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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 6
    ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढावाङ्गिरसौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    183

    त्वं꣡ नो꣢ अग्ने꣣ म꣡हो꣢भिः पा꣣हि꣡ विश्व꣢꣯स्या꣣ अ꣡रा꣢तेः । उ꣣त꣢ द्वि꣣षो꣡ मर्त्य꣢꣯स्य ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्व꣢म् । नः꣢ । अग्ने । म꣡हो꣢꣯भिः । पा꣣हि꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । अ꣡रा꣢꣯तेः । अ । रा꣣तेः । उत꣢ । द्वि꣣षः꣢ । म꣡र्त्य꣢꣯स्य ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मर्त्यस्य ॥६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । अग्ने । महोभिः । पाहि । विश्वस्य । अरातेः । अ । रातेः । उत । द्विषः । मर्त्यस्य ॥६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 6
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा हमारी किससे रक्षा करे, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सबके नायक तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वर आप (महोभिः) अपने तेजों से (विश्वस्याः) सब (अ-रातेः) अदान-भावना और शत्रुता से, (उत) और (मर्त्यस्य) मनुष्य के (द्विषः) द्वेष से (नः) हमारी (पाहि) रक्षा कीजिए ॥६॥ इस मन्त्र की श्लेष द्वारा राजा तथा विद्वान् के पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए ॥६॥

    भावार्थ

    अदानवृत्ति से ग्रस्त मनुष्य अपने पेट की ही पूर्ति करनेवाला होकर सदा स्वार्थ ही के लिए यत्न करता है। उससे कभी सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। दान और परोपकार की तथा मैत्री की भावना से ही पारस्परिक सहयोग द्वारा लक्ष्यपूर्ति हो सकती है। अतः हे जगदीश्वर, हे राजन् और हे विद्वन् ! आप अपने तेजों से, अपने क्षत्रियत्व के प्रतापों से और अपने विद्याप्रतापों से सम्पूर्ण अदान-भावना तथा शत्रुता से हमारी रक्षा कीजिए। और जो मनुष्य हमसे द्वेष करता है तथा द्वेषबुद्धि से हमारी प्रगति में विघ्न उत्पन्न करता है, उसके द्वेष से भी हमारी रक्षा कीजिए, जिससे सूत्र में मणियों के समान परस्पर सांमनस्य में पिरोये रहते हुए हम उन्नत होवें ॥६॥

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    पदार्थ

    (अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (त्वम्) तू (मर्त्यस्य) मरणधर्मी—सांसारिक साधारणजन के अन्दर होने वाली (विश्वस्याः) सारी—(अरातेः) न देने वाली—कृपणता अपि तु अपहरण प्रवृत्ति से (उत) और (द्विषः) द्वेष भावना से (महोभिः) अपने महत्त्वों—ज्ञान बलों के द्वारा (नः पाहि) हमारी रक्षा कर।

    भावार्थ

    साधारण संसारीजन के अन्दर अनेक विध अदान भावना अर्थात् अपने पास आवश्यकता से अधिक होने पर भी अन्य अधिकारी के हित में अपना धन अन्न विद्या को न देने की भावना अपितु अन्य से अपहरण की प्रवृत्ति तथा इसी भांति विविध द्वेष भावना अर्थात् अन्य से अल्प अपकार हो जाने पर अपितु स्वाभीष्ट की प्राप्ति न होने पर उसके प्रति क्रोध पीड़ा पहुँचाने की भावना उत्पन्न हो जाती है। ये दूसरे को तो हानि पहुँचाती है, या नहीं, पर ऐसी भावनाएँ रखने वाले को तो अवश्य ही हानि पहुँचाती हैं उसका अन्तःकरण मलिन और आत्मा अशान्त हो जाती है परमात्मा के सत्सङ्ग का मिलना तो कहाँ? अतः परमात्मन्! मुझ उपासक को इनसे बचाए रखना, यह मेरे अन्दर न उठने पावें॥६॥

    टिप्पणी

    [*4. “सुदीतिरादित्यान् जिन्व” (काठ॰ १७.७)।]

    विशेष

    ऋषिः—सुदीतिपुरुमीढावृषी (स्तुति का सुदान कर्ता स्तुति का बहुत सींचने वाला उपासक*4)॥<br>

