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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 66
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    35

    इ꣣म꣢꣫ꣳ स्तो꣣म꣡मर्ह꣢ते जा꣣त꣡वे꣢दसे र꣡थ꣢मिव꣣ सं꣡ म꣢हेमा मनी꣣ष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢꣫ हि नः꣣ प्र꣡म꣢तिरस्य स꣣ꣳस꣡द्यग्ने꣢꣯ स꣣ख्ये꣡ मा रि꣢꣯षामा व꣣यं꣡ तव꣢꣯ ॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣म꣢म् । स्तो꣡मम꣢꣯म् । अ꣡र्ह꣢꣯ते । जा꣣त꣡वे꣢दसे । जा꣣त꣢ । वे꣣दसे । र꣡थ꣢꣯म् । इ꣣व । स꣢꣯म् । म꣣हेम । मनीष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢ । हि । नः꣣ । प्र꣡म꣢꣯तिः । प्र । म꣣तिः । अस्य । सँस꣡दि꣢ । सम् । स꣡दि꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । मा । रि꣣षाम । वय꣢म् । त꣡व꣢꣯ ॥६६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमꣳ स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया । भद्रा हि नः प्रमतिरस्य सꣳसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥६६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । स्तोममम् । अर्हते । जातवेदसे । जात । वेदसे । रथम् । इव । सम् । महेम । मनीषया । भद्रा । हि । नः । प्रमतिः । प्र । मतिः । अस्य । सँसदि । सम् । सदि । अग्ने । सख्ये । स । ख्ये । मा । रिषाम । वयम् । तव ॥६६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 66
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमेश्वर की स्तुति और उसकी संगति से हम क्या प्राप्त करें।

    पदार्थ

    (अर्हते) पूजायोग्य (जातवेदसे) सब उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता, सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान, सकल धन के उत्पादक और वेदज्ञान को प्रकट करनेवाले परमेश्वर के लिए (मनीषया) मनोयोग के साथ (स्तोमम्) स्तोत्र को (संमहेम) सत्कारपूर्वक भेजें, (रथम् इव) जैसे किसी पूज्य जन को बुलाने के लिए उसके पास रथ भेजा जाता है। (अस्य) इस परमेश्वर की (संसदि) संगति में (नः) हमारी (प्रमतिः) प्रखर बुद्धि (भद्रा हि) भद्र ही होती है। हे (अग्ने) तेजस्वी परमात्मन् ! (वयम्) हम प्रजाजन (तव) आपकी (सख्ये) मित्रता में (मा) मत (रिषाम) हिंसित होवें ॥४॥ स्तोत्र को रथ के समान सत्कारपूर्वक भेजें—यहाँ पूर्णोपमा अलङ्कार है। जैसे किसी सुयोग्य विद्वान् को अपने उत्सवों में लाने के लिए उसके निमित्त रथ भेजा जाता है, वैसे ही पूज्य परमेश्वर को अपने हृदय-गृह में लाने के लिए उसके निमित्त स्तोत्र भेजा जाए। यह भाषा आलङ्कारिक समझनी चाहिए क्योंकि परमेश्वर तो पहले से ही हमारे हृदयों में विद्यमान है ॥४॥

    भावार्थ

    अव्यक्तरूप से हृदय में स्थित परमेश्वर हमारे स्तोत्र से जाग जाता है और हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चलनेवाली भद्र बनाकर विनाश से हमारी रक्षा करता है ॥४॥

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    पदार्थ

    (अर्हते जातवेदसे) पूजनीय “अर्हते कर्मणि शतृप्रत्ययश्छान्दसः” सर्वज्ञानप्रकाशक तथा सर्वज्ञ परमात्मा के लिये (इमं स्तोमम्) इस स्तुतिसमूह स्तुतिप्रवाह को (रथम्-इव) रथ जैसे को—रथ जैसे अभीष्ट स्थान पर पहुँचाता है ऐसे अभीष्ट मोक्षधाम पर पहुँचाने वाले को (मनीषया सम्महेम) हृद्यभावना—श्रद्धा से हम समर्पित करते हैं (अस्य संसदि) इस परमात्मा की सङ्गति-उपासना में (नः प्रमतिः-भद्रा हि) हमारी प्रकृष्ट धारणा—मानसिक स्थिति—अन्तःस्थली पुण्य एवं कल्याणरूपा हो जावे, अतः (अग्ने तव सख्ये) हे परमात्मन्! तेरे सखापन में (वयं मा रिषाम) हम पीड़ित न हों।

