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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 697
ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
20
पु꣣रो꣡जि꣢ती वो꣣ अ꣡न्ध꣢सः सु꣣ता꣡य꣢ मादयि꣣त्न꣡वे꣢ । अ꣢प꣣ श्वा꣡न꣢ꣳ श्नथिष्टन꣣ स꣡खा꣢यो दीर्घजि꣣꣬ह्व्य꣢꣯म् ॥६९७॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रो꣡जि꣢ती । पु꣣रः꣢ । जि꣣ती । वः । अ꣡न्ध꣢꣯सः । सु꣣ता꣡य꣢ । मा꣣दयित्न꣡वे꣢ । अ꣡प꣢꣯ । श्वा꣡न꣢꣯म् । श्न꣣थिष्टन । श्नथिष्ट । न । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । दी꣣र्घजि꣡ह्व्य꣣म् । दी꣣र्घ । जि꣡ह्व्य꣢꣯म् ॥६९७॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरोजिती वो अन्धसः सुताय मादयित्नवे । अप श्वानꣳ श्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्व्यम् ॥६९७॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरोजिती । पुरः । जिती । वः । अन्धसः । सुताय । मादयित्नवे । अप । श्वानम् । श्नथिष्टन । श्नथिष्ट । न । सखायः । स । खायः । दीर्घजिह्व्यम् । दीर्घ । जिह्व्यम् ॥६९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 697
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५४५ पर ब्रह्मानन्द के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ प्रकरणप्राप्त ज्ञान कर्म उपासना का विषय है।
पदार्थ
हे (सखायः) मित्रो ! (वः) तुम (अन्धसः) ज्ञान-कर्म-उपासनारूप सोम को (पुरोजिती) आगे बढ़कर जीतने के लिए और उस सोम के (मादयित्नवे) आनन्दप्रदायक (सुताय) रस को प्राप्त करने के लिए (दीर्घजिह्व्यम्) लम्बी जीभवाले अर्थात् दूरस्थ विषयों के भी ग्रहण में समर्थ (श्वानम्) वेगवान् मन को (अपश्नथिष्टन) प्रवृत्त करो ॥१॥
भावार्थ
ज्ञान, कर्म और उपासना में मन को प्रवृत्त करके उससे मिलनेवाला आनन्द सबको प्राप्त करना चाहिए ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ५४५)
विशेष
ऋषिः—श्यावाश्वः (निर्मल इन्द्रिय घोड़ों वाला संयमी उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
अन्धीगुः श्यावाश्वः
पदार्थ
‘अन्धस्' शब्द सोम-वीर्य का वाचक है । 'गो' शब्द इन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों का कथन करता है।‘अन्धीगुः’ वह व्यक्ति है जिसने सोम को ज्ञानेन्द्रियों का भोजन बना दिया है। सोम को शरीर में ही खपाने के कारण उसकी कर्मेन्द्रियाँ [अश्व] भी अतिशेयन क्रियाशील हैं [श्यैङ्गतौ], अतः इसका नाम श्यावाश्व पड़ गया है । यह अन्धीगु श्यावाश्व अपने मित्रों से कहता है – (सखायः) = मित्रो ! (वः) = तुम्हारे (अन्धसः) = आध्यायनीय इस सोम के (पुरोजिती) = पूर्ण विजय के लिए - ऐसी विजय के लिए जो तुम्हारा पालन व पूरण करेगी (श्वानम्) = स कुत्ते को, जो (दीर्घजिह्वयम्) = दीर्घ जिह्वावाला है, (अपश्नथिष्टन्) = दूर विनष्ट कर दो । कुत्ता सूखी हड्डी पर भी लड़ता है, अतः यह उस वृत्ति का प्रतीक है जो सदा खान-पान के लिए ही झगड़ती रहती है। साथ ही कुत्ता अपवित्रतम वस्तुओं को भी खा अतः यह तामसी भोजन की वृत्ति का भी संकेत कर रहा है । 'दीर्घ जिह्वयम्' विशेषण दिनभर चरते रहने की वृत्ति को भी लक्षित कर रहा है । एवं, सार यह है कि सोम की पूर्णविजय व रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि हमारी सारी शक्ति भोजन के जुटाने में ही न लगी रहे, हम तामस् भोजन से दूर रहें और दिनभर खाते ही न रहें । 2
यदि हम सोम की पवित्र व परिमित भोजन से रक्षा करेंगे तो यह १. हमारे (सुताय) = निर्माण के लिए होगा [सु-पैदा करना ] । हममें दैत्यों की वृत्ति न पनपेगी। २. (मादयित्नवे)- हमारे जीवन में एक अद्भुत मद – हर्ष, उल्लास के संचार के लिए होगा ।
भावार्थ
