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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 64
ऋषिः - उपस्तुतो वार्हिष्टव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
44
चि꣣त्र꣢꣫ इच्छिशो꣣स्त꣡रु꣢णस्य व꣣क्ष꣢थो꣣ न꣢꣫ यो मा꣣त꣡रा꣢व꣣न्वे꣢ति꣣ धा꣡त꣢वे । अ꣣नूधा꣡ यदजी꣢꣯जन꣣द꣡धा꣢ चि꣣दा꣢ व꣣व꣡क्ष꣢त्स꣣द्यो꣡ महि꣢꣯ दू꣣त्यां꣢३꣱च꣡र꣢न् ॥६४॥
स्वर सहित पद पाठचि꣣त्रः꣢ । इत् । शि꣡शोः꣢꣯ । त꣡रु꣢꣯णस्य । व꣣क्षथः꣢ । न । यः । मा꣣त꣡रौ꣢ । अ꣣न्वे꣡ति꣣ । अ꣣नु । ए꣡ति꣢꣯ । धा꣣त꣢꣯वे । अ꣣नूधाः꣢ । अ꣣न् । ऊधाः꣢ । यत् । अ꣡जी꣢꣯जनत् । अ꣡ध꣢꣯ । चि꣣त् । आ꣢ । व꣣व꣡क्ष꣢त् । स꣣द्यः꣢ । स꣣ । द्यः꣢ । म꣡हि꣢꣯ । दू꣣त्य꣢꣯म् । च꣡र꣢꣯न् ॥६४॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्र इच्छिशोस्तरुणस्य वक्षथो न यो मातरावन्वेति धातवे । अनूधा यदजीजनदधा चिदा ववक्षत्सद्यो महि दूत्यां३चरन् ॥६४॥
स्वर रहित पद पाठ
चित्रः । इत् । शिशोः । तरुणस्य । वक्षथः । न । यः । मातरौ । अन्वेति । अनु । एति । धातवे । अनूधाः । अन् । ऊधाः । यत् । अजीजनत् । अध । चित् । आ । ववक्षत् । सद्यः । स । द्यः । महि । दूत्यम् । चरन् ॥६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 64
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में अग्नि की समानता से परमेश्वर की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। (शिशोः) नवजात शिशु होते हुए भी (तरुणस्य) जो युवक है, युवक के समान कार्य करनेवाला है, उस यज्ञाग्नि का (वक्षथः) हवि वहन करने का गुण (चित्रः इत्) अद्भुत ही है; (यः) जो यज्ञाग्नि (धातवे) दूध पीने के लिए (मातरौ) माता-पिता बनी हुई अरणियों का (न अन्वेति) अनुसरण नहीं करता। (अनूधाः) बिना ऊधस् वाली माता अरणी (यत्) जब, यज्ञाग्नि को (अजीजनत्) उत्पन्न करती है (अध चित्) उसके बाद ही (सद्यः) तुरन्त (महि) महान् (दूत्यम्) दूत-कर्म को (चरन्) करता हुआ, वह (आववक्षत्) होम की हुई हवि को वहन करने लगता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (शिशोः) शिशु के समान प्रिय, और (तरुणस्य) युवक के समान महान् कर्मों को करनेवाले परमात्मा का (वक्षथः) जगत् के भार को वहन करने का गुण (चित्रः) आश्चर्यकारी है, (यः) जो परमात्मा, अन्य प्राणियों के समान (धातवे) दूध पीने के लिए अर्थात् पुष्टि पाने के लिए (मातरौ) माता-पिता को (न अन्वेति) प्राप्त नहीं करता, प्रत्युत स्वयं परिपुष्ट है। (अनूधाः) ऊधस्-रहित प्रकृति (यत्) जब (अजीजनत्) इस जगत् को उत्पन्न करती है (अध चित्) उसके बाद ही (सद्यः) तुरन्त (महि) महान् (दूत्यम्) दूत-कर्म को (चरन्) करता हुआ, वह परमात्मा (आ ववक्षत्) जगत् के भार को वहन करना आरम्भ कर देता है ॥२॥ यहाँ वह कौन है जो शिशु होते हुए भी तरुण है, शिशु होते हुए भी पोषण पाने या दूध पीने के लिए माता-पिता के पास नहीं जाता और पैदा होते ही महान् दूत-कर्म करने लगता है’—इस प्रकार प्रहेलिकालङ्कार है। अथवा विरोधालङ्कार व्यङ्ग्य है ॥२॥
