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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 464
ऋषिः - नकुलः
देवता - सविता
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
30
अ꣣भि꣢꣫ त्यं दे꣣व꣡ꣳ स꣢वि꣣ता꣡र꣢मो꣣꣬ण्योः꣢꣯ क꣣वि꣡क्र꣢तु꣣मर्चा꣡मि꣢ स꣣त्य꣡स꣢वꣳ रत्न꣣धा꣢म꣣भि꣢ प्रि꣣यं꣢ म꣣ति꣢म् ऊ꣣र्ध्वा꣢꣫ यस्या꣣म꣢ति꣣र्भा꣡ अदि꣢꣯द्युत꣣त्स꣡वी꣢मनि꣣ हि꣡र꣢ण्यपाणिरमिमीत सु꣣क्र꣡तुः꣢ कृ꣣पा꣡ स्वः꣢ ॥४६४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । त्यम् । दे꣣व꣢म् । स꣣विता꣡र꣢म् । ओ꣣ण्योः꣢꣯ । क꣣वि꣡क्र꣢तुम् । क꣣वि꣢ । क्र꣣तुम् । अ꣡र्चा꣢꣯मि । स꣣त्य꣡स꣢वम् । स꣣त्य꣢ । स꣣वम् । रत्नधा꣢म् । र꣣त्न । धा꣢म् । अ꣣भि꣢ । प्रि꣣य꣢म् । म꣣ति꣢म् । ऊ꣣र्ध्वा꣢ । य꣡स्य꣢꣯ । अ꣣म꣡तिः꣢ । भाः । अ꣡दि꣢꣯द्युतत् । स꣡वी꣢꣯मनि । हि꣡र꣢꣯ण्यपाणिः । हि꣡र꣢꣯ण्य । पा꣣णिः । अमिमीत । सुक्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ । कृ꣣पा꣢ । स्वा३रि꣡ति꣢ ॥४६४॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्यं देवꣳ सवितारमोण्योः कविक्रतुमर्चामि सत्यसवꣳ रत्नधामभि प्रियं मतिम् ऊर्ध्वा यस्यामतिर्भा अदिद्युतत्सवीमनि हिरण्यपाणिरमिमीत सुक्रतुः कृपा स्वः ॥४६४॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । त्यम् । देवम् । सवितारम् । ओण्योः । कविक्रतुम् । कवि । क्रतुम् । अर्चामि । सत्यसवम् । सत्य । सवम् । रत्नधाम् । रत्न । धाम् । अभि । प्रियम् । मतिम् । ऊर्ध्वा । यस्य । अमतिः । भाः । अदिद्युतत् । सवीमनि । हिरण्यपाणिः । हिरण्य । पाणिः । अमिमीत । सुक्रतुः । सु । क्रतुः । कृपा । स्वा३रिति ॥४६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 464
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र का देवता सविता है। सविता नाम से परमेश्वर, राजा और सूर्य का वर्णन किया गया है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (त्यम्) उस प्रसिद्ध गुण-कर्म-स्वभाववाले, (ओण्योः) द्यावापृथिवी के अथवा वाणी और मन के (देवम्) प्रकाशक, (कविक्रतुम्) क्रान्तदर्शिनी प्रज्ञावाले अथवा बुद्धिपूर्ण कर्मोंवाले, (सत्यसवम्) सत्य ऐश्वर्यवाले अथवा सत्य प्रेरणावाले, (रत्नधाम्) रमणीय लोकों के धारणकर्ता, (प्रियम्) प्रिय, (मतिम्) ज्ञानी (सवितारम्) जगदुत्पादक परमेश्वर की (अभि अर्चामि) अभिमुख होकर पूजा करता हूँ। (यस्य) जिस परमेश्वर की (ऊर्ध्वा) उत्कृष्ट (अमतिः भाः) आत्मदीप्ति (अदिद्युतत्) उपासकों को आत्मिक प्रकाश देती है, उसके (सवीमनि) अनुशासन में, हम होवें। (हिरण्यपाणिः) ज्योतियों को व्यवहार में लानेवाले, (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञा व कर्मोंवाले उस परमेश्वर ने (कृपा) अपनी कृपा से (स्वः) ज्योतिष्मान् सूर्य को (अमिमीत) बनाया है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। मैं