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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 696
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
19
अ꣣स्ये꣢꣫दिन्द्रो꣣ म꣢दे꣣ष्वा꣢ ग्रा꣣भं गृ꣢भ्णाति सान꣣सि꣢म् । व꣡ज्रं꣢ च꣣ वृ꣡ष꣢णं भर꣣त्स꣡म꣢प्सु꣣जि꣢त् ॥६९६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स्य꣢ । इत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । म꣡देषु꣢꣯ । आ । ग्रा꣣भ꣢म् । गृ꣣भ्णाति । सानसि꣢म् । व꣡ज्र꣢꣯म् । च꣣ । वृ꣡ष꣢꣯णम् । भ꣣रत् । स꣢म् । अ꣣प्सुजि꣢त् । अ꣣प्सु । जि꣢त् ॥६९६॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा ग्राभं गृभ्णाति सानसिम् । वज्रं च वृषणं भरत्समप्सुजित् ॥६९६॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्य । इत् । इन्द्रः । मदेषु । आ । ग्राभम् । गृभ्णाति । सानसिम् । वज्रम् । च । वृषणम् । भरत् । सम् । अप्सुजित् । अप्सु । जित् ॥६९६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 696
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(अस्य इत्) इस ज्ञान-कर्म-उपासना रूप सोमरस के ही (मदेषु) उत्साहों में (इन्द्रः) वीर मनुष्य (सानसिम्) ग्रहण करने योग्य (ग्राभम्) धनुष् को (आ गृभ्णाति) थामता है, (च) और (अप्सुजित्) समुद्र के जल में तथा अन्तरिक्ष में भी शत्रु को जीतनेवाला वह वीर (वृषणम्) गोली या गोले बरसानेवाले (वज्रम्) बन्दूक, तोप आदि सुदृढ़ हथियार का (संभरत्) संधान कर लेता है ॥३॥
भावार्थ
ज्ञान-कर्म-उपासना रूप दिव्य सोमरस के पान से अपूर्व उत्साहवान् होकर मनुष्य भूमि, जल, आकाश कहीं भी विद्यमान दुर्दान्त शत्रुओं को भी जीतने में समर्थ हो जाता है ॥३॥
पदार्थ
(इन्द्रः) उपासक आत्मा (अस्य-इत्) इस आनन्दधारा में साक्षात् परमात्मा के ही (ग्राभं सानसिम्-आगृभ्णाति) ग्रहण करने योग्य एकांश भजनीय स्वरूप ठीक ग्रहण कर पाता है (मदेषु) अपने समस्त तृप्ति प्रसङ्गों में (समप्सुजित्) सम्यक् व्याप्त प्रवृत्तियों में विजय पाने वाला (वृषणं वज्रं भरत्) आनन्दवर्षक ओज को धारण करता है “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०]।
भावार्थ
उपासक आत्मा आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा को विभुरूप में नहीं किन्तु यावत् शक्य स्वरूप को ही सेवन करता है, इतने मात्र से वह अपनी ओर प्राप्त होने वाली समस्त प्रवृत्तियों को जीत लेता है तथा आनन्दवर्षक ओज को भी प्राप्त करता है॥३॥
विशेष
<br>
विषय
अप्सुजित्
पदार्थ
(इत्) - निश्चय से (अस्य) = इस सोम के (मदेषु) = हर्षों व आनन्दों में – स्फूर्तिमय जीवन में (इन्द्रः) = सोम का पान—रक्षा करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष (सानसिं ग्राभं आगृभ्णाति) = आदरणीय प्राप्तियों का ही ग्रहण करता है। सोम का पान [रक्षा] करनेवाले देव कभी असद् ग्राहों का स्वीकार नहीं करतेये कभी रिश्वत इत्यादि अन्याय से प्राप्त होनेवाले लाभों को नहीं लेते। उनकी मनोवृत्ति ही इन ग्राहों के विपरीत हो जाती है । वह संसार कितना सुन्दर होगा जिसमें मनुष्य की वृत्ति ही अन्याय से अर्थसंचय से पराङ्मुख हो जाएगी! एवं, स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य प्रभु की प्राप्ति से परलोक में ही कल्याण करनेवाला नहीं है— उसमें राष्ट्र को सुन्दर बनाने का मूल भी निहित है । संक्षेप में यह ब्रह्मचर्य दैत्यजगत् को देवजगत् में परिणत कर देता है ।
इस सोम की रक्षा करनेवाला व्यक्ति जहाँ असद् ग्राहों का ग्रहण नहीं करता, वहाँ यह सदा भोगमार्ग से दूर रहता हुआ (वृषणम्) = शक्तिशाली (वज्रम्) = वज्रतुल्य दृढ़ शरीर को (संभरत्) = सम्यक्तया धारण करता है। सोमरक्षक का शरीर वज्रवत् दृढ़ बन जाता है । एवं, तीन मन्त्रों में सोमरक्षा के आठ लाभ हैं । यह सोम की रक्षा होगी कैसे ? इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र के अन्तिम शब्द 'अप्सुजित्' में दिया गया है। अप्=कर्म, अप्सु - कर्मों के होने पर जित्-वासनाओं को जीतनेवाला पुरुष ही सोम का पान किया करता है। ब्रह्मचारी को सदा उत्तम क्रियाओं में लगे रहना – इसके बिना ब्रह्मचर्य पालन सम्भव ही नहीं ।
भावार्थ
