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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 552
ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिष्वा भारद्वाजश्च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
30
प꣢रि꣣ त्य꣡ꣳ ह꣢र्य꣣त꣡ꣳ हरिं꣢꣯ ब꣣भ्रुं꣡ पु꣢नन्ति꣣ वा꣡रे꣢ण । यो꣢ दे꣣वा꣢꣫न्विश्वा꣣ꣳ इ꣢꣫त्परि꣣ म꣡दे꣢न स꣣ह꣡ गच्छ꣢꣯ति ॥५५२॥
स्वर सहित पद पाठप꣡रि꣢꣯ । त्यम् । ह꣣र्यतम् । ह꣡रि꣢꣯म् । ब꣣भ्रु꣢म् । पु꣣नन्ति । वा꣡रे꣢꣯ण । यः । दे꣣वा꣢न् । वि꣡श्वा꣢꣯न् । इत् । प꣡रि꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯न । स꣣ह꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯ति ॥५५२॥
स्वर रहित मन्त्र
परि त्यꣳ हर्यतꣳ हरिं बभ्रुं पुनन्ति वारेण । यो देवान्विश्वाꣳ इत्परि मदेन सह गच्छति ॥५५२॥
स्वर रहित पद पाठ
परि । त्यम् । हर्यतम् । हरिम् । बभ्रुम् । पुनन्ति । वारेण । यः । देवान् । विश्वान् । इत् । परि । मदेन । सह । गच्छति ॥५५२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 552
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जीवात्मा के शोधन का विषय वर्णित है।
पदार्थ
योगसाधना करनेवाले लोग (त्यम्) उस (हर्यतम्) चाहने योग्य, (बभ्रुम्) शरीर के भरण-पोषणकर्ता (हरिम्) अपने आत्मा को (वारेण) दोष-निवारक यम, नियम आदि तथा ईश्वरप्रणिधान के द्वारा (पुनन्ति) शुद्ध करते हैं, (यः) जो आत्मा योगसिद्ध होने पर (मदेन सह) आनन्द के साथ (विश्वान् इत्) सभी (देवान्) प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, इन्द्रिय आदियों को (परिगच्छति) व्याप्त कर लेता है ॥ सोम ओषधि का रस भी हरि कहलाता है। श्लेष से उसके पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। उस पक्ष में ‘बभ्रु’ का अर्थ होता है भूरे रंग का और ‘वार’ का अर्थ भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्र, जिससे सोमरस को छानकर शुद्ध करते हैं। वह सोमरस आनन्द देता हुआ सब पानकर्ताओं को प्राप्त होता है ॥८॥
भावार्थ
असत्य, हिंसा, छल, कपट, संशय, प्रमाद, आलस्य, भ्रान्ति आदि दोषों से दूषित अपने आत्मा को योग के उपायों से शुद्ध करके ही मनुष्य ऐहिक और पारमार्थिक उत्कर्ष पाने योग्य होता है ॥८॥
पदार्थ
(त्यं हर्यतं हरिं बभ्रुम्) उस कमनीय दुःखापहर्ता सुखाहर्ता सोम—शान्त परमात्मा को “सोमो वै बभ्रुः” [श॰ ७.२.४.२६] (वारेण पुनन्ति) वारण करने के साधन मन से संस्कृत करते हैं (यः) जो कि (मदेन सह) अपने हर्ष—आनन्द के साथ (विश्वान् देवान्) सब इन्द्रियों को (इत्) ही (परिगच्छति) परिप्राप्त होता है।
भावार्थ
उपासकजन उस कामना योग्य दुःखापहरणकर्ता सुखाहरणकर्ता शान्तस्वरूप परमात्मा को वरणसाधन—मन से संस्कृत करते—निश्चय कर अपनाते हैं, जो समस्त इन्द्रियों को अपने आनन्द से परिप्राप्त होता है॥८॥
विशेष
ऋषिः—ऋजिश्वाम्बरीषावृषी (ऋजुगामी इन्द्रिय घोड़ों वाला और हृदयाकाश में परमात्मा को प्राप्त करने वाला)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
ठीक चुनाव, ठीक प्रगति
पदार्थ
