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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 606
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
16
ते꣡ म꣢न्वत प्र꣣थमं꣢꣫ नाम꣣ गो꣢नां꣣ त्रिः꣢ स꣣प्त꣡ प꣢र꣣मं꣡ नाम꣢꣯ जानन् । ता꣡ जा꣢न꣣ती꣢र꣣꣬भ्य꣢꣯नूषत꣣ क्षा꣢ आ꣣वि꣡र्भु꣣वन्नरु꣣णी꣡र्यश꣢꣯सा꣣ गा꣡वः꣣ ॥६०६॥
स्वर सहित पद पाठते꣢ । अ꣣मन्वत । प्रथम꣢म् । ना꣡म꣢꣯ । गो꣡ना꣢꣯म् । त्रिः । स꣣प्त꣢ । प꣣रम꣢म् । ना꣡म꣢꣯ । जा꣣नन् । ताः꣢ । जा꣣नतीः꣢ । अ꣣भि꣢ । अ꣣नूषत । क्षाः꣢ । आ꣣विः꣢ । आ꣣ । विः꣢ । भु꣣वन् । अरुणीः꣢ । य꣡श꣢꣯सा । गा꣡वः꣢꣯ ॥६०६॥
स्वर रहित मन्त्र
ते मन्वत प्रथमं नाम गोनां त्रिः सप्त परमं नाम जानन् । ता जानतीरभ्यनूषत क्षा आविर्भुवन्नरुणीर्यशसा गावः ॥६०६॥
स्वर रहित पद पाठ
ते । अमन्वत । प्रथमम् । नाम । गोनाम् । त्रिः । सप्त । परमम् । नाम । जानन् । ताः । जानतीः । अभि । अनूषत । क्षाः । आविः । आ । विः । भुवन् । अरुणीः । यशसा । गावः ॥६०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 606
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणियाँ परमात्मा का ही यश गाती हैं, यह कहते हैं।
पदार्थ
हे अग्रनायक परमात्मन् ! (ते) प्रसिद्ध विद्वान् जन (नाम) आपके नाम को (प्रथमम्) श्रेष्ठ (अमन्वत) मानते हैं। (गोनां त्रिःसप्त) इक्कीस वेदवाणियाँ, अर्थात् गायत्री आदि इक्कीस छन्दोंवाली ऋचाएँ भी (नाम) आपके नाम को (परमम्) श्रेष्ठ (जानन्) जनाती हैं। (जानतीः) आपके नाम को सर्वश्रेष्ठ जनाती हुई (ताः) वे अर्थगर्भित वेदवाणियाँ (यशसा) आपके महिमागान-जनित यश से (अरुणीः आरोचमान होती हुई (आविर्भुवन्) अध्येताओं के हृदय में प्रकट हो जाती हैं, अपने रहस्यार्थ को खोल देती हैं ॥५॥
भावार्थ
वेदवाणियाँ मिलकर जिस परब्रह्म की महिमा को गाते-गाते नहीं थकतीं और जिस यशस्वी परब्रह्म के माहात्म्य-कीर्तन से वे स्वयं भी यशोमयी हो गयी हैं, उसकी महिमा को हम भी क्यों न गायें? ॥५॥
पदार्थ
(ते) हे अग्ने ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तेरे (गोनां प्रथमं नाम) वेदवाणियों में कहे प्रमुख नाम ‘ओ३म्’ को (मन्वत) मानती हैं (परमं नाम त्रिः सप्त) ‘परे भवं परमम्’ मुख्य नाम के परे—अन्त में द्वितीय कोटि का “अन्तो वै परमम्” [ऐ॰ ५.२१] गौणिक और कार्मिक नाम इक्कीस छन्दों गायत्री आदि छन्दोयुक्त मन्त्रों में सविता, विष्णु आदि नाम भी (जानन्) जानती हैं (जानतीः) जानती हुईं (ता-क्षाः) वे तेरे आश्रय में—तेरे में ही निवास करने वाली मनुष्य प्रजाएँ (अभ्यनूषत) तेरी भली प्रकार स्तुति करती हैं इस प्रकार वे (गावः) स्तुति करने वाली मनुष्य प्रजाएँ “गौः स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६] (यशसा) यश से (अरुणीः-आविः-भुवन्) तेजस्वी प्रसिद्ध हो गईं—हो जाती हैं।