हम सदा क्रियाशील बनकर संयमी बनें और अन्याय्य धन के प्रलोभन से दूर रहते हुए वज्रतुल्य शरीरवाले बनें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा ० = ( ३ ) ( इन्द्रः ) = आत्मा ( मदेषु ) = अपने आत्मिक ज्ञान के आनन्द प्रवाहों में ( सानसिं ) = सेवन भजन करने और ( ग्राभं ) = ग्रहण करने योग्य ( वज्रं ) = काम क्रोधादि के वर्जन करने में समर्थ ज्ञानशक्ति को ( आ अस्येत् ) = चारों ओर फेंके, फैलावे । ( अप्सुजित् ) = क्रियाओं, प्रज्ञानों और प्राणों पर विजय प्राप्त करने हारा योगी ( सं भरत् ) = अज्ञान का नाश करता हुआ या ज्ञान का संग्रह करता हुआ ( वृषणं ) = सुखों की वर्षा करने हारे उस परमात्मा को ( गृभ्णाति ) = पकड़ता, उसका आश्रय लेता या प्राप्त हो जाता है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - शफ:। देवता - सोम:। छन्दः - उष्णिक् । स्वरः - ऋषभ: ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
(अस्य इत्) अस्य ज्ञानकर्मोपासनारूपस्य सोमरसस्य एव (मदेषु) उत्साहेषु (इन्द्रः) वीरो जनः (सानसिम्) संभजनीयम् (ग्राभम्) ग्रहीतव्यं धनुः। [गृह्यते इति ग्राहः, स एव ग्राभः, ‘हृग्रहोर्भश्छन्दसि’ इति हस्य भः।] (आ गृभ्णाति) आगृह्णाति। [ग्रह धातोः पूर्ववद् हस्य भः।] (च) किञ्च, (अप्सुजित्) समुद्रजलेषु अन्तरिक्षे चापि शत्रूणां जेता स वीरः। [आपः इति अन्तरिक्षनाम उदकनाम च। निघं० १।३, १।१२।] (वृषणम्) गुलिकानां गोलकानां वा वर्षकम् (वज्रम्) भुशुण्डीशतघ्न्यादिकम् वज्रायुधम् (संभरत्) संदधाति ॥३॥
भावार्थः
ज्ञानकर्मोपासनारूपस्य दिव्यस्य सोमरसस्य पानादपूर्वोत्साहसम्पन्नो नरो भुवि वा जले वान्तरिक्षे वा क्वापि विद्यमानान् दुर्दान्तानपि रिपून् जेतुं पारयति ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०६।३, गृभ्णीत इति भेदः।
इंग्लिश (2)
Meaning
May the soul, revelling in its streams of joy, spread all around, the power of knowledge, that subdues anger and lust, and is worthy of reverence and acceptance. A Yogi who controls his breaths, dispelling ignorance, seeks the shelter of God, the Showerer of joys.
Translator Comment
It refers to the soul.^He refers to Yogi.
Meaning
Under the inspiration and ecstasy of this soma of divine love, let the soul seize the victorious bow, take on the generous virile and mighty bolt of will and power of faith and win the target of the battle of Karma to the attainment of Divinity. (Rg. 9-106-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्रः) ઉપાસક આત્મા (अस्य इत्) એ આનંદધારામાં સાક્ષાત્ પરમાત્માને જ (ग्राभं सानसिम् आगृभ्णाति) ગ્રહણ કરવા યોગ્ય એક અંશ ભજનીય સ્વરૂપ સમ્યક્ ગ્રહણ કરી શકે છે (मदेषु) પોતાના સમસ્ત તૃપ્તિ પ્રસંગોમાં (समप्सुजित्) સમ્યક્ વ્યાપ્ત પ્રવૃત્તિઓ વિજય પ્રાપ્ત કરનાર (वृषणं वज्रं भरत्) આનંદવર્ષક ઓજને ધારણ કરાવે છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસક આત્મા આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્માને વિભુ-વ્યાપક રૂપમાં નહિ, પરંતુ યથા શક્ય સ્વરૂપનું જ સેવન કરે છે, એટલા માત્રથી તે પોતાની તરફ પ્રાપ્ત થનારી સમસ્ત પ્રવૃત્તિને જીતી લે છે તથા આનંદવર્ષક ઓજને પણ પ્રાપ્ત કરે છે. (૩)
मराठी (2)
भावार्थ
ज्ञान-कर्म-उपासनारूपी दिव्य सोमरसाच्या प्राशनाने अपूर्व उत्साहपूर्वक बनून माणूस भूमी, जल, आकाश कुठेही दुर्दान्त शत्रूंनाही जिंकण्यास समर्थ होतो ॥३॥
विषय
पुढील मंत्रात पुन्हा तोच विषय सांगत आहोत -
शब्दार्थ
(अस्यहत) या ज्ञान, कर्म उपासना रूप रसाने प्राप्त (मदेषु) उत्साहमुळे (इन्द्र:) वीर पुरुष (सानसिम्) ग्रहण करण्यास योग्य अशा (ग्राभम्) धनुष्याला (आगृभ्णाति) हाती धारण करतो (म्हणजे ज्ञानादी साधनांमुळे हृदयात उत्साहाचा संचार होतो आणि साधक/उपासक शत्रुच्या आक्रमणाचा सामना करण्यास उद्त होतो. (च) आणि (असुचित्) समुद्रावर अथवा आकाशातही शत्रुला जिंकणारा तो वीर (वृषणम्) गोळ्या वा गोळे सोडणाऱ्या बंदूक, तोफ यासारख्या सुदृढ अस्त्रांचे संचालन करण्यात (संभरत्) समर्थ होतो. ।।३।।
भावार्थ
ज्ञान, कर्म, उपासनारूप दिव्य सोमरसाचे सेवन करून अपूर्व उत्साहाने भारलेला मनुष्य भूमीवर अथवा आकाशात कोठेही दुर्दान्त शत्रूंवर विजय मिळविण्यात यशस्वी होतो. ।।३।।
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