प्रजाजन (त्यम्) उस विशिष्ट गुण-कर्म-स्वभाववाले, (ओण्योः) स्त्री-पुरुषों को (देवम्) विद्या आदि से प्रकाशित करनेवाले, (कविक्रतुम्) बुद्धिपूर्ण कर्मोंवाले, (सत्यसवम्) सत्य ज्ञानवाले, (रत्नधाम्) रमणीय धनों को प्रदान करनेवाले, (प्रियम्) प्रिय, (मतिम्) विचारशील, (सवितारम्) सदाचार के प्रेरक राजा का (अभि अर्चामि) सत्कार करता हूँ। (यस्य) जिस राजा का (ऊर्ध्वा) उच्च (अमतिः) सर्वाधिक तेजस्वी रूप, और जिसकी (भाः) यश की कान्ति (अदिद्युतत्) अन्यों को भी तेजस्वी और यशस्वी करते हैं, उसके (सवीमनि) अनुशासन में हम रहें। (हिरण्यपाणिः) सुवर्ण आदि धन को दानार्थ हाथ में ग्रहण करनेवाला, (सुक्रतुः) शुभ कर्मोंवाला वह राजा (कृपा) अपने सामर्थ्य से, राष्ट्र में (स्वः) सुख को (अमिमीत) रचता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। मैं (त्यम्) उस सुदूरस्थ, (ओण्योः) भूमि-आकाश के (देवम्) प्रकाशक, (कविक्रतुम्)मेधावियों के कर्मों के सदृश भूमण्डल-धारण, ऋतुचक्रप्रवर्तन आदि कर्मों को करनेवाले, (सत्यसवम्) जल को ऊपर-नीचे ले जानेवाले, (रत्नधाम्) सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि रत्नों को भूमि में स्थापित करनेवाले, (प्रियम्) तृप्तिप्रदाता, (मतिम्) ज्ञान में साधन बननेवाले (सवितारम्) सूर्य की (अभि अर्चामि) स्तुति करता हूँ, अर्थात् उसके गुण-कर्मों का वर्णन करता हूँ। (यस्य) जिस सूर्य की (अमतिः भाः) रूपवती प्रभा (सवीमनि) उत्पन्न भूमण्डल पर (अदिद्युतत्) सब पदार्थों को प्रकाशित करती है, वह (हिरण्यपाणिः) सुनहरी किरणोंवाला, (सुक्रतुः) उत्तम कर्मोंवाला सूर्य (कृपा) अपने सामर्थ्य से (स्वः) प्रकाश को (अमिमीत) उत्पन्न करता है ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
भावार्थ
अनुपम गुण-कर्म-स्वभाववाले परमेश्वर की पूजा करके, राजा का सत्कार करके और सूर्य का उपयोग करके प्रजाएँ सुख प्राप्त करती हैं ॥८॥
पदार्थ
(ओण्योः) द्युलोक पृथिवीलोक के “ओण्यौ द्यावापृथिवी नाम” [निघं॰ ३०.३०] (सवितारम्) उत्पादक परमात्मा को (अभि-अर्चामि) श्रद्धा से अभिगत—प्राप्त होकर अर्चित करता हूँ तथा (त्यम्) उस—(कविक्रतुम्) क्रान्तप्रज्ञ—सर्वज्ञान समर्थ प्रज्ञावान् (सत्यसवम्) यथार्थ ऐश्वर्य वाले—सच्चे शासनकर्ता—(रत्नधाम्) रमणीय पदार्थों के धारक—(प्रियम्) अभीष्टदेव—(मतिम्) मननशक्तिमान् परमात्मा को (अभि अर्चासि) अभ्यर्चित करता हूँ (यस्य) जिसकी (अमतिः) आत्ममयी स्वाधारमति “अमतिरमामयी मतिरात्ममयी” [निरु॰ ६.१२] (ऊर्ध्वा) ऊँची (भाः) ज्योतिरूप (आदिद्युतत्) दीप्त हो रही है, अतः उसके (सवीमनि) प्रसव—प्रशासन में सब जगत् प्रवर्तमान है, वह (हिरण्यपाणिः) सौवर्णहस्त दिव्य हाथों वाला—दिव्यग्रहणशक्ति वाला (सुक्रतुः) सुकर्मा—कुशलकर्मकर्ता (कृपा) स्वसामर्थ्य से (स्वः) सुखमय—मोक्षधाम को (अमिमीत) निर्माण करता है—सम्पन्न करता है।
