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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 616
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    26

    व꣣स꣡न्त इन्नु रन्त्यो꣢꣯ ग्री꣣ष्म꣡ इन्नु रन्त्यः꣢꣯ । व꣣र्षा꣡ण्यनु꣢꣯ श꣣र꣡दो꣢ हेम꣣न्तः꣡ शिशि꣢꣯र꣣ इन्नु꣡ रन्त्यः꣢꣯ ॥६१६

    स्वर सहित पद पाठ

    व꣣सन्तः꣢ । इत् । नु । र꣡न्त्यः꣢꣯ । ग्री꣣ष्मः꣢ । इत् । नु । र꣡न्त्यः꣢꣯ । व꣣र्षा꣡णि꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । श꣣र꣡दः꣢ । हे꣣मन्तः꣢ । शि꣡शि꣢꣯रः । इत् । र꣡न्त्यः꣢꣯ ॥६१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसन्त इन्नु रन्त्यो ग्रीष्म इन्नु रन्त्यः । वर्षाण्यनु शरदो हेमन्तः शिशिर इन्नु रन्त्यः ॥६१६


    स्वर रहित पद पाठ

    वसन्तः । इत् । नु । रन्त्यः । ग्रीष्मः । इत् । नु । रन्त्यः । वर्षाणि । अनु । शरदः । हेमन्तः । शिशिरः । इत् । रन्त्यः ॥६१६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 616
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र का ऋतु देवता है। ऋतुओं की रमणीयता प्रतिपादित की गयी है।

    पदार्थ

    परमेश्वर की सृष्टि में (वसन्तः) वसन्त ऋतु (इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है, (ग्रीष्मः) ग्रीष्म ऋतु (इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है। (वर्षाणि अनु) वर्षा-दिनों के अनन्तर (शरदः) शरद् ऋतु के दिवस और (हेमन्तः) हेमन्त ऋतु भी, रमणीय हैं। (शिशिरः) शिशिर ऋतु भी (इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है ॥२॥ इस मन्त्र में ‘इन्नु रन्त्यः’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग परमेश्वर-विश्वासी होते हैं, वे प्रत्येक ऋतु को रमणीय और आह्लाददायक मानते हुए उससे उत्पादित आनन्द को अनुभव करते हैं। किन्तु जो लोग ‘अहह, ग्रीष्मऋतु बड़ी संतापक है, वर्षा ऋतु में कीचड़ ही कीचड़ हो जाती है, हेमन्त का शीत बड़ा कष्टदायक होता है’ इत्यादि प्रकार से दोष खोजते हुए सभी ऋतुओं को धिक्कारते हैं, वे निश्चय ही अभागे हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (वसन्तः-इत्-नु रन्त्यः) हे प्रकाशस्वरूप अग्रणेता परमात्मन्! मेरा प्राण “प्राण एव वसन्तः” [जै॰ २.५१] हाँ शीघ्र शीघ्र—बार बार तेरे में रमण करने योग्य हो प्राणायामादि द्वारा (गीष्मः-इत्-नु रन्त्यः) मेरी वाक्—वाणी “वाग्ग्रीष्मः” [जै॰ २.५०] हाँ शीघ्र शीघ्र—बार बार तेरे में रमण करने योग्य हो स्तुति द्वारा (वर्षाणि-अनु) साथ ही मेरी आँख “चक्षुर्वषाः” [जै॰ २.५१] हाँ शीघ्र शीघ्र—बार बार तेरे में रमण करने योग्य हो तेरे दर्शन की उत्सुकता द्वारा तेरे रचे जगत् में तेरी कला को देख देखकर तेरे पाठ पढ़-पढ़कर (शरदः) मेरा श्रोत्र—कान “श्रोत्रं शरदः” [जै॰ २.५१] हाँ शीघ्र शीघ्र—बार बार तेरे में रमण करने योग्य हो तेरे सम्बन्ध में श्रवण द्वारा (हेमन्तः) मेरा मन “मनो हेमन्तः” [जै॰ २.५१] हाँ शीघ्र शीघ्र—बार बार तेरे में रमण करने योग्य हो तेरे मनन चिन्तन द्वारा (शिशिरः-इत्-नु रन्त्यः) मेरा प्रतिष्ठान नाभि के नीचे का अङ्ग “शिशिरं प्रतिष्ठानम्” [मै॰ ४.९.१८] शीघ्र शीघ्र—बार बार तेरे में रमण करने योग्य हो, आसन सदाचरण द्वारा।

