। पनतिरर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। पण व्यवहारे स्तुतौ च। (समिद्धः) संदीप्तः, शुक्रः ज्वलितः। शोचतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६। (आहुतः) उपासकानाम् आत्माहुत्या परिपूजितः सन् (वृत्राणि) अध्यात्मप्रकाशाच्छादकानि पापानि। पाप्मा वै वृत्रः। श० ११।१।५।७। (जङ्घनत्) भृशं पुनः पुनर्हन्यात्। यङ्लुगन्ताद् हन्तेः लिङर्थे लेट् ॥४॥ श्लेषेण मन्त्रोऽयं यज्ञाग्निपक्षेऽपि योजनीयः ॥४॥
भावार्थः
याज्ञिकैर्जनैर्हविर्भिराहुतः समिद्धो यज्ञाग्निर्यथा रोगादीन् नितरां विनाशयति तथा परमात्माग्निर्योगाभ्यासिभिर्जनैर्हार्दिकस्तुत्या हृदये भूयो भूयः संदीपितः प्राणेन्द्रियात्ममनोबुद्ध्यादिहविर्भिराहुतः संस्तेषां पापविचारान् सर्वथा निर्मूलयति ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋग्वेदेऽयं मन्त्रो दयानन्दर्षिणा कलायन्त्राणां प्रेरणहेतुर्यानेषु वेगादिक्रियानिमित्तं यो भौतिकोऽग्निस्तत्पक्षे व्याख्यातः। २. ऋ० ६।१६।३४। य० ३३।९। साम० १३९६। दयानन्दर्षिणा अग्नि शब्दाद् ऋग्वेदे विद्युद्रूपोऽग्निः, यजुर्वेदे च सूर्यादिरूपोऽग्निर्गृहीतः। ३. द्रविणशब्दस्य, द्रविणस्भावो निपात्यते इति काशिकावृत्तिः। सायणोऽप्यत्र क्यचि सुगागम इत्याह। द्रविणं धनं, स्यु प्रत्ययो मतुबर्थे, द्रविणवानित्यर्थः। अथवा द्रविणं हविर्लक्षणं धनम् तदिच्छुः द्रविणस्युः हविष्काम इत्यर्थः इति विवरणकारः। द्रविणः धनम्, हविर्लक्षणं धनं कामयमानः। ....द्रविणः शब्दः सकारान्तश्च विद्यते इति भरतस्वामी। द्रविणस्युः द्रविणो धनमिच्छति द्रविणस्यति...हविर्लक्षणं धनमिच्छन् इति य० ३३।९ भाष्ये महीधरः। द्रविणस्युः आत्मनो द्रविण इच्छुः’ इति ऋ० ६।१६।३४ भाष्ये दयानन्दः। एवं भरतस्वामिमहीधरदयानन्दाः सकारान्तत्वेनैव व्याचख्युः।
इंग्लिश (4)
Meaning
May God, the Accepter of the devotion of the learned devotees through prayer, Bright, Pure, worshipped duly, remove the sins that surround the soul.
Meaning
Agni, leading light and ruler of the world, bright, pure and purifying, invoked, invited and lighted in the seat of yajna, keen on wealth, honour and excellence with self-approbation and public exaltation, should destroy the evils and endeavour to raise the power and prosperity of the human nation. (Rg. 6-16-34)
Translation
God destroys all our evils
When earnestly prayed.
