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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 63
ऋषिः - श्यावाश्वो वामदेवो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
44
आ꣡ जु꣢होता ह꣣वि꣡षा꣢ मर्जय꣣ध्वं नि꣡ होता꣢꣯रं गृ꣣ह꣡प꣢तिं दधिध्वम् । इ꣣ड꣢स्प꣣दे꣡ नम꣢꣯सा रा꣣त꣡ह꣢व्यꣳ सप꣣र्य꣡ता꣢ यज꣣तं꣢ प꣣꣬स्त्या꣢꣯नाम् ॥६३
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । जु꣣होत । हवि꣡षा꣢ । म꣣र्जयध्वम् । नि꣢ । हो꣡ता꣢꣯रम् । गृ꣣ह꣡प꣢तिम् । गृ꣣ह꣢ । प꣣तिम् । दधिध्वम् । इडः꣢ । प꣣दे꣢ । न꣡म꣢꣯सा । रा꣣त꣡ह꣢व्यम् । रा꣣त । ह꣣व्यम् । सपर्य꣡त꣢ । य꣣जत꣢म् । प꣣स्त्या꣢꣯नाम् ॥६३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ जुहोता हविषा मर्जयध्वं नि होतारं गृहपतिं दधिध्वम् । इडस्पदे नमसा रातहव्यꣳ सपर्यता यजतं पस्त्यानाम् ॥६३
स्वर रहित पद पाठ
आ । जुहोत । हविषा । मर्जयध्वम् । नि । होतारम् । गृहपतिम् । गृह । पतिम् । दधिध्वम् । इडः । पदे । नमसा । रातहव्यम् । रात । हव्यम् । सपर्यत । यजतम् । पस्त्यानाम् ॥६३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 63
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में यह कहते हैं कि परमात्मा का सबको ध्यान और पूजन करना चाहिए।
पदार्थ
हे स्तोताओ ! तुम (हविषा) आत्मसमर्पणरूप हवि से (आजुहोत) परमात्माग्नि में अग्निहोत्र करो, (मर्जयध्वम्) अपने आत्मा को शुद्ध और अलंकृत करो। (होतारम्) यज्ञ का फल देनेवाले (गृहपतिम्) शरीररूप घर के रक्षक उस परमात्माग्नि को (निदधिध्वम्) हृदय में धारण करो—अर्थात्, उसका निरन्तर ध्यान करो। (रातहव्यम्) दातव्य सांसारिक वस्तुओं को और सद्गुणों को देनेवाले, (पस्त्यानाम्) प्रजाओं के (यजतम्) पूजनीय उस परमात्माग्नि को (इडः पदे) हृदयरूप यज्ञवेदि-स्थल में (नमसा) नमस्कार द्वारा (सपर्यत) पूजो ॥१॥ इस मन्त्र में आजुहोत, मर्जयध्वम्, निदधिध्वम्, सपर्यत इन अनेक क्रियाओं का एक कर्ता कारक से सम्बन्ध होने के कारण दीपक अलङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
आत्म-कल्याण चाहनेवाले मनुष्यों को अपने आत्मा को परमात्मारूप अग्नि में समर्पित करके आत्मशुद्धि करनी चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(हविषा-आजुहोत) हे उपासकजनो! उस स्वतेजःस्वरूप परमात्मा को समन्तरूप से आमन्त्रित करो (हविषामर्जयध्वम्) श्रद्धारूप भेंट से प्रेरित करो “मर्जयन्त गमयन्त” [निरु॰ १२.४३] (होतारं गृहपतिं निदधिध्वम्) स्वीकार करने वाले हृदयसदन के स्वामी परमात्मा को अपने अन्दर ध्यान से धारण करो (पस्त्यानां यजतम्) प्रजाओं—मनुष्यों के “विशो वै पस्त्याः” [श॰ ५.३.५.१९] “विशो मनुष्यनाम” [निघं॰ २.३] यजनीय-सङ्गमनीय—(राहतव्यम्) दिए हैं भोग पदार्थ जिसने उस ऐसे परमात्मा को (इडः-पदे) श्रद्धा के स्थान हृदय में—स्वात्मा में “श्रद्धा इडा” [तै॰ सं॰ १.७.२.५] (नमसा सपर्यत) नम्रस्तुति से पूजित करो—सत्कृत करो—सेवन करो।
भावार्थ