    भावार्थ

    परमात्मन्! मेरा प्राण प्राणायाम द्वारा, मेरा मन मनन द्वारा, मेरा कान तेरे श्रवण द्वारा, मेरी आँख तेरे दर्शन एवं वस्तु वस्तु में तेरी छवि देखे, तेरे पाठ पढ़ मेरी वाणी तेरी स्तुति गुणगान कर मेरा नाभि का अधोभाग आसन एवं सदाचरण द्वारा तेरे में सदा बार बार समर्पण करने योग्य रहे॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय परमात्मदेव वाला)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—पंक्तिः॥<br>

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    विषय

    रमणीयता-ही-रमणीयता

    पदार्थ

    जैसा मन होता है, वैसा ही संसार प्रतीत होता है। मन उदास है तो संसार भी उदास लगता है और मन प्रसन्न हो तो संसार भी प्रसन्न दीखता है।

    संसार-चक्र में फँसे मनुष्य को, ऊँच-नीच से विक्षुब्ध होने पर, शतशः आशाओं के भङ्ग होन पर मन की आकुलता से सभी ऋतुएँ व्याकुल-सा करनेवाली हो जाती हैं। उसके मुख से ऐसे वाक्य सुनाई पड़ते हैं कि 'क्या आफ़त की गर्मी है? अरे! ये झड़ तो खत्म ही नहीं होता; पतझड़ की हवाओं ने क्या शुष्कता उत्पन्न कर दी है, सरदी तो मारे ही चली जाती है, ये शिशिर तो शीर्ण ही कर देगी, वसन्त क्या आयी-कफ के उपचय व प्रकोप से यह हमारा अन्त ही कर देगी।' मन की प्रसन्नता के अभाव में सभी ऋतुएँ खराब लगती हैं और मनुष्य सदा रोता ही रहता है, परन्तु स्वास्थ्य, आवश्यक धन व प्रभुनाम-स्मरण से प्रसन्न अन्त:करणवाला व्यक्ति कहता है कि- १. (वसन्त इत् नु रन्त्यः) = अब निश्चय से वसन्त ऋतु कितनी रमणीय है। यह कुसुमों की आकरभूत ऋतु सारे संसार में ह्रास का विकास करनेवाली है। सारा संसार कैसा खुला हुआ प्रतीत होता है। २. (ग्रीष्म इत् नु रन्त्यः) = वसन्त के बाद अब ग्रीष्म भी कितनी सुन्दर है! शरीरों से पसीने की धाराओं का प्रवाह करती हुई यह शरीरों के

    शोधन में लगी है। सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से सब मल व दुर्गन्ध को भस्म करके ही रुकेगा। ३. (वर्षाणि) = सूर्य के प्रचण्ड ताप के बाद ये वर्षा की बौछारें अत्यन्त सुन्दर लग रहीं हैं। भस्मीभूत मल को ये प्रवाहित करके समुद्र में पहुँचा कर विश्राम लेंगी। ४. (अनु) = अब वर्षा की शीतल बौछारों के बाद (शरद:) = सबको शीर्ण करनेवाली यह शरद् ऋतु भी कितनी सुन्दर है ! वर्षा में निर्मर्याद बढ़े हए मलिन जल अब फिर मर्यादाओं में आ गये हैं और कितने स्वच्छ प्रतीत होते हैं! मयूरों का उग्र मद शान्त हो गया है – वनस्पतियों की अतिमात्र उपज भी परिमित हो गई है। शरद् ऋतु ने सभी को विनीत-सा कर दिया है। ५. (हेमन्तः शिशिरः इत् नु रन्त्यः) = शरद् ऋतु के शोधन के बाद शरीर को फिर से उपचित करती हुईं ये हेमन्त और शिशिर ऋतुएँ भी सुन्दर हैं। वस्तुतः प्रभु से समय-समय पर लायी गई ये ऋतुएँ असुन्दर हो भी कैसे सकती हैं? प्रभु पूर्ण हैं तो उनका बनाया यह संसार क्या अपूर्ण होगा? नहीं! सब सुन्दर है–यदि मेरा मन सुन्दर है तो, अतः मुझे अपने मन को सुन्दर बनाकर 'वामदेव' बनना है—अपनी इन्द्रियों को निर्मल करके 'गोतम' बनना है। 
     