‘अम्बरीष' = आये-गये का मधुर शब्दों में स्वागत करनेवाला 'वर्षागिर' = जिसकी वाणी से मधु टपकता है, वह अपने जीवन को उस व्यक्ति जैसा बनाता है (यः) = जो (विश्वा देवान्) = सब दिव्य गुणों की ओर (इत्) = सचमुच (मदेन सह) = आनन्द के साथ (परि गच्छति) = जाता है। दिव्य गुणों में आनन्द लेनेवाला व्यक्ति उस उत्तम मार्ग पर उत्साह से चलता है और लक्ष्य स्थान पर अवश्य ही पहुँचता है। परन्तु इस मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक चलना तभी सम्भव हो सकता है जब हम अपने जीवन का ठीक चुनाव कर लें। इसी ठीक चुनाव का उल्लेख मन्त्र के पूर्वार्ध में है। ये लोग (त्यम्)= उस (हर्यतम्) = काम्य-कामना करने के योग्य-चाहने योग्य (हरिम्) = सब दुःखों के हरनेवाले तथा (बभ्रुम्) = भरण-पोषण करनेवाले प्रभु को वारेण - वासनाओं के वारण के द्वारा (परिपुनन्ति) = ज्ञान का विषय बनाते हैं - प्रभु का चिन्तन करते हैं। प्रभु सर्वव्यापक होने से हमारे अन्दर भी विद्यमान् हैं ही, परन्तु सामान्यतः हमें उस प्रभु का आभास नहीं होता। जब काम-क्रोध का निवारण करके हम अपने ज्ञान को आवृत नहीं होने देते तो उस प्रभु की हमें प्रतीति होती है। उसमें जो आनन्द व शान्ति प्राप्त होती है, वह सांसारिक ऐश्वर्यों इस भरपूर होने पर भी प्राप्त नहीं हो सकती। यह व्यक्ति विचार कर अब ठीक निश्चय करता है। और प्रेय के बजाय श्रेय मार्ग को ही चुनता है । इस ठीक चुनाव को करने के बाद वह आनन्दपूर्वक इस दिव्यता की प्राप्ति के मार्ग पर बढ़ता है। संसार की चकाचौंध से इसकी आँखें चुंधयाती नहीं, यह प्रसिद्धि या यश का भूखा नहीं बनता। अप्रसिद्धि में ही रहकर, चुपचाप लोक सेवा करता हुआ, यह दिव्यता के मार्ग पर आगे-और-आगे बढ़ता ही जाता है।
भावार्थ
मेरा चुनाव ठीक हो, और तब उस श्रेय मार्ग पर मैं प्रसन्नता से आगे बढूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( हर्यतं ) = सब के मनों को हरनेवाले प्रति कान्तियुक्त ( हरिं ) = सर्वव्यापक, सब दुःखों के हरणकारी ( बभ्रुं ) = कान्तिमान्, सबके भरण पोषण करने हारे, ( त्यं ) = उस आत्माको ( वारेण ) = वरण करने वाले भीतरी अन्तःकरण द्वारा या दोषों का वारण करने वाले प्रतिपक्ष - भावना या वितर्क-बाधन द्वारा स्वच्छ करते हैं । ( यः ) = जो आत्मा ( विश्वान् देवान् ) = समस्त देवों, इन्द्रियगण को भी ( मदेन ) = आनन्द-रस के ( सह ) = साथ ( परि गच्छति ) = भर देता है, प्राप्त होता है ।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् । वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् । ( यो० सू० २ । ३३, ३४ ) । प्रतिपक्षभावना से वितर्कों के नष्ट हो जाने पर योगी को सिद्धि के शीघ्र ही लक्षण प्रकट होते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - अम्बरीषऋजिश्वानो ।
देवता - पवमानः।
छन्दः - अनुष्टुप्।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मनः शोधनविषयमाह।
पदार्थः
योगसाधनपरायणा जनाः (त्यम्) तम्। अस्ति तावद् वेदे त्यच्छब्दः तच्छब्दपर्यायः। (हर्यतम्) स्पृहणीयम्, (बभ्रुम्) शरीरस्य भरणपोषणकर्तारम्। बिभर्तीति बभ्रुः, डुभृञ् धारणपोषणयोः ‘कुर्भ्रश्च। उ० १।२२’ इति कु प्रत्ययो धातोर्द्वित्वं च। (हरिम्) स्वकीयम् आत्मानम् (वारेण) दोषनिवारकेण यमनियमादिना ईश्वरप्रणिधानेन च (पुनन्ति) शोधयन्ति, (यः) आत्मा (मदेन सह) आनन्देन सार्धम् (विश्वान् इत्) सर्वान् एव (देवान्) प्राणमनोबुद्धिचित्ताहङ्कारेन्द्रियादीन् (परिगच्छति) व्याप्नोति ॥ सोमौषधिरसरूपः सोमोऽपि हरिरुच्यते। श्लेषेण तत्पक्षेऽप्यर्था योजनीयः। तत्पक्षे बभ्रुः बभ्रुवर्णः। वारः अविबालनिर्मितं दशापवित्रम्, येन सोमरसं पुनन्ति। स च सोमरसः मदेन सह सर्वान् पातॄन् गच्छति ॥८॥
भावार्थः
असत्यहिंसाछलकपटसंशयप्रमादालस्यभ्रान्त्यादिदोषैर्दूषितं स्वकीयमात्मानं योगोपायैः संशोध्यैव मनुष्यः पारमार्थिकमैहिकं चोत्कर्षं प्राप्तुमर्हति ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९८।७।
इंग्लिश (2)
Meaning
Sages discern through their soul, that God, beloved by all, and Sustainer of all. Who verily fills all the forces of nature with joy.