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    विषय

    दो दोषों से दूर

    पदार्थ

    हे (अग्ने त्वम्)=प्रभो! आप (नः) = हमें (विश्वस्या:) = सब (अरातेः )= अदान की भावना से (उत)= और मर्त्यस्य=मनुष्य के (द्विषः) = [द्वेषणं द्विट्] द्वेष से (महोभिः) = तेजस्विता के द्वारा (पाहि)-बचाओ।
    मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसके सामाजिक जीवन में दो बड़े दोष आ जाते हैं - एक 'अदान' की भावना और दूसरा 'द्वेष'। यदि मनुष्य में देने की वृत्ति न हो तो किसी भी सामाजिक कार्य का होना सम्भव न हो । सारी सामाजिक उन्नति दान की वृत्ति पर ही निर्भर है।

    जिस प्रकार अदान की वृत्ति समाज के लिए घातक है उसी प्रकार द्वेष की । द्वेष में मनुष्य की शक्ति अपने उत्थान में न लगकर दूसरे के पतन में लगती है। द्वेष में हम दूसरे से प्रीति न कर वैर ठान लेते हैं।
    इन दोनों अदान और द्वेषरूप सामाजिक दोषों से ऊपर उठने का उपाय महोभिः शब्द से सूचित हो रहा है। महस् का अर्थ है तेजस्विता | तेजस्वी पुरुष इन वृत्तियों को आत्मसम्मान की भावना से विपरीत समझता है, इसलिए इनसे दूर रहता है।
    प्रभुकृपा से हम ‘सुदीति' खूब दान देनेवाले तथा 'पुरुमीढ' द्वेष न करके सुखों के सेचन करनेवाले बनें। ये ही दोनों इस मन्त्र के ऋषि हैं।

    भावार्थ

    हम तेजस्वी बनकर अदान व द्वेष से दूर हों। तभी हम समाज व राष्ट्र को स्वर्ग बना सकेंगे।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे अग्ने  ! प्रकाशस्वरूप ! ( त्वं ) =  तू ( नः ) = हमें ( विश्वस्याः ) = समस्त प्रकार के ( अराते: ) = सुख न देने वाले मनुष्य से ( महोभिः ) = उत्तम सुखसाधनों, धनों द्वारा ( पाहि ) = पालन कर, बचा । ( उत ) = और ( द्विषःमर्त्यस्य  ) = द्वेष करने वाले मनुष्य से भी ( पाहि ) = बचा । 
    कंजूस स्वामी जो भृत्यों और प्रजाओं का भाग उनको न दे और द्वेषी जो क्रोध या वैर से दूसरे को दण्ड दे, उन दोनों से रक्षा की प्रार्थना है । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढौ
    छन्दः - गायत्री

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    परमात्माऽस्मान् कस्माद् रक्षेदित्याह।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) सर्वनायक तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (महोभिः) त्वदीयतेजोभिः (विश्वस्याः) सर्वस्याः (अ-रातेः२) न रातिः अरातिः अदानभावना शत्रुता वा तस्याः। रा दाने, भावे क्तिन्। नञ्तत्पुरुषेऽव्ययस्वरेणाद्युदात्तत्वम्। शत्रुवाचकोऽरातिशब्दः पुंसि, अदानभावनावाचकः शत्रुतावाचको वा स्त्रियामिति बोध्यम्। (उत) अपि च (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (द्विषः) द्वेषात्। द्विष अप्रीतौ इति धातोर्भावे क्विप्। (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष ॥६॥ मन्त्रोऽयं श्लेषेण राजपक्षे विद्वत्पक्षे चापि योजनीयः ॥६॥

    भावार्थः

    अदानवृत्तिग्रस्तो हि मानवः स्वोदरंभरिः सन् सर्वदा स्वार्थायैव यतते। तेन न कदापि सामाजिक्याध्यात्मिकी चोन्नतिः संभवति। दानपरोपकारयोर्मैत्र्याश्च भावनयैव पारस्परिकसहयोगेन लक्ष्यपूर्तिर्भवितुमर्हति। अतो हे जगदीश्वर राजन् विद्वन् वा ! त्वं नः स्वतेजोभिः, स्वकीयक्षत्रप्रतापैः, स्वविद्याप्रतापैर्वा सर्वस्या अदानवृत्तेः शत्रुतायाश्च पाहि। किञ्च, यो मर्त्योऽस्मान् द्वेष्टि द्वेषबुद्ध्या चास्मदीयप्रगतौ विघ्नमुत्पादयति, तस्य द्वेषादप्यस्मान् रक्ष, येन सूत्रे मणिगणा इव परस्परं सामनस्ये प्रोता वयमुन्नता भवेम ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।७१।१। २. अरातिः शत्रुः। स्त्रीलिङ्गनिर्देशो जात्यपेक्षः। सर्वस्याः शत्रुजातेः सकाशाद् इति वि०। अरातेः सपत्नात्। अरातिशब्दः छन्दसि स्त्रीलिङ्गः। अर्तेररातिः, अभिहन्ता इति भ०। विश्वस्याः बहुविधाद् अरातेः अदातुः सकाशात् अदानाद् वा इति सा०।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O God, guard us against the malignant foe and the hate of mortal man.

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    Meaning

    Agni, leading light of life, with your mighty powers and grandeur, protect us against all material, moral and social adversity and all mortal jealousy and enmity. (Rg. 8-71-1)

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    Translation

    O Omniscient God, guard us with Thy great splendour against all miserliness and enmity of mortal men.

    Comments

    अरातेः- कापर्ण्यात रा-दाने इति धातो रातिः तदभावः
    अथवा अरातिः-कामक्रोधादान्तारिक शत्रुसमूहस्तस्मात्‌

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    Translation

    O adorable Lord, may you protect us by your greatness against all malignity and hatred of mortal man. (Cf. Rv VIII.71.1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने) હે પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (मर्त्यस्य) મરણધર્મી-સાંસારિક મનુષ્યમાં થનારી (विश्वस्याः) સમસ્ત (अरातेः) અદાન = લોભની ભાવનાથી તેમજ બીજાનું પડાવી લેવાની પ્રવૃત્તિથી; (उत) અને (द्विषः) દ્વેષ ભાવનાથી (महोभिः) તારા મહત્ત્વો-જ્ઞાન અને બળ દ્વારા (नः पाहि) અમારી રક્ષા કર. (૬)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સામાન્ય સંસારી મનુષ્યની અંદર અનેક પ્રકારની અ-દાનની ભાવના અર્થાત્ પોતાની જરૂરિયાત કરતાં તેની પાસે વધુ હોવા છતાં પણ અન્ય જરૂરિયાતવાળાને પોતાનાં ધન, અન્ન અને વિદ્યા આદિ ન આપવાની ભાવના, આ ઉપરાંત બીજાનું પડાવી લેવાની પ્રવૃત્તિ કરવી. એ જ રીતે વિવિધદ્વેષ ભાવના અર્થાત્ બીજાથી થોડો પણ અપકાર-હાનિ થાય અથવા પોતાની ઇચ્છા પૂર્તિ ન થતાં તેના પર ક્રોધ કરવાની અને પીડા આપવાની ભાવના ઉત્પન્ન થાય છે.

    આ પ્રકારની ભાવનાઓથી બીજાઓની તો હાનિ થાય કે નહિ, પરન્તુ પોતાની તો જરૂર હાનિ થાય જ છે. પોતાનું અંતઃકરણ મલિન અને આત્મા અશાન્ત બને છે, તેમાં પરમાત્માનો સત્સંગ તો મળે જ ક્યાંથી ?

    હે પ્રભુ ! મારામાં-ઉપાસકમાં આવી અદાન = દાન ન આપવાની તથા દ્વેષ કરવાની ભાવના ઉત્પન્ન થાય નહિ, તેથી મારી રક્ષા કર-મને બચાવ. (૬)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    رکھشا کرو

    Lafzi Maana

    (اگنے) بھگتی مارگ پر سے جانے والے ایشور! (تُوّم) آپ (مہوبھی) اپنے مہان گُنوں اور شکتیوں دوارہ (نہ) ہماری (پاہی) رکھشا کیجئیے۔ (وِشوسیا اراتے) سبھی سوارتھ (کنجُوسی) کی بھاوناؤں سے بچائیں (اُت) اور (دوشومرتسسیہ) دویشی (دشمنی رکھنے والے) منش سے رکھشا کیجیئے۔

