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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 553
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    15

    प्र꣡ सु꣢न्वा꣣ना꣡यास्यान्ध꣢꣯सो꣣ म꣢र्तो꣣ न꣡ व꣢ष्ट꣣ त꣡द्वचः꣢꣯ । अ꣢प꣣ श्वा꣡न꣢मरा꣣ध꣡स꣢ꣳ ह꣣ता꣢ म꣣खं꣡ न भृग꣢꣯वः ॥५५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । सु꣣न्वाना꣡य꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡र्तः꣢꣯ । न । व꣣ष्ट । त꣢त् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । श्वा꣡न꣢꣯म् । अ꣣राध꣡स꣢म् । अ꣣ । राध꣡स꣢म् । ह꣣त꣢ । म꣣ख꣢म् । न । भृ꣡ग꣢꣯वः ॥५५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सुन्वानायास्यान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः । अप श्वानमराधसꣳ हता मखं न भृगवः ॥५५३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । सुन्वानाय । अन्धसः । मर्तः । न । वष्ट । तत् । वचः । अप । श्वानम् । अराधसम् । अ । राधसम् । हत । मखम् । न । भृगवः ॥५५३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 553
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में कहा गया है कि कैसे मनुष्य को समाज से बहिष्कृत करना चाहिए।

    पदार्थ

    (अन्धसः) सोमरस के (सुन्वानाय) अभिषुत करनेवाले अर्थात् सोमयाग, समाजसेवा और प्रभुभक्ति करनेवाले जन के लिए, जो (मर्तः) मनुष्य (तत्) उस प्रशंसात्मक (वचः) वचन को (न प्र वष्ट) नहीं कहना चाहता, उस (अराधसम्) अयज्ञसेवी, असमाजसेवी और अप्रभुसेवी तथा (श्वानम्) श्वान के समान लोभी, अपना ही पेट भरनेवाले मनुष्य को (अपहत) दूर कर दो, (न) जैसे (भृगवः) तपस्वी लोग (मखम्) चंचलता को दूर करते हैं, अथवा (न) जैसे (भृगवः) तेजस्वी राजपुरुष (मखम्) मखासुर को अर्थात् यज्ञ का ढ़ोंग रचनेवाले को दण्डित करते हैं ॥९॥ ‘श्वानम्’ में साध्यवसानालक्षणामूलक अतिशयोक्ति अलङ्कार है। निरुक्त की पद्धति से ‘श्वानम्’ में लुप्तोपमा, अर्थोपमा या व्यङ्ग्योपमा है, जैसा कि निरुक्त (३।१८) में लुप्तोपमा के प्रसङ्ग में कहा है कि श्वा और काक निन्दा अर्थ में लुप्तोपमा के रुप में आते हैं। ‘मखं न भृगवः’ में उपमालङ्कार है ॥९॥

    भावार्थ

    परमेश्वरद्रोही, यज्ञद्रोही, समाजद्रोही और श्वान के समान विषयलोभी जन को समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिए ॥९॥ इस दशति में परमात्मारूप सोम तथा परमात्मजन्य ब्रह्मानन्द रस की प्राप्ति का उपाय वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (अन्धसः) आध्यानीय—आराधनीय शान्तस्वरूप परमात्मा को (प्रसुन्वानाय) प्रसिद्ध करने—साक्षात् करने वाले मुमुक्षु का “षष्ठ्यर्थे चतुर्थी वक्तव्या” (तद्वचः) परमात्मविषयक वचन (मर्त्तः) जो मनुष्य (न वष्ट) “अवष्ट-छन्दस्यमाङ्योगेऽपि-अडभावः” नहीं चाहता है अपितु निन्दक नास्तिक नास्तिकभाव से अनादर करता है (अराधसं श्वानम्-अपहत) उस राधना—उपासना न करने वाले अपितु कृतघ्न या कुत्ते के समान कामभाव को नष्ट करो (मखं न भृगवः) ज्ञानाग्नि से जाज्वल्यमान आत्मा जिनका हो ऐसे ज्ञानीजन “भृगुर्भृज्यमानो न देहे” [निरु॰ ३.१७] मख—ज्ञानरहित गतिकर्म “मख गत्यर्थः” [भ्वादि॰] को जैसे दूर करते हैं, ऐसे करें।

    भावार्थ

    आध्यानीय—आराधनीय शान्त परमात्मा का साक्षात् करने वाले मुमुक्षु उपासक के परमात्मसम्बन्धी उपदेश को जो नहीं सुनना चाहता है, अपितु विरोध करता है, उस ऐसे नास्तिक एवं कामी या कामभाव को कुत्ते के समान अलग कर दें। जैसे ज्ञानीजन ज्ञानहीन कर्म को अपने से अलग कर देते हैं॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—प्रजापतिर्वैश्वामित्रः (सर्वमित्र से सम्बद्ध निज इन्द्रियों का पालक रक्षक संयमी उपासक)॥ छन्दः—अनुष्टुप्।<br>

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    विषय

    महान् विघ्न का अपाकरण

    पदार्थ

    गत मन्त्र में प्रेय और श्रेय में ठीक चुनाव करनेवाले व्यक्ति का उल्लेख था। उसने संसार की चमक को देखकर अपने मन में लालच नहीं उत्पन्न होने दिया। यह अपने उपास्य प्रभु का अनुकरण करके, छोटे रूप में, 'प्रजा-पति' बना, औरों का रक्षक बना। सभी का मित्र होने पर ‘वैश्वामित्र' कहलाया, सभी के प्रशंसा को प्राप्त करके 'वाच्य' [one who is praised] हुआ। यह कहता है कि (भृगवः) = [भ्राज् पाके] अपना परिपाक करनेवाले तपस्वियों! (अराधसम्) = सिद्धि न होने देनेवाले- सिद्धि के विघ्नभूत (श्वानम्) = लोभवृत्ति को (उ) = निश्चय से (अपहत) = दूर [विनष्ट] करो। (न मखम्) = यज्ञिय भावना को नहीं । स्वार्थ व लोभ मनुष्य को आगे नहीं बढ़ने देते। वह सिद्धि के मार्ग का सर्वमहान् विघ्न है- उसका अपाकरण सिद्धि के लिए आवश्यक हैं जितना - जितना हम लोभ को जीतते हैं उतना उतना सिद्धि के समीप पहुँचते हैं। प्रभु यज्ञ हैं, उन्हें हम यज्ञिय भावना को अपने अन्दर विकसित करके ही तो पा सकेंगे।

    हे (मर्त्तः) = मनुष्यो! (अन्धसः) = आध्यातव्य परमात्मा के (प्रसुन्वानाय) = अपने अन्दर खूब विकास करनेवाले के लिए (तद्वचः) = वेदों के वे अर्थवादरूप वचन, जिनमें कि विविध यज्ञों की फल-श्रुतियों का उल्लेख हुआ है, (न वष्ट) = रुचिकर=काम्य नहीं होते। वह अर्थवाद वाक्यों में फँसकर सांसारिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिए उन-उन साधनों को नहीं जुटाता रहता । वह तो प्रभु का ध्यान करता है- प्रभु के प्राणियों का हित करता है। लोभ से दूर रहता है - यज्ञिय भावना को नष्ट नहीं होने देता। परिणामतः सिद्धि को प्राप्त करता है। 

    भावार्थ

    लोभ को दूर करके मैं लक्ष्य का लाभ करने में समर्थ होऊँ ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( अन्धसः ) = अज्ञान अन्धकार के नाश करने वाले परमानन्दस्वरूप सोमरस को ( प्रसुन्वानाय ) = उत्पन्न करने हारे साधक के लिये प्रकट हुई ( तत् वच: ) = उस सोम की अनाहत वाणी को ( मर्त्तः ) = साधारण मरणधर्मा पुरुष जिसको  अमृत, सोमरस प्राप्त नहीं हुआ, वह ( न वष्ट ) = नहीं प्राप्त कर सकता। ( भृगवः ) = ज्ञानाग्नि से अज्ञान और पाप को भून डालने वाले ज्ञानी लोग जिस प्रकार ( मखं न ) = कर्मकाण्ड को दूर कर देते हैं। उसी प्रकार ( अराधसं ) = साधना न करने हारे, ( श्वानं ) = कर्मफल के लोभी कुकुर के समान, त्यक्तभोगों को पुनः २ चाहने वाले, वान्ताशी, चित्तको ( अप हत ) = मारो ।

    टिप्पणी

    ५५३ – 'प्र सुन्वानस्य' 'वृततद्वचः' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - प्रजापतिर्वाश्य:।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - अनुष्टुप्।

    स्वरः - गान्धारः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशो जनः समाजाद् बहिष्कार्य इत्याह।

    पदार्थः

    (अन्धसः) सोमरसस्य। द्वितीयार्थे षष्ठी। (सुन्वानाय) अभिषवं कुर्वते, सोमयागपरायणाय समाजसेवापरायणाय प्रभुभक्तिपरायणाय वा जनाय, यः (मर्तः) मनुष्यः (तत्) प्रशंसात्मकम् (वचः) वचनम् (न प्र वष्ट) न कामयते, तस्य प्रशंसां न करोति, प्रत्युत तस्मै द्रुह्यतीत्यर्थः। वश कान्तौ अदादिः, आत्मनेपदं छान्दसम्। लडर्थे लङ्, अडागमाभावः। तम् (अराधसम्२) यज्ञस्य, समाजस्य, परमेश्वरस्य च अनाराधकम् (श्वानम्३) श्ववृत्तिं लोभपरायणं स्वोदरंभरिं जनम् (अप हत) दूरीकुरुत। हन्तेर्लोटि मध्यमबहुवचने रूपम्। संहितायाम् ‘द्व्यचोऽतस्तिङः अ० ६।३।१३५’ इत दीर्घः। (न) यथा (भृगवः) तपस्विनो जनाः। भृज्जति तपसा शरीरमिति भृगुः। भ्रस्ज पाके धातोः ‘प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च। उ० १।२८’ इति कु प्रत्ययः सम्प्रसारणं सकारलोपश्च। (मखम्४) चाञ्चल्यम् अपघ्नन्ति तद्वत्। मख गत्यर्थः, भ्वादिः। यद्वा मखो मखासुरः, छद्मयज्ञो नरः, तं भृगवः तेजस्विनो राजपुरुषाः यथा अपघ्नन्ति दण्डयन्ति तद्वदित्यर्थोऽध्यवसेयः ॥९॥५ ‘श्वानम्’ इत्यत्र साध्यवसानलक्षणामूलोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः। निरुक्तपद्धत्या तु लुप्तोपमाऽर्थोपमा व्यङ्ग्योपमा वा, यथाह यास्काचार्यः—“अथ लुप्तोपमान्यर्थोपमानीत्याचक्षते। सिंहो व्याघ्र इति पूजायाम्, श्वा काक इति कुत्सायाम् (निरु० ३।१८)” इति। ‘मखं न भृगवः’ इत्यत्रोपमालङ्कारः ॥९॥

    भावार्थः

    परमेश्वरद्रोही, यज्ञद्रोही, समाजद्रोही, श्ववद् विषयलुब्धो जनः समाजाद् बहिष्कार्यः ॥९॥ अत्र परमात्मसोमस्य तज्जन्यब्रह्मानन्दरससोमस्य च प्राप्त्युपायवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके द्वितीयार्धे प्रथमा दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्यायेऽष्टमः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०१।१३, एकः प्रजापतिरेव ऋषिः। ‘प्र सुन्वानस्यान्धसो मर्तो न वृत तद्वचः’ इति पाठः। साम० ७७४, १३८६। २. अराधसम् असमृद्धिहेतुककर्माणम्—इति भ०। ३. श्वानम् श्वानमिव अराधसम्—इति वि०। ४. ‘अमघमिव यथा अमघम् अदातारं यज्ञे न प्रवेशयन्ति तद्वत् भृगवः दीप्ताः यूयं हे मदीयाः जनाः’ इति भरतव्याख्यानं तु पदपाठविरुद्धं स्वरविरुद्धं च। ५. इन्द्रोऽपि मखस्य शिरश्छिनत्ति—त्वं मखस्य दोधतः शिरोऽव त्वचोऽभरः (ऋ० १०।१७१।२)। सायणमते तु ‘यथा पुरा अराधसं मखम् एतन्नामानं भृगवोऽपहतवन्तः तथा अपहतेत्यर्थः।’

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The unimpaired Word of God is meant for him who accomplishes the truth of life. An ordinary mortal cannot achieve it. O learned persons, shun him who is avaricious and uncharitable like a dog, but not the spirit of sacrifice!

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    Meaning

    That silent voice of the generative illuminative Soma of divine food, energy and enlightenment for the dedicated devotee, the ordinary mortal does not perceive. O yajakas, ward off the clamours and noises which disturb the meditative yajna as men of wisdom ward them off to save their yajna. (Rg. 9-101-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ: (अन्धसः)  આધ્યાનીય-આરાધનીય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (प्रसुन्वानाय)  પ્રસિદ્ધ કરવા સાક્ષાત્ કરનાર મુમુક્ષુના (तद्वचः) પરમાત્મા વિષયક વચન (मर्त्तः) જે મનુષ્ય (न वष्ट) ચાહતો નથી પરન્તુ નિંદક નાસ્તિક ભાવથી અનાદર કરે છે. (अराधसं श्वानम् अपहत) તે રાધના-ઉપાસના ન કરનાર પણ કૃતઘ્ન અથવા કૂતરાની સમાન કામ ભાવને નષ્ટ કરે (मखं न भृगवः) જ્ઞાનાગ્નિથી જાજલ્યમાન આત્મા જેના છે એવા જ્ઞાનીજનો (मख) જ્ઞાન રહિત ગતિ કર્મને જેમ દૂર કરે છે-તેમ કરે. (૯)       
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : આધ્યાનીય-આરાધનીય શાન્ત પરમાત્માનો સાક્ષાત્ કરનારા મુમુક્ષુ ઉપાસકોના પરમાત્મા સંબંધી ઉપદેશને જે સાંભળવા ઈચ્છતો નથી, પરન્તુ વિરોધ કરે છે, તે એવા નાસ્તિક અને કામી અથવા કામભાવને કૂતરાની માફક દૂર કરી દે. જેમ જ્ઞાનીજનો જ્ઞાનહીન કર્મને પોતાનાથી દૂર કરી દે છે. (૯)