    भावार्थ

    मन: प्रसाद को सिद्ध करके मैं संसार में प्रसाद को – रमणीयता को देखनेवाला बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वसन्त इत् ) = वसन्त ही ( नु ) = निश्चय से रमण करने योग्य है ।  और ( ग्रीष्मः ) = ग्रीष्म भी ( इत् नु ) = निश्चय से ( रत्न्यः ) = आनन्द लाभ करने योग्य है । ( वर्षाणि ) = वर्षाकाल और ( अनु शरदः ) = बाद में आने वाले शरत् के दिन और ( हेमन्तः ) = हेमन्त और ( शिशिरः ) = शिशिर ( इत् ) = ये सभी ( नु ) = निश्चय से ( रन्त्यः ) = जविन का आनन्द लाभ करने के लिये ही हैं ।

    ऋतुनामों से ईश्वर को याद किया गया है । ( वसन्तः ) = सब प्राणियों को बसाने हारा वह परमात्मा ( इत् नु  ) = ही तो केवल ( रन्त्य:) = आनन्द लाभ करने योग्य है । ( ग्रीष्मः ) = सबको ग्रास करने हारा परमात्मा भी आनन्द ही देता है । ( वर्षाणि ) = सब सुखों की वर्षा करने वाली ( अनु शरदः ) = तथा उनके समान ही सब दुखों का नाश करने वाली शक्तियों और ( हे मन्तः ) = सब पदार्थों को प्रेरणा या ताड़ना करने वाला और ( शिशिर : ) = शनैः २ प्रत्येक पदार्थ की आयुबल और शरीर को घिसाने वाला काल रूप परमात्मा ( इत् नु ) = ही ( रन्त्यः ) = एकमात्र आनन्द लाभ कराने वाला है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - क्रतु:।

    छन्दः - पङ्क्तिः।

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    विषय

    ऋतु-महिमा

    शब्दार्थ

    (वसन्तः) वसन्त ( इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है । (ग्रीष्मः) ग्रीष्म ऋतु भी (इत नु) निश्चय ही (रत्य:) आनन्ददायक है। (वर्षाणि) वर्षाकाल और (अनु, शरदः) उसके पश्चात् आनेवाली शरद् ऋतु (हेमन्तः) हेमन्त और (शिशिरः) शिशिर, पतझड़ की ऋतु (नु निश्चय से रन्त्यः) रमणीय है, आनन्ददायक है ।

    भावार्थ

    भारतवर्ष एक अद्भुत एवं निराला देश है । अन्य देशों में प्राय: दो ऋतुएँ होती हैं - गर्मी और सर्दी । इसी गर्मी और सर्दी में वर्षा भी हो जाती है। संसार में भारतवर्ष ही ऐसा देश है जहाँ वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छह ऋतुएँ होती हैं । ये सभी ऋतुएँ सुन्दर हैं । प्रत्येक ऋतु का अपना सौन्दर्य है, अपनी विशेषता है, अपनी रमणीयता है, और अपना आन्नद है । कुछ लोग गर्मी पड़ने लगती है तो कहते हैं ‘अजी ! भुने जा रहे हैं । शरीर से पसीना छूट रहा है, गर्मी ने तङ्ग कर दिया है ।’ वर्षा प्रारम्भ हुई तो ‘अजी क्या कहें चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ है । वस्त्र भी नहीं सूख पाते । हम तो परेशान हो गये हैं।’ इसी प्रकार वे सभी ऋतुओं की निन्दा करते हैं। भगवद्भक्त, ईश्वरोपासक किसी भी ऋतु की निन्दा नहीं करता । ‘मैं अमुक ऋतु में साधना आरम्भ करूँगा, अमुक ऋतु में योगाभ्यास का अनुष्ठान आरम्भ करूंगा’ ऐसा न सोचकर सभी ऋतुओं में ईश्वर उपासना करनी चाहिए क्योंकि सभी ऋतुएँ रमणीय हैं ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ऋतुर्देवता। सर्वेषामृतूनां रमणीयत्वमाह।