Meaning
Ten psychic powers with the best of their potential adore and exalt that dear divinity, omniscience itself, who, omnipresent, pervades and rejoices with all divinities of the world with divine ecstasy. (Rg. 9-98-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्यं हर्यतं हरिं बभ्रुम्) તે કમનીય દુઃખાપહરણકર્તા સુખાહરણકર્તા સોમ-શાંત પરમાત્માને (वारेण पुनन्ति) વરણ કરવાના સાધન મનથી સંસ્કૃત કરે છે (यः) કે જે (मदेन सः) આપણા હર્ષ-આનંદની સાથે (विश्वान् देवान्) સર્વ ઇન્દ્રિયોને (इत्) જ (परिगच्छति) પરિપ્રાપ્ત થાય છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસકજન એ કામના યોગ્ય દુઃખાપહરણકર્તા સુખાહરણકર્તા શાંત સ્વરૂપ પરમાત્માને વરણ સાધન-મનથી સંસ્કૃત કરતાં-નિશ્ચય કરીને સ્વીકારે છે. જે સમસ્ત ઇન્દ્રિયોને આપણા આનંદથી પરિપ્રાપ્ત થાય છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگوان کے دیئے آنندوں میں مست رہتے ہیں
Lafzi Maana
اُپاسک لوگ اپنی تامسک اور راجسک چت وِرتیوں کو ضبط میں کرکے سب کے دُکھوں کے ہرتا، سب کے رکھشک، جیوتی سوروپ پرمیشور کو ظاہر ظہور کر لیتے ہیں۔ اور بھگوان کے دیئے ہوئے آنندوں کو پا کر سب دن مست رہتے ہیں۔
Tashree
آؤ اُپاسکو بھگت جنو! چِت ورتیوں پر قابو پا لو، تُم رج کو دُور ہٹا کر کے بھگوان کے آنند کو پا لو۔
मराठी (2)
भावार्थ
असत्य, हिंसा, छल, कपट, संशय, प्रमाद, आलस्य, भ्रान्ती इत्यादी दोषांनी दूषित झालेल्या आत्म्याला योगाच्या उपायांनी शुद्ध करूनच मनुष्य ऐहिक व पारमार्थिक उत्कर्ष प्राप्त करण्यायोग्य बनतो ॥८॥
विषय
जीवात्म्याचे शोधन
शब्दार्थ
योगसाधना करणारे साधक (त्यम्) त्या (हर्यतम्) प्रिय वा काम्य (बभ्रुम्) शरीराचा जो धारण पोषणकर्ता (हरिम्) आपल्या आत्म्यास (वारेण) दोष-निवारक यम-नियम व ईश्वर-प्रणिधान आदी उपायांद्वारे (पुनन्ति) पुनीत करतात (यः) जो आत्मा योगसिद्ध झाल्यानंतर (मदेन सह) आनंदाने (विश्वान् इत्) सर्व (देवान्) प्राण, मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार, इन्द्रियें आदींना (परिगच्छति)व्याप्त करतो (त्या सर्वांवर वश मिळवितो)।।८।।
भावार्थ
असत्य, हिंसा, कपट, संशय, प्रभास, आलस्य भ्रान्ति आदी दोषांनी दूषित आपल्या आत्म्याला योग-उपायांनी शुद्ध करून माणूस ऐहिकव पारलौकिक उत्कर्ष प्राप्त करण्यास पात्र होतो. ।।८।।
विशेष
सोम-औषधीच्या रसालादेखील हरि म्हणतात. त्यामुळे श्लेषाद्वारे हरि शब्दाची योजना रसपरकदेखील केली पाहिजे. त्या पक्षात ङ्गबभ्रुफचा अर्थ होईल- ङ्गभुऱ्या रंगाचाफ आणि ङ्गवारफ शब्दाचा अर्थ होईल मेंढीच्या केसांनी निर्मित दशापवित्र (गाळणी) की ज्याद्वारे सोमरस गाळून स्वच्छ व शुद्ध करतात. तो शुद्ध स्वच्छ सोमरस सर्व पिणाऱ्या लोकांना मिळतो. ।।८।।
तमिल (1)
Word Meaning
அனைவராலும் விரும்பப்படும் பொன்னிறத்துடன் மாநிறமாயுள்ளவனை [1]ரோமத்தால் புனிதஞ் செய்கிறார்கள்; எவன் ரசமுடன் இருக்கிறானோ அவன் எல்லா தேவர்களிடத்திலும் செல்லுகிறான்.
FootNotes
[1]ரோமத்தால்-வானத்தால்
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