भावार्थ
शिशु होते हुए कोई भी शक्तिसाध्य कार्य नहीं करता है, किन्तु माता का दूध पीने से और पिता के संरक्षण से पुष्ट होकर ही भारी काम करने में समर्थ होता है। परन्तु यह आश्चर्य है कि अरणी-रूप माता-पिताओं से उत्पन्न यज्ञाग्नि शिशु होता हुआ भी उत्पन्न होते ही हवि-वहन रूप दुष्कर दूत-कर्म को करने लगता है। वैसे ही परमेश्वर भी शिशु होते हुए भी युवक है, क्योंकि वह भक्तों को शिशु के समान प्रिय है और युवक के समान जगत् के भार को उठाने रूप महान् कार्य को करने में समर्थ है। सब लोग माता-पिता से रसपान करके ही अपने शरीर में बल संचित करते हैं, किन्तु परमेश्वर उनसे रसपान किये बिना ही स्वभाव से परम बलवान् है और प्रकृति से उत्पन्न विशाल ब्रह्माण्ड के भार को उठानेवाला है। परमेश्वर का यह सामर्थ्य और कर्म बड़ा ही अद्भुत है ॥२॥
पदार्थ
(शिशोः-तरुणस्य) इस शिशुरूप प्रशंसनीय प्रिय “शिशुः-शंसनीयः” [निरु॰ १०.३९] एवं युवा के समान महाबलवान् परमात्मा का (चित्रः-वक्षथः-इत्) अद्भुत संसार वहन कार्य है कि (यः-मातरा धातवे न-अन्वेति) जो जगत् भर की माताओं—द्यौ और पृथिवी की ओर स्तन पान करने नहीं जाता है (अनूधा) क्योंकि ये दोनों दुग्धाधान से रहित हैं भले ही जीवात्माओं के लिये रखती हों परमात्मा शिशु के लिये नहीं, क्योंकि (अजीजनत्) जैसे ही यह परमात्मा शिशु प्रसिद्ध हुआ (अध चित्) अनन्तर ही (सद्यः) तुरन्त (महि दूत्यं चरन्) सबके भारी प्रेरणकार्य को करता हुआ (आववक्षत्) समन्तरूप से प्राणीमात्र मनुष्यमात्र का उत्पादन कर्मफलप्रदान को पूरा करता है।
भावार्थ
उपासक की दृष्टि में परमात्मा एक सुन्दर प्रशंसनीय प्रिय शिशु के रूप में आता है, समस्त जगत् के पदार्थों की दो माताएँ हैं, एक द्यौः—जो अपने दिव्य जलरूप दुग्ध का पान कराती है, दूसरी पृथिवी जो अपने ओषधिरस दुग्ध को पिलाती है परन्तु परमात्मा शिशु इन दोनों के दुग्ध लेने नहीं जाता उसके लिये ये दुग्धाधान रखती ही नहीं तब समस्त संसार का चालनकार्य स्वसामर्थ्य से महा बलवान् युवा बनकर करना उसका आश्चर्य ही हुआ कारण कि हमारे जैसा देहधारी तो वह है ही नहीं॥२॥
विशेष
ऋषिः—वार्ष्टिहव्य उपस्तुतः (ज्ञानवृष्टि में स्नात उपासक)॥<br>
विषय
आदरणीय मानव जीवन के चार पड़ाव
पदार्थ
मानव जीवन का प्रथम पड़ाव ब्रह्मचर्यकाल है। इसमें (शिशो:) = शिशु [शो तनूकरणे] अपनी बुद्धि को तीव्र करनेवाले का तथा (तरुणस्य)=तरुण [तृ] वासनाओं को तैर जानेवाले का (वक्षथः) = विकास [वक्ष=to wax, to grow] (चित्र इत्) = सचमुच अद्भुत है। ब्रह्मचर्यकाल में यदि उसने दो बातों का ही ध्यान रक्खा कि १. बुद्धि को तीव्र करना है तथा २. वासनाओं का शिकार नहीं होना है तो यह उसकी प्रशंसनीय सफलता होगी।