    भावार्थ

    मानव का प्राप्तव्य इष्टदेव परमात्मा तथा गन्तव्यस्थान मोक्ष धाम है, परमात्मा पूज्य है जो हम सबको जानने वाला है, उसे पाने या उस तक पहुँचने के लिये स्तुतिप्रवाह रथ के समान है, पहुँचाने वाला साधन है। उसके सहारे हम उस तक पहुँच सकेंगे। परन्तु चलें श्रद्धा से, परमात्मा की उपासना में सङ्गति—हमारी आत्मस्थिति अपने रूप में परिमार्जित कल्याणमयी हो जावेगी जो मोक्ष में होती है, उस परमात्मा के सखिभाव में हम बाधित न होंगे और मोक्ष में निर्बाध रहेंगे॥४॥

    टिप्पणी

    [*9. “कुत्सः कर्ता स्तोमानाम्” (निरु॰ ३.२२)।]

    विशेष

    ऋषिः—कुत्सः (स्तुतियों का कर्ता उपासक*9)॥<br>

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    विषय

    यह स्तोम = स्तुति

    पदार्थ

    (इमं स्तोमम्) = इस स्तुति को, जिसका गत मन्त्र में तीन ज्योतियों के समविकास के रूप में उल्लेख हुआ है, हम (अर्हते)- प्रशंसनीय प्रभु के लिए (संमहेमा) = संस्कृत करते हैं। इन तीनों ज्योतियों का विकास हमने क्या किया है ? इनका विकास करनेवाला तो वह प्रभु ही है। यह सब प्रशंसा उसी की है। जहाँ-जहाँ विजय व सफलता है, उसका करनेवाला वही है, क्योंकि वह (जातवेदसे)=प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है [जाते जाते विद्यते] । नासमझ व्यक्ति इन विजयों को अपना समझा गर्वान्वित हो जाया करते हैं, परन्तु समझदार इन विजयों को अपना न समझ प्रभु का ही जानते हैं। इसी से मन्त्र में कहा है कि (मनीषया) = बुद्धि से हम इस स्तुति को उस प्रशंसनीय, सबमें विद्यमान प्रभु के लिए उसी प्रकार संस्कृत करते हैं इव जैसे एक बढ़ई (रथम्)=रथ को ।

    जिस प्रकार रथ हमें यात्रा के अन्त तक पहुँचाता है, उसी प्रकार यह प्रभु की स्तुति भक्त की जीवन-यात्रा के लिए रथ का काम देती है। (अस्य) = इस प्रभु की (संसदि)=समीपता में सम्यक् बैठने से (नः) = हमारी (प्रमतिः) = बुद्धि (हि) = निश्चय से भद्रा-कल्याणी, शुभ विचारोंवाली बनी रहती है। अशुभ विचार आते ही मनुष्य व्यसनों में फँस यात्रा की प्रगति को समाप्त कर लेता है और उसकी महान् हानि [महती विनष्टि:] हो जाती है, परन्तु (अग्ने)=हे प्रभो! वयम् - हम तो (तव) - तेरी सख्ये - मित्रता में (मा)=मत (रिषामा) - हिंसित हों। =

    प्रभु की मित्रता में आसुर वृत्तियों को हमपर आक्रमण करने का साहस ही कैसे हो सकता है? प्रभु-सम्पर्क से शक्तिशाली बन हम इन आसुर वृत्तियों के कुचलनेवाले इस मन्त्र के ऋषि ‘कुत्स’ [कुथ हिंसायाम्] बनते हैं। शक्तिशाली होने से 'आङ्गिरस’ होते हैं।