     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کی بھگتی کو پا لینے والے

    Lafzi Maana

    بھگوان کی بھگتی کو جس نے پا لیا۔ اُس سادھک عارف کی اناہت بانی کو عام آدمی حاصل نہیں کر سکتا، ودّیا کے تپ سے اگیان کو نشٹ کرنے والے آُپاسکو! تُم اُپاسنا یگیہ کی ہنسامت کرو اُس کو چھوڑو مت، توڑو مت، ناغہ مت ڈالو، لوبھ روچی کُتے کو مار ڈالو، جس سے تمہاری اُپاسنا کا راستہ ہمیشہ بے روک رہے۔

    Tashree

    ایشور کی بھگتی پائی جس نے وہ جگ کو تار گیا، ہنسا ناغہ نہ ہو اُس میں جب لوبھی کُتا مار دیا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर द्रोही, यज्ञद्रोही, समाजद्रोही व श्वानाप्रमाणे विषयलोभी माणसांना समाजातून बहिष्कृत केले पाहिजे ॥९॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये परमात्मरूप सोम व परमात्मजन्य ब्रह्मानंद रसाच्या प्राप्तीचा उपाय वर्णित केलेला असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    अशा मनुष्यास समाजातून बहिष्कृत करावे-

    शब्दार्थ

    (अन्धसः) सोमरस (सुन्वानाय) अभिषुत करणाऱ्या व्यक्तिसाठी म्हणजे सोमयाग करणाऱ्यासाठी/समाजसेवा करणाऱ्यासाठी/प्रभुभक्ती करणाऱ्यासाठी जो (मर्तः) माणूस (तत्) ते प्रशंसात्मक (वचः) वचन (वा त्याची प्रशंसा) (न.प्र.वष्ठ) म्हणत नाही.(करीत नाही) त्या (अपराधसम्) यज्ञविरोधी/समाजद्रोही/नास्तिक व्यक्तीला तसेच (श्वानम्) कुत्र्याप्रमाणे लोभी, अप्पलपोटी मनुष्याला (अपहत) हे सामाजिक जनहो, तुम्ही दूर करा (त्याला समाजातून बहिष्कृत करा) (न) जरो (भृगवः) तेजस्वी राजपुरुष (मखम्) मखासुराला म्हणजे यज्ञाचा ढोंग करणाऱ्याला दंडित करतात.।।९।।

    भावार्थ

    ईशद्रोही, यज्ञद्रोही, समाजद्रोही आणि कुत्र्याप्रमाणे विषय लोभी असलेल्या मनुष्याला समाजातून बहिष्कृत केले पाहिजे ।।९।। या दशतीमधे परमात्मरूप सोम व परमात्म जन्य ब्रह्मानंदरसाच्या प्राप्तीचे उपाय वर्णित आहेत. त्यामुळे या दशतीच्या विषयांशी पूर्वदशतीच्या विषयांशी संगती आहे, असे जाणावे।। षष्ठ प्रपाठकातील द्वितीय अर्धाची प्रथमदशती समाप्त पंचम अध्यायातील अष्टम खंड समाप्त.।।

    विशेष

    ‘श्वानम्’ या शब्दात साध्यवसाना लक्षणामूलरू अतिशयोक्ति अलंकार आहे. निरुक्ताच्या दृष्टीने येथे लुप्तोपमा, अर्थोपमा वा व्यंग्योपमा आहे. निरूक्तामधे (३/१८) लुप्तोपमा वर्णन-प्रसंगी म्हटले आहे की ‘श्वा’ व ‘काक’ निन्दार्थक असून ते शब्द वेदान लुप्तोपमाच्या रूपाने येतात।।९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சோமனுடைய ரசத்தை அமிழ்த்துபவனுக்கு பிரசித்தமான இந்தமொழியை மனிதனைப் போல் நாடட்டும்; [1]மக்கனை [2]பிருகு புத்திரர்கள் துரத்தியது போல்[3]சாதகமற்ற நாயைக் கொல்லவும்

    FootNotes

    [1]மக்கனை- அசுரனை [2]பிருகு புத்திரர்கள்- சுரர்கள் [3]சாதகமற்ற நாயை -சுவாதீனமில்லாத நாய்போல் அடிமையாயுள்ளவனை

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