Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 67
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
45
मू꣣र्धा꣡नं꣢ दि꣣वो꣡ अ꣢र꣣तिं꣡ पृ꣢थि꣣व्या꣡ वै꣢श्वान꣣र꣢मृ꣣त꣢꣫ आ जा꣣त꣢म꣣ग्नि꣢म् । क꣣वि꣢ꣳ स꣣म्रा꣢ज꣣म꣡ति꣢थिं꣣ ज꣡ना꣢नामा꣣स꣢न्नः꣣ पा꣡त्रं꣢ जनयन्त दे꣣वाः꣢ ॥६७॥
स्वर सहित पद पाठमू꣣र्धान꣢म् । दि꣣वः꣢ । अ꣣रति꣢म् । पृ꣣थिव्याः꣢ । वै꣣श्वानर꣢म् । वै꣣श्व । नर꣢म् । ऋ꣣ते꣢ । आ । जा꣣त꣢म् । अ꣣ग्नि꣢म् । क꣣वि꣢म् । स꣣म्रा꣡ज꣢म् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯म् । अ꣡ति꣢꣯थिम् । ज꣡ना꣢꣯नाम् । आ꣣स꣢न् । नः꣣ । पा꣡त्र꣢꣯म् । ज꣣नयन्त । देवाः꣢ ॥६७॥
स्वर रहित मन्त्र
मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आ जातमग्निम् । कविꣳ सम्राजमतिथिं जनानामासन्नः पात्रं जनयन्त देवाः ॥६७॥
स्वर रहित पद पाठ
मूर्धानम् । दिवः । अरतिम् । पृथिव्याः । वैश्वानरम् । वैश्व । नरम् । ऋते । आ । जातम् । अग्निम् । कविम् । सम्राजम् । सम् । राजम् । अतिथिम् । जनानाम् । आसन् । नः । पात्रम् । जनयन्त । देवाः ॥६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 67
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कैसे परमेश्वर का विद्वान् लोग दर्शन करते हैं, इस विषय में कहते हैं।
पदार्थ
(दिवः) द्युलोक के (मूर्धानम्) शिरोमणि, (पृथिव्याः) भूमि के (अरतिम्) सूर्य के चारों ओर तथा अपनी धुरी पर घुमानेवाले, (वैश्वानरम्) सब नरों के हितकारी, सबके नेता, (ऋते) सत्य में (आ जातम्) सर्वत्र प्रसिद्ध, (कविम्) मेधावी, (सम्राजम्) ब्रह्माण्डरूप साम्राज्य के सम्राट्, (जनानाम्) प्रजाओं के (अतिथिम्) अतिथितुल्य सत्कार करने योग्य (नः) हमारे (पात्रम्) रक्षक (अग्निम्) तेजस्वी परमेश्वर को (देवाः) विद्वान् उपासकजन (आसन्) मुख में जप द्वारा और हृदय-गुहा में ध्यान द्वारा (जनयन्त) प्रकट करते हैं, अर्थात् जप द्वारा और ध्यान द्वारा उसका साक्षात्कार करते हैं ॥५॥ इस मन्त्र में विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार है ॥५॥
भावार्थ
जो परमात्मा द्यावापृथिवी का सञ्चालक, सबका हित करनेवाला, उत्कृष्ट सत्य नियमोंवाला, महाकवि, विश्व का सम्राट् और सबका विपदाओं से त्राण करनेवाला है, उसका ध्यान करके मनुष्यों को सब सुख प्राप्त करने चाहिए ॥५॥
पदार्थ
(दिवः—मूर्धानम्) द्युलोक के मूर्धारूप को—द्युलोक से भी परे वर्तमान को (पृथिव्याः-अरतिम्) पृथिवीलोक के स्तर—निम्नरूप—पृथिवी के भी अवर वर्तमान को (कविं सम्राजम्) क्रान्तदर्शी सम्यक् सर्वत्र राजमान—(जनानाम्-अतिथिम्) जन्यमान प्राणीमात्र के सत्करणीय—(नः-आसन्-पात्रम्) हमारे प्रमुख पूजापात्र (ऋत-आजातम्) अध्यात्म यज्ञ में प्रसिद्ध होने वाले (वैश्वानरम्-अग्निम्) विश्वनायक परमात्मा को (देवाः-जनयन्त) ध्यानी मुमुक्षुजन अपने अन्दर प्रसिद्ध करते हैं—साक्षात् करते हैं।
भावार्थ
परमात्मा द्युलोक के ऊपर और उसके सम्भालने वाला है तथा पृथिवीलोक निम्नस्तर और उसके भी सम्भालने वाला विश्वनायक है वह सर्वज्ञ विश्व का सम्राट् मनुष्यों का सत्करणीय अतिथि और पूजा का प्रमुख पात्र है उसे ध्यान यज्ञ में मुमुक्षुजन साक्षात् करते हैं॥५॥
टिप्पणी
[*10. “वाजयति-अर्चतिकर्मा” (निघं॰ ३.१४)।]
विशेष
ऋषिः—भारद्वाजः (परमात्मा के अर्चनबल को धारण करने में कुशल उपासक*10)॥<br>
