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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 545
    ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    21

    पु꣣रो꣡जि꣢ती वो꣣ अ꣡न्ध꣢सः सु꣣ता꣡य꣢ मादयि꣣त्न꣡वे꣢ । अ꣢प꣣ श्वा꣡न꣢ꣳश्नथिष्टन꣣ स꣡खा꣢यो दीर्घजि꣣꣬ह्व्य꣢꣯म् ॥५४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु꣣रो꣡जि꣢ती । पु꣣रः꣢ । जि꣣ती । वः । अ꣡न्ध꣢꣯सः । सु꣣ता꣡य꣢ । मा꣣दयित्न꣡वे꣢ । अ꣡प꣢꣯ । श्वा꣡न꣢꣯म् । श्न꣣थिष्टन । श्नथिष्ट । न । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । दीर्घजिह्व्य꣢꣯म् । दी꣣र्घ । जिह्व्य꣢꣯म् । ॥५४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरोजिती वो अन्धसः सुताय मादयित्नवे । अप श्वानꣳश्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्व्यम् ॥५४५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरोजिती । पुरः । जिती । वः । अन्धसः । सुताय । मादयित्नवे । अप । श्वानम् । श्नथिष्टन । श्नथिष्ट । न । सखायः । स । खायः । दीर्घजिह्व्यम् । दीर्घ । जिह्व्यम् । ॥५४५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 545
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में यह कथन है कि परमानन्द पाने के लिए क्या करना चाहिए।

    पदार्थ

    हे (सखायः) साथियो ! (वः) तुम (अन्धसः) ध्यान करने योग्य परमात्मा रूप सोम के (मादयित्नवे) हर्षित करनेवाले (सुताय) आनन्द-रस को (पुरोजिती) आगे बढ़ कर प्राप्त करने के लिए (दीर्घजिह्व्यम्) लम्बी जीभवाले अर्थात् निरन्तर बढ़ते रहनेवाले (श्वानम्) श्वान के स्वभाव को अर्थात् संसारिक विषय-भोगों के प्रति लोभ को (श्नथिष्टन) नष्ट कर दो। अभिप्राय यह है कि सांसारिक विषयों से मन को हटा कर परमात्मा में केन्द्रित करो ॥१॥ इस मन्त्र में लोभवृत्ति को कुत्तेवाची ‘श्वन्’ शब्द से कथित करने के कारण असम्बन्ध में सम्बन्धरूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    लम्बी जीभ से विषयभोगों के रस को चाटनेवाले लोभ रूप श्वान को विनष्ट करके ही मनुष्य परमात्मयोग-जन्य तीव्र आनन्द को पा सकते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (सखायः) हे उपासक मित्रो! (वः) ‘यूयम् विभक्ति व्यत्ययः’ तुम (पुरोजिती) पुरः—संघर्ष संग्राम से पूर्व ही जिति—जय—अधिकार जिसका है उस प्रथम से सर्वस्वामी “सुपां सुलुक्-पूर्वसवर्णाच्छे.....” [अष्टा ७.१.३९] (अन्धसः) आध्यानीय शान्त परमात्मा के (मादयित्नवे सुताय) हर्षजनक निष्पन्न—साक्षात्कार करने योग्य के लिये (दीर्घजिह्व्यम्) आयु—जीना ही रस—भोग लक्ष्य जिसका है ऐसे—“आयुर्वै दीर्घम्” [तां॰ १३.११.१२] ‘जिह्व्या ग्राह्यो जिह्व्यो रसो रसभोगः’ (श्वानम्) कुत्ते के समान को ‘लुप्तोपमावाचकालङ्कारः’ (अपश्नथिष्टन) नष्ट करो “श्नथतिः-वधकर्मा” [निघं॰ २.१९] “जहि श्वयातुम्” [ऋ॰ ७.१०४.१२२]।