इसके बाद गृहस्थ में वह (धातवे) = पालन-पोषण के लिए (मातरौ अनु) = माता-पिता के पीछे (न एति) = नहीं जाता तो यह प्रशंसनीय है। गृहस्थ में तो प्रवेश ही तब करना चाहिए जबकि ‘धीं श्रीं स्त्रीम्' - ज्ञान व धन का उसने सम्पादन कर लिया हो । गृहस्थ बनकर तो उसे स्वयं माता-पिता की सेवा करनी है, न कि सेवा लेनी है।
अब गृहस्थ का सम्यक् पालन करने के बाद (यत्) = जब वह अपने को ('अनूधा: ') = अन्तःपुर [secret apartments] निज घर के बिना (अजीजनत्) = कर लेता है, अर्थात् वानप्रस्थ बन जाता है और उसकी कुटिया के द्वार सबके लिए खुला रहता है तो यह भी बड़ी प्रशंसनीय बात है।
(अध चित्) = अब इस वानप्रस्थ के बाद ही, संन्यासी बन (सद्य:) = वह शीघ्र ही महि (दूत्याम्) = महान् दूतकर्म को (चरन्) = करता हुआ (आववक्षत्) = वेदज्ञान को सर्वत्र ले जाता है अर्थात् पहुँचाता है। इस प्रकार अपने जीवन के तीनों पड़ावों को प्रशंसनीय प्रकार से बिताता हुआ यह सचमुच इस मन्त्र का ऋषि 'उपस्तुत' बनता है। हृदय की वासनाओं के उद्बर्हण के कारण स्तुति किये जाने से यह 'वार्ष्टिहव्य' कहलाता है।
भावार्थ
जीवन के चारों पड़ावों को हम बड़े सुन्दर प्रकार से तय करें।
टिप्पणी
सूचना- मातरौ का अर्थ माता-पिता करना कुछ कठिन है, उस स्थिति में रूप 'मातापितरौ' या ‘पितरौ' बनता है। यहाँ वास्तव में माता और mother-in-law से अर्थ है। आजकल युवक पिता न भी दें तो माता से मांग लेते हैं और mother-in-law से माँगना तो अधिकार ही समझते हैं। वे भी तङ्ग हैं - यह तङ्गी ('जामाता दशमो ग्रहः') इस वाक्य से व्यक्त है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = परमात्मा अग्नि का श्लेषपूर्वक शिशु रूप से वर्णन । प्रथम शिशु के पक्ष में – ( शिशो:१ ) = उस शिशु रूप ( तरुणस्य ) = तरुण अग्नि आत्मा का ( इत् वक्षथः२ ) = भी यह वहन करने का कार्य ( चित्रः इत् ) = आश्चर्यजनक है ( यः ) = जो ( धातवे ) = रस पान के लिये भी ( मातरौ ) = माता पिता किसी के पास भी ( न अन्वेति ) = नहीं जाता है। और आश्चर्य यह है कि ( अनूधा: ) = बिना दूध के ही अब वह उत्पन्न हुआ ( अधा चित् ) = तब ही ( सद्यः ) = तुरन्त ( महि ) = बड़े भारी ( दूत्यं चरन् ) = दूत के कार्य के समान गमनागमन करता हुआ ( आववक्षत् ) = कार्य-भार को उठा लेता है ।
ईश्वर परमात्मा व्यापक, सर्वत्र सुप्त के समान व्यापक होने से यास्तुत्य होने से शिशु है, वह नित्य सामर्थ्यवान् होने से 'तरुण' है । उसका विश्व को वहन करने या धारण करने का कार्य अद्भुत है । वह अपने बल प्राप्त करने के लिये ( मातरौ ) = मातृभूत द्यौ और पृथिवी दोनों के अधीन नहीं रहता । वह संसार को स्वयं उत्पन्न कर चुकने पर भी 'अनुधा:' अर्थात् स्वयं उसको धारण करता है। अतएव वह ( सद्यः ) = निरन्तर ( महि ) = वड़ा भारी ( दृत्यं चरन् ) = विश्व को उपतापन या तप का कार्य करता हुआ इस संसार को ( अववक्षत् ) उठा रहा है ।