मनुष्यमात्र के यजनीय-सङ्गमनीय भोगप्रद तेजःस्वरूप परमात्मा का श्रद्धा के साथ हृदयसदन में नम्रस्तुति द्वारा सत्कार करो अपने अन्दर श्रद्धा, वैराग्य से आमन्त्रित कर आत्मसमर्पण स्नेह धारा को उसकी ओर प्रेरित कर निरन्तर ध्यान करें, इसमें मानव का उत्थान और आत्मकल्याण है॥१॥
विशेष
ऋषिः—श्यावाश्वो वामदेवो वा (प्रगतिशील निर्दोष इन्द्रिय—घोड़ों वाला या वननीय परमात्मदेव वाला उपासक)॥ छन्दः—१, ३, ५-९ त्रिष्टुप्; २, ४ जगती, १० त्रिपाद् विराड् गायत्री॥ स्वरः—१,३, ५-६ धैवतः;<br>
विषय
हवि के द्वारा मार्जन, दान से अपना शोधन
पदार्थ
प्रभु अपने सखा से कहते हैं कि १. (आजुहोत ) = सर्वश: आहुति देनेवाले बनो । तन, मन, धन से लोकहित करनेवाले बनो। यह हवि तुम्हें पवित्र बनाएगी । (हविषा) = हवि के द्वारा (मर्जयध्वम् )=अपना मार्जन करो। जिसके अन्दर हवि = = दान की वृत्ति उपजी, उसका अन्त:करण पवित्र हुआ। दान शब्द ‘डु दाञ्' ‘दाने', 'दो अवखण्डने' तथा 'दैप् शोधने' धातुओं से बनकर ‘देना', दोषों का खण्डन करना और अपना शोधन इस क्रम को व्यक्त कर रहा है। दान वस्तुतः लोभ को नष्ट कर व्यसन - वृक्ष के मूल को ही समाप्त कर देता है।
२. इस दान की वृत्ति के उपजाने के लिए (नि)= [in] अपने अन्दर (होतारम्) = होतृत्व की भावना को तथा (गृहपतिम्) = गृहपतित्व की भावना को (दधिध्वम्) = धारण करो। हम सदा सोचें कि हमें होता बनकर गृहपति बनना है। प्रारम्भ से ही हममें होता बनने की भावना होगी तो बड़े होकर हम ऐसा क्यों नहीं बनेंगे?
३. यह होतृत्व हममें स्थिर रहे, इसके लिए हमें चाहिए कि (इडः पदे) = अपनी वाणी के स्थान हृदय में (नमसा) = नम्रता से उस प्रभु की सपर्यत पूजा करें, जो प्रभु (रातहव्यम्) = हवि के योग्य पदार्थों अर्थात् पवित्र पदार्थों के देनेवाले हैं। अपवित्रता व दुर्गन्ध तो हमारे दुष्प्रयोग का परिणाम है, ‘पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च'=प्रभु ने तो पुण्य गन्ध को ही उपजाया है। जब प्रभु सब पदार्थों के देनेवाले हैं तो हमें प्रभु के दिये पदार्थों को प्रभु के प्राणियों को देते हुए क्यों संकोच होगा? वे प्रभु (पस्त्यानाम्) = सब घरों के साथ (यजतम्) - संगति करनेवाले या सबको देनेवाले हैं। हम भी एक ही घर से अपना सम्बन्ध क्यों समझें? सभी घरों को अपना घर समझते हुए वस्तुत: 'सर्वभूतहिते रताः' बनकर, सच्चे प्रभु-भक्त बनें।
भावार्थ
१. पवित्रता के लिए अपने को हविरूप बनाना आवश्यक है। बनने के लिए प्रारम्भ से होतृत्व का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए तथा ३. इस लक्ष्य क्रियान्वित करने के लिए सभी को सब कुछ देनेवाले उस प्रभु की विनय सहायक होती है|
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे पुरुषो ! ( हविषा ) = स्तुति और अनादि द्वारा ( आजुहोत ) = आदरपूर्वक आहुतियें दान करो और ( मर्जयध्वं ) = सत्कार करो और सुखी करो । ( होतारं ) = सब प्रकार के भोग्य अन्न आदि देने वाले उस होता स्वरूप ( गृहपतिं ) = गृह स्वामी के समान प्रभु को ( नि दधिध्वम् ) = अच्छी प्रकार सेवा शुश्रूषा और धारणा ध्यान द्वारा स्मरण करो। ( इड: ) = इला- पृथिवी यज्ञवेदी और अन्नादि के ( पदे ) = स्थान पर या अवसर पर और ( पस्त्यानाम् ) = घरों के बीच में ( रातहव्यं ) = हवि चरु आदि पुष्टिकारक पदार्थ और आनन्द के दायक स्वामी की ( नमसा ) = नमस्कार और उपहार द्रव्यों द्वारा ( सपर्यत ) = पूजा सत्कार करो ।
टिप्पणी
६३ - १. पस्त्यानि गृहाणि । नि० ३।४। तेषु ये निवसन्ति ते पस्त्याः । मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्यावाश्वोवामदेवोवा ।
छन्दः - त्रिष्टुभ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा सर्वैर्ध्यातव्यः पूजनीयश्चेत्याह।
पदार्थः
हे स्तोतारः ! यूयम् (हविषा) आत्मसमर्पणरूपेण हव्येन (आ जुहोत) आजुहुत, परमात्माग्नौ अग्निहोत्रं कुरुत। अत्र हविः आजुहुत इति प्राप्ते तृतीया च होश्छन्दसि।’ अ० २।३।३ इति जुहोतेः कर्मणि तृतीया। जुहोत इत्यत्र तप्तनप्तनथनाश्च।’ अ० ७।१।४५ इति लोण्मध्यमबहुवचनस्य तस्य स्थाने तप्, तस्य च पित्त्वेन ङिद्वद्भावाभावाद् गुणनिषेधो न। (मर्जयध्वम्) स्वात्मानं मार्जयत, शोधयत अलङ्कुरुत वा। मृज् शुद्धौ अलङ्कारे च, चुरादिः। (होतारम्) यज्ञफलप्रदातारम्, (गृहपतिम्) शरीरगृहस्य रक्षकं तं परमात्माग्निम् (निदधिध्वम्) हृदये निधारयत नितरां ध्यायत इत्यर्थः। निपूर्वो दध धारणे भ्वादिः, इडागमश्छान्दसः। (रातहव्यम्) रातं दत्तं हव्यं दातुं योग्यं सांसारिकवस्तुजातं सद्गुणजातं वा येन तम्, (पस्त्यानाम्१) प्रजानाम्। विशो वै पस्त्याः। श० ५।३।५।१९। (यजतम्) पूजनीयं तं परमात्माग्निम्। यज धातोः भृमृदृशियजि०’ उ० ३।११० इकि अतच् प्रत्ययः। (इडः पदे) इडः इडायाः पदे स्थाने, हृदयरूपयज्ञवेदिस्थले इत्यर्थः। इडा पृथिवीनाम। निघं० १।१। तथैव इड्शब्दोऽपि पृथिवीनामसु पठितव्यः। (नमसा) नमस्कारेण (सपर्यत) पूजयत। संहितायां जुहोता, सपर्यता इत्यत्र ऋचि तुनुघमक्षुतङ्कुत्रोरुष्याणाम्।’ अ० ६।३।१३३ इत्यनेन दीर्घः ॥१॥ अत्र आजुहोत, मर्जयध्वम्, निदधिध्वम्, सपर्यत इत्यनेकक्रियाणामेककर्तृकारकसम्बन्धाद् दीपकालङ्कारः२ ॥१॥
भावार्थः
आत्मकल्याणेप्सुभिर्जनैः स्वात्मानं परमात्माग्नौ समर्प्य स्वात्म- शुद्धिर्विधेया ॥१॥
टिप्पणीः
१. पस्त्यानि गृहाणि तेषु ये निवसन्ति ते पस्त्याः—इति वि०। पस्त्याः गृहाः, गृहस्थानामित्यर्थः—इति भ०। यज्ञगृहाणाम्—इति सा०। २. अथ कारकमेकं स्यादनेकासु क्रियासु चेत्। सा० द० १०।४९ इति तल्लक्षणात्।
इंग्लिश (3)
Meaning
O men, worship constantly in temples and Ida artery, God, the Lord of Our dwelling place. Dedicate yourselves to Him with prayer. Purify body and soul. Honour Him with homage, Who accepts our devotion and rewards our acts. The teacher and pupil should thus worship Him.
Translator Comment
Yogis concentrate upon God in Ida artery.
Meaning
Honour and adore Agni with havi, adorn embellish and develop this power of yajna, establish this chief of yajna and presiding spirit of the home in place, and serve this receiver and giver of the gifts of yajna on the vedi with humble submission as the most honoured member of the family.
Translation
May you, O devotees, invoke the fire-divine and off to Him spiritual devotions, free from blemishes, a purify your heart. May you establish this protector of the house-hold, at the sacred place of worship and along with your offerings surrender to Him with reverence.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (हविषा आजुहोत) હે ઉપાસકજાનો ! તે સ્વ તેજસ્વરૂપ પરમાત્માને સમગ્ર રૂપથી આમંત્રિત કરો (हविषामर्जयध्वम्) શ્રદ્ધારૂપ ભેટથી પ્રેરિત કરો (होतारं गृहपतिं निदधिध्वम्) સ્વીકાર કરનાર હૃદયઘરના સ્વામી પરમાત્માને પોતાની અંદર ધ્યાન દ્વારા ધારણ કરો (पस्त्यानां यजतम्) પ્રજાઓ-મનુષ્યોને યજનીય-સંગમનીય (राहतव्यम्) જેણે ભોગ પદાર્થ આપ્યા છે તે એવા પરમાત્માને (ईडः पदे) શ્રદ્ધાના સ્થાન હૃદયમાં પોતાના આત્મામાં (नमसा सपर्यत) નમ્ર સ્તુતિ દ્વારા પૂજિત-કરો સત્કાર-કરો સેવન-કરો. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મનુષ્ય મંત્રના યજનીય સંગમનીય ભોગપ્રદ તેજસ્વરૂપ પરમાત્માનો શ્રદ્ધાપૂર્વક હૃદયઘરમાં નમ્ર સ્તુતિ દ્વારા સત્કાર કરો , પોતાની અંદર શ્રદ્ધા અને વૈરાગ્યથી આમંત્રિત કરીને આત્મસમર્પણ સ્નેહધારાને તેની તરફ પ્રેરિત કરીને નિરંતર ધ્યાન કરો , તેમાં જ મનુષ્યની ઉન્નતિ અને આત્મકલ્યાણ રહેલું છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
اپنے کو اُس کے حوالے کردو!
Lafzi Maana
ہے اُپاسک منیشور (ہوشا آجہوتی) بھگوان کے پرتی آتم سمرپن کی آہوتیاں دو۔ اپنے آپ کو اُس کے حوالے کر دو (مرجّد ہُوم، اپنے شریر اور آتما کو شدُھ پِوتّر رکھو (ہوتا رم گرہ پِتم نِدھد دھُوم) سب جیؤں کا داتا ہمارے گھروں اور برہمانڈرُوپی گھر کے سوامی مالکِ کلُ کو اپنے آتما میں لگاتار دھارن کئے رکھو۔ (اِڈسپد سے) سُتتی پرارتھنا اور شردھا کے مقام ہردیہ مندر کے آسن پر (نمسا) بیٹھا ہوئے اُسے مان کرنمسکاروں کے ذریعے (رات ہُویم) سب بھوگ پدارتھوں کے دینے والے کی (سپّریت) پُوجاکرو، جو داتا کہ (پستیا نام سجیم) سب پرجاؤں کا پوجنیہ ست سنگتی اور شرن لینے یوگیہ ہے۔
وہی جگت کا ایک آدھار ہے،
اُسی کو ہمارا نِمسکار ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
आत्मकल्याण इच्छिणाऱ्या माणसांनी आपल्या आत्म्याला परमात्मरूपी अग्नीत समर्पित करून आत्मशुद्धी केली पाहिजे ॥१॥
विषय
प्रथम मंत्रात सांगत आहेत की सर्वांनी परमेश्वराचे ध्यान व पूजन केले पाहिजे.
शब्दार्थ
हे स्तोतागणहो तुम्ही (हविषा) आत्मसमर्पणरूप हवीद्वारे (आजुहोत) परमात्मरूप अग्नीत अग्हित्र करा. आणि (भर्जयध्वय्) आपल्या आत्म्यास शुद्ध करून घ्या. अलंकृत करा. (होत्मरम्) यज्ञाचे फळ देणाऱ्या (गृहपतिम्) शरीररूप घराचे रक्षक त्या परमात्म अग्नीला (निदधिध्वम्) हृदयी धारण करा. म्हणजे निरंतर त्याचे ध्यान करा. (शतहव्यम्) देण्यास योग्य म्हणजे आम्हास आवश्यक त्या ते सांसारीक पदार्थ आणि सद्गुण देणाऱ्या (पस्त्यानाम्) प्रजाजनांतर्फे (यजतम्) प्रजनीय त्या परमात्म अग्नीचे (इड. पदे) हृदयरूप यज्ञवेदीस्था (नमसा) नमस्काराद्वारे (सपर्यत) पूजन करा. (त्याचे ध्यान धरा.) ।।१।।
भावार्थ
आत्मकल्याणाचे इच्छुक मनुष्यांनी आपल्या आत्म्यास परमात्मरूप अग्नीला समर्पित करून आत्मशुद्धी केली पाहिजे. ।।१।।
विशेष
या मंत्रात आजुहोत, मर्जयध्वम्, निदधिध्वम्, सपर्यत या अनेक क्रियांचा एकच कर्ता असल्यामुळे येथे दीपक अलंकार आहे.
तमिल (1)
Word Meaning
அளிக்கவும், ஹவிஷுக்களால் (துதிகளால்) பிரகாசமாக்கவும், அவன் நிலையத்தில் தேவர்களை இன்பமுடனாக்கும் வீட்டின் தலைவனான அக்னியை நிலை நாட்டவும், நமஸ்காரத்துடன் அளிக்கப்பட்ட ஹவிஷுகளுடனான யக்ஞங்களின் நடுவே பூஜிக்கத் தகுந்தவனை அணுகவும்.
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