विषय
उन्नत पुरुष के लक्षण
पदार्थ
१. (दिवः मूर्धानम्) = ज्ञान व प्रकाश के मस्तक - शिखररूप इस पुरुष को (देवाः) =प्राकृतिक शक्तियाँ, विद्वान् व महादेव प्रभु (जनयन्त )= विकसित करते हैं। प्रभु की स्तुति करनेवाला पुरुष उत्तम परिस्थिति पाकर प्रकृष्ट पण्डित बनता है।
२. (पृथिव्याः अ - रतिम्) = इस पुरुष को पार्थिव भोगों के प्रति बहुत रति व प्रेम नहीं होता। इसकी रुचि भोजनों की स्वादुता व वस्त्रों की सुन्दरता में केन्द्रित नहीं होती।
३. (वैश्वानरम्) = विश्व - नर- हितम् - यह सब मनुष्यों के लिए हितकर कार्य करता हुआ जीवन बिताता है। यह केवल अपने लिए नहीं जीता।
४.( ऋते आजातम् )= यह सत्य का ही अनुभव करने के लिए पैदा होता है। सांसारिक
सुखोपभोग की वृद्धि के लिए यह कभी असत्य का आश्रय नहीं लेता। ५. अग्निम्=इसके जीवन का सूत्र होता है - 'आगे बढ़ना', अवनति-पथ पर यह कभी पग नहीं रखता।
६. (कविम्) = यह क्रान्तदर्शी बनता है। वस्तुओं की बाह्य आकृति [appearance] से यह धोखे में नहीं आता। यह तह तक पहुँचकर वस्तुतत्त्व को जानने का यत्न करता है ।
७. (सम्राजम्) =[सम राज्] इसका जीवन बड़ा नियमित [well-regulated] होता है।
८. (जनानाम्) = यह सदा मनुष्यों के सम्पर्क में आनेवाला होता है। मनुष्यों की ओर न कि उनसे दूर-सतत गमन करनेवाला होता है। संसार को माथा-पच्ची समझ हिमालय की कन्दराओं की ओर नहीं भाग जाता।
९. (आसन्) = [आसन्- आस्य] मुख के द्वारा, अपने वेदानुकूल उपदेशों द्वारा (नः) = लोगों का (पात्रम्) = रक्षक [पा-रक्षणे] होता है।
भावार्थ
उन्नत पुरुष ज्ञान के शिखर पर पहुँचता है, पार्थिव वस्तुओं में रुचि नहीं रखता, लोकहित का जीवन बिताता है, सदा सत्यवादी, प्रगतिशील, क्रान्तदर्शी, नियमित जीवनवाला होकर मनुष्यों के सम्पर्क में रहता हुआ सदुपदेशों से उनका कल्याण करता है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( दिवः ) = द्यौलोक के ( मूर्धानं ) = शिरोभाग और ( पृथिव्याः ) = पृथिवी के ( अरतिं ) = स्वामी, ( ऋते ) = सत्य, यज्ञ या समस्त ब्रह्माण्ड में ( आ जातम् ) = सर्वत्र प्रादुर्भूत, व्याप्त, ( वैश्वानरम् ) = सब प्राणियों में व्यापक, ( कविम् ) = मेधावी, क्रान्तदर्शी ( सम्राजम् ) = खूब प्रकाशमान सब के सम्राट्, ( जनानां अतिथिम् ) = मनुष्यों में अतिथि के समान अति आदर से पूजा के योग्य ( नः ) = हमारा ( आसन् ) = मुख भाग में स्थित अर्थात् सब के प्रमुख ( अग्निं ) = अग्नि, ज्ञानवान् परमेश्वर को ही ( पात्रं १ ) = हमारी स्तुतियों और सत्कार का पात्र या पालक ( देवा:२ ) = विद्वान् पुरुष ( जनयन्त) = प्रकट करते, बतलाते हैं ।
टिप्पणी
१. पात्रं पातारं । सा० ।
२. देवाः ऋत्विजः स्तोतारः । सा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः।
छन्दः - त्रिष्टुभ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कीदृशं परमेश्वरं विद्वांसः साक्षात् कुर्वन्तीत्याह।
पदार्थः