टिप्पणी
६४ - 'अप्येति धातवे' 'यदजीजनद' 'अधाचन ववक्ष सद्यो' इति पाठभेदाः, ऋ०।
१. शिशोः शंसनीयस्य । मा० वि० ।
२. वक्षथः -वहनं गमनम् । मा० वि० ।
३. चित्रः पूज्य: । मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः ।
छन्दः - जगत्यौ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निसाम्येन परमेश्वरस्य महिमानमाह।
पदार्थः
प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। (शिशोः) सद्योजातस्य बालस्यापि (तरुणस्य) युवकस्य, युवकवत् कार्यं कुर्वतः यज्ञाग्नेः (वक्षथः) हविर्वहनगुणः। वह धातोरौणादिकः अथप्रत्ययः, मध्ये सकारागमः। (चित्रः इत्) अद्भुत एवास्ति, (यः) यज्ञाग्निः (धातवे) पयः पातुम्। धेट् पाने धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। (मातरौ) मातापितृभूते अरणी (न अन्वेति) नानुगच्छति। (अनूधाः) ऊधोरहिता माता अरणिः (यत्) यदा, तं यज्ञाग्निं पुत्रम् (अजीजनत्) जनयति। अत्र लडर्थे लुङ्। (अध चित्) तत्क्षणमेव (सद्यः) सत्वरम् (महि) महत् (दूत्यम्) दूतकर्म। ‘दूतस्य भागकर्मणी।’ अ० ४।४।१२० इति कर्मार्थे यत् प्रत्ययः। (चरन्) कुर्वन् सः (आववक्षत्) हुतं हविः वोढुं प्रारभते। आङ्पूर्वाद् वह धातोः लेटि रूपम्। बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६ इति शपः श्लौ द्वित्वम्। मध्ये अडागमः सिबागमश्च ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (शिशोः) शिशुवत् प्रियस्य, (तरुणस्य) तरुणवद् महान्ति कर्माणि कुर्वतः परमात्मनः (वक्षथः) जगद्भारवहनगुणः (चित्रः इत्) आश्चर्यकरः एव वर्तते, (यः) परमात्मा, इतरप्राणिवत् (धातवे) पयः पातुम् पुष्टिं प्राप्तुम् इत्यर्थः, (मातरौ) मातापितरौ (न अन्वेति) न अनुप्राप्नोति प्रत्युत स्वयमेव परिपुष्टोऽस्ति। (अनूधाः) ऊधोरहिता प्रकृतिः (यत्) यदा (अजीजनत्) इदं जगद् उत्पादयति (अध चित्) तदनन्तरमेव (सद्यः) झटिति (महि) महत् (दूत्यम्) दूतकर्म (चरन्) आचरन्, स परमात्मा (आ ववक्षत्) जगद्भारं वोढुं प्रारभते ॥२॥ अत्र कोऽसौ यः शिशुरपि तरुणः, शिशुरपि पोषणाय पयःपानाय वा पितरौ नानुगच्छति, जन्मसमकालमेव च दौत्यं कर्तुं प्रारभते—इति प्रहेलिकालङ्कारः। यद्वा, विरोधालङ्कारो व्यज्यते ॥२॥
भावार्थः