भावार्थ
हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! वेदवाणियों में कहे तेरे प्रमुख नाम ‘ओ३म्’ के पश्चात् द्वितीय कोटि में आने वाले गायत्री आदि इक्कीस छन्दों वाले मन्त्रों में कहे सविता आदि गौणिक और कार्मिक नामों को जानती हुईं तेरे आश्रय में निवास करती हुईं मनुष्य प्रजाएँ तेरी स्तुति करती हैं तो यशोमय जीवन में प्रसिद्ध हो जाती हैं॥५॥
विशेष
ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपासनीय देव वाला)॥ देवता—अग्निः (स्वप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
मानव विकास
पदार्थ
(अध्ययन)- १. सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु के (ते) = उन मानस पुत्रों ने (प्रथमम्) = सबसे पहले (गोनाम्) = वेदवाणियों के (नाम) = वाचकता का- अर्थ का (अमन्वत्) = मनन किया- जानने का प्रयत्न किया। एक-एक शब्द के अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जोकि इन वेदवाणियों में (त्रि:) = आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक-इन तीन दृष्टियों से (सप्त) = सात छन्दों में वर्णित हुए हैं। सात मुख्य छन्दों में वेदमन्त्र कहे गये हैं और उनमें प्रयुक्त अग्नि आदि शब्द भौतिक अग्नि, राजा तथा आत्मतत्त्व आदि के वाचक होकर त्रिविध अर्थों को प्रकट करनेवाले हैं।
(आत्मज्ञान) = इस प्रकार वेदवाणियों का अध्ययन करते हुए इन लोगों ने (परमं नाम) = वेदवाणियों के अन्तिम प्रतिपाद्य विषय उस प्रभु को (जानन्) = जाना । 'सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति'–सभी वेदमन्त्र अन्त में उस प्रभु का ही प्रतिपादन करते हैं। 'प्रकृति के ज्ञान के द्वारा प्रभु को जानना' यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। (शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्मणि गच्छति) = शब्द ब्रह्म म्रे निपुण होकर ही परब्रह्म को जाना जाता है।
(स्तुति - ता: जानती) = इस प्रकार इन वेदवाणियों को अच्छी प्रकार जाननेवाली (क्षा:) = पृथिवीस्थ प्रजाएँ (अभ्यनूषत) = उस प्रभु का स्तवन करती हैं। इन्हें एक-एक प्राकृतिक रचना में प्रभु की महिमा दीखती है और ये उस महान् प्रभु के प्रति नतमस्तक हो उठती हैं। इनके मुखों से स्वभावतः ये शब्द निकल पड़ते हैं कि 'नमस्ते वायो' = हे सारे संसार को गति देनेवाले प्रभो! तुझे नमस्कार है।
(ज्ञान-प्रसार) - इन प्रभु-भक्तों का जीवन अकर्मण्य नहीं होता। ये पर्वत - कन्दराओं में स्तोत्रों का ही उच्चारण नहीं करते, अपितु ये प्राप्त ज्ञान को फैलाने के लिए यत्नशील होते हैं। (अरुणी:) = प्रकाशमयी, प्रभातकालीन सूर्य के प्रकाश की भाँति अन्धकार को दूर करनेवाली (गाव:) = वाणियाँ (आविर्भुवन्) = इनसे प्रकट होती हैं। ज्ञान के प्रसार के कार्य में ये मध्याह्न के प्रचण्ड सूर्य की भाँति न होकर प्रातःकालीन अरुण प्रकाश के समान होते हैं। मधुर, श्लक्ष्ण [smooth, not harsh ] वाणी से ही ज्ञान देनेवाले होते हैं।