    भावार्थ

    उपासक जनो! तुम प्रथम से ही संघर्ष संग्राम की अपेक्षा न करते हुए सबके स्वामी सर्ववशी समन्तरूप से ध्यान करने योग्य परमात्मा के आनन्दकारी साक्षात्कार के लिये अपने अन्दर से जीने मात्र को भोग बनाने वाले कुत्ते सदृश काम भाव को नष्ट करो॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—श्यावाश्वः (निर्मल इन्द्रिय घोड़ों वाला संयमी उपासक)॥ छन्दः—१-६ अनुष्टुप्॥<br>

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    विषय

    जिह्वा - रस से दूर

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'अन्धीगुः श्यावाशिवः' है। अन्ध उस संन्यासी को कहते हैं जिसने कि इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में किया है। 'अन्धस्य गावो यस्य' उस साधु की भाँति है ज्ञानेन्द्रियाँ जिसकी ऐसा यह व्यक्ति 'अन्धीगुः' है। 'अन्धीगुः बनने के लिए ही वस्तुतः इसने [श्यैङ्तौ] सदा कर्मेन्द्रियों को कर्मव्याप्त रक्खा है । यह अन्धीगु (अन्धसः) = आध्यायनीय सोम
    के (पुरोजिती) = [जित्या] पूर्ण विजय के हेतु से कहता है कि हे (सखायः) = मित्र! (वः) =तुम्हारे (दीर्घजिह्वयम्) = दीर्घ जिह्वावाले (श्वानम्) = कुत्ते को (अपश्नथिष्टन्) = अपने से दूर हिंसित कर दो। (‘जहि श्वयातुम्') = मन्त्रभाग में भी यही कहा गया है कि कुत्ते के मार्ग को छोड़ दो। कुत्ता जिह्वालौल्य का प्रतीक है - वह टुकड़े को अपने सजातीय से छीनने के लिए लड़ता है। वान्त= = कै का भी अशन कर जाता है। इस जिह्वा के असंयम का परिणाम उपस्थ का असंयम है। जिह्वा के रस में फँसा हुआ व्यक्ति कभी भी सोम का पूर्ण संयम नहीं कर सकता।

    पर प्रश्न तो यह है कि इस सोम के संयम की आवश्यकता ही क्या है? इसका उत्तर
    देते हुए कहते हैं कि १. (सुताय) = उत्पादन के लिए सोम का संयम आवश्यक है। संयमी पुरुष ही कुछ निर्माण का कार्य कर सकते हैं । २. (मादयित्नवे) = प्रसन्न बनाने के लिए यह संयत सोम साधक बनता है। संयमी पुरुष का जीवन उल्लासमय होता है - वह कभी मुरझाए हुए चेहरेवाला नहीं दिखता। एवं 'हमारा जीवन सदा उल्लासमय हो' और 'हम कुछ-न-कुछ निर्माणात्मक कार्य कर पाएँ' इन दोनों बातों के लिए संयम की आवश्यकता है और उस संयम के लिए जिह्वारस को कुचलना आवश्यक है। जिह्वारस से बचेंगे और कर्म में लगे रहेंगे तो ज्ञानेन्द्रियों पर अवश्य प्रभुत्व पा पाएँगे। यह पाँचो ज्ञानेन्द्रियों को अवस्थित करनेवाला' व्यक्ति ही अन्धीगु है ।

    भावार्थ

    मैं जिह्वा का संयम साधूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( सखायः ) = मित्रो ! ( वः ) = आप लोग ( पुरोजिती ) = आगे बहिर्मुखता को विजय करने हारी ( अन्धसः ) = जीवन को धारण करने वाली शक्ति से सम्पन्न सोम के ( सुताय ) = उत्पन्न, ( मादयित्नवे ) = अतिपरम आनन्दजनक रस को प्राप्त करने और उसकी रक्षा के लिये ( दीर्घजिह्वयम् ) = लम्बी जीभ वाले, दूर तक विषय-रस लेने हारे । अतितृष्णालु इस ( श्वानम् ) = कुक्कुर के समान लोभी, भोगी मनको ( अप श्नथिष्टन ) = विषयों के रस से दूर रख कर शिथिल करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः.