शिशुः सन् न कश्चिदपि शक्तिसाध्यं कर्म करोति, किन्तु मातुः स्तन्यपानेन पितुश्च संरक्षणेन पुष्टिं गत एव दुर्वहकर्मरणायोत्सहते। परम् आश्चर्यमिदं यदरणीरूपमातापितृभ्यां जनितो यज्ञाग्निः शिशुरेव सन्नुत्पत्तिसमकालमेव हविर्वहनरूपं दुष्करं दौत्यमाचरति। तथैव परमेश्वरोऽपि शिशुरपि तरुणः, भक्तानां शिशुवत् प्रियत्वात् तरुणवज्जगद्भारवहनरूपमहाकार्यकरणसमर्थत्वाच्च। सर्वे प्राणिनो मातापित्रोः सकाशाद् रसपानं विधायैव स्वशरीरे बलं सञ्चिन्वन्ति, परं परमेश्वरस्तयोः पयःपानं विनैव स्वभावतः परमबलवान्, प्रकृत्याः सकाशादुत्पन्नस्य विशालस्य ब्रह्माण्डभारस्य वोढा च वर्तते। परमेश्वरस्यैतत् सामर्थ्यं कर्म चाद्भुतमेव ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।११५।१ मातरावप्येति धातवे। अनूधा यदि जीजनदधा च नु ववक्ष इति पाठः।
इंग्लिश (3)
Meaning
God pervades the universe calmly, as does the child sleep. He is ever young due to His Might. Wondrous is His act of sustaining the universe. For the acquisition of His power, He does not depend upon the Sun mid the Earth, the mothers of creatures. Having created the universe, He himself sustains it. He is incessantly bearing the burden of the universe, imparting intense warmth to it.
Meaning
Wondrous is the invigorating and sustaining power of the newly risen youthful Agni which never goes to its parental source for food and energy replenishment. And if you say that the udder less creator has given it birth, even so, going on its great ambassadorial mission, it carries the fragrant message of yajna to the divinities immediately on its birth. (Rg. 10-115-1)
Translation
Wonderful is the conveying capacity of this tender infant (i.e. of the fire-divine in carrying oblations to distances); he does not come to his parents to drink; indeed the udder less heaven and earth have given him birth. He immediately (and directly) bears oblations to Nature's bounties; he is verily their messenger, and he fulfils this office with eagerness.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (शिशोः वरुणस्य) એ શિશુ-બાળક રૂપ પ્રશંસનીય પ્રિય તથા યુવાનની સમાન મહા બળવાન પરમાત્માનું (चित्रः वक्षथः इत्) અદ્ભુત સંસાર બહેન કાર્ય છે કે (यः मातरा धातवे न अन्वेति) જગત ભાર ની માતાઓ-દ્યૌ અને પૃથિવી તરફ સ્તનપાન કરાવવા જતાં નથી (अनूधा) કારણ કે એ બન્ને દુગ્ધાધાનથી રહિત છે તે ભલે જીવાત્માઓ માટે રાખતી હોય પરમાત્મા શિશુ માટે નહિ, કારણ કે (अजीजनत्) જેવો એ પરમાત્મા શિશુ પ્રકટ થયો (अध चित्) ત્યાર પછી (सद्यः) તુરત જ (महि दूत्यं चरन्) સર્વમાં મહાન પ્રેરણા કાર્યને કરતા (आववक्षत्) સમગ્ર રૂપથી પ્રાણીમાત્ર-મનુષ્ય માત્રનું ઉત્પાદન કર્મફળ પ્રદાનને પૂર્ણ કરે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસકની દૃષ્ટિમાં