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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 39
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    27

    अ꣢ग्ने꣣ ज꣡रि꣢तर्वि꣣श्प꣡ति꣢स्तपा꣣नो꣡ दे꣢व र꣣क्ष꣡सः꣢ । अ꣡प्रो꣢षिवान्गृहपते म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि दि꣣व꣢स्पा꣣यु꣡र्दु꣢रोण꣣युः꣢ ॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡ग्ने꣢꣯ । ज꣡रि꣢꣯तः । वि꣣श्प꣡तिः꣢ । त꣣पानः꣢ । दे꣣व । रक्ष꣡सः꣢ । अ꣡प्रो꣢꣯षिवान् । अ । प्रो꣣षिवान् । गृहपते । गृह । पते । महा꣢न् । अ꣣सि । दि꣣वः꣢ । पा꣣युः꣢ । दु꣣रोणयुः꣢ । दुः꣣ । ओनयुः꣢ । ॥३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने जरितर्विश्पतिस्तपानो देव रक्षसः । अप्रोषिवान्गृहपते महाꣳ असि दिवस्पायुर्दुरोणयुः ॥३९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । जरितः । विश्पतिः । तपानः । देव । रक्षसः । अप्रोषिवान् । अ । प्रोषिवान् । गृहपते । गृह । पते । महान् । असि । दिवः । पायुः । दुरोणयुः । दुः । ओनयुः । ॥३९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 39
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर और राजा का महत्त्व वर्णित किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। हे (जरितः) सज्जनों के गुणों के प्रशंसक (अग्ने) परमात्मन् ! आप (विश्पतिः) प्रजापालक हो। हे (देव) ज्योतिर्मय ! आप (रक्षसः) राक्षसी वृत्तिवाले मनुष्यों के (तपानः) सन्तापक हो। हे (गृहपते) ब्रह्माण्डरूप गृह के स्वामिन्! (अप्रोषिवान्) ब्रह्माण्डरूप गृह से कभी प्रवास न करनेवाले, (दिवः पायुः) प्रकाशमान द्युलोक के अथवा प्रकाशमान जीवात्मा के रक्षक, (दुरोणयुः) सबको निवास गृह दिलाना चाहनेवाले आप (महान्) महान् (असि) हो ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (जरितः) परमेश्वर के स्तोता (अग्ने) राष्ट्रनायक राजन् ! आप (विश्पतिः) प्रजाओं के पालक हो। हे (देव) दानादि गुणों से देदीप्यमान राजन् ! आप (रक्षसः) दुष्ट शत्रुओं के (तपानः) सन्तापक हो। हे (गृहपते) राष्ट्र-गृह के स्वामिन् ! (अप्रोषिवान्) राष्ट्र से प्रवास न करनेवाले, (दिवः पायुः) विद्या आदि के प्रकाश के रक्षक, (दुरोणयुः) राष्ट्र-रूप घर की उन्नति चाहनेवाले आप (महान्) महान् (असि) हो ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर सज्जनों की रक्षा करता हुआ, दुर्जनों को दण्ड देता हुआ सबकी समुन्नति चाहता है, वैसे ही राजा भी प्रजाओं का पालन करता हुआ, दुष्टों का उन्मूलन करता हुआ राष्ट्र को उत्कर्ष की ओर ले जाए ॥५॥

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    पदार्थ

    (जरितः-गृहपते देव-अग्ने) “जरयितः-अन्तर्गतणिजर्थः” हे अपनी स्तुति की प्रेरणा देने वाले, मेरे हृदय सदनवासी स्वामी अन्तर्यामी परमात्मदेव! तू (रक्षसः-तपानः-विश्पतिः) जिससे रक्षा करनी चाहिए ऐसे काम क्रोध आदि पाप का तापित करने वाला प्रजापालक राजा के समान “लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” (दिवः पायुः-महान्-असि) अमृत लोक-मोक्ष धाम का “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [यजु॰ ३१.३] रक्षक है महान् है, परन्तु (दुरोणयुः-अप्रोषिवान्) मेरे हृदय घर को चाहता हुआ “दुरोणं गृहनाम” [निघं॰ ३.४] “छन्दसि परेच्छायां क्यच्” उससे प्रवास न करने वाला भी तू है।