भावार्थ
परमात्मा द्युलोक पृथिवीलोक का उत्पादक क्रान्तप्रज्ञ सर्वज्ञान समर्थ यथार्थ शासनकर्ता रमणीय पदार्थों का धारक अभीष्ट देव मननशक्ति-सम्पन्न है तथा उसकी स्वाधार मति ज्योतिमयी ऊँची है, दीप्त हो रही है, उसके शासन में सब जगत् प्रवर्तमान है, वह दिव्य ग्रहणशक्तिमान् कुशलकर्मकर्ता स्वसामर्थ्य से सुखमय मोक्षधाम को सम्पन्न करता है। उस परमात्मा का मैं रुचि से अर्चन करता हूँ॥८॥
विशेष
ऋषिः—नकुलः (सांसारिक कुल—वंश विकास में न पड़ा अपितु आत्मविकास का इच्छुक संयमी उपासक)॥ देवता—सविता (उत्पादक प्रेरक परमात्मा)॥ छन्दः—अति शक्वरी॥<br>
विषय
अनन्त- प्रकाश
पदार्थ
मैं (त्यं देवं अभि) = उस देव को लक्ष्य बनाकर चलता हूँ जोकि वस्तुतः (देवम्) = इस संसाररूप क्रीड़ा का करनेवाला है [दीव्यति- क्रीडति] । संसार उस प्रभु का खेल है-इसे खेल समझने के विपरीत यह आनन्दप्रद बना रहता है। उस प्रभु की ओर जोकि (आण्योः) = द्युलोक व पृथिवीलोक के (सवितारम्) = उत्पन्न करनेवाले हैं, (कविक्रतुम्) = जिनके एक-एक कर्म में कविता निहित है–प्रत्येक कर्म बुद्धिमत्तापूर्ण है। प्रभु की कौन सी कृति है जोकि काव्यमय नहीं है?
मैं उस प्रभु की (अर्चामि) = अर्चना करता हूँ जो (सत्यसवम्) = [ हृदयस्थ होकर सदा ] सत्य की प्रेरणा देनेवाले हैं। (रत्नधाम्) = हमारे शरीरों में रमणीय रत्नों के धारण करनेवाले हैं। (अभि) = मैं उस प्रभु की ओर चलता हूँ जोकि (प्रियम्) = तृप्ति देनेवाले हैं जिनको पाकर जीव सन्तोष का अनुभव करता हैं। (मतिम्) = वे प्रभु ज्ञान के पुञ्ज हैं, (यस्य) = जिन प्रभु की (भाः) = दीप्ति (ऊर्ध्वा) = सर्वोच्च है और (अमतिः) = अ-मित है— Immeasurable अपरिमेय है। हजारों सूर्यों की दीप्तियाँ भी उसकी दीप्ति की तुलना नहीं कर सकती। उस प्रभु की ये दीप्तियाँ - विभूतियाँ (सवीमनि) = उत्पन्न जगत् में (अदिद्युतत्) = चमक रहीं हैं। क्या हिमाच्छादित पर्वतों में, क्या समुद्र में, क्या पृथिवी पर और क्या आकाश को आच्छादित करनेवाले तारों में उसकी महिमा दृष्टिगोचर हो रही है। कण-कण उसकी महिमा का गायन कर रहा है।
वह प्रभु (‘हिरण्यपाणि') = है, हितरमणीय हाथोंवाले हैं। उनका वरदहस्त हम सबके सिर है। । (सुक्रतुः) = वे प्रभु सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले हैं। वे (कृपा) = करुणा से (स्वः) = स्वर्गलोक को (अमिमीत) = बनाते हैं। इस स्वर्गलोक को पाता वही है जोकि अपने सारे घराने में सबसे आगे बढ़ जाता है। 'न–कुल' का अर्थ है- 'जिसके समान कुल में कोई नहीं है। इस प्रकार उत्कर्ष का साधनेवाला ही स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।
भावार्थ