(दिवः) द्युलोकस्य (मूर्धानम्) शिरोमणिम्, (पृथिव्याः) भूमेः (अरतिम्) सूर्यं परितः स्वधुरि च गमयितारम्। अर्पयति गमयति इति अरतिः। ऋ गतौ धातोः वहिवस्यर्तिभ्यश्चित्।’ उ० ४।६१ इति अति प्रत्ययः। (वैश्वानरम्) विश्वेषां नराणां हितम्, विश्वेषां नेतारं वा। वैश्वानरः कस्मात्? विश्वान् नरान् नयति, विश्व एनं नरा नयन्तीति वा। अपि वा विश्वानर एव स्यात्, प्रत्यृतः सर्वाणि भूतानि, तस्य वैश्वानरः इति हि निरुक्तम्। ७।२१। (कविम्) मेधाविनम्। कविः मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (सम्राजम्) ब्रह्माण्डसाम्राज्यस्य धुरन्धरम्, (जनानाम्) प्रजानाम् (अतिथिम्) अतिथिवत् सत्करणीयम्, (नः) अस्माकम् (पात्रम्) रक्षकम्। पाति रक्षतीति पात्रम्। पा रक्षणे धातोः सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्।’ उ० ४।१६ इति ष्ट्रन्। (अग्निम्) ज्योतिर्मयं परमेश्वरम् (देवाः) विद्वांसः उपासकजनाः (आसन्) आस्ये मुखे जपद्वारा, हृदयगह्वरे वा ध्यानद्वारा अत्र पद्दन्नोमास्०’ अ० ६।१।६३ इत्यास्यशब्दस्य आसन् आदेशः। सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९। इति सप्तम्येकवचनस्य लुक्। (जनयन्त) प्रकटयन्ति साक्षात्कुर्वन्तीति भावः। जनी प्रादुर्भावे धातोः लडर्थे लङ्, व्यत्ययेनात्मनेपदम्, बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि।’ अ० ६।४।७५ इत्यडागमाभावः ॥५॥२ अत्र विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरालङ्कारः ॥५॥
भावार्थः
यः परमात्मा द्यावापृथिव्योः सञ्चालकः सर्वहितकर्ता सुसत्यनियमो महाकविर्विश्वसम्राट् समेषां विपद्भ्यस्त्राता च वर्तते तं ध्यात्वा मनुष्यैः सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यानि ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।७।१, य० ७।२४, ३३।८। सर्वत्र मासन्नः इत्यत्र मासन्ना इति पाठः। साम० ११४०। २. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये परमात्मनो विदुषश्च पक्षे, यजुर्भाष्ये च यानेषु शस्त्रास्त्रेषु यन्त्रादिषु च वह्निविद्युत्प्रयोगविषये व्याख्यातः।
इंग्लिश (3)
Meaning
The learned speak of God, as the Head of Heaven, the Lord of Earth, the Pervader in the universe, Omnipresent, Omniscient, the King of all, the Guest of men. Foremost of all, and Worthy of praise.
Translator Comment
Guest of all: Just as a guest is respected, is God should be revered and honoured by all like a guest.
Meaning
The divinities of nature and humanity light the sacred fire: supreme light of heaven, vital fire of life of the earth, Vaishvanara, leader and energiser of the world, born of cosmic law and the fire of cosmic yajna. It is the visionary, even the revolutionary, poet, ruler of the world, sacred as a chance visitor, voice of the people, sustainer of life and its order. (Rg. 6-7-1)
Translation
Divine forces of cosmos manifest the glory of our universal leader, the protective fire-divine who is a messenger of earthly beings and symbol of heavenly luminaries. He, an offspring of eternal order is wise, sovereign, a guest dear to men and eternally existing.