All our ignorance He kills
When by His light are we swayed
Comments
पाप्मावैवत्रः (शत० ११.१.५.७) यदवृणोत् तद्वृत्रस्य वृत्रत्वम् (शत०) वृत्रम-अज्ञानादिकमावरकम्
Translation
May radiant, adorable Lord, glorified by virtuous, actions of devotees, propitiated by praise, and served with dedication, destroy all adversaries. (Cf. S. 396; Rv VI.6.34)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्निः) શાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મા ! તું (विपन्यया) અમારા દ્વારા કરવામાં આવેલી વિશેષ સ્તુતિ-ધ્યાન, ઉપાસનાથી (समिद्धिः शुक्रः - आहुतः) પ્રદીપ્ત કરેલ, પ્રકાશ સ્વરૂપમાં આવેલ, સમ્યક્ રૂપે હૃદયમાં બેસાડેલ-અપનાવેલ (द्रविणस्युः) અમારા માટે જ્ઞાન-સુખ ઐશ્વર્ય ઇચ્છનાર (वृत्राणि जङ्घनद्) જ્ઞાન-સુખ ઐશ્વર્યનાં આવરણો-પ્રતિબંધકો અજ્ઞાન, રોગ, દુઃખ અને દરિદ્રતાનો સારી રીતે નાશ કરે છે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જ્યારે મનુષ્ય પરમાત્મા દેવની વિશેષ સ્તુતિ-ધ્યાન, ઉપાસના આદિ કરે છે, ત્યારે મનુષ્યની અંદર પરમાત્મા પ્રકાશિત થઈને અજ્ઞાન આદિ બાધકોનો-વિઘ્નોનો સંપૂર્ણ વિનાશ કરે છે અને ઉપાસકની જ્ઞાન, સુખ, ઐશ્વર્યની ઇચ્છાને પૂરી કરે છે. જે માગ્યા વિના જ સર્વ કામનાઓ પૂરી કરે છે. વાસ્તવમાં મનુષ્ય વ્યર્થ ઇચ્છાઓની વૃદ્ધિ કરીને પોતાને અશાન્ત કરે છે.
જો મનુષ્ય એક પરમાત્મામાં પ્રીતિ રાખે તો અન્ય [ધન આદિની]કામના ઉત્પન્ન થવાનો પ્રસંગ જ પેદા થતો નથી. કામનાઓને-પૂર્ણ કરનાર સ્વામીને પ્રાપ્ત કરવાથી સંપત્તિમાનને અપનાવવાનો લાભ સંપત્તિભાગી બનવાનો જ છે. [અનન્ય ભક્તિ, સ્તુતિને અનુરૂપ વ્યવહારથી આરાધિત પ્રભુ મનુષ્યની કામના પૂર્ણ કરે છે.] (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
کب ہوتے ہیں اس کے درشن
Lafzi Maana
(اگنی) جگت کا نیتا پرمیشور (وِرترانی) اُپاسک (عابد) کی آتما پر غلبہ کئے ہوئے کام آدی بُرائیوں، اٰودِیا جہالت کے اندھکاروں، اگیانوں اور دُکھوں کا ناش کر دیتا ہے۔ (در وِنسیُو) سمپورن دھنوں کا وہ سوامی بھگتوں کے آتم بل اور گیان ایشوریہ بل کو چاہنے والا (وِپنیہ یا) وِشیش) خصوصی) اُپاسنا (عبادت) ارھات بھگتی پورن حمد و ثنا، یوگ سمادھی اور اُتم دیوہاروں دوارہ (سمِد دّھا) اُپاسک کی آتما میں منّور ہونا ہے۔ وہ (شُکر) اننت وِیر وان، بلوان اور طاقت بخش شدُھ سورُوپ (آہُوتا) اُپاسک کے آتم سمرپن (خدا کے حضور میں اپنے سپردگی کر دینی) کو سویکار (منظور) کر لیتا ہے۔
Tashree
دنیاوی انسان جب بھگوان کی عبادت حقیقت یعنی اننیہ بھگتی، پریم اور محبت میں سرشار ہو جاتا ہے، تو وہ خداوند کریم اُس کی آتما میں ظاہر ظہور رہ کر اُس کی تمام جہالت، بطالت، گناہوں یا پاپوں کا قلع قمع کر کے اُسے سب سُکھوں اور خوشحالیوں سے بھرپُور کر دیتے ہیں۔
बंगाली (1)
পদার্থ