उस प्रभु का प्रकाश अ-मित है - मेरा भी प्रकाश अमित नहीं तो परिमित तो अवश्य ही हो।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( ओण्योः सवितारं ) = द्यौ और पृथिवी के उत्पादक ( कवि ऋतुं ) = क्रान्तदर्शी, एवं ज्ञानसम्पन्न मेधावी, ( सत्य सर्वं ) = सत्य को प्रकट करने हारे, ( रत्नधाम् ) = रमणीय विभूतियों को धारण करने वाले, ( अभिप्रियं ) = सबके प्रिय, ( मतिं ) = मनन योग्य ( त्यं देवं ) = उस देव की ( अभि-अर्चामि ) = साक्षात् स्तुति करता हूं । ( यस्य ) = जिसकी ( ऊर्ध्वा ) = ऊर्ध्व=ऊपर को जाने वाली या सबसे ऊपर विद्यमान ( भा: ) = सूर्यरूप तेजः कान्ति, ( अमतिः ) = अचिन्त्य, अद्वितीय, ( सवीमनि ) = जगत् के उत्पत्ति कार्य में ( अदिद्युतत् ) = सर्वत्र प्रकाशित होती है । वह ( हिरण्यपाणिः ) = क्रियारूप या गतिरूप हाथों वाला, अथवा तेजोमय किरणों वाला, ( सुक्रतु: ) = उत्तम कारीगर ( कृपा ) = अपने सामर्थ्य से ( स्वः ) = सब प्रकाशमान सूर्य आदि द्यौलोक और परमसुख को ( निः-अमिमीत ) = बनाता और देता है ।
टिप्पणी
४६४ – प्रजाभ्यस्त्वा प्रजास्त्वा अनुप्राणन्तु प्रजास्त्वमनुप्राणिहि इत्यधिकः पाठः, यजु० 'कुपात स्वः' इति अथर्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - नकुलः।
देवता - सविता।
छन्दः - अतिशक्करी ।
स्वरः - पंचम:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सविता देवता। सवितृनाम्ना परमेश्वरनृपतिसूर्यान् वर्णयति।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (त्यम्) तं प्रसिद्धगुणकर्मस्वभावम्, (ओण्योः) द्यावापृथिव्योः वाङ्मनसोर्वा। ओण्योः इति द्यावापृथिवीनामसु पठितम्। निघं० ३।३०। (देवम्) प्रकाशकम्, (कविक्रतुम्) क्रान्तप्रज्ञं मेधाविकर्माणं वा, (सत्यसवम्) सत्यैश्वर्यं सत्यप्रेरणं वा, (रत्नधाम्) रमणीयानां लोकानां धारयितारम्, (प्रियम्) प्रेमार्हम्, (मतिम्) मन्तारम्। मनु अवबोधने धातोः कर्तरि क्तिन्। (सवितारम्) जगतः प्रसवितारं परमेश्वरम् (अभि अर्चामि) आभिमुख्येन पूजयामि। (यस्य) सवितुः परमेश्वरस्य (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (अमतिः भाः) आत्मिकदीप्तिः। अमतिः अमामयी मतिः आत्ममयी। निरु० ६।१२। (अदिद्युतत्) द्योतयति प्रकाशयति उपासकान्, तस्य (सवीमनि) अनुशासने, वयं स्यामेति शेषः। सः (हिरण्यपाणिः२) ज्योतिषां व्यवहारे आनेता। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। श० ४।३।४।२१। (सुक्रतुः) सुप्रज्ञः सुकर्मा वा परमेश्वरः (कृपा) कृपया। कृपा प्रातिपदिकात् तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’ इति पूर्वसर्वणदीर्घः। यद्वा, कृपू सामर्थ्ये धातोर्भावे क्विपि तृतीयैकवचने रूपम्। (स्वः) ज्योतिष्मन्तम् आदित्यम्। स्वः आदित्यो भवति इति यास्कः। निरु० २।