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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 50
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
38
श्रु꣣धि꣡ श्रु꣢त्कर्ण꣣ व꣡ह्नि꣢भिर्दे꣣वै꣡र꣢ग्ने स꣣या꣡व꣢भिः । आ꣡ सी꣢दतु ब꣣र्हि꣡षि꣢ मि꣣त्रो꣡ अ꣢र्य꣣मा꣡ प्रा꣢त꣣र्या꣡व꣢भिरध्व꣣रे꣢ ॥५०॥
स्वर सहित पद पाठश्रु꣣धि꣢ । श्रु꣣त्कर्ण । श्रुत् । कर्ण । व꣡ह्नि꣢꣯भिः । दे꣣वैः꣢ । अ꣣ग्ने । सया꣡व꣢भिः । स꣣ । या꣡व꣢꣯भिः । आ । सी꣣दतु । बर्हि꣡षि꣢ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢। अ꣣र्यमा꣢ । प्रा꣣तः । या꣡व꣢꣯भिः । अ꣣ध्वरे꣢ ॥५०॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आ सीदतु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावभिरध्वरे ॥५०॥
स्वर रहित पद पाठ
श्रुधि । श्रुत्कर्ण । श्रुत् । कर्ण । वह्निभिः । देवैः । अग्ने । सयावभिः । स । यावभिः । आ । सीदतु । बर्हिषि । मित्रः । मि । त्रः। अर्यमा । प्रातः । यावभिः । अध्वरे ॥५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 50
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा और राजा से प्रार्थन करते हैं।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (श्रुत्कर्ण) सुननेवाले कानों से युक्त अर्थात् अपरिमित श्रवणशक्तिवाले (अग्ने) परमात्मन् ! आप (वह्निभिः) घोड़ों के समान वहनशील अर्थात् जैसे घोड़े अपनी पीठ पर बैठाकर लोगों को लक्ष्य पर पहुँचा देते हैं, वैसे ही जो स्तोता को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देते हैं, ऐसे (सयावभिः) आपके साथ ही आगमन करनेवाले (देवैः) दिव्य गुणों के साथ, आप (श्रुधि) मेरी प्रार्थना को सुनिए। (अध्वरे) हिंसा आदि मलिनता से रहित, प्रातः किये जानेवाले मेरे उपासना-यज्ञ में (प्रातर्यावभिः) प्रातःकाल यज्ञ में आनेवाले दिव्य गुणों के साथ (मित्रः) मित्र के समान स्नेहशील, (अर्यमा) न्यायशील आप (बर्हिषि) हृदयासन पर (आसीदतु) बैठें ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (श्रुत्कर्ण) बहुश्रुत कानोंवाले राजनीतिशास्त्रवेत्ता (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त राजन् ! आप (वह्निभिः) राज्यभार को वहन करने में समर्थ (सयावभिः) आपके साथ आगमन करनेवाले (देवैः) विद्वान् मन्त्री आदि राजपुरुषों के साथ (श्रुधि) हमारे निवेदन को सुनिए। (अध्वरे) राष्ट्रयज्ञ में (प्रातर्यावभिः) जो प्रजा का सुख-दुःख सुनने के लिए प्रातःकाल सभा में उपस्थित होते हैं, ऐसे राज्याधिकारियों सहित (मित्रः) मित्रवत् व्यवहार करनेवाले राजसचिव और (अर्यमा) श्रेष्ठों को सम्मानित तथा अन्य अश्रेष्ठों को दण्डित करनेवाले न्यायाधीश (बर्हिषि) राज्यासन पर (आसीदतु) बैठें ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥
भावार्थ
उपासक लोग पवित्र भावों के प्रेरक प्रभातकाल में जो उपासना-यज्ञ करते हैं, उसमें परमात्मा के साथ शम, दम, तप, स्वाध्याय, दान, दया, न्याय आदि विविध गुण भी हृदय में प्रादुर्भूत होते हैं। उस काल में अनुभव किये गये परमात्मा को और सद्गुणों को स्थिररूप से हृदय में धारण कर लेना चाहिए और प्रजापालक राजा को यह उचित है कि वह राज्य-संचालन में समर्थ, योग्य मन्त्री, न्यायाधीश आदि राजपुरुषों को नियुक्त करके उनके साथ प्रजा के सब कष्टों को सुनकर उनका निवारण करे ॥६॥