    भावार्थ

    हम सदा प्रभु की स्तुति करें, उसी के सम्पर्क में रहें, उसी की मित्रता प्राप्त करें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( अर्हते ) = पूजा सत्कार करने योग्य ( जातवेदसे ) = समस्त पदार्थों के जानने वाले, वेदों के उत्पादक ईश्वर के लिये ( इमं स्तोमं ) = यह स्तुतिवाक्य हम लोग ( रथम् इव१  ) = रमणीय पदार्थ, उपहार करने योग्य वस्तु के समान ( सम् ) = उत्तम रीति से ( मनीषया ) = अपनी बुद्धि से ( महेम ) = प्रस्तुत करते हैं । ( अस्य ) = इस ( अग्नेः ) = अग्नि के ( संसद् ) = सभास्थान, संगम या सत्सङ्ग में ( नः ) = हमारी ( प्रमतिः ) = उत्तम मति सदा ( भद्रा  हि ) कल्याण संकल्प वाली बनी रहे । हे अग्ने  ! ईश्वर ! ( वयं ) = हम लोग !( तव ) = तेरे संग ( सख्ये ) = मित्रभाव में ( मा रिषाम२  ) = कभी कष्ट न पावें, कभी पीड़ित न हों ।


     

    टिप्पणी

    १. रथमिव , यथा तक्षा रथं संस्करोति तथा ( सा० ) ।  यथा रथं गमयति तथा स्तोमं गमयेम, इति मा० वि० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः -  कुत्स:  ।

    छन्दः - जगत्यौ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य स्तुत्या तत्संगत्या च वयं कि लभेमहीत्याह।

    पदार्थः

    (अर्हते) पूज्याय। अर्ह पूजायाम्, शतृप्रत्ययः। (जातवेदसे२) यो जातानि वेत्ति, जाते-जाते विद्यते, जातं वेदो धनं वेदज्ञानं वा यस्मात् तस्मै परमेश्वराय (मनीषया) मनोयोगेन (इमम्) अस्माकं हृदये विद्यमानम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (संमहेम३) सत्कारपूर्वकं प्रापयेम। अत्र संपूर्वो मह पूजायामिति धातुर्बोध्यः। (रथम् इव) यथा कश्चित् पूज्यजनं समाह्वातुं तदन्तिके रथं प्रापयति तथा। (अस्य) परमात्मनः (संसदि) संगतौ (नः) अस्माकम् (प्रमतिः) प्रखरा मतिः (भद्रा हि) भद्रैव भवतु। हे (अग्ने) तेजोमय परमात्मन् ! (वयम्) प्रजाजनाः (तव) त्वदीये (सख्ये) मैत्रीभावे (मा) नैव (रिषाम) हिंसिता भवेम। रिष हिंसायाम् इति धातोः लेटि रूपम्। संमहेमा, रिषामा इत्युभयत्र अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥४॥४ स्तोमं रथमिव संमहेम इत्यत्र पूर्णोपमालङ्कारः। यथा कञ्चित् सुयोग्यं विद्वांसं स्वोत्सवेषु समानेतुं तस्मै रथः प्रेष्यते, तथा पूज्यं परमेश्वरं स्वहृदयसदने समानेतुं तस्मै स्तोमः प्रेष्येत। आलङ्कारिकीयं भाषा वेद्या, पूर्वमेव परमेश्वरस्यास्माकं हृदये विद्यमानत्वात् ॥४॥

    भावार्थः

    अव्यक्तरूपेण हृदये स्थितः परमेश्वरोऽस्माकं स्तोमेन जागर्ति, बुद्धिं चास्माकं सन्मार्गगामिनीं भद्रां विधाय विनाशादस्मान् रक्षति ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।९४।१, अथ–० २०।१३।३, साम० १०६४। २. जातवेदस् शब्दस्य निर्वचनार्थं द्रष्टव्यम् ३१ संख्याकस्य मन्त्रस्य व्याख्यानम्। ३. महतिरत्र गमनार्थः अन्तर्णीतण्यर्थश्च द्रष्टव्यः। यथा कश्चिद् रथं गमयति तद्वत् गमयेम—इति वि०। संमहेम सम्यक् प्रयच्छामः—इति भ०। रथमिव यथा तक्षा रथं संस्करोति तथा संमहेम सम्यक् पूजितं कुर्मः—इति सा०। ४. अत्र अग्निशब्देन विद्वद्भौतिकार्थावुपदिश्येते इति ऋग्भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We offer with our mind this praise-song, like a car, to God, the Creator of the Vedas and Worthy of reverence. In His company may our understanding be propitious. O God, may we never suffer harm in Thy friendship.