१४। (अमिमीत) निर्मितवान् ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। अहं प्रजाजनः (त्यम्) तं विशिष्टगुणकर्मस्वभावम्, (ओण्योः) राष्ट्रवासिनोः स्त्रीपुरुषयोः (देवम्) विद्यादिभिः प्रकाशकम्, (कविक्रतुम्) मेधाविकर्माणम्, (सत्यसवम्) सत्यज्ञानम्, (रत्नधाम्) रमणीयानां धनानां प्रदातारम्, (प्रियम्) प्रजानां प्रेमास्पदम्, (मतिम्) विचारशीलम् (सवितारम्) सदाचारप्रेरकं राजानम् (अभि अर्चामि) सत्करोमि। (यस्य) राज्ञः (ऊर्ध्वा अमतिः) सर्वातिशायि तेजस्वि रूपम्। अमतिः इति रूपनाम। निघं० ३।७। (भाः) यशोदीप्तिश्च (अदिद्युतत्) अन्यानपि तेजसा यशसा च प्रकाशयति, तस्य (सवीमनि) अनुशासने वयं स्याम। (हिरण्यपाणिः) सुवर्णादिधनहस्तः, (सुक्रतुः) सुकर्मा स नृपतिः (कृपा) स्वसामर्थ्येन, राष्ट्रे (स्वः) सुखम् (अमिमीत) निर्मिमीते ॥३ अथ तृतीयः—सू्र्यपरः। अम् (त्यम्) तं दूरे विद्यमानम्, (ओण्योः) द्यावापृथिव्योः (देवम्) प्रकाशकम्, (कविक्रतुम्) कवेः मेधाविनः क्रतवः कर्माणीव क्रतवः कर्माणि भूमण्डलधारणऋतुचक्रप्रवर्तनादीनि यस्य तम्, (सत्यसवम्) सत्यं जलं सुवति उपर्यधः प्रेरयतीति सत्यसवः तम्। सत्यम् इति जलनाम। निघं० १।१२। (रत्नधाम्) रत्नानि स्वर्णरजतहीरकमुक्तादीनि दधाति भुवि स्थापयति यस्तम्, (प्रियम्) तृप्तिप्रदम्। प्रीणातीति प्रियः। प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च। (मतिम्) ज्ञानसाधनम्, (सवितारम्) सूर्यम् (अभि अर्चामि) स्तौमि, तद्गुणकर्माणि वर्णयामीत्यर्थः। (यस्य) सूर्यस्य (अमतिः भाः) रूपवती प्रभा (सवीमनि) उत्पन्ने भूमण्डले (अदिद्युतत्) सर्वान् पदार्थान् प्रकाशयति, सः (हिरण्यपाणिः) सुवर्णकिरणः (सुक्रतुः) उत्कृष्टकर्मा सूर्यः (कृपा) स्वसामर्थ्येन (स्वः) प्रकाशम् (अमिमीत) निर्मिमीते ॥८॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
भावार्थः
अनुपमगुणकर्मस्वभावयुक्तं परमेश्वरं सम्पूज्य नृपतिं सत्कृत्य सूर्यं चोपयुज्य प्रजाः सुखं प्राप्नुवन्ति ॥८॥
टिप्पणीः
१. अथ० ७।१४।१,२ ऋषिः अथर्वा, द्वयोः ऋचोः पृथक् पृथग् अनुष्टुप् छन्दः। ‘कृपा’ इत्यत्र ‘कृपात्’ इति पाठः। य० ४।२५, ‘मतिम्’ इत्यस्यानन्तरं ‘कविम्’ इति, अन्ते च ‘प्रजाभ्यस्त्वा प्रजास्त्वाऽनु प्राणन्तु प्रजास्त्वमनुप्राणिहि’ इत्यधिकः पाठः। २. ‘(हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि ज्योतींषि सूर्य्यादीनि सुवर्णादीनि वा पाणौ व्यवहारे यस्य सः’ इति य० ४।२५ भाष्ये द०। ३. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं परमेश्वरविषये राजप्रजाविषये च व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
I praise this God, Father of Heaven and Earth, the Revealer of truth, exceeding Wise, Possessed of charming superhuman powers. Dear to all, Worthy of adoration. Whose splendour is sublime. Who is Peerless, Whose light shines brilliant in creation. Who agile-handed. Wise Creator, with His might, makes the Sun and other luminous planets.
Meaning
I adore this self-refulgent Savita, life and light of existence, creator of heaven and earth, poetic high priest of creation yajna, generator and upholder of truth and law, treasure-hold of lifes jewels, universally loved and all-intelligent. Upon his manifest will, inert Prakrti rises and shines into the state of creation. This Savita of golden hands of glory, this holy actor, by his gracious will creates the lights of heaven and bliss.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ओण्योः) દ્યુલોક અને પૃથિવીલોકનાં (सवितारम्) ઉત્પાદક પરમાત્માને (अभि अर्चामि) શ્રદ્ધાથી પ્રાપ્ત થઈને અર્ચિત કરું છું તથા (त्यम्) તે, (कविक्रतुम्) ક્રાન્તપ્રજ્ઞ-સર્વજ્ઞાન સમર્થ પ્રજ્ઞાવાન (सत्यसवम्) યથાર્થ ઐશ્વર્યવાળા-સત્ય શાસનકર્તા, (रत्नधाम्) રમણીય પદાર્થોના ધારક, (प्रियम्) અભીષ્ટ દેવ, (मतिम्) મનન શક્તિમાન પરમાત્માને (अभि अर्चासि) અભ્યર્ચિત કરું છું (यस्य) જેની (अमतिः) આત્મમયી સ્વઆધારમતિ (ऊर्ध्वा) ઊંચી (भाः) જ્યોતિરૂપ (आदिद्युतत्) દીપ્ત થઈ રહી છે, તેથી તેના (सवीमनि) પ્રસવ-પ્રશાસનમાં સર્વ જગત પ્રવર્તમાન છે, તે (हिरण्यपाणिः) સુવર્ણ હાથ-દિવ્ય હાથોવાળા-દિવ્ય ગ્રહણશક્તિવાળા (सुक्रतुः) સુકર્માકુશળ કર્મકર્તા (कृपा) સ્વ સામર્થ્ય દ્વારા (स्वः) સુખમય-મોક્ષધામને (अमिमीत) નિર્માણ કરે છે-સંપન્ન કરે છે.(૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા દ્યુલોક અને પૃથિવી લોકના ઉત્પાદક, ક્રાન્તપ્રજ્ઞ-સર્વજ્ઞાનસમર્થ, યથાર્થ શાસનકર્તા, રમણીય પદાર્થોના ધારક, અભીષ્ટ દેવ અને મનનશક્તિ સંપન્ન છે; તથા તેની સ્વાધાર મતિ જ્યોતિમયી ઊંચી છે, દીપ્ત થઈ રહી છે, તેના શાસનમાં સમસ્ત જગત પ્રવર્તમાન છે, તે દિવ્ય ગ્રહણશક્તિમાન, કુશળ કર્મકર્તા, સ્વસામર્થ્યથી સુખમય મોક્ષધામને સંપન્ન કરે છે. તે પરમાત્માનું હું રુચિ-શ્રદ્ધાથી અર્ચન કરું છું. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
دیوؤں کے مہادیو کی ارچنا
Lafzi Maana
میں اُپاسک اُس دیوؤں کے مہادیو کی ارچنا کرتا ہوں جو زمین آسمان کا معمار اور مالک ہے، جو دانشمندوں کو عقلِ سلیم عطا کرتا، سب کا پیارا اورم الک عالمِ کُل ہے، جس نے آسمان میں سُورج، چاند، تاروں کو چمکایا ہے اور جس کی طاقت یا عقل کو کوئی ناپ نہیں سکتا، دُنیا کی عجیب و غریب بناوٹ جس کا ہاتھ کا معمولی کھیل ہے، اور اپنی مہربانیوں سے جس نے ہمارے لئے سب سُکھ کے سامان دیئے ہیں۔
Tashree
کرتا ہوں اُس کی ارچنا دیوؤں کے دیو مہان کی، جس نے ہیں ویں سب نعمتیں بل بُدھی دھن اور گیان کی۔
मराठी (2)
भावार्थ
अनुपम गुणकर्म स्वभावयुक्त परमेश्वराची पूजा करून, राजाचा सत्कार करून व सूर्याचा उपयोग करून, प्रजा सुख प्राप्त करते ॥८॥
विषय
सविता देवता। सविता नावाने परमेश्वराचे, राजाचे व सूर्याचे वर्णन