पदार्थ
(श्रुत्कर्ण-अग्ने) हे श्रवणसमर्थ कर्णशक्तिवाले—श्रवणार्थ शक्तिरूप कर्ण वाले परमात्मन्! तू (श्रुधि) मेरी प्रार्थना को सुन स्वीकार कर, वह यह कि (अध्वरे बर्हिषि) अध्यात्म यज्ञ में हृदयाकाश में (सयावभिः-वह्निभिः-देवैः) साथ गमन करने वाले, साथ प्राप्त होने वाले निजस्वरूप वाहक दिव्यगुणों के साथ तू ‘आसीद-इत्याकांक्षा’ आ विराज। तथा (मित्रः-आसीदतु) आप वायुरूप होकर “अयं वै वायुर्मित्रोऽयं पवते” [श॰ ६.५.४.१४] विराजें (प्रातर्यावभिः-अर्यमा ‘आसीदतु’) आप अपने से प्रथम आने वाले—प्राप्त होने वाले गुणों के साथ सूर्यरूप में “अर्यमा-आदित्यः” [निरु॰ ११.१३] आ विराजें।
भावार्थ
परमात्मा स्तुति आमन्त्रण को सुनने में स्वीकार करने में पूर्ण समर्थ और स्वतन्त्र है वह उपासक के हृदय में आता है अग्निरूप में ज्वालाओं के समान वाहक गुणों के साथ, वायुरूप में प्रवाहों के समान प्रेरक गुणों के साथ और सूर्यरूप में प्रातः रश्मियों के समान ज्ञानप्रकाशक गुणों के साथ, वह तेज, बल और ज्ञान का दाता है॥६॥
विशेष
ऋषिः—प्रस्कण्वः (प्रकृष्ट मेधावी उपासक)॥<br>
विषय
हृदय में किनका वास हो ?
पदार्थ
हे (अग्ने)=आगे ले-चलनेवाले (श्रुत्कर्ण) = ज्ञान को विकीर्ण करनेवाले प्रभो! [श्रूयते इति श्रुत्, तद् विकिरति] (श्रुधि)= मेरी पुकार को सुनिए। आप (देवै:) = दिव्य गुणों के साथ तथा (मित्र:)=स्नेह की देवता और (अर्यमा)- दान की देवता [अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति] ये सब (अध्वरे) = हिंसा की भावना से शून्य (बर्हिषि) = बढ़े हुए [विशाल, महान्] मेरे हृदय में (आसीदतु) = आकर विराजमान हों।
ये दिव्य भावनाएँ कैसी हैं-
[क] (वह्निभिः)=ये मुझे उस प्रभु के समीप ले जानेवाली हैं [ to carry ] । जितनी-जितनी दिव्यता हम प्राप्त करेंगे उतना उतना प्रभु के समीप पहुँचते जाएँगे।
[ख] (सयावभिः)=[सह यान्ति] ये सब दिव्य गुण साथ-साथ चलनेवाले हैं। हम एक भी दिव्य गुण को अपनाने का यत्न करेंगे तो शेष गुण हमें स्वतः प्राप्त हो जाएँगे।
[ग] (प्रातर्यावभिः)=[प्रातः यान्ति] ये प्रातः काल ही प्राप्त करने के योग्य हैं। प्रातः उठते ही दिव्य भावनाओं के धारण का संकल्प करना चाहिए। यदि हम अपने हृदयों में दिव्य भावनाओं को न बिठाएँगे तो वहाँ आसुर भावनाएँ बैठ जाएँगी।
बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम इन अशुभ भावनाओं को दूर ही रक्खें। इस मन्त्र का ऋषि ‘प्रस्कण्व’=बुद्धिमान् है । वह इस रहस्य को खूब समझता है।
भावार्थ
मेरा हिंसाशून्य, विशाल हृदय प्रभु का, देवताओं का, स्नेह का तथा देने की वृत्ति का निवासस्थान बने।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( श्रुत्कर्ण ) = श्रवण करने में समर्थ, कर्णेन्द्रिय से सम्पन्न अग्ने ! ज्ञानवन् ! ( श्रुधि ) = आप हमारा निवेदन सुनो । ( सयावभि : ) = समान गति, ज्ञान से सम्पन्न ( वह्निभिः ) = कार्यभार को उठाने में दक्ष, एवं प्रकाशमान ( देवैः ) = देवों के साथ ( मित्रः ) = मित्र, सबको स्नेह करने वाला ( अर्यमा ) = न्यायकारी, स्वामी के पद पर स्थापित, ( प्रातर्यावभिः ) = प्रातःकाल, देवयजन स्थान में आने वाले विद्वानों के सहित ( अध्वरे बर्हिषि ) = हिंसारहित यज्ञ एवं आसन पर ( आसीदतु ) = विराजमान हो ।
टिप्पणी