    देवता - पवमानः.

    छन्दः - अनुष्टुप्.

    स्वरः - गान्धारः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमानन्दमाप्तुं किं कर्तव्यमित्याह।

    पदार्थः

    हे (सखायः) सुहृदः ! (वः) यूयम् (अन्धसः) आध्यायनीयस्य परमात्मरूपस्य सोमस्य। अन्धः आध्यायनीयं भवति। निरु० ५।१। (मादयित्नवे) हर्षकरस्य (सुताय) आनन्दरसस्य। उभयत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वक्तव्यम् अ० २।३।६२ वा० इत्यनेन षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (पुरोजिती) पुरोजित्यै अग्रेजयाय। अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति चतुर्थ्येकवचनस्य पूर्वसवर्णदीर्घः। (दीर्घजिह्व्यम्) दीर्घजिह्वम्, सततविस्तारशीलम्। दीर्घा जिह्वा यस्य स दीर्घजिह्वः, ततः ‘पादार्घाभ्यां च। अ० ५।४।२५’ इत्यत्र चकारस्यानुक्तसमुच्चयत्वेन दीर्घजिह्वशब्दात् स्वार्थे यत् प्रत्ययः२। (श्वानम्३) सांसारिकविषयलालसारूपम् सारमेयस्वभावम् (अप श्नथिष्टन) स्वान्तःकरणात् विनाशयत। श्नथतिः हन्तिकर्मा। निघं० २।१९। ‘तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५’ इति तस्य तनादेशः। सांसारिकविषयेभ्यो मनः प्रतिनिवर्त्य परमात्मन्येव केन्द्रीकुरुतेति भावः ॥१॥४ अत्र लोभस्य श्वशब्देन कथनादसम्बन्धे सम्बन्धरूपोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    दीर्घजिह्वया विषयरसान् लेलिहानं लोभरूपं श्वानं विनाश्यैव जनैः परमात्मयोगजन्योऽमन्दानन्दोऽधिगन्तुं शक्यते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०१।१, साम० ६९७। २. दीर्घा जिह्वा अस्य स दीर्घजिह्वी ‘दीर्घजिह्वी च छन्दसि’ अ० ४।१।५९ इति ङीषन्तत्वेन निपातितः। तादृशम्—इति सा०। तत्तु न समञ्जसम्, ‘श्वानम्’ इति पुल्लिङ्गेन ‘दीर्घजिह्व्यम्’ इति स्त्रिया घटनाऽयोगात्। ३. श्वानम् कञ्चिदुपद्रवकर्तारम् अपघ्नत—इति वि०। श्वानम् उपघातकम्—इति भ०। यथा श्वा राक्षसा वा सुतं सोमं न लिहन्ति तथा कुरुत—इति सा०। ४. पशुपक्ष्यादिनामभिः केषाञ्चिद् दुर्गुणानां व्यक्तीकरणं वेदेष्वन्यत्रापि दृश्यते। यथा ‘समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया। ऋ० १।२९।५’, ‘उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्। ऋ० ७।१०४।२२’ इत्यादौ।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ye friends! For protecting the accomplished and gladdening soul, that subdues devotion to external objects, and is endowed with life-preserving force, control this long-tongued dog.

    Translator Comment

    Long-tongued dog, means the mind, that is thirsty, avaricious and voluptuous like a dog.

