Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 73
ऋषिः - बुधगविष्टिरावात्रेयौ
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
40
अ꣡बो꣢ध्य꣣ग्निः꣢ स꣣मि꣢धा꣣ ज꣡ना꣢नां꣣ प्र꣡ति꣢ धे꣣नु꣡मि꣢वाय꣣ती꣢मु꣣षा꣡स꣢म् । य꣣ह्वा꣡ इ꣢व꣣ प्र꣢ व꣣या꣢मु꣣ज्जि꣡हा꣢नाः꣣ प्र꣢ भा꣣न꣡वः꣢ सस्रते꣣ ना꣢क꣣म꣡च्छ꣢ ॥७३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡बो꣢꣯धि । अ꣣ग्निः꣢ । स꣣मि꣡धा꣢ । स꣣म् । इ꣡धा꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । प्र꣡ति꣢꣯ । धे꣣नु꣢म् । इ꣣व । आयती꣢म् । आ꣣ । यती꣢म् । उ꣣षा꣡स꣢म् । य꣣ह्वाः꣢ । इ꣣व । प्र꣢ । व꣣या꣢म् । उ꣣ज्जि꣡हा꣢नाः । उ꣣त् । जि꣡हा꣢꣯नाः । प्र । भा꣣न꣡वः꣢ । स꣣स्रते । ना꣡क꣢꣯म् । अ꣡च्छ꣢꣯ ॥७३॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् । यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सस्रते नाकमच्छ ॥७३॥
स्वर रहित पद पाठ
अबोधि । अग्निः । समिधा । सम् । इधा । जनानाम् । प्रति । धेनुम् । इव । आयतीम् । आ । यतीम् । उषासम् । यह्वाः । इव । प्र । वयाम् । उज्जिहानाः । उत् । जिहानाः । प्र । भानवः । सस्रते । नाकम् । अच्छ ॥७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 73
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में उषाकाल में यज्ञाग्नि और परमात्माग्नि को समिद्ध करने का विषय है।
पदार्थ
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। (धेनुम् इव) दुधारू गाय के समान (आयतीम्) आती हुई (उषासं प्रति) उषा के काल में (जनानाम्) यजमान-जनों के (समिधा) समिदाधान द्वारा (अग्निः) यज्ञाग्नि (अबोधि) यज्ञवेदि में प्रबुद्ध हुआ है। (वयाम्) शाखा को (उज्जिहानाः) ऊपर ले जाते हुए (यह्वाः इव) विशाल वृक्षों के समान (भानवः) यज्ञाग्नि की ज्वालाएँ (नाकम् अच्छ) सूर्य की ओर (प्र सस्रते) प्रसरण कर रही हैं ॥ द्वितीय—परमात्माग्नि के पक्ष में। (धेनुम् इव) दुधारू गाय के समान (आयतीम्) आती हुई (उषासं प्रति) उषा के काल में (जनानाम्) उपासक जनों के (समिधा) आत्मसमर्पण रूप समिदाधान द्वारा (अग्निः) परमात्माग्नि (अबोधि) हृदय-वेदि में प्रबुद्ध हुआ है। (वयाम्) शाखा को (उज्जिहानाः) ऊपर ले जाते हुए (यह्वाः इव) विशाल वृक्षों के समान (भानवः) परमात्माग्नि के तेज (नाकम् अच्छ) जीवात्मा की ओर (प्र सस्रते) प्रसरण कर रहे हैं ॥१॥ इस मन्त्र में यज्ञाग्नि और परमात्माग्नि रूप दो अर्थों के प्रकाशित होने के कारण श्लेषालङ्कार है और धेनुम् इव, यह्वाः इव में उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