    पदार्थः

    परमेश्वरस्य सृष्टौ (वसन्तः) वसन्तर्तुः (इत् नु) निश्चयेन (रन्त्यः) रमणीयः रमयिता च अस्ति, (ग्रीष्मः) ग्रीष्मर्तुः (इत् नु) निश्चयेन (रन्त्यः) रमणीयः रमयिता च अस्ति। (वर्षाणि अनु) वर्षर्तुदिनानामनन्तरम् (शरदः) शरद्दिवसाः, (हेमन्तः) हेमन्त ऋतुश्चापि रन्त्याः रमणीयाः रमयितारश्च भवन्ति। (शिशिरः) शिशिरर्तुरपि (इत् नु) निश्चयेन (रन्त्यः) रमणीयो रमयिता च भवति। रमु क्रीडायाम् इति धातोः बाहुलकात् त्यन् प्रत्ययः ॥२॥ अत्र ‘इन्नु रन्त्यः’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः ॥२॥

    भावार्थः

    ये परमेश्वरविश्वासिनो भवन्ति ते प्रत्येकमृतुं रमणीयमाह्लाददायकं च मन्यमानास्तज्जनितमानन्दमनुभवन्ति। ये तु ‘अहह, संतापको निदाघः, पङ्कबहुला प्रावृट्, कष्टशीतो हेमन्तः’ इत्यादिप्रकारेण छिद्राण्यन्विष्यन्तः सर्वानेव ऋतून् धिक्कुर्वन्ति ते खलु दुर्भाग्यग्रस्ता एव ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as verily the spring is pleasant, the summer is pleasant, the rainy season is pleasant, the autumn is pleasant, the winter is pleasant, the dewy season is pleasant, so pleasant is God, the Bestower of joys, bring the Dweller of all, the Dissolver of all, the Rainer of happiness, the Remover Of all.

    Translator Comment

    God has been compared in this verse to six seasons of the year, on account of His six qualities.

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    Meaning

    May spring be pleasant, may summer be pleasant, may the rains be pleasant, may autumn be pleasant, may winter be pleasant and may late winter too be pleasant.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वसन्त इत् नु रन्त्यः) હે પ્રકાશ સ્વરૂપ અગ્રણી પરમાત્મન્ ! મારો પ્રાણ (પ્રાણ - વસંત) હાં, શીઘ્ર શીઘ્ર વારંવાર પ્રાણાયામ આદિ દ્વારા તારામાં રમણ કરવા યોગ્ય બને (ग्रीष्मः इत् नु रन्त्यः) [વાગ્રીષ્મઃ] મારી વાક્-વાણી હાં, શીઘ્ર શીઘ્ર-વારંવાર સ્તુતિ દ્વારા તારામાં રમણ કરનારી બને (वर्षाणि अनु) [ચક્ષુર્વષાઃ] સાથે જ મારી આંખ હાં, શીઘ્ર શીઘ્ર-વારંવાર તારા દર્શનની ઉત્સુક્તા તારા રચેલા જગતમાં તારી કળાને નિહાળી નિહાળીને તારા પાઠ-ભણીને તારામાં રમણ કરવા યોગ્ય બને (शरदः) [શ્રોત્રં શરદ:] મારા કાન હાં, શીઘ્ર શીઘ્ર-વારંવાર તારા સંબંધમાં શ્રવણ દ્વારા તારામાં રમણ કરવા યોગ્ય બને (हेमन्तः) [મનો હેમન્તઃ] મારું મન હાં, શીઘ્ર શીઘ્ર-વારંવાર તારા મનન ચિંતન દ્વારા તારામાં રમણ કરવા યોગ્ય બને (शिशिरः इत् नु रन्त्यः) [શિશિર પ્રતિષ્ઠાનમ્] મારું પ્રતિષ્ઠાન-નાભિ નીચેનું અંગ શીઘ્ર શીઘ્ર-વારંવાર આસન, સદાચરણ દ્વારા તારામાં રમણ કરનાર બને. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! મારો પ્રાણ પ્રાણાયામ દ્વારા, મારું મન મનન દ્વારા, મારા કાન તારા શ્રવણ દ્વારા, મારી આંખ તારા દર્શન અને પ્રત્યેક વસ્તુમાં તારું પ્રતિબિંબ નિહાળે, તારો પાઠ ભણીને મારી વાણી તારી સ્તુતિ, ગુણગાન કરે. તથા નાભિથી નીચેના ભાગ આસન અને સદાચરણ દ્વારા તારામાં સદા વારંવાર સમર્પણ કરવા યોગ્ય બની રહે. (૨)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    سبھی موسم صحت بخش ہیں اِن کی نندا مت کرو!

    Lafzi Maana

    اِیشور کی عجیب و غریب دُنیا کی خوبصُورت تعمیر میں یہ چھ موسم بسنت، گریشم، ورشا، شرد، ہمینت اور ششریہ سبھی موسم بہار، گرمی، بارش، ٹھنڈی میٹھی، کڑکتی سردی برف جمنے کی اور پھر پَت جھڑیا خزاں صحت بخش اور نہایت سُکھ دائیک ہیں، بہار جہاں چاروں طرف پُھولوں کا راج لے آ کر سب کو لُبھاتی ہے، تو گرمی اجسام سے پسینہ نکال کر شریروں کو بیماریوں سے صاف کرتی ہے وہاں ماحول میں بھی سبھی بدبُودار عناصر سُورج کی تپش سے جل کر سب پرانی سُکھی ہو جاتے ہیں اور پھر بارش کا موسم دُنیا کو ہرا بھرا کر دیتا ہے، لہذا ان سب کو بغور مطالعہ کرنے سے ہم پُورن طبعی عمر کے ساتھ صحت مند رہیں گے، جس کے لئے بھگوان کا لاکھ لاکھ شکر گزار ہونا چاہیئے، اور ہر سمے خوش رہنے کی مشق کرنی چاہیئے، جیسا بھی موسم یا لمحاتِ زندگی ہوں، کسی نے بہت ٹھیک کہا ہے کہ:

    Tashree

    نہ خزاں میں کوئی تیرگی نہ بہار میں کوئی روشنی، یہ نظر نظر کے چراغ ہیں کہیں جل گئے کہیں بُجھ گئے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे लोक परमेश्वरावर विश्वास ठेवतात, ते प्रत्येक ऋतूला रमणीय व आल्हाददायक मानतात व त्यापासून आनंद घेतात; परंतु जे लोक ‘अरेरे ग्रीष्मऋतू अत्यंत संताप आणणारा आहे, वर्षाऋतूमध्ये चिखलच चिखल होतो, हेमंतमध्ये शीत (थंडी) फार कष्टदायक असते’ इत्यादी दोष शोधत ऋतूंचा धिक्कार करतात, ते निश्चितच भाग्यहीन असतात ॥२॥

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    विषय

    ऋतू देवता। सर्व ऋतूंच्या सौंदर्याचे वर्णन-

    शब्दार्थ

    परमेश्वराच्या या सृष्टीत (वसन्तः) वसंत ऋतू (इत् नु) अवश्यमेव (रन्त्यः) रमणीय आहे. (ग्रीष्मः) ग्रीष्म ऋतू (इत् नु) निश्चयाने (रन्त्यः) रमणीय आहे (वर्षाणि अनु) वर्षा-ऋतूनंतर येणारे (शरदः) शरद ऋतूंचे दिवस आणि (हेमन्तः) हेमंत ऋतूदेखील रमणीय आहे. (शिशिरः) शिशिर ऋतू (इत् नु) निश्चयाने (रन्त्यः) रमणीय आहे.।।२।।

    भावार्थ

    ज्यांची परमेश्वरावर श्रद्धा आहे. ते लोक प्रत्येक ऋतू, हा परमेश्वराचीच निर्मिती आहे, असे समजून प्रत्येक ऋतूला रमणीय व आल्हाददायक मानतात आणि त्या त्या ऋतूतील आनंदाचा अनुभव घेतात, पण जे लोक दुर्दैवी असतात, ते मात्र उगाच प्रत्येक ऋतूत काहीतरी दोष काढत असतात. ---- बाप रे, काय तापदायक हा उन्हाळा! ‘पावसाळ्यात किती हे चिखलच चिखल सगळीकडे’ हेमंत ऋतूत किती ही थंडी?’ असे म्हणून ऋतूला दोष देत असतात.।।२।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    வசந்தமே ரமணீயமாகும், சந்தோஷத்திற்கு அருகதையாகும்;கிரீஷ்மமே களிப்பிற்கு நிலயமாகும்; வருஷா காலமும்,சரத்ருதுவும், ஹேமந்தமும், சசிருதுவும் ரமணீயமாகின்றன, ஆனந்தமாவதற்கு அருகதையாகும்.

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