પરમાત્મા એક સુંદર પ્રશંસનીય પ્રિય શિશુરૂપમાં આવે છે , સમસ્ત સંસારના પદાર્થોની બે માતાઓ છે , એક દ્યૌ: - જે પોતાના દિવ્ય જલરૂપ દૂધનું પાન કરાવે છે બીજી પૃથિવી જે પોતાનું ઔષધીરૂપ દૂધનું પાન કરાવે છે , પરંતુ પરમાત્મારૂપ શિશુ એ બન્નેનું દૂધ લેવા આવતો નથી. જેથી તે બન્ને તેના માટે દુગ્ધાધાન રાખતી નથી ; ત્યારે સમસ્ત સંસારને ચલાવવાનું કાર્ય પોતાના સામર્થ્યથી મહા બળવાન યુવાન બનીને કરે છે , તેના આશ્ચર્યકારક કાર્યનું કારણ એ છે , કે તે અમારી સમાન દેહધારી તો છે જ નહિ. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
دھن دھن تیری کاریگری کرتار
Lafzi Maana
(ششو) بالک کے سمان راگ دویش رہت قابلِ تعریف (تردُنیہ) ہمیشہ جوان رہنے والے پرماتما کا (وکھشتھ) سارے جہان کے انتظام کے بھار کو سنبھالنے والے (چِتراتِ) جس کے کاریہ ایک دم حیران کر دینے والے اور اوبُھت ہیں۔ جو (دھاتوے) دودھ پینے یا کسی پرکار کے پالن پوشن کے لئے (ماترؤ نہ ان دیتی) ماتا پتا کی گود میں منش روُپ میں جنم نہیں لیتا۔ (انودھا) یہ پرکرتی اور اس کا کاریہ جگت (یت) جب (اجو جنت) پرماتما کو پرگٹ کرتا ہے، (کہ یہ ہے وہ پرماتما جس نے سوُرج چاند زمین اور ستاروں بھرا آسمان بنانا وغیرہ (ادھا) تب (چِت) یہ پرماتما (ہی دوُیتم چرن) مہان دوُت کرم کرتا ہوا (آد وکھشت) سب طرف وِشال سنسار کا پر بندھ چلاتا ہوا دکھائی دیتا ہے۔ معلوم ہوتا ہے۔
Tashree
جیسے دوُت سب جگہ پہنچ کر سب کو پیغام پہنچاتا ہے، ایسے ہی پرمیشور اگنی، سوُرج، ہوا اور ورشا (بارش) وغیرہ کے دوارہ آتماؤں میں بیٹھے ہوئے بھی دوُت کرم یعنی پیغام رسانی کرتا رہتا ہے۔
دھن دھن تیری کاریگری کرتار
मराठी (2)
भावार्थ
शिशु असताना कोणीही शक्तिसाध्य कार्य करत नाही. आईचे दूध पिऊन व वडिलांच्या संरक्षणाने पुष्ट होऊनच भारी काम करण्यास समर्थ होतो. परंतु हे आश्चर्य आहे, की अरणीरूप माता-पिता यांच्यापासून उत्पन्न झालेला यज्ञाग्नी शिशु असूनही उत्पन्न झाल्याबरोबर हवि-वहन रूपी दुष्कर दूत-कर्म करू लागतो. तसाच परमेश्वरही शिशु असूनही युवक आहे. कारण तो भक्तांना शिशुप्रमाणे प्रिय आहे व युवकांप्रमाणे जगाचा भार उचलण्यास समर्थ आहे. सर्व लोक माता-पित्याकडून रसपान करूनच आपल्या शरीरात बल संचित करतात, परंतु परमेश्वर त्यांच्याकडून रसपान केल्याशिवायच स्वभावाने परम बलवान आहे व प्रकृतीपासून उत्पन्न विशाल ब्रह्मांडाचा भार उचलणारा आहे. परमेश्वराचे हे सामर्थ्य व कर्म अत्यंत अद्भुत आहे ॥२॥
विषय