    Tashree

    منتر میں انسانی زندگی کے دو دونشوں (نقائص) سے بچنے کی پرارتھنا کی گئی ہے، پہلا ہے ادان یعنی نہ دینے کے سوبھاؤ یا عادت۔ پراپکار یا دان کے بِنا کوئی ساماجگ اُنتی نہیں ہو سکتی اور نہ ہے خدمتِ خلق۔ دانی جہاں اپنے دان یا خیرات بانٹنے سے اپنی کمائی کو پِویّتر کرتا اور سؤرگ (جنّت) کے ماحول کو تیار کرتا ہے۔ وہاں ضرورت سے زیادہ زر و مال رکھنے والا کنجوس اپنے ہاتھ سے نرک یعنی دوزخ کے داتاورن کو بناتا رہتا ہے اور دویشی دوسرے سے اندر ہی اندر جلنے والا منش اپنی طاقت کو اپنی ہی ترقی پر خرچ نہ کر کے دوسرے کو گِرانے پر لگا رہتا ہے جس سے معمولی سے لے کر بڑی بڑی جنگ و جدل کی آگ بھڑک اُٹھتی ہے۔ جس میں سبھی بھسم ہو جاتے ہیں، اِن دونوں سے محفوظ رہنے کی پرارتھنا منتر میں کی ہے۔ ویسے ہی ہمارا عمل بھی ہونا چاہئیے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    अदानवृत्तीने ग्रस्त असलेला मनुष्य आपली पोटपूर्ती करणारा असून सदैव स्वार्थासाठी प्रयत्नशील असतो, त्यामुळे सामाजिक व आध्यात्मिक उन्नती कधीही होऊ शकत नाही. दान, परोपकार, मैत्रीभाव, परस्पर सहयोग यांच्याद्वारे लक्ष्यपूर्ती होऊ शकते. त्यामुळे हे जगदीश्वरा! राजा! विद्वाना! तुम्ही तुमच्या तेजाने, क्षत्रियत्वाच्या पराक्रमाने व विद्याप्रतापाने संपूर्ण अदान भावना व शत्रुत्व यांच्यापासून रक्षण करा व जो माणूस आमचा द्वेष करतो व द्वेषबुद्धीने आमच्या प्रगतिमार्गात अडथळे आणतो त्याच्यापासून आमचे रक्षण करा. सूत्रातील मण्यांप्रमाणे परस्पर सामनस्यात ओवलेले आम्ही उन्नत व्हावे. ॥६॥

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    विषय

    परमात्म्याने आमचे कशापासून रक्षण करावे, हे सांगतात.

    शब्दार्थ

    हे (अग्ने) सर्वांचे नायक असलेल्या परमेश्वरा, (त्वम्) तू (महोभिः) आपल्या तेजाने (विश्वस्या:) (आमच्या हृदयात नसणाऱ्या) सर्व (अन्दाते:) अदान भावनेपासून (कृपणवृत्तीपासून) आणि शत्रुत्वभावनेनेपासून (आम्हास वाचन) (उत) तसेच (मर्व्यस्थ) मनुष्याशी (द्विषः) द्वेष करण्याच्या आमच्या प्रवृत्तीपासून अथवा कुणी मनुष्य आमच्याशी द्वेष करीत असेल, तर त्या द्वेषापासून (न:) आमची (पाहि) रक्षा कर ||६||

    भावार्थ

    अदान वृत्तीने ग्रस्त अथवा कृपण वृत्ती व परिग्रहवृत्तीने ग्रासलेला मनुष्य केवळ स्वत:चे पोट भरण्याचा विचार करणारा होऊन पक्का स्वार्थी बनतो. तो कदापि सामाजिक व आध्यात्मिक उन्नती साधू शकत नाही. केवळ दान आणि परोपकार वृत्ती तसेच मैत्रीभावाने पारस्परिक सहकार्य वाढते आणि लक्ष्य साध्य करता येते. यासाठी हे जगदीश्वर, हे राजन् वा हे विद्वान आपण आपल्या तेजाने आपल्या क्षत्रियत्वाच्या प्रभावाने आपल्या विद्या प्रतापाने आमच्या ठिकाणी असलेल्या अदानवृत्ती व शत्रुत्वभावनेपासून आम्हाला वाचवा. तसेच जो माणूस आमच्याशी द्वेष करतो आणि त्या द्वेषभावनेने आमच्या प्रगतीत अडथळे आणतो त्याच्या त्या द्वेषभावनेपासूनही आम्हाला (तुमच्या उपासकांना) वाचवा की ज्यायोगे एका सूत्रात जसे मणी सामंजस्याने ओवलेले असतात तसेच परस्पर सहकार्य करीत आम्ही सर्वांची प्रगती साधावी ॥६॥

    विशेष

    श्लेषाद्वारे या मंत्राची राजा परक आणि विद्वानपरक अर्थ योजनाही करता येते. ॥६॥

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1] (அக்னியே)! சகலமான (சத்துருவினின்றும்) மனிதர்களின் (வெறுப்பினின்றும்) எங்களைப் பாதுகாக்கவும்.

    FootNotes

    [1]அக்னியே - ஈசனே!

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