(उत्तम कर्म-) ये प्रभु भक्त कोरे उपदेशक ही नहीं होते (यशसा) = इनका जीवन भी यशस्वी–उत्तम कार्यों से युक्त होता है। इनके मुख से ज्ञान का प्रकाश होता है, हाथों से उत्तम कर्मों का सम्पादन हुआ करता है। इनकी वाणी ज्ञान को और हाथ यश को फैलानेवाले होते हैं। इस प्रकार जीवन बितानेवाले ये व्यक्ति सचमुच 'वामदेव' = सुन्दर दिव्य गुणोंवाले 'गोतम' प्रशस्तेन्द्रिय बनते हैं।
भावार्थ
हमारा जीवन 'अध्ययन, आत्मज्ञान, स्तुति, ज्ञानप्रसार व यशोयुक्त कर्मोंवाला हो ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( ते ) = वे विद्वान् लोग ( गोनां ) = वेद वाणियों के ( प्रथमं ) = सबसे प्रथम श्रेष्ठ, आदिमूल ( नाम ) = उत्पत्ति स्थान को ( अमन्वत ) = मनन करते हैं और वे ( त्रिः सप्त ) = इक्कीस प्रकार से ( परमं नाम ) = परम नाम की ( जानन् ) = जिज्ञासा करते हैं । ( ताः ) = वे वाणियां ( जानती: ) = सब रहस्य जनाती हुई ( क्षा: ) = अपनी निवासभूमियों आदि मूलकारणों की ( अभिनूषत ) = स्तुति करती हैं। और ( यशसा ) = तेज से ( अरुणी: ) अरुण वर्ण वाली, ( गावः ) = किरणों के समान वाणियों में ( आविर्भुवन् ) = प्रकट होती हैं ।
वाणियों के २१ प्रकार के नाम २१ प्रकार के छन्द हैं जैसे- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति , त्रिष्टुप् , जगती ये सात । अतिजगती, शक्करी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति, अतिधृति ये सात । और कृति प्रकृति, आकृति, विकृति, संस्कृति, अतिकृति, उत्कृति ये सात । सब मिल कर २१ हुए ।
टिप्पणी
६०६ – 'नाम धेनो: ' 'सप्त मातुः परमाणि विन्दन्' 'तज्जानतीरभ्यनूषत ब्रा आविर्भवदरुणीर्यशसा गोः, इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वामदेव:।
देवता - अग्निः।
छन्दः - त्रिष्टुप्।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वेदवाचः परमात्मन एव यशो गायन्तीत्याह।
पदार्थः
हे अग्रणीः परमात्मन् ! (ते)२ प्रसिद्धा विद्वांसः (नाम) त्वदीयं नामधेयम् (प्रथमम्) श्रेष्ठम् (अमन्वत्) मन्यन्ते। (गोनां त्रिःसप्त) वेदवाचाम् एकविंशतिः अपि, सप्त गायत्र्यादीनि, सप्त अतिजगत्यादीनि, सप्त च कृत्यादीनि इति वेदानाम् एकविंशतिः छन्दांसि अपि इत्यर्थः। गवाम् इति प्राप्ते पादान्तत्वाद् ‘गोः पादान्ते। अ० ७।१।५७’ इति नुडागमः। (नाम) त्वदीयं नामधेयम् (परमम्) श्रेष्ठम् (जानन्) ज्ञापयन्ति। (जानतीः) तव नाम श्रेष्ठं ज्ञापयन्त्यः (ताः) प्रसिद्धाः (क्षाः) अर्थगर्भा वेदवाचः। क्षा क्षियतेर्निवासकर्मणः। निरु० २।