आता अग्नीच्या समानतेद्वारे परमेश्वराचा महिमा सांगितला आहे. -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (यज्ञाग्नीपरक) (शिशो:) नवजात बालक असूनही जो (तरूणस्तय) तरूण आहे तरूणाप्रमाणे कार्य करणारा आहे त्या यज्ञाग्नीचे (वक्षथ:) हवी वहन करण्याचे गुण खरोखर (चित्र: इत्) अद्भूत आहे. (य:) जो यज्ञाग्नी (धातवे) दूध पिण्यासाठी (मातरौ) माता पिताद्वारे सारख्या असणाऱ्या अरणींचे (न अन्नेति) अनुसरण करीत नाही. (अनूधा:) ऊधस्रहित माता अरणी (यत्) जेव्हा यज्ञाग्नीला (अजीजनत्) उत्पन्न करते (अधचित्) त्यानंतरच ती यज्ञाग्नी त्रित (महि) महान (दूत्यम्) दूत कर्म करीत (आववक्षत्) होम केलेल्या हवीचे वहन करणे (यज्ञवेदीतून वर वा सर्व दिशांत पसरविणे) आरंभ करतो. द्वितीय अर्थ : (परमात्मपरक) - (शिशो:) शिशुसारखे प्रिय आणि (तरूणस्य) युवकाप्रमाणे महान कर्म करणाऱ्या परमेश्वराचे (वक्षय:) सृष्टीचा भार सहन करण्याचे गुण खरोखर (चित्र:) आश्चर्यकारी आहे. (य:) जो परमात्मा अन्य प्राण्याप्रमाणे (धातवे) दूध पिण्यासाठी म्हणजे पुष्टी वा वृद्धी प्राप्त करण्यासाठी (मातरौ) माता पित्याला (न अन्वेति) प्राप्त करीत नाही, तो स्वत: परिपुष्ट आहे. (अनूधा:) ऊधस् रहित प्रकृती (यत्) जेव्हा (अजीजनत्) या सृष्टीला उत्पन्न करते (अध चित्) त्यानंतरच (सद्य:) त्वरित (महि) महान (दूत्यम्) दूतकर्म करीत तो परमात्मा (आ ववक्षत्) जगाचा भार सहन करणे आरंभ करतो. ।।२।।
भावार्थ
शिशु असताना काषणीही कोणते शक्तिसाध्य कार्य करू शकत नाही, पण आईचे दूध पिऊन आणि पित्याच्या संरक्षणामुळे पुष्ट, बलवान होऊन कोणतेही मोठे कार्य करू शकतो, पण हे महदाश्चर्य आहे की अरणीरूप माता पित्याने उत्पन्न यज्ञाग्नी शिशु असतानाही हवि वह्य रूप दुष्कर दूतकर्म करू लागतो. त्याचप्रकारे परमेश्वरदेखील शिशु असतानाही युवक आहे, कारण तो भक्तांना शिशुप्रमाणष प्रिय आहे आणि युवाप्रमाणे या जगाचा भार पेलण्याने अतिमहामहान कार्य करण्यास समर्थ आह. सर्वजण माता पित्याकडून रसपान करून शरीरात शक्ती संचित करतात. पण परमेश्वर त्यांच्याकडून रसपान न करतानही स्वभावेन परम बलवान आहे आणि प्रकृतीपासून उत्पन्न विशाल ब्रह्मांडाचा भार उचलत आहे. खरेच परमेशाचे हे सामर्थ्य आणि कर्म अतिशय अद्भुत आहे. ।।२।।
विशेष
या मंत्रात तो कोण आहे, जो शिशु असूनही तरूण आहे शिशू असूनही पुष्टीसाठी वा दूध पिण्यासाठी आई-वडिलांकडे जात नाही. तसेच जो जन्मल्याबरोबर दूतकर्म करू लागतो या म्हणण्यात प्रहेलिका अलंकार आहे. म्हणजे एक कोडे घातले आहे अथवा या कथनात विरोधालंकारदेखील मानता येतो.
तमिल (1)
Word Meaning
தாய்களின் [1]ஸ்தன்ய பானத்திற்கே செல்லாத சிசுவான பாலனான அக்னியின் பலம் அற்புதம் வாய்ந்ததே. [2]ஸ்தன்யமற்றவள் அவனை சன்மமாக்கியவுடன் அவன் உடனே துரிதமாக திடமான தூதச்செயல் செய்து கொண்டு தேவர்களை நோக்கிச் செல்லுகிறான்.
FootNotes
[1] ஸ்தன்ய பானத்திற்கே - பால் பருக
[2] ஸ்தன்யமற்றவள் - மறைந்துள்ள அவனை உன் சக்தியால் புலனாக்கிக் கொண்டதும்
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