অগ্নির্বৃত্রাণি জঙ্ঘনদ্ দ্রবিণস্যুর্বিপন্যয়া।
সমিদ্ধঃ শুক্র আহুতঃ।।৩।।
(সাম ৪)
পদার্থঃ (বিপন্যয়া) স্তুতির দ্বারা (দ্রবিণস্যুঃ) নিজের প্রিয় উপাসকদের জন্য আত্মিক বলরূপ ধনের অভিলাষী এবং (সমিদ্ধঃ) বিজ্ঞাত হয়ে (শুক্রঃ) জ্ঞান এবং বলের অধিকারী, তথা জ্ঞান ও বলের দাতা, (আহুতঃ) উত্তম প্রকারে ভক্তিকৃত (অগ্নিঃ) জ্ঞানস্বরূপ ঈশ্বর (বৃত্রাণি) অবিদ্যাদি অন্ধকার, দুঃখ এবং দুঃখের কারণকে (জঙ্ঘনৎ) হনন করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে জগৎপতি! তোমার প্রতি প্রেম দ্বারা স্তুতি, প্রার্থনা, উপাসনাকারীকে তুমি আত্মিক বল দান করে থাক, যার মাধ্যমে তোমার প্রিয় উপাসক ভক্ত অবিদ্যাসমূহ, সকল প্রকারের দুঃখ এবং দুঃখের কারণকে দূর করে সর্বদা তোমার ব্রহ্মানন্দে মগ্ন থাকে। হে কৃপাসিন্ধু ভগবান! আমাদের উপর এরূপ কৃপা করো যেন আমরাও তোমার ধ্যানে মগ্ন থেকে অবিদ্যাদি সব ক্লেশ ও ক্লেশের কারণে উৎপন্ন দুঃখ এবং দুঃখের কারণকে দূর করে তোমার ব্রহ্মানন্দকে প্রাপ্ত করতে পারি।।৩।।
मराठी (2)
भावार्थ
याज्ञिकांद्वारे हवीने आहुत केलेला प्रदीप्त यज्ञाग्नी जसे रोग इत्यादींना पूर्णरूपाने नष्ट करतो, तसेच परमात्मरूप अग्नी योगाभ्यासींकडून केलेल्या हार्दिक स्तुतीने वारंवार प्रज्वलित होऊन प्राण, इंद्रिये, आत्मा, मन, बुद्धी इत्यादींच्या हवींनी आहुत होऊन त्यांच्या पापविचारांना सर्वस्वी निर्मूल करतो. ॥४॥
विषय
पुढील मंत्रात प्रार्थना करतात की, त्या वरण केलेल्या परमेश्वराने आमची पापे सर्वथा नष्ट करावीत.
शब्दार्थ
(द्रविणस्यु:) उपासकांना आध्यात्मिक धन आणि बळ देण्याची इच्छा असणारा (अग्नि:) तो तेजोमय परमेश्वर (विपन्यया) विशेष स्तुतीद्वारे (समिद्धः) हृदयात संदीप्त होतो (शुक्रः) स्तुतीद्वारे प्रज्वलित आणि (आहुत:) उपासकांच्या आत्माहुतीद्वारे परिपूजित झालेल्या व परमेश्वराने (वृत्राणि) अध्यात्म प्रकाशाला आच्छादित करणाऱ्या पापांना (जङ्घनत) पुन्हा पुन्हा (जेव्हा जेव्हा ती पापे उद्भवतील, तेव्हा तेव्हा) ती नष्ट करावीत ( ही प्रार्थना ) ॥४॥
भावार्थ
याज्ञिकजनांद्वारे हवींची आहुती देऊन प्रदीप्त झालेला यज्ञाग्नी त्याप्रमाणे रोगादींचा नाश करतो, तसेच परमात्मरूप अग्नी योगाभ्यासीजनांद्वारे केल्या जाणाऱ्या हार्दिक स्तुतीमुळे संदीप्त होऊन तसेच योगीजनाच्या प्राण, इन्द्रिय, आत्मा, मन, बुद्धी आदींच्या हवीवा आहुती स्वीकारून त्यांच्या पापमय विचार सर्वथा समूळ नष्ट करतो. ॥४॥
विशेष
श्लेषद्वारे या मंत्राची हीच ज्ञाग्नीपरक अर्थ योजना करता येते.
तमिल (1)
Word Meaning
[1] (ஆகுதி) செய்யப்பட்டு மூட்டப்பட்டு [2] (வெண்மையாகி) துதிக்கப்படுபவனான [3]பொருள் விரும்பும் (அக்னி) சத்துருக்களை ஒழிக்கட்டும்.
FootNotes
[1] ஆகுதி - அழைக்கப்பட்டு [2] வெண்மையாகி- சுத்தமாயுள்ள [3] பொருள் விரும்பும் - புனிதம் விரும்பும்.
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