६। क्षाययन्ति निवासयन्ति गूढमर्थं स्वात्मनि यास्ताः क्षाः। क्षि निवासगत्योः। (अभ्यनूषत) त्वां स्तुवन्ति। अत एव (गावः) ताः वेदवाचः (यशसा) त्वन्महिमगानजनितया कीर्त्या (अरुणीः) अरुण्यः आरोचमानाः सत्यः (आविर्भुवन्) अध्येतॄणां हृदि स्वार्थसमुद्घाटनेन प्रकटिता जायन्ते। तथा चोक्तम्—उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्। उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं विसस्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋ० १०।७१।४ इति ॥५॥ अत्र ‘जानन्, जानतीः’ इत्युभयत्र ण्यर्थगर्भो ज्ञाधातुर्विज्ञेयः, वेदवाचामचेतनत्वेन ज्ञानासंभवात् ॥५॥
भावार्थः
वेदवाचः संभूय यस्य परब्रह्मणो महिमानं गायं गायं न श्राम्यन्ति, यस्य च यशोमयस्य माहात्म्यकीर्तनेन ताः स्वयमपि यशोमय्यः सञ्जाताः, तन्महिमाऽस्माभिरपि कुतो न गेयः ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ४।१।१६, ‘ते मन्वत प्रथमं नाम धेनोस्त्रिःसप्त मातुः परमाणि विन्दन्। तज्जानतीरभ्यनूषत वा आविर्भुवदरुणीर्यशसा गोः’ ॥ इति पाठः। २. ‘ते’ इति पदं प्रसिद्धपरामर्शकम्। न च युष्मदादेशोऽयमिति मन्तव्यं पादादौ तस्याप्राप्तेः स्वरविरोधाच्च।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thy subjects on the Earth, consider Thy name Om as the beat amongst the Vedic words, and know it as Thy highest name amongst all the Vedic verses couched in twenty one metres. Those conscious subjects praise Thee. The Vedic verses appear glowing with Thy eulogy !
Translator Comment
Twenty one metres: Gayatri, Ushnik, Anusthup, Brihati, Pankti, Trishtup, Jagati, Atijagati, Shakwari, Atishakwari, Ashti, Atiashti, Dhriti, Atidhriti, Kriti, Prakriti, Akriti, Vikriti, Sanskriti, Atikriti, Utkriti.
Meaning
First they study, reflect and meditate on the seven ultimate forms of mother speech and thus realise and know it in the essence through word, meaning and the self-existent reality behind the word. And having realised the content of divine speech, they celebrate the red lights of the dawn bearing and revealing that lord of speech manifesting by the splendour of the dawn of knowledge. (Rg. 4-1-16))
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ते) હે અગ્ને જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારા (गोनां प्रथमं नाम) વેદવાણીઓમાં કહેલ મુખ્ય નામ ‘ओ३म् ’ ને (मन्वत) માને છે (परमं नाम त्रिः सप्त) મુખ્ય નામથી પર-અન્તમાં બીજી કોટિનું ગૌણિક તથા કાર્મિક નામ એકવીસ છંદો ગાયત્રી આદિ છંદોયુક્ત મંત્રોમાં સવિતા, વિષ્ણુ આદિ નામ પણ (जानन्) જાણે છે (जानतीः) જાણનારી (ता क्षाः) તે તારા આશ્રયમાં-તારામાં જ નિવાસ કરનારી મનુષ્ય પ્રજાઓ (अभ्यनूषत) તારી સારી રીતે સ્તુતિ કરે છે આ રીતે તે (गावः) સ્તુતિ કરનારી મનુષ્ય પ્રજાઓ (यशसा) યશ દ્વારા (अरूणीः आविः भुवन्) તેજસ્વી પ્રસિદ્ધ બની જાય છે. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! વેદવાણીઓમાં કહેલ તારું મુખ્ય નામ 'ओ३म् ’ પછી દ્વિતીય કોટિમાં આવનાર ગાયત્રી આદિ એકવીસ છંદોવાળા મંત્રોમાં કહેલ સવિતા આદિ ગૌણિક-ગુણ અનુસાર અને કાર્મિક-કર્માનુસાર નામોને જાણનારી, તારા આશ્રયમાં નિવાસ કરીને મનુષ્ય પ્રજાઓ તારી સ્તુતિ કરે છે, ત્યારે યશોમય જીવનમાં પ્રસિદ્ધ બની જાય છે. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
اوم نام کی عظمت
Lafzi Maana
وِدوان، اُپاسک، عابد، عارف وید میں بیان کردہ ایشور کے افضل نام "اوم" کو مانتے ہیں، وید منتروں کے 21 چھند (3x7) اُس "اوم" کو بیان کرتے ہیں، جو اِس طرح ہیں۔ گایتری، اُشنِک، انوشٹپ، برہتی، پنکتی، ترِشٹپ، جگتی یہ سات، اتی جگتی، شکوری، اتی شکوری، اشٹی، اتی اشٹی، دھرتی، اتی دھرتی یہ سات اور کِرتی، پرکِرتی، اکِرتی، وےکرتی، سنسکرتی، اتی کِرتی، اُت کِرتی یہ سات۔ سب مل کر 21 ہیں۔
Tashree
دھرتی کے باسی اوم نام کو ہی اعلےٰ و افضل جان کر جاپ کے ذریعے اُس کی حمد و ثنا کرتے ہیں۔ اس پرکار عابد و عارف نیک شہرت سے دُنیا میں عزت و آبرو پاتے ہیں۔ اوم نام سب سے بڑا اِس سے بڑا نہ کوئے، جو اس کا سمرن کرے شُدھ آتما ہوئے۔
मराठी (2)
भावार्थ
वेदवाणी ज्या परब्रह्माची महिमा गाताना थकत नाही व ज्या यशस्वी परब्रह्माच्या महिमा-कीर्तनाने ती स्वत:ही यशोमयी बनलेली आहे. तिची महिमा आम्ही का गाऊ नये? ॥५॥
विषय
वेदवाणी त्या परमेश्वराचेच यश गात आहे
शब्दार्थ
हे अग्रनायक परमेश्वर, (ते) प्रख्यात विद्वज्जन (नाम) तुमच्या नावाला (प्रथमम्) सर्वश्रेष्ठ (अमन्वत) मानतात (गोनां त्रिःसप्त) एकेवीस वेदवाणी अर्थात गायत्री आदी एकेवीस छंदाक बद्ध सर्व ऋचादेखील (नाम) तुमच्याच (नाम) नावाला (परमम्) श्रेष्ठ (जानन्) सांगतात (जानतीः) त तुमच्या नावाला सर्वश्रेष्ठ जाणणाऱ्या (ताः) त्या अर्थगर्भ वेदवाणी (यशस्त) तुमचे महिमा-गान केल्यामुळे यशपूर्ण होतात व त्या (अरुणीः) आरोच मान यशवंत झालेल्या ऋचा (आधिर्भुवन) अध्येताजनांच्या वा उपासकांच्या हृदयात जाणून देतात ।।५।।
भावार्थ
वेदवाणी सर्वऋचा ज्या परब्रह्माच्या महिमेचे गान करीत कधी थांबत नाहीत (सतत ज्याचे गुणगान करतात) आणि ज्या यशस्वी परब्रह्माच्या माहात्म्य-कीर्तनामुळे त्या ऋचा स्वतःच यशोमयी झाल्या आहेत, त्या परमेश्वराचे महिमा-गान आम्हीदेखील अवश्य करावे.।।६।।
तमिल (1)
Word Meaning
பசுவின் பூர்வமான பெயரை அறிகிறார்கள் ; மூன்று ஏழான(21சந்தசுகளுடனான) நாமங்களை தோத்திரங்களை அறிகினார்கள். இதை அவை ஆரவாரஞ் செய்கின்றன பசுக்களின் கீர்த்தியால் சிகப்பு நிறம் புலனாகின்றது.
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