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) - (मी (य्तम्) त्या प्रख्यात गुण- कर्म अस्वभाव असणाऱ्या (ओण्योः) द्युलोक- पृथ्वीलोकाचा अथवा वाणीव मनाचा जो (देवम्) प्रकाशक असून जो (कविक्रतुम्) क्रांतदर्शिनी प्रज्ञाधारक वा बुद्धिपूर्वक कर्म करणारा आहे. (त्याची पूजा- अर्चना करतो) तो (एकसवम्) सत्यरूप ऐश्वर्याचा वा सप्रेरणेचा स्वामी असून (रत्नधाम्) रमणीय ग्रह नक्षत्रादीचा धारणकर्ता (प्रियम्) प्रिय आणि (यतिम्) ज्ञानी आहे, अशा (सवितारम्) जगदुत्पादक परमेश्वराची मी (अभि अर्चानि) पूजा, अर्चना करतो. तो परमेश्वर असा आहे की (यस्य) ज्याची (ऊर्ध्वा) उत्कृष्ट (अमतिः भाः) आत्मदीप्ती (अदिघुतत्) उपासकांना आत्मिक प्रकाश देते. आम्ही सर्व जणांनी त्याच्या (सवीमसि) अनुशासनात असावे. (हिरण्याषाणिः) ज्योती (सूर्य आदीना) जो व्यवहारात वा लोकोपकारक कार्यात लावतो आहे, त्या (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञावान व उत्तम कर्मकर्ता परमेश्वराने (कृपा) त्याच्या कृपेने (स्वः) ज्योतिष्मान सूर्याचे (अभिमीत निर्माण केले आहे.।। द्वितीय अर्थ - (राष्ट्रपर अर्थ) - मी एक प्रजाजन, त्या विशिष्ट गुण, कर्म- स्वभाव असणाऱ्या (ओण्योः) स्त्री - पुरुषांना (देवम्) विद्यादीद्वारे सुशोभित करणाऱ्या (किवक्रतुम्) बुद्धिपूर्वक कर्म करणाऱ्या (स्तयसवम्) सत्य ज्ञानी (रत्न धाम्) रमणीय धन देणाऱ्या (प्रिय सर्वप्रिया आणि (मतिम्) विचारसील (सवितारम्) सदाचार प्रेरक राजाचा (अभि अर्चामि) सत्कार करतो. (तो असा आहे की (यस्य) ज्याचे (ऊर्ध्वा) उच्च (अमतिः) सर्वाधिक तेजस्वी रूप असून ज्याची ज्याचे (भाः) यशरूप कान्ती (अदिघुतत्) इतरांनाही तेजस्वी व यशस्वी करते. त्याच्याच (सवीमनि) अनुशासनात आम्ही रहावे. (हिरण्यपाणिः) सुवर्ण आदी धन आपल्या हातात घेऊन सर्वांना दान करणारा तो राजा (सुक्रतुः) शुभ कर्म करणारा सून तो आपल्या (कृपा) सामर्थ्याने राष्ट्रात (स्वः) सुख व आनंद (अभिमीत) उत्पन्न करतो.।। तृतीय अर्थ - (सूर्यपर) - मी (त्यम्) त्या दूरवर्ती (ओण्योः) भूमी व आकाशाला (देवम्) प्रकाशित करणारा (कविक्रतुम्) मेघावीजनाप्राणे भूमंडळ - धारण, ऋतुचक्र परिभ्रमण आदी कार्य करणारा (स्तयसवम्) जलाला वर खाली नेणारा - आणणारा (रत्नधाम्) सोने, चांगी, हिरे, मोती आदी रत्न भूगर्भात स्थापित करणारा (प्रियम्) तृप्तिदाता व (मतिम्) ज्ञान प्राप्तीत साधन असा आहे. अशा त्या (सवितारम्) सूर्याची मी (अभि अर्चामि) पूजा, अर्चना करतो, म्हणजे त्याच्या गुण कर्मांचे वर्णन करतो. तो असा आहे की (यस्य) ज्याची (अमतिः भाः) रूपवती प्रभा (सवीमनि) उत्पन्न भूमंडळावर (अदिद्युतत्) सर्व पदार्थांना प्रकाशित कतरे. तो (हिरण्यपाणिः) सोनेरी किरणे असलेला (सुक्रतुः) उत्तम हितकर कर्मे करणारा सूर्य (कृपा) आपल्या शक्तीने (स्वः) प्रकाश (मम्मिनीत) उत्पन्न करतो.।। ८।।
भावार्थ
अनुपम गुण- कर्म- स्वभाव असणाऱ्या त्या परमेश्वराची उपासना करून, राजाचा सत्कार करून आणि सूर्याकडून मिळणारे लाभ प्राप्त करून सर्वजण सुख - आनंद मिळवतात.।। ८।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।
तमिल (1)
Word Meaning
இராஜ்ய அறிஞனான சத்திய சக்தி யுள்ளவனான ஐசுவரிய மளிப்பவனான அனைவருக்கும் பிரியமுடனானவன் வானம் பூமியை புலனாக்குபவனாய், மேன்மையான ஒளியுள்ளவனாய், சிருட்டியிலே அதி சோதி வீசுபவனாய் அறிவுடன் பொன்கையுடன் தன் சுந்தரத்தால் கிருபையால் சுவர்கத்தைச் செய்யும் வானம் பூமியின் பிரேரிப்பவனான தேவரை அர்ச்சனை செய்கிறேன்.
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