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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 669
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
28
इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ आ꣡ ग꣢तꣳ सु꣣तं꣢ गी꣣र्भि꣢꣫र्न꣣भो व꣡रे꣢ण्यम् । अ꣣स्य꣡ पा꣢तं धि꣣ये꣢षि꣣ता꣢ ॥६६९॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । आ । ग꣣तम् । सुत꣢म् । गी꣣र्भिः꣢ । न꣡भः꣢꣯ । व꣡रेण्य꣢꣯म् । अ꣣स्य꣢ । पा꣣तम् । धिया꣢ । इ꣣षि꣢ता ॥६६९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी आ गतꣳ सुतं गीर्भिर्नभो वरेण्यम् । अस्य पातं धियेषिता ॥६६९॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । आ । गतम् । सुतम् । गीर्भिः । नभः । वरेण्यम् । अस्य । पातम् । धिया । इषिता ॥६६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 669
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में ‘इन्द्राग्नी’ नाम से जीवात्मा और मन का आह्वान किया गया है। इन्द्र आत्मा अर्थ में प्रसिद्ध है। अग्नि के विषय में शतपथ ब्राह्मण १०।१।२।३ में कहा है कि ‘मन ही अग्नि है’।
पदार्थ
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! तुम दोनों (गीर्भिः) गुरुओं की वाणियों से (सुतम्) निष्पादित, (नभः) सूर्य के समान प्रकाशयुक्त (वरेण्यम्) वरणीय श्रेष्ठ ज्ञानरस को ग्रहण करने के लिए (आगतम्) आओ। (इषिता) तत्पर एवं प्रयत्नशील होकर तुम दोनों (धिया) बुद्धि द्वारा (अस्य) इस ज्ञान की (पातम्) रक्षा करो ॥१॥ इस मन्त्र में ‘नभः’ अर्थात् ‘सूर्य के समान प्रकाशमान’ में वाचकधर्मलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
वाणी का अधिपति गुरु शिष्य को जिस ज्ञान का उपदेश करता है, उसे उसको सावधानी के साथ अपने आत्मा, मन और बुद्धि के योगपूर्वक सुनकर और उस पर मनन करके हृदय में धारण कर लेना चाहिए, उसका प्रचार करना चाहिए तथा उसके अनुसार आचरण करना-करवाना चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(इन्द्राग्नी) हे ऐश्वर्यवान् प्राणस्वरूप और प्रकाशमान उदानस्वरूप परमात्मन्! तू (धिया गीर्भिः-इषिता) ध्यान से और स्तुतियों से लक्षित हुए (वरेण्यं-नभः) वरने योग्य हृदयाकाश को (आगतम्) आ—प्राप्त हो (अस्य सुतं पातम्) इस हृदय के निष्पन्न उपासनारस को पान कर—स्वीकार कर।
भावार्थ
ऐश्वर्यवान् तथा प्रकाशस्वरूप परमात्मा ध्यान से और स्तुतियों से लक्षित हुआ हृदयाकाश को प्राप्त होता है और वहाँ निष्पन्न उपासनारस को स्वीकार करता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—विश्वामित्रः (सब का मित्र या सब जिसके मित्र हैं ऐसा उपासक)॥ देवता—इन्द्राग्नी देवते (ऐश्वर्यवान् एवं प्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
विश्वामित्र गाथिनः
पदार्थ
इन मन्त्रों का ऋषि ‘विश्वामित्र गाथिन' है । यह सभी के हित करने का व्रत धारण करता है सभी का हित करने के लिए शक्ति व ज्ञान-सम्पन्न होना आवश्यक है। इसी से यह शक्ति के देवता 'इन्द्र' और ज्ञान के देवता 'अग्नि' की आराधना करता है -
हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व ज्ञान के देवताओ ! (आगतम्) = आओ। आप दोनों (धिया इषिता) = धी से प्रेरित होते हो।‘ धी’ शब्द का अर्थ, कर्म व ज्ञान है । शक्ति कर्म से प्रेरित होती है और ज्ञान व बुद्धि स्वाध्याय से। जितना हम कर्मशील होंगे उतना ही अपनी शक्ति को स्थिर रख सकेंगे। ठीक इसी प्रकार स्वाध्याय के अनुपात में ही हमारे ज्ञान की वृद्धि होगी। एवं धी [कर्म+ज्ञान] से प्रेरित ‘इन्द्र और अग्नि' से विश्वामित्र कहता है कि (अस्य) = इस वेदानुकूल सात्त्विक आहार से (सुतम्) = उत्पादित सोम [वीर्य] को (पातम्) = हमारे शरीर में ही सुरक्षित कीजिए । वस्तुत: कर्मों में लगे रहने से ज्ञानाग्नि को दीप्त करने के प्रयत्न में ही सोम का सदुपयोग हो जाता है, उसका अपव्यय नहीं होता । एवं, ये कर्म और ज्ञान सोम की रक्षा करनेवाले हो जाते हैं।