    भावार्थ

    परमात्मन्! तू दोषों दुष्टविचारों से हमें बचाता है प्रजापालक राजा की भाँति रक्षा करता है, मेरे हृदय घर में आकर बसने वाला सच्चा साथी है, एक बार आकर त्यागता नहीं है। अपनी स्तुति की प्रेरणा देता है, मेरे कल्याणार्थ तथा मेरे लिये मोक्षधाम का रक्षक है॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—भरद्वाजः (अर्चन ज्ञान बल को धारण करने वाला उपासक)॥<br>

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    विषय

    न भटकनेवाला

    पदार्थ

    जीव परमात्मा की स्तुति करता है - हे प्रभो! आप (अग्ने) = आगे ले-चलनेवाले हैं, (जरित:) = पापों को जीर्ण करनेवाले हैं, (विश्पतिः) =  सब प्रजाओं के पालक हैं। हे (देव) = विजेतारूप में रक्षसः=राक्षसों के–आसुर भावनाओं के (तेपानः) = सन्तापक, नाशक हैं।

    जब जीव इस प्रकार प्रभु की आराधना करता है, तो प्रभु जीव से कहते हैं-हे (गृहपते)=अपने शरीररूप घर के रक्षक! (अप्रोषिवान्) = यदि तू अन्यत्र भटकता नहीं रहता, अर्थात् परालोचन ही नहीं करता रहता, अथवा यदि तेरी सारी शक्तियाँ धनादि बाह्य वस्तुओं को जुटाने में ही समाप्त नहीं हो जातीं और तू अपने घर की रक्षा की चिन्ता करता है, (महाँ असि)= यदि तू हृदय के दृष्टिकोण से महान् बनता है तथा (दिवः पायुः) = विज्ञानमयकोश के दृष्टिकोण से ज्ञान का रक्षक बनता है अथवा अपनी दिव्यता को नष्ट नहीं होने देता तो तू (दुरोणयुः) = अपने इस मिट्टी के घर को [दुरोणं गृहम् ] यु= पृथक् करनेवाला होता है, अर्थात् मोक्ष के लिए समर्थ होता है। तभी तूने अपनी शक्ति का ठीक परिपाक किया होता है और तू ‘भरद्वाज' कहलाने का अधिकारी बनता है।

    भावार्थ

    मनुष्य प्रभु की आराधना तो करे, परन्तु साथ ही स्वयं आत्मालोचनशील, विशाल-हृदय और दिव्यता की ओर झुकाववाला बने और इस प्रकार मुक्ति का अधिकारी हो ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( देव ) = देव ! हे अग्ने  ! हे ( जरितः ) = स्तुति योग्य या उपदेश करनेहारे ! तू ( विश्पतिः ) = प्रजा का स्वामी है । ( रक्षसः ) = राक्षसों, दुष्ट पुरुषों को ( तपानः ) = सन्ताप देता है । हे ( गृहपते ) = ब्रह्माण्ड रूप गृह के स्वामिन् ! तू गृहमेधी के समान ( अप्रोषिवान् ) = कभी भी प्रवास में न रहने वाला, सदा विद्यमान ( दिवस्पायुः ) = द्यौलोक की रक्षा करनेहारा, ( दुरोणयुः ) = सबके गृहों या देहों की मंगल कामना करनेवाला ( महान्, असि ) = सब से बड़ा है ।

    टिप्पणी

    ३९ 'तेपानो', 'गृहपतिः' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भर्गः प्रागथो भरद्वाजो वा ।

    छन्दः - बृहती।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य नृपतेश्च महत्त्वं वर्णयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमेश्वरपक्षे। हे (जरितः) सज्जनगुणप्रशंसक ! जरितेति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। स्तुतिश्च गुणप्रशंसनम्। (अग्ने) परमात्मन् ! त्वम् (विश्पतिः) प्रजापालकः असि। हे (देव) ज्योतिष्मन् ! त्वम् (रक्षसः२) राक्षसान् क्रूरान् हिंसकान् जनान् (तपानः) संतापयन् भवसि। हे (गृहपते) ब्रह्माण्डरूपस्य गृहस्य स्वामिन् ! (अप्रोषिवान्) ब्रह्माण्डगृहात् कदापि प्रवासमकुर्वन्। प्र पूर्वो वस धातुः प्रवासे वर्तते। ततः क्वसुः। (दिवः पायुः) प्रकाशमानस्य द्युलोकस्य जीवात्मनो वा रक्षकः। पा रक्षणे, कृवापा०’ उ० १।१ इति उण् प्रत्यये, आतो युक्०’ अ० ७।३।३३ इति युगागमः। (दुरोणयुः) दुरोणं गृहं परेषां कामयते इति दुरोणयुः सर्वेषां निवासप्रदः, त्वम्। दुरोण इति गृहनाम, दुरवा भवन्ति दुस्तर्पाः इति निरुक्तम् ४।५। छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्।’ अ० ३।१।८ वा० इति परेच्छायां क्यच्। (महान्) परममहिमोपेतः (असि) वर्तसे। अथ द्वितीयः—राजपक्षे। हे (जरितः) परमेश्वरस्य स्तोतः (अग्ने) राष्ट्रनायक राजन् ! त्वम् (विश्पतिः) प्रजानां पालकः असि। हे (देव) दानादिगुणैर्देदीप्यमान राजन् ! त्वम् (रक्षसः) दुष्टशत्रून् (तपानः) संतापयन् भवसि। हे (गृहपते) राष्ट्रगृहस्य स्वामिन् ! (अप्रोषिवान्) राष्ट्रात् प्रवासम् अकृतवान्, (दिवः पायुः) विद्यादिप्रकाशस्य रक्षकः, (दुरोणयुः) राष्ट्रगृहस्य समुन्नतिं कामयमानः त्वम् (महान्) अक्षयकीर्तिः (असि) विद्यसे ॥५॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥५॥

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरः सज्जनान् रक्षन्, दुर्जनान् दण्डयन् विश्वेषां समुन्नतिं कामयते तथैव राजाऽपि प्रजाः पालयन्, शत्रूनुन्मूलयन् राष्ट्रमुत्कर्षं नयेत् ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६०।१९ तपानो, गृहपते इत्यत्र क्रमेण तेपानो, गृहपतिर् इति पाठः। २. रक्षसः राक्षसान्। रक्षःशब्दः पुंल्लिङ्गोऽपि दृश्यते छन्दसि—प्रति ष्म रक्षसो दह (ऋ० १०।८७।२३), यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह (ऋ० ७।१०४।१६)—इति भ०। रक्षसः राक्षसानां तपानः सन्तापकः—इति सा०।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O Effulgent God, the Instructor of humanity. Lord of men. Thou consumest our evil intensions. O Lord of universe, Ever-present, Protector of the sky. Well-wisher of the homes and bodies of all, mighty art Thou.

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    Meaning

    Agni, universally adored, master ruler and protector of the people, scourge of the selfish and wicked, refulgent and generous, supreme protective presence of the home, who never neglect or forsake the inmates, you are great protector of happiness and heavens too, and abide in the heart and home of humanity. (Rg. 8-60-19)

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    Translation

    O Adorable God, Giver of peace and Happiness, Thou art Lord of men, burning up all evils. Thou doth not forsake the region of heart of Thy devotees- [They always inwardly feel Thy Presence.] Thou art mighty, the ever prssent Lord of the world. Thou art protector of the householders and theirtrue well visher.Thou art guardian from the sky, averting all calamities.

    Comments

    गृहपातेः-संसाररूपग्रहस्यपालकः दुरोणयुः-जगद्रूपगृहस्य मंगलाभिलाषी दुरोणमितिगृहनाम (निघ० ३.४) 

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    Translation

    O divine-fire, worthy of laudation, you are the guardian of men and destroyer of evil forces. You are powerful and ‘never-absent’ helper of the worshipper in his house, and you are the sustainer of the realm of enlightenment, ever-present there. (Cf. Rv VIII.60.19)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (जरितः गृहपते देव अग्ने) હે પોતાની સ્તુતિની પ્રેરણાના આપનાર, મારા હૃદય ગૃહવાસી, સ્વામી, અન્તર્યામી પરમાત્મ દેવ ! તું (रक्षसः तपानः विश्पतिः) જેનાથી રક્ષા કરવી જોઈએ એવા કામ, ક્રોધ આદિ પાપના સંતાપક પ્રજાપાલક રાજાની સમાન (दिवः पायुः महान् असि) અમૃતલોક મોક્ષધામનો રક્ષક છે, પરન્તુ (दुरोणयुः अप्रोषिवान्) મારા હૃદયગૃહને ચાહતા તેનો ત્યાગ ન કરનાર પણ તું જ છે. (૫)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું દોષો, દુષ્ટ વિચારોથી અમારી રક્ષા કરે છે; પ્રજાપાલક રાજાની સમાન રક્ષા કરે છે; મારા હૃદયઘરમાં આવીને નિવાસ કરનાર સાચો સાથી છે, એકવાર આવ્યા પછી છોડી જતો નથી. પોતાની સ્તુતિની પ્રેરણા આપે છે, મારા કલ્યાણને માટે તથા મારા માટે મોક્ષધામનો રક્ષક છો. (૫) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    رمو رمو بھگوان