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    Meaning

    O friends, for your attainment of the purified and exhilarating Soma bliss of existence, eliminate vociferous disturbances of the mind and concentration the deep resounding voice of divinity. (Rg. 9-101-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सखायः) હે ઉપાસક મિત્રો ! (वः) તમે (पुरोजिती) પુરઃ-સંઘર્ષ સંગ્રામથી પૂર્વેજ જિતીજય - અધિકાર જેનો છે તે પ્રથમથી સર્વ સ્વામી (अन्धसः) અધ્યાનીય શાન્ત પરમાત્માના (मादायित्नवे सुताय) હર્ષજનક નિષ્પન્ન-સાક્ષાત્કાર કરવા યોગ્યને માટે (दीर्घजिह्म्यम्) આયુ-જીવવું જ રસ-ભોગ જેનું લક્ષ્ય છે એવા (श्वानम्) કૂતરાં સમાનને (अपश्नथिष्टन) નષ્ટ કરો. (૧)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસક જનો ! તમે પ્રથમથી જ સંગ્રામની અપેક્ષા કરતાં સર્વના સ્વામી, સર્વવશી, સમગ્ર રૂપથી ધ્યાન કરવા યોગ્ય પરમાત્માના આનંદકારી સાક્ષાત્કારને માટે તમારી અંદરથી જીવવા માત્રને ભોગ બનાવનાર કૂતરાંની માફક કામભાવનો નાશ કરો. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پرماتما کے وصال کا راستہ صاف کر دو

    Lafzi Maana

    پیارے دوستو! اِس انسانی جامہ میں اُتم انّ وغیرہ ساتوک کھان پان کے ذریعے شُدھ، پوتر من سے جو آنند روپ پرماتما کی پراپتی ہوتی ہے، اُس من میں کتے کی طرح لوبھ لالچ اور کام واسنا کو مار ڈالو۔ تاکہ بھگوان کے وصال میں کوئی رکاوٹ نہ رہے۔

    Tashree

    بھگوان ملن کی ویلا ہے یہ جنم منش کا ملا ہے جو، حرص وہوس اور کام واسنا چھوڑ کے اُس کو اب پا لو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    लांब जिभेने विषयभोगाच्या रसाला चाटणाऱ्या लोभरूपी श्वानाला नष्ट करूनच माणूस परमात्मयोगजन्य तीव्र आनंद प्राप्त करू शकतो ॥१॥

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    विषय

    प्रथम मंत्रात हे सांगितले आहे की परमानंद प्राप्त करण्यासाठी मनुष्याने काय करावे -

    शब्दार्थ

    हे (सखायः) मित्रांनो वा सोबत असलेल्या लोकांनो (वः) तुम्ही (अन्धसः) ज्याचे ध्यान अवस्य केले पाहिजे, अशा परमात्मरूप सोमाला (मादवित्नवे) हर्षित करणाऱ्या (सुताय) आनंद - रस (पुरोजिती) पुढे येऊन घेण्यासाठी (दीर्घजिहृयम्) लांब जिहृा असलेल्या म्हणजे निरंतर सतत वाढत जाणाऱ्या (श्वानम्) कुत्र्यासारखा तुमच्या स्वभावाला म्हणजे विषय भोगाकडे वाढत जाणाऱ्या तुमच्या लोभवृत्ती (श्नथिष्टन) विनष्ट करा. तात्पर्य असे की सांसारिक विषयांकडून मनाला दूर करून त्याला परमात्म्यावर केंद्रित करा.।। १।।

    भावार्थ

    श्वान ज्या प्रकारे आपल्या लांब जिभेने वस्तूना चाटत असतो, तद्वत मनाची लोभवृत्ती विषय - भोगाकडे उपभोगासाठी घानते. त्यास नष्ट केले, तरच मनुष्य परमात्मरूप तीव्र आनंद प्राप्त करू शकतो. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात कुत्रावाचक ङ्गश्वन्फ या शब्दाद्वारे लोभवृत्ती अभिप्रेत असल्यामुळे असंबंधात संबंध दाखवले आहे. यामुळे येथे अतिशयोक्ति अलंकार आहे.।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நண்பர்களே ! உங்கள் முதன்மையான சோமனைப்
    பற்றவும். சந்தோஷமளிக்கும் பானத்திற்கு [1] நாயை நீண்ட
    நாக்கை துரத்தவும்.

    FootNotes

    [1] நாயை- நாக்கை உள்ளே செலுத்தி சோம பானம் பருகவும். [ஹ-யோகம்]

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