यह सोम (गीर्भिः सुतम्) = वेदवाणियों से उत्पादित हुआ है, अर्थात् वेदानुकूल सात्त्विक आहार के सेवन से यह उत्पन्न किया गया है। सौम्य भोजनों से उत्पन्न होने से यह सचमुच 'सोम' है और (नभो वरेण्यम्) = तामस् व राजस् वृत्तियों को समूल समाप्त करने के कारण [नभ=To kill;‘नभ:' यह हेतु में पञ्चमी हैं] यह स्वीकार करने योग्य है ।
भावार्थ
हम कर्म व ज्ञान से इन्द्र व अग्निदेवता की आराधना करें और इनके द्वारा अपने सोम की रक्षा करें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (१) हे ( इन्द्राग्नी ) = ऐश्वर्यवान् आचार्य ! और ज्ञानसम्पत्र अग्ने ! उपदेशक ! जिस प्रकार वायु और सूर्य सब जगत् की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार ( अस्य मध्ये ) = इस संसार के बीच में ( इषिता ) = समस्त बातों का ज्ञान कराने हारे ( गीर्भि: ) = अपनी वाणियों से और ( धिया ) = अपनी धारणावती बुद्धि से ( नभः ) = समस्त जगत् की ओर ( वरेण्यं सुतं ) = वरण करने योग्य, श्रेष्ठ पुत्र की ( पातं ) = रक्षा करो। अथवा-( नभः ) = सब को एक सूत्र में बांधने वाले ( वरेण्यं ) = श्रेष्ठ ( सुतं ) = ज्ञान और आनन्द का ( पातं ) = उत्तम रीति से स्वयं पान करो, और अन्यों को कराओ, उपदेश करो।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः। देवता - इन्द्राग्नी। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ ‘इन्द्राग्नी’ इत्यनेन जीवात्मानं मनश्च आह्वयति। इन्द्रः आत्मा प्रसिद्धः। अग्निश्च मनः, ‘मन एवाग्निः’ श० १०।१।२।३ इति प्रामाण्यात्।
पदार्थः
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! युवाम् (गीर्भिः) गुरूणां वाग्भिः (सुतम्) अभिषुतम्, निष्पादितम् (नभः) सूर्यमिव प्रकाशमानम्। [नभः आदित्यो भवति, नेता रसानां, नेता भासां, ज्योतिषां प्रणयः, अपि वा भन एव स्याद् विपरीतः, न भातीति वा निरु० २।१४।] (वरेण्यम्) वरणीयं श्रेष्ठं वा ज्ञानरूपं सोमरसं प्रति। [वृञ् वरणे धातोः ‘वृञ एण्यः’ उ० ३।९८, इति एण्यः प्रत्ययः।] (आ गतम्२) आगच्छतम्। (धिया) बुद्ध्या (इषिता) इषितौ तत्परौ प्रयतमानौ युवाम् (अस्य) एतस्य ज्ञानरसस्य इमं ज्ञानरसमित्यर्थः। [द्वितीयार्थे, षष्ठी।] (पातम्) रक्षतम् ॥१॥३ अत्र ‘नभ’ इत्यत्र वाचकधर्मलुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
वाचस्पतिना गुरुणा शिष्याय यज्ज्ञानमुपदिश्यते तत् तेन सावधानतया स्वात्ममनोबुद्धियोगपूर्वकं श्रुत्वा मत्वा च हृदि धारणीयं प्रचारणीयं तदनुकूलमाचरणीयं च ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ३।१२।१ २. अत्र गम्लृ गतौ इत्यस्माद् ‘बहुलं छन्दसि’ इति शपो लुकि सति शित्वाभावाच्छस्याभावो ‘अनुदात्तोपदेश’ इत्यादिना मलोपश्च—इति य० ७।८ भाष्ये द०। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये अध्यापकोपदेशकविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O teacher and preacher, just as air and Sun protect the whole world, so in this world, with your illuminating discourses and intellect, protect the entire world and the excellent son !