    Translator Comment

    Like a Car: Just as a car leads us through intricate and difficult paths to our destination, to Vedic hymns act as a chariot to lead us to God, our final goal.

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    Meaning

    This song of celebration and worship in honour of venerable Jataveda, Agni, omnipresent in the created world and lord omniscient, we sing in praise of his glory with our mind and soul in sincerity and offer it to him as a joyous holiday chariot fit for his majesty. Blessed is our mind in his company, while we sit in the assembly of devotees. Agni, lord of light and knowledge, we pray, may we never come to suffering while we enjoy your company and friendship. (Rg. 1-94-1)

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    Translation

    To him who is reverent and all knowing, we offer our devotional prayers, we thoughtfully construct our hymns as an artisan chisels out his chariot (from wood). In his association, may our intellect become noble. In your friendship, 0 adorable Lord, let us never suffer injury.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (अर्हते जातवेदसे) સર્વજ્ઞાનપ્રકાશક તથા સર્વજ્ઞ પરમાત્માને માટે (इमं स्तोमम्) આ સ્તુતિસમૂહ સ્તુતિ પ્રવાહને (रथम् इव) રથની સમાન - જેમ રથ ઇચ્છિત સ્થાન પર પહોંચાડે છે , તેમ ઇચ્છિત મોક્ષધામ પહોંચાડનારને (मनीषया सम्महेम) હૃદયની ભાવના - શ્રદ્ધાપૂર્વક સમર્પિત કરીએ છીએ. (अस्य संसदि) એ પરમાત્મા ની સંગતિ - ઉપાસનામાં (नः प्रमतिः भद्राहि) અમારી પ્રકૃષ્ટ ધારણા - માનસિક સ્થિતિ - અંતઃસ્થલી પુણ્ય અને કલ્યાણરૂપી બની જાય , તેથી (अग्ने तव सख्ये) હે પરમાત્મન્ ! તારા મિત્રપણામાં (वयं मा रिषाम) અમે પીડિત ન બનીએ. (૪)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મનુષ્યને પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય પરમાત્મા તથા જવાનું સ્થાન મોક્ષધામ છે, પરમાત્મા પૂજ્ય છે જે અમને સર્વને જાણનાર છે, તેને પ્રાપ્ત કરવા અને તેની પાસે પહોંચવા માટે સ્તુતિ પ્રવાહ રથ સમાન છે, પહોંચાડનાર સાધન છે. તેની સહાયથી અમે ત્યાં સુધી પહોંચી શકશું. પરંતુ ચાહીયે શ્રદ્ધાથી , પરમાત્માની ઉપાસનામાં સંગતિ - અમારી આત્મસ્થિતિ પોતાના રૂપમાં પરિમાર્જિત બની જાય જે મોક્ષમાં હોય છે , તે પરમાત્માના મિત્રભાવમાં અમે બાધિત ન બનીએ અને મોક્ષમાં નિર્બાધ રહીશું. (૪)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کا سَکھا نَشٹ نہیں ہوتا