५० - ‘आसिदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - प्रस्कण्व: काण्व :।
छन्दः - बृहती।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मानं राजानं च प्रार्थ्यते।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। हे (श्रुत्कर्ण) ! शृणोतीति श्रुत्, श्रुतौ श्रवणशीलौ कर्णौ यस्य स श्रुत्कर्णः, अपरिमितश्रोत्रशक्तिसम्पन्नः, तादृशः। परमात्मनो निरवयवत्वात् कर्णशब्देन तदीया श्रवणशक्तिर्लक्ष्यते। उक्तं च—अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। इति। श्वेता० उप० ४।१९। (अग्ने) परमात्मन् ! त्वम् (वह्निभिः) वहन्तीति वह्नयः अश्वाः तैः अश्वभूतैः अश्ववद् वहनशीलैः, अश्वा यथा स्वपृष्ठमारोप्य जनान् लक्ष्यस्थानं प्रापयन्ति तथा ये स्तोतारं समुन्नतिशिखरं नयन्ति तादृशैः। वह्निः अश्वनाम। निघं० १।१४। (सयावभिः२) त्वया सहैव यान्ति समागच्छन्ति ये तथाविधैः (देवैः) दिव्यगुणैः सार्द्धम्, (श्रुधि) मदीयां प्रार्थनां शृणु, यथा त्वं मत्प्रार्थनां श्रोष्यसि तथा दिव्यगुणा अपि शृण्वत्विति भावः। (अध्वरे) हिंसादिकल्मषरहिते प्रातःक्रियमाणे ममोपासनायज्ञे (प्रातर्यावभिः) प्रातः यज्ञं समायान्ति तैः दिव्यगुणैः सह (मित्रः) मित्रवत् स्नेहशीलः (अर्यमा) न्यायशीलो भवान् (बर्हिषि) हृदयासने (आसीदतु) उपविशतु ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (श्रुत्कर्ण) श्रुतौ बहुश्रुतौ कर्णौ यस्य तादृश राजनीतिशास्त्रवेतः (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त राजन् ! त्वम् (वह्निभिः) राज्यभारवहनसमर्थैः (सयावभिः) सह यान्ति ये तैः (देवैः) विद्वद्भिः अमात्यादिभिः राजपुरुषैः सह (श्रुधि) अस्मन्निवेदनं शृणु। (अध्वरे) राष्ट्रयज्ञे (प्रातर्यावभिः) ये प्रजायाः सुखदुःखादिकं श्रोतुं प्रातः सभां यान्ति तैः राज्याधिकारिभिः सह (मित्रः) मित्रवदाचरन् राजसचिवः (अर्यमा) यः अर्यान् श्रेष्ठान् मानयति अश्रेष्ठाँश्च दण्डयति स न्यायाधीशश्च (बर्हिषि) राज्यासने (आसीदतु) उपविशतु ॥६॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥
भावार्थः
उपासकैः पवित्रभावप्रेरके प्रभातकाले य उपासनायज्ञः क्रियते तस्मिन् परमात्मना सह शमदमतपःस्वाध्यायदानदयान्यायप्रभृतयो विविधा गुणा अपि हृदये प्रादुर्भवन्ति। तस्मिन् कालेऽनुभूतः परमात्मा सद्गुणगणश्च स्थिररूपेण हृदि धारणीयः। किञ्च, प्रजापालको राजा योग्यानमात्यन्यायाधीशादीन् राज्यवहनसमर्थान् राजपुरुषान् नियुज्य तैः सह प्रजायाः सर्वाणि कष्टानि श्रुत्वा तन्निवारणं कुर्यात् ॥६॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।४४।१३, य० ३३।१५। उभयत्र आसीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् इति पाठः। २. त्वया सह ये यान्ति ते सयावानः तैः सयावभिः सहगामि- भिरित्यर्थः—इति वि०। ३. दयानन्दर्षिणा ऋग्वेदे यजुर्वेदे चायं मन्त्रः क्रमेण विद्वत्परो राजपरश्च व्याख्यातः। एष तावद् यजुर्भाष्ये तत्कृतो भावार्थः—सभापतिना राज्ञा सुपरीक्षितानमात्यान् स्वीकृत्य तैः सह सदसि स्थित्वा विवदमानवचांसि श्रुत्वा समीक्ष्य यथार्थो न्यायः कर्तव्य इति।
इंग्लिश (3)
Meaning
Hear, O man, who hast ears to hear. Just as God, Prana and Apana reside in Sushumna and worshippers, early in the morning practise Yoga, so shouldst thou practise concentration.
Translator Comment
Sushumna is a particular artery of the human body in the vicinity of the heart, said to lie between Ida and Pingla, two of the arteries of the body. In this verse God exhorts man to control his breaths and practise Yoga.
Meaning
Listen lord, you have the ear, listen to the constant crackle of the blazing flames of fire within. Come Mitra, friends of humanity, come Aryama, powers of justice, come moving travellers, to the house of yajna, join the sacred cause of love and non-violence and sit on the holy grass around the vedi-fire. (Rg. 1-44-13)
Translation
O adorable God, may you with your divine ears, please listen to my prayers. Let Nature's bounties like the sun and the morning breeze and other morning glories appear and gracefully participate in the sacred performance of worship. (Cf. Rv I.44.13)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (श्रुतकर्ण अग्ने) હે શ્રવણ સમર્થ કર્ણ શક્તિવાળા, શ્રવણ માટે શક્તિરૂપ કર્ણવાળા પરમાત્મન્ ! તું (श्रुधि) મારી પ્રાર્થનાને સાંભળ, સ્વીકાર, તે એ કે (अध्वरेबर्हिषि) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં હૃદયાકાશમાં (सयावभिःवह्निभिः देवैः) સાથે ગમન કરનાર, સાથે પ્રાપ્ત થનાર નિજ સ્વરૂપ વાહક દિવ્ય ગુણોની સાથે તું આવ, બિરાજ; તથા (मित्रः आसीदतु) આપ વાયુ રૂપ બનીને બિરાજો-બેસો. (प्रातर्यावभिः अर्यमा आसीदतु) આપ આપનાથી પ્રથમ આવનાર - પ્રાપ્ત થનાર ગુણોથી સાથે અર્યમા = સૂર્ય રૂપમાં આવીને બિરાજો.
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા સ્તુતિ આમંત્રણને સાંભળવા તથા સ્વીકાર કરવામાં પૂર્ણ સમર્થ અને સ્વતંત્ર છે, તે ઉપાસકનાં હૃદયમાં અગ્નિરૂપમાં જ્વાળાઓ સાથે આવે છે, વાયુરૂપમાં પ્રવાહોની સમાન પ્રેરક ગુણોની સાથે તથા સૂર્યરૂપમાં પ્રાતઃ રશ્મિઓની સમાન જ્ઞાન-પ્રકાશક ગુણોની સાથે આવે છે; તે તેજ, બળ અને જ્ઞાનનો દાતા છે. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
سب کی سُننے والے میری بھی سُنو
Lafzi Maana
(شُرت کرن) ہے سب کی سُننے والے (اگنی) پرماتمن! (شُردھی) ہماری پرارتھناؤں کو سُنیے۔ (پراترباوبھی) پراتہ کال ہونے والی اور (سیادبھی) اور سب کو برابر حاصل ہو رہی (رہنی بھی) تتھا اگنی کے سمان چمکنے والی (دئیوی) دِویہ کِرنوں کے ساتھ ساتھ اُس برہم مہورت یا پراتہ میں کئے جانے والے (اُدھوُرے) میرے پریم پوُرن اہنسک بھگتی یوگ دھیان روچی یگیہ میں ہے بھگوان! آپ (مِترّ) سچّے مِترّ ہو کر اتی پیار سے اور (اریما) نیائے کاری کے روپ میں بھی (برہشی) میرے دل کے مندر میں (آسیدتوُ) آ کر براجمان ہوویں۔
मराठी (2)
भावार्थ
उपासक हे पवित्र भावांचे प्रेरक असतात. ते प्रभातकाळी जो उपासना यज्ञ करतात, त्यात परमात्म्याबरोबरच शम, दम, तप, स्वाध्याय, दान, दया, न्याय इत्यादी विविध गुण ही हृदयात प्रादुर्भूत होतात. त्या अनुभवलेल्या परमात्म्याला व सद्गुणांना स्थिररूपाने हृदयात धारण केले पाहिजे. प्रजापालक राजाने राज्य संचालनात समर्थ व्हावे. योग्य मंत्री व न्यायाधीश इत्यादी राजपुरुषांना नियुक्त करून त्यांच्याबरोबर प्रजेचे सर्व कष्ट ऐकून त्यांचे निवारण करावे ॥६॥
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वराला व राजाला प्रार्थना केली आहे. -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमात्मपरक) हे (श्रुत्कर्ण) ऐकणाऱ्या कानांनी युक्त म्हणजे अपरिमित श्रवणशक्ती असणाऱ्या (अग्ने) परमात्मन् आपण (वहिभि:) अश्वाप्रमाणे वहन करणारे म्हणजे जसे घोडे आपल्या पाठीवर बसवून लोकांना गन्तव्य स्थानापर्यंत नेतात, तद्वत हे परमेश्वर, आपण उपासकाला उत्कर्षाच्या शिखरापर्यंत नेता. सयावभि: आपल्या सोबत येणाऱ्या वा असणाऱ्या (देवै) दिव्य गुणांसह आपण (श्रुधि) माझी प्रार्थना ऐका (अध्वरे) हिंसा आदी मालिव्य दोघांनी रहित अशा माझ्या उपासना यज्ञात (प्रातर्याघभि:) प्रात:काळी यज्ञाप्रसंगी हृदयात उदित होणाऱ्या दिव्य गुणांसह (मित्रा) मित्राप्रमाणे स्नेहशील (अर्यमा) न्यायकारी असे आपण माझ्या हृदयासनावर (आसीदतु) विराजमान व्हा. ।। द्वितीय अर्थ : (शजापरक) हे (श्रुत्कर्ण) बहुश्रुत अथवा अनेकांचे वचन/प्रार्थना ऐकणारे राजनीतिकुशल (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त राजन् आपण (वहिभि:) राज्यशासन करण्यात समर्थ असून (सदावभि:) आपल्यासोबत येणाऱ्या (देवै) विद्वान मंत्री आदी राजपुरुषांसह (श्रुधि) आमचे निवेदन ऐका. आश्व (अध्वरे) या राष्ट्रयज्ञात (प्रातर्यावभि:) प्रजेचे सुख-दु:ख वा म्हणणे ऐकण्यासाठी सकाळीच राजसभेत उपस्थित होणारे आहात. अशा राज्याधिकाऱ्यांसह (मित्र:) मित्राप्रमाणे आचरण करणारे राजसचिव आणि (अर्थमा) श्रेष्ठजनांना सन्मानित करणारे आणि इतर अश्रेष्ठजनांना देहित करणारे न्यायाधीश या सर्व जणांनी (बर्हिषि) आपापल्या वान्यासनावर (आसदितु) बसावे. ।।६।।
भावार्थ
पवित्र भावनांचा प्रेरक जो प्रभातकाळ त्या प्रभातकाळी जे उपासकगण उपासना यज्ञ करतात. त्या यज्ञात परमात्मा राम, दम, तप, स्वाध्याय, दान, दया, न्याय आदी विविध गुणदेखील उदित होतात. त्याकाळी हृदयात अनुभूत परमेश्वरास आणि सद्गुणांना उपासकाने हृदयात स्थायीरूपेण धारण केले पाहिजे. तसेच प्रजापालक राजाचेही कर्तव्य आहे की त्याने राज्यसंचालनात सक्षम, योग्य मंत्री, न्यायाधीश आदी राजपुरुषांची नेमणूक करून त्यांच्यासह प्रजाजनांच्या गाऱ्हाणे ऐकून त्याचे निवारण करावे. ।।६।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।।६।।
तमिल (1)
Word Meaning
செவி சாமர்த்தியமுள்ளவனே ! செவி சாய்க்கவும். யக்ஞத்தில [1]தர்ப்பையிலே [2]மித்திரன் அயமான் காலையில் செல்லும் தேவர்களோடு உன்னைப்போல் செல்லும் தேவர்களோடு அக்னியே! [3] உட்காரட்டும்.
FootNotes
[1].தர்ப்பையிலே - இருதயத்தில் [2].மித்திரன் - நட்பு நியாயம் முதலிய நீதி செயல்களோடு [3].உட்காரட்டும் - விளங்குகிறாய்
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