हम पवित्र व परिमित भोजन से वीर्य की शरीर में सुरक्षा करनेवाले बनें, जिससे वह सुरक्षित वीर्य हममें निर्माण की वृत्ति व उल्लास को जन्म देनेवाला हो ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अविकल सं० [५४५] पृ० २७३ ।
टिप्पणी
६९७ (३) 'यज्ञं हिन्वन्त्यद्रिभिः' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्यावाश्व: । देवता - सोम:। छन्दः - अनुष्टुप् । स्वरः - गान्धार: ।
संस्कृत (1)
विषयः
प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५४५ क्रमाङ्के ब्रह्मानन्दविषये व्याख्याता। अत्र प्रकृतं ज्ञानकर्मोपासनाविषयमाह।
पदार्थः
हे (सखायः) सुहृदः ! (वः) यूयम् (अन्धसः) ज्ञानकर्मोपासनारूपस्य सोमस्य (पुरोजिती) अग्रेजयाय, अपि च तस्य सोमस्य (मादयित्नवे) आनन्दप्रदाय (सुताय) रसाय, रसं प्राप्तुमित्यर्थः (दीर्घजिह्व्यम्) दीर्घजिह्वायुक्तं, दूरस्थानामपि विषयाणां ग्रहणे समर्थमित्यर्थः। (श्वानम्) दिव्यं श्वानं, जविष्ठं मनः इत्यर्थः। [श्वयति दूरं गच्छतीति श्वा। ‘श्वन्नुक्षन्०’ उ० १।१५९ इत्यनेन कनिन्प्रत्ययान्तो निपात्यते] (अपश्नथिष्टन) अपश्नथयथ, प्रवर्तयत इति यावत्। [अपपूर्वः श्रथ दौर्बल्ये चुरादिः, रेफस्य नकारश्छान्दसः।] ॥१॥
भावार्थः
ज्ञानकर्मोपासनासु मनः प्रवर्त्य तज्जन्य आनन्दः सर्वैः प्राप्तव्यः ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०१।१, साम० ५४५।
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye friends, for the protection of the provisions stored in Yajna, which lead to success and afford pleasure, turn aside the long-tongued dog.
Translator Comment
See verse 545. It is the same a 697, but with a different interpretation. The provisions collected for a Yajna should be preserved from being eaten by longtongued dogs and other greedy animals. ‘Which' refers to provisions.
Meaning
O friends, for your attainment of the purified and exhilarating Soma bliss of existence, eliminate vociferous disturbances of the mind and concentrate on the deep resounding voice of divinity. (Rg. 9-101-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सखायः) હે ઉપાસક મિત્રો ! (वः) તમે (पुरोजिती) પુરઃ-સંઘર્ષ સંગ્રામથી પૂર્વેજ જિતીજય - અધિકાર જેનો છે તે પ્રથમથી સર્વ સ્વામી (अन्धसः) અધ્યાનીય શાન્ત પરમાત્માના (मादायित्नवे सुताय) હર્ષજનક નિષ્પન્ન-સાક્ષાત્કાર કરવા યોગ્યને માટે (दीर्घजिह्म्यम्) આયુ-જીવવું જ રસ-ભોગ જેનું લક્ષ્ય છે એવા (श्वानम्) કૂતરાં સમાનને (अपश्नथिष्टन) નષ્ટ કરો. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસક જનો ! તમે પ્રથમથી જ સંગ્રામની અપેક્ષા કરતાં સર્વના સ્વામી, સર્વવશી, સમગ્ર રૂપથી ધ્યાન કરવા યોગ્ય પરમાત્માના આનંદકારી સાક્ષાત્કારને માટે તમારી અંદરથી જીવવા માત્રને ભોગ બનાવનાર કૂતરાંની માફક કામભાવનો નાશ કરો. (૧)
मराठी (2)
भावार्थ
ज्ञान, कर्म, उपासनेत मनाला प्रवृत्त करून त्यापासून मिळणारा आनंद सर्वांनी प्राप्त केला पाहिजे ॥१।
विषय
प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागात क्र. ५४५ वर करण्यात आली आहे. तेथे ब्रह्मानन्दपर असून येथे ज्ञानकर्म उपासना याविषयी व्याख्या करण्यात येत आहे.
शब्दार्थ
हे (सरवाय:) मित्रांनो (व:) तुम्ही (अन्धस:) ज्ञान, कर्म, उपसनारूप सोमरस प्राप्त करण्यासाठी तसेच (पुरोजिही) पुढे होऊन शत्रुवर आक्रमण करण्यासाठी (मादयित्वा) सोमाच्या आनन्ददायक रस प्राप्त करण्यासाठी (दीर्घजिह्यम्) लांब जिल्हा असलेल्या म्हणजे दूरस्थ विषय ग्रहण करण्यासाठी (श्वानम्) समर्थ अशा मनाला (अपश्नथिष्टन) त्या सोमरसाकडे प्रवृत्त करा ।।१।।
भावार्थ
ज्ञान, कर्म आणि उपासना यांकडे मनास प्रवृत्त करून त्यामुळे जो आनंद मिळतो, तो सर्वांनी अवश्य मिळवावा, हा या मंत्राचा संदेश आहे ।।१।।
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