    Lafzi Maana

    لفظی معنی:- (اِمم ستومم) ستتی کے سام منتروں کا گان اور حمد و ثنا کرنے کا اُپاسک لوگ (منی سشبا) بُدھی پُوروک پوترتا سے (سم سیہم) ملِ کر اُترم رِیتی سے نرمان کرتے ہیں۔ (رتھم اِو) جیسے کہ رتھ کانِر مان کِیا جاتا ہے اور اُسے (ارہتے جات ویدسے)
    وید پرکاشک پرمیسور کی بھینٹ کرتے ہیں (دسیہ) اس پرماتما کے (سندی) ست سنگ سے (نہ) ہماری (پرمتی) متی اُتم (بھدرا) سُکھدائینی اور کلیان کارنی ہو جاتی ہے، (ہی) یہ نشچت ہے، (اگنے) ہے جیوتی سورُوپ پربھُو! (تَو) اپ کی (سَکھیئے) مِترتا میں (ویم) ہم (مارِشام) نشٹ نہیں ہوں گے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    अव्यक्त रूपाने हृदयात स्थित असलेला परमेश्वर आमच्या स्तोत्राने जागा होतो व आमच्या बुद्धीला कल्याणकारक श्रेष्ठ मार्गावर चालणारी बनवून विनाशापासून रक्षण करतो ॥४॥

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    विषय

    परमेश्वराच्या स्तुतीने आणि त्याच्या संगतीने आम्हास काय प्राप्त होईल, हे सांगतात. -

    शब्दार्थ

    (अर्शते) पूजनीय (जातवेदसे) सर्व उत्पन्न पदार्थांचे ज्ञाता, सर्व उत्पन्न पदार्थात विद्यमान असणाऱ्या सर्व ऐश्वर्यधन उत्पादक आणि वेदज्ञान प्रकट करणाऱ्या परमेश्वरासाठी (मनीषय:) आम्हा उपासकांनी पूर्ण मन:पूर्वक (स्तोत्रम्) स्तोत्र (संमहेम) सत्कारपूर्वक पाठवावेत. (त्याच्या महिमेचे गुणगान करावा.) (रथम् हव) अगदी तसेच की जसे कुणा पुज्य व्यक्तीला आणण्यासाठी रथ पाठविला जातो. (अस्म) या परमेश्वराच्या (संसदि) संगतीत (न:) आमची (प्रगति:) प्रखर बुद्धी (भद्रा हि) भद्रध होते (बुद्धीत कुविचार येत नाहीत.) हे (अग्ने) ते अस्वी परमात्मन् (वदम्) आम्ही उपासक (तव) तुमच्या (सख्ये) मैत्रीत (मा) (रिषाम) हिंसीत होऊ नये. (तुम्ही आमचे मित्र असताना आमच्यावर हानी अथवा हिंसित होण्याचा प्रसंग येऊ नये.) ।।४।।

    भावार्थ

    हृदयात अव्यक्त रूपाने स्थित परमेश्वर आमच्या स्तोत्रामुळे जागृत हेतो. (त्याच्या अस्तित्वाची जाणीव आम्हा उपासकांना तीव्रतेने होऊ लागते.) आणि तो आमच्या श्रेष्ठ मार्गावर चालणाऱ्या बुद्धीला भद्र व सुविचारपूर्ण करतो आणि अशाप्रकारे आम्हाला विनाशापासून वाचवतो. ।।४।।

    विशेष

    स्तोत्र रथाप्रमाणे पाठवावेत येथे पूर्णोपमा अलंकार आहे. जसे कोणा सुयोग्य विद्वानाला आपल्या उत्सवादी कार्यक्रमात आणण्यासाठी रथ पाठविला जातो, तसेच पूज्य परमेश्वराला आपल्या हृदय गृहात आणण्यासाठी स्तोत्र पाठविण्यात यावे. ही भाषा वा असा वाक्यप्रयोग अलंकारीक जाणावा. कारण की परमेश्वर तर आधीच आमच्या हृदयात विद्यमान आहे. (तो निराकार ३ ष सर्वव्यापी ईश्वर कुठून कुठे जाणे शक्य नाही.) ।।४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அருகதையான (ஜாதவேதசனுக்கு) (எதையும் அறிபவனுக்கு) மனத்தால் இந்தத் துதியை ரதத்தைப் போல் செய்யுங்கால் அவன் சமூகத்தில் எங்கள் சிறந்த சித்தமானது சௌபாக்கியமுடன் ஆகட்டும். (அக்னியே!)உன் நட்பிலே நாங்கள் ஹிம்சையுடனாக வேண்டாம்.

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