Translator Comment
See Yajur 7-31, The text is the same, but interpretation differs.
Meaning
Indra and Agni, lord of might and lord of light, brilliant and blazing like thunder and lightning, come to this child worthy of love and choice, come with voices from the heavens and inspire the darling with intelligence and passion for action. (Rg. 3-12-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન્ પ્રાણ સ્વરૂપ અને પ્રકાશમાન ઉદાન સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (धिया गीर्भिः इषिता) ધ્યાન અને સ્તુતિઓથી લક્ષિત થયેલ (वरेण्यं नभः) વરણ થવા યોગ્ય હૃદયાકાશમાં (आगतम्) આવ-પ્રાપ્ત થા (अस्य सुतं पातम्) એ હૃદયનાં નિષ્પન્ન ઉપાસનારસનું પાન કર-સ્વીકાર કર. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઐશ્વર્યવાન તથા પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા ધ્યાન અને સ્તુતિઓ દ્વારા લક્ષિત થઈને હૃદયાકાશમાં પ્રાપ્ત થાય છે. અને ત્યાં નિષ્પન્ન ઉપાસનારસનો સ્વીકાર કરે છે. (૧)
मराठी (2)
भावार्थ
वाणीचा अधिपती असलेला गुरू शिष्याला ज्या ज्ञानाचा उपदेश करतो, त्याने तो सावधानपूर्वक आपला आत्मा, मन व बुद्धी यांना योगपूर्वक ऐकून त्यावर मनन करून हृदयात धारण करावे व त्यानुसार आचरण करावे / करवावे ॥१॥
विषय
प्रथम मंत्रात इन्द्राग्नी नवीन जीवात्म्याचे तसेच मनाला आवाहन केले आहे. इन्द्र शब्दाचा अर्थ आत्मा आहे, हे सर्वज्ञात आहे. अग्नी शब्दाचा अर्थ होतो व मन यात प्रमाण शतपथ ब्राह्मण १०/१/२/३।। तिथे म्हटले आहे. अग्निश्च मन: ।।
शब्दार्थ
साधक म्हणतो हे (इन्द्राग्नी) माझ्या अंत:करणा आणि हे मना, तुम्ही दोघे (--) गुरूजनांच्या वाणीतून (सुतम्) व्यक्त होणाऱ्या आणि (नभ:) सुर्याप्रमाणे प्रकाशमान व (वरेण्यम्) वरणीय श्रेष्ठ ज्ञानरस ग्रहण करण्यासाठक्ष (आगतय्) या (रे मना, गुरू जे सांगताहेत, ते लक्ष देऊन ऐका) (इषिता) ज्ञान ग्रहण कार्यात तत्पर व प्रयत्नशील होऊन तुम्ही दोघे (धिया) बुद्धीद्वारे (अस्य) या गृहीत ज्ञानाचे (पातम्) रक्षण करा. (गुरूने जे ज्ञान दिले, ते स्मरणात जपून ठेवा, विसरू नका) ।।१।।
भावार्थ
वाणीचा स्वामी गुरू, शिष्याला जे ज्ञान सांगत आहे, शिष्याने ते ज्ञान काळजीपूर्वक ऐकून आपल्या मन, आत्मा आणि बुद्धीमध्ये साठवून ठेवावे. त्यावर मनन करावे, त्या ज्ञानाचा प्रचार करावा. तसेच त्यानुसार स्वत: आचरण करावे आणि इतरांकडूनही करवून घ्यावे. ।।१।।
विशेष
या मंत्रात नभ: याचा सुर्याप्रमाणे प्रकाशमान असा अर्थ होत असल्यामुळे वाचकधर्म लुप्तोपमा अलंकार झाला आहे. ।।१।।
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