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दिवः मूर्धानम्) દ્યુલોકના મૂર્ધારૂપને દ્યુલોકથી પણ ઉપર વિદ્યમાનને (पृथिव्याः अरतिम्) પૃથિવીલોકના સ્તર-નિમ્નરૂપ પૃથિવીથી પણ નીચે વિદ્યમાનને (कविं सम्राजम्) ક્રાન્તદર્શી સમ્યક્ સર્વત્ર રાજમાન (जनानाम् अतिथिम्) જન્યમાન પ્રાણીમાત્રના સત્કરણીય (नः आसन् पात्रम्) અમારા મુખ્ય પૂજાપાત્ર (ऋत आजातम्) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં પ્રસિદ્ધ થનાર (वैश्वानरम् अग्निम्) વિશ્વનાયક પરમાત્માને (देवाः जनयन्त) ધ્યાની મુમુક્ષુજન પોતાની અંદર પ્રસિદ્ધ કરે છે - સાક્ષાત્ કરે છે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા દ્યુલોકથી ઉપર અને તેને સંભાળનાર છે તથા પૃથિવીલોકથી નિમ્ન સ્તર અને તેને પણ સંભાળનાર વિશ્વનાયક છે. તે સર્વજ્ઞ , વિશ્વનો સમ્રાટ , મનુષ્યોનો સત્કરણીય અતિથિ અને પૂજાને પાત્ર મુખ્ય છે , તેનો ધ્યાનયજ્ઞમાં મુમુક્ષુજન સાક્ષાત્ કરે છે. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
قابِل احترام مہمان
Lafzi Maana
(مُور دھانم دِوہ) وئیولوک کے بھی اُوپر سر کے سمان (پرتھویا ارتم) پرتھوی کے اور نچلے حصے کے بھی سوامی (ویشوانرم) سب نرناریوں کے ایک ماترنیتا (رتے اجاتم) ستیہ نشٹھ اُپاسک میں پرگٹ ہونے والے (کوِم ) وید مہا کاویہ کے کوی (سمراجم) جگت کے سمراٹ، شہنشاہوں کے شہنشاہ (جنا نام اتِھتم) سب جنوں کے پوجیہ اتھتی (نہ پاترم) ہمارے پُوجا کے ست پاتر پالک اور رکھشک (اگنم) اگنی پربھوکو (دیوا) دیوگن (آسن) سُکھ یُکت بانیوں سے (جنینیت) سب لوگوں کے لئے پرگٹ کرتے ہیں۔ اُپدیش رُوپ میں اُس کاگیان دیتے ہیں۔
मराठी (2)
भावार्थ
जो परमात्मा द्यावापृथ्वीचा संचालक, सर्वांचा हितकर्ता, उत्कृष्ट सत्य नियामक, महाकवी, विश्वाचा सम्राट व सर्वांची संकटापासून सुटका करणारा, त्याचे ध्यान करून माणसांनी सर्व सुख प्राप्त केले पाहिजे. ॥५॥
विषय
विद्वज्जन कोणत्या वा कशाप्रकारच्या परमेश्वराचे दर्शन करतात, हे सांगतात. -
शब्दार्थ
(दिव:) द्युलोकाचा (मूर्धानम्) जो शिरोमणी (पृथिव्या) भूमीला (अरतिम्) सूर्याच्या भोवती परिक्रमा करविणारा आणि स्वत:च्या धुरीवर फिरावयास लावणारा जो परमेश्वर त्याचा विद्वान उपासकजन ध्यान करतात. तो (वैश्वावरम्) सर्व मनुष्यांचा हितकारी, सर्वांचा नेता, असून (ऋते) खरोखर (आ जातम्) सर्वत्र प्रसिद्ध आहे. (त्याची ख्याती सर्वत्र आहे.) तो (जनानाम्) प्रजाजनांचा वा उपासकांचा (अतिथिम्) अतिथीप्रमाणे सत्करणीय आहे. अशा (ना) आमच्या त्या (पात्रम्) रक्षकाला, (अग्निम्) तेजस्वी परमेश्वराला (देवा:) विद्वान उपासकजन (आसन्) मुखात जपाद्वारे आणि हृदयगुहेत मामद्वारे (जनयन्त) प्रकट करतात म्हणजे जपाद्वारे आणि ध्यानात त्याचा साक्षात्कार करतात. ।।५।।
भावार्थ
जो परमात्मा द्यावापृथिवीचा संचालक, सर्वहितकारी, उत्कृष्ट सत्यनियामक, महाकवी, विश्वसम्राट आणि विपत्तीपासून सर्वांना वाचविणारा आहे. त्याचे ध्यान करून सर्व मनुष्यांनी सर्व सुख मिळविले पाहिजेत. ।।५।।
विशेष
या मंत्रात प्रयुक्त सर्व विशेषणे साभिप्राय असल्यामुळे येथे परिकर अलंकार आहे. ।।५।।
तमिल (1)
Word Meaning
சோதியின் சிரோபூதனா(தலைவன்)யும் சகத்தின் தூதனாயும் [1](வைசுவாநரனாயும்) சத்தியத்தில் சனித்தவராய் கவியும் கனிந்த ராஜாவுமாய் ஜனங்களின் அதிதியாயும் உள்ள ரட்சகனான [2]அக்னியை (தேவர்கள்) [3] தோற்றுவிக்கிறார்கள்.
FootNotes
[1] வைசுவானரனாய் - எங்கும் உள்ள அனல்
[2] அக்னியை - ஈசனை
[3] தோற்றுவிக்கிறார்கள் - புலனாக்குகிறார்கள்.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal