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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 670
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    105

    इ꣡न्द्रा꣢ग्नी जरि꣣तुः꣡ सचा꣢꣯ य꣣ज्ञो꣡ जि꣢गाति꣣ चे꣡त꣢नः । अ꣣या꣡ पा꣢तमि꣣म꣢ꣳ सु꣣त꣢म् ॥६७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । ज꣢रितुः꣣ । स꣡चा꣢꣯ । य꣣ज्ञः꣢ । जि꣢गाति । चे꣡तनः꣢꣯ । अ꣣या꣢ । पा꣣तम् । इम꣢म् । सु꣣त꣢म् ॥६७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राग्नी जरितुः सचा यज्ञो जिगाति चेतनः । अया पातमिमꣳ सुतम् ॥६७०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । जरितुः । सचा । यज्ञः । जिगाति । चेतनः । अया । पातम् । इमम् । सुतम् ॥६७०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 670
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (जरितुः) विद्याओं का वर्णन करनेवाले उपदेष्टा आचार्य का (सचा) गुरु-शिष्यों द्वारा साथ मिलकर किया हुआ (चेतनः) चेतानेवाला (यज्ञः) विद्यायज्ञ (जिगाति) प्रवृत्त हो रहा है। तुम दोनों (अया) इस पद्धति से (सुतम्) निष्पादित (इमम्) इस विद्या-यज्ञ की (पातम्) रक्षा करते हो ॥२॥

    भावार्थ

    गुरु-शिष्य आपस में मिलकर ही ज्ञान-यज्ञ का अनुष्ठान करके राष्ट्र में सब प्रकार की विद्याओं का प्रचार करते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) हे ऐश्वर्यवान् प्राणरूप और प्रकाशमान उदान रूप परमात्मन्! (जरितुः) मुझ स्तुतिकर्ता का “जरिता स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६] (चेतनः-यज्ञः) जड़ यज्ञ—द्रव्य यज्ञ—होम यज्ञ नहीं अपितु चेतन यज्ञ—चेतन आत्मा में होने वाला आत्मभावनार्पण (सचा जिगाति) तेरे साथ चलता है “सचा सहेत्यर्थः” [निरु॰ ५.५] “जिगाति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (अया-इमं सुतं पातम्) इस मेरी स्तुति से निष्पन्न आर्द्रभाव भरे उपासनारस को पान कर—स्वीकार कर।

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् प्राणरूप और प्रकाशमान उदानरूप परमात्मन्! मुझ स्तुतिकर्ता का स्वात्मभाव भरा आत्मसमर्पण यज्ञ निरन्तर चलता रहता है यह जड़यज्ञ बाहिरी द्रव्ययज्ञ जैसा अस्थिर नहीं होता है तथा स्तोता को निरन्तर चेताता रहता है स्तुतिकर्ता की स्तुति से निःसृत उपासनारस को तू स्वीकार करता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    +कर्म ज्ञान+

    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि- सब शक्तिशाली कर्मों का देवता इन्द्र और ज्ञान का देवता अग्नि (जरितुः) = स्तोता के (सचा) = साथ होते हैं, अर्थात् एक उपासक जब अपने जीवन को कर्म और ज्ञान के साथ संयुक्त करता है तब ये कर्म और ज्ञान (अया) = [अनया] इस रीति से (इमम् सुतम्) = इस उत्पादित सोम का (पातम्) = पान करते हैं कि वह शरीर में सुरक्षित होता है। शक्ति की रक्षा के लिए–तीनों ही १. ज्ञान, २. कर्म, ३. उपासना आवश्यक हैं । वेदों में इन्हीं तीन का प्रतिपादन किया है। यही काण्डत्रयी है । ये ही तीन काण्ड-कानून हैं । इन्हीं के अनुसार मनुष्य को चलना है। एक
    वाक्य में कह सकते हैं कि ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा उपासना होती है और इस ब्रह्म-सान्निध्य से काम का विध्वंस होकर शक्ति की रक्षा होती है ।

    इस स्थिति में मानव जीवन (यज्ञः) = यज्ञ, अर्थात् उत्तम कर्मों तथा (चेतन:) = [चिती संज्ञाने] उत्तम ज्ञान की (जिगाति) = विशेषरूप से स्थिति होती है। हमारे जीवन में यज्ञ और ज्ञान का प्रवेश होता है। वीर्यवान् पुरुष बुराइयों से दूर रहता है और उसका ज्ञान उत्तरोत्तर दीप्त होता जाता है।

    भावार्थ

    हम वीर्य - रक्षा द्वारा अपने जीवनों को यज्ञमय व दीप्त बनाएँ । 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) हे ( इन्द्राग्नी ) = ऐश्वर्य के स्वामिन् इन्द्र ! राजन् ! और अग्ने ! ज्ञान के स्वामिन् ! विद्वन् ! ब्राह्मण ! जो ( चेतनाः ) = चेतनास्वरूप ( यज्ञः ) = आत्मा ( युवां ) = आप दोनों को ( जिगाति ) = प्राप्त है आप उस ( जरितुः ) = सत्य गुणगान करने हारे पुरुष के ( सचा ) = साथ रहकर ( अया ) = इस प्रत्यक्ष शक्ति से ( इमं सुतं ) = इस उत्पन्न संसार का ( पातं ) = पालन करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः। देवता - इन्द्राग्नी। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (जरितुः) स्तोतुः उपदेष्टुः आचार्यस्य (सचा) गुरुशिष्याभ्यां सह मिलित्वा सम्पादितः (चेतनः) चेतयिता ज्ञापयिता (यज्ञः) विद्यायज्ञः (जिगाति२) प्रवर्तते। [जिगाति गतिकर्मा। निघ० २।१४।] युवाम् (अया) अनया दिशा (सुतम्) निष्पादितम् (इमम्) एतं ज्ञानयज्ञम् (पातम्) रक्षतम् ॥२॥

    भावार्थः

    गुरुशिष्याः परस्परं मिलित्वैव ज्ञानयज्ञमनुष्ठाय राष्ट्रे सर्वप्रकारा विद्याः प्रचारयन्ति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।१२।२, ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिरेतमपि मन्त्रमध्यापकोपदेशक- विषये व्याचख्यौ। २. जिगाति गायति चेतनः, लुप्तोपमानमिदं चेतन इव—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O King and learned Brahman, ye both possess impenitent soul. With that soul-force, in unison with a true worshipper, nourish this created world !

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    Meaning

    Indra, lord of wealth and power, Agni, lord of light and knowledge, friends of the supplicant celebrant, the child is yajna, worthy of love, dedication and consecration, sensitive and intelligent, and moves forward to learn. Nurture him with the holy voice and the Word. (Rg. 3-12-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન પ્રાણરૂપ અને પ્રકાશમાન ઉદાનરૂપ પરમાત્મન્ ! (जरितुः) મારો સ્તુતિકર્તાનો (चेतनः यज्ञः) જડયજ્ઞ-દ્રવ્યયજ્ઞ-હોમયજ્ઞ નહીં પરંતુ ચેતનયજ્ઞ-ચેતન આત્મામાં થનારો આત્મભાવનાર્પણ (सचा जिगाति) તારી સાથે ગતિ કરે છે-ચાલે છે. (अया इमं सुतं पातम्) એ મારી સ્તુતિથી નિષ્પન્ન આર્દ્રભાવ ભરેલ ઉપાસનારસનું પાન કર-સ્વીકાર કર. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઐશ્વર્યવાન પ્રાણરૂપ અને પ્રકાશમાન ઉદાનરૂપ પરમાત્મન્ ! મારો સ્તુતિકર્તાનો સ્વ આત્મભાવ ભરેલ આત્મસમર્પણ યજ્ઞ નિરંતર ચાલી રહેલ છે, એ જડયજ્ઞ બહારના દ્રવ્યયજ્ઞ જેવો અસ્થિર હોતો નથી તથા સ્તોતાને નિરંતર ચેતાવતો રહે છે-જાગૃત રાખે છે. સ્તુતિકર્તાની સ્તુતિથી નિઃસૃત ઉપાસનારસનો તું સ્વીકાર કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गुरू-शिष्य आपापसात मिळूनच ज्ञान-यज्ञाचे अनुष्ठान करून राष्ट्रात सर्व प्रकारच्या विद्यांचा प्रचार करतात ॥२॥

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    विषय

    पुन्हा त्याचविषयी सांगत आहेत -

    शब्दार्थ

    (इन्द्राग्नी) हे आत्मा आणि रे मना, (जरितु:) विविध विद्यांचा उपदेश करणारे आचार्य (सघा) यांची शिष्यासह मिळून (चेतन:) चैतन्य देणारा जो (यज्ञ:) जो विद्या यज्ञ (गिताति) आरंभ केलेला आहे. हे आत्मा व हे मन, तुम्ही दोघे (अया) या पद्धतीने (सुतम्) संपादित (इमम्) या विद्यायज्ञाची (पातम्) रक्षा करा. म्हणजे गुरु-शिष्यामध्ये जे ज्ञान चर्चा होते आहे हे लक्षपूर्वक ऐका आणि ती विद्या ते ज्ञान जपून ठेवा. ।।२।।

    भावार्थ

    गुरु आणि शिष्य दोघे समन्वय साधून ज्ञान यज्ञाचे अनुष्ठान करतात. त्या विविध विद्यांचा प्रसार त्या दोघांनी सर्वत्र करावा. सर्वांनी त्या ज्ञानाचा लाभ प्राप्त करून घ्यावा. ।।२।।

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