    Lafzi Maana

    (جِرتہ اگنے) ہے ویدوں دوارہ اُپدیش دینے والے پرکاش روپ پرماتمن! آپ (وِش پتی دیو) پرجاؤں کے پالک رکھشک سوامی دیووں کے دیو ہیں (رکھشا پتا نہ) شریشٹھ منشیوں، اپنے اُپاسکوں کے راکھشسی بھاؤ اور کرموں کو، شیطانی عناصر کو تپا کر جلا دیتے ہیں۔ (گرہ پتے) ہمارے ہردیہ روچی گھروں اور سارے سنسار روپی گھر کے مالکِ کل (اپروشی وان) ہمارے دِلوں سے آپ نہ جائیں۔ آپ (مہان اسی) مہان ہیں (دِوس پایُو) دئیو لوک آدی لوک لوکانتروں کے رکھشک ہیں (دُرونیو) ہمارے گھروں میں سدا رمن کرتے رہیں۔
    رمو رمو بھگوان ہمارے ہردیوں میں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे परमेश्वर सज्जनांचे रक्षण करत, दुर्जनांना दंड देत सर्वांची उन्नती इच्छितो, तसेच राजाने प्रजेचे पालन करत, दुष्टांचे उन्मूलन करत राष्ट्राला उत्कर्षाकडे न्यावे ॥५॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात परमेश्वराचा आणि विद्वानाचा महिमा वर्णित आहे. -

    शब्दार्थ

    प्रथम अर्थ (परमेश्वरपरक) (जरित:) सज्जनांच्या गुणांचे प्रशंसक (प्रेरणा करून त्यांचे गुण वाढविणारे) हे परमात्मन् तुम्ही (विश्यति:) सर्वांचे मनुष्यमात्राचे पालक आहात. हे (देव) ज्योतिर्मय तुम्ही (रक्षस:) राक्षसी वृत्तीच्या मनुष्यांना (तपान:) संताप वा दंड देणारे आहात. हे (गृहपते) ब्रह्मांडरूप गृहाचे स्वामी (अघोषिवान्) आपण ब्रह्मांडरूप गृहापासून कधीही दूर न जाणारे (अर्थात सर्वत्रव्यापक) (दिव:) (पायु) प्रकाशमान द्युलोकाचे अथवा प्रकाशमान जीवात्म्याचे रक्षक असून (दुरोणयु:) सर्वांसाठी निवासासाठी घर देण्याची इच्छा असणारे असे आपण खरोखर (महान) महान (असि) आहात.
    द्वितीय अर्थ : (राजपरक) - हे (जरित:) परमेश्वराची स्तुती करणारे (अग्ने) राष्ट्रनायक राजा, आपण (विश्यति:) प्रजापालक आहात. (देव) दान आदी गुणांमुळे देदीप्यमान असणारे हे राजन् आपण (रक्षस:) दुष्यांचे व शत्रूंचे (तापन:) संतापक आहात. हे (गृहपते) राष्ट्ररूप गृहाचे स्वामी आपण (अप्रोषिवान्) राष्ट्रपासून कधीही दूर न होणारे तसेच (दिव:) (पायु) निका आदी प्रकाशाने रक्षक (दुरोणमु) राष्ट्ररूप घराची सदा उन्नती इच्छिणारे आपण खरोखर (महान) महम (असि) आहात. ।।५।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे परमेश्वर सज्जनांची रक्षा करीत आणि दुर्जनांना दंड देत सर्वांचे उत्कर्ष करू इच्छितो, त्याप्रमाणे राजानेदेखील प्रजापालन करीत दुष्यांचे उन्मुलन करीत राष्ट्राला उत्कर्षाप्रत नेले पाहिजे. ।।५।।

    विशेष

    या मंत्रात अर्थश्लेष अलंकार आहे. ।।५।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (அக்னியே) [1]துதிப்பவனே ! மனிதர்களை ரட்சிப்பவனே! [2](கிருஹபதியே) வீடு விடாதவனே ! சோதி யுலகின் தலைவனே! சதாகால மிருக்கும் நீ பெரியவனாயிருக்கிறாய்.

    FootNotes

    [1].துதிப்பவனே - துதிப்பதற்கருன்
    [2].கிருஹபதியே - குடும்பத் தலைவனே

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