दूध से परिपूर्ण गायों के समान प्रकाश से परिपूर्ण उषाएँ आकाश और भूमि में बिखर गयी हैं। इस शान्तिदायक प्रभात में जैसे अग्निहोत्री लोग यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करते हैं, वैसे ही अध्यात्मयाजी लोग हृदय में परमात्मा को प्रबुद्ध करते हैं। जैसे विशाल वृक्षों की चोटी की शाखाएँ आकाश की ओर जाती हैं, वैसे ही यज्ञवेदि में प्रज्वलित यज्ञाग्नि की ज्वालाएँ सूर्य की ओर और हृदय में जागे हुए परमात्मा के तेज जीवात्मा की ओर जाते हैं ॥१॥
पदार्थ
(जनानां समिधा उपासकजनों की समिध्—आत्मसमिध् आत्मरूप इध्म—आत्मसमर्पण से “आत्मा वा इध्मः” [तै॰ सं॰ ३.२.१०.३] “अयं त इध्म आत्मा” [आश्व॰ गृ॰ १.१०.१२] (अग्निः-अबोधि) परमात्माग्नि उपासकों के हृदय में जाग उठता है (प्रति धेनुम्-इव-आयतीम्-उषासम्) जैसे पृथिवी के प्रति “इयं पृथिवी वै धेनुः” [श॰ १२.९.२.१०] पृथिवी पर जैसे सूर्य-अग्नि “लुप्तोपमानालङ्कारः” आती हुई उषा—प्रभातवेला में प्रकट हो जाती है “उषासम्-अत्यन्तसंयोगे द्वितीया” [अष्टा॰ २.३.५] (यह्वाः-इव वयां प्रोज्जिहानाः) जैसे महान्—बहुत पक्षी “लुप्तोपमानालङ्कारः” शाखा पर प्रकृष्टरूप से उतरते हैं—आश्रय लेते हैं “वया शाखा” [निरु॰ १.७] “ओहाङ् गतौ” [जुहो॰] ‘आत्मनेपदत्वात्’ ऐसे (भानवः-नाकम्-अच्छ प्रसस्रते) उपासकों के प्रज्ञान—आत्मभावनाएँ भासमान हुईं उस नितान्त सुखरूप परमात्मा को प्रकृष्ट रूप से प्राप्त होती हैं।
भावार्थ
आत्मसमिधा से—आत्मसमर्पण से परमात्मा उपासकों के हृदय में ऐसे प्रकाशमान होता है जैसे उषावेला में पृथिवी पर सूर्य प्रकाशमान हो जाता है। उपासक की सारी आत्मभावनाएँ—मन बुद्धि चित्त अहङ्कार सब भासमान होकर उस सुखस्वरूप परमात्मा को ऐसे प्राप्त हो जाते हैं जैसे शाखा पर पक्षी आश्रय लेते हैं॥१॥
विशेष
छन्दः—त्रिष्टुप्। स्वरः—धैवतः। ऋषिः—बुधगविष्ठिशवृषी (ज्ञानी और वाणी के चयन में स्थिर—दृढ़प्रतिज्ञ उपासक)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
चार आश्रम
पदार्थ
(प्रथम आश्रम) - मानव जीवन चार आश्रमों में विभक्त है। प्रथम आश्रम में आचार्य, जोकि स्वयं अग्नि के तुल्य ज्ञान से चमक रहा है, पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक के पदार्थों की ज्ञानरूप समिधाओं से ब्रह्मचारी की ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में इन समिधाओं का संकेत है, अतः (समिधा) = इन लोकों की ज्ञानरूप समिधाओं से ब्रह्मचारी (अग्निः) = अग्नि के रूप में (अबोधि) = उद्बुद्ध किया जाता है।
इस मन्त्र के ऋषि 'बुध तथा गविष्ठिर' हैं। बुध का अर्थ है ज्ञानी । आचार्य को ज्ञानी व ज्ञान का समुद्र होना ही चाहिए तथा ब्रह्मचारी को गविष्ठिर- इन्द्रियों पर अधिष्ठित, इन्हें वश में रखनेवाला होना आवश्यक है तभी अग्नि का उद्बोधन सम्भव होगा।
(गृहस्थ आश्रम) = यह उत्तम ब्रह्मचारी समावृत होकर जीवन यात्रा के दूसरे पड़ाव में प्रवेश करता है। यहाँ उसे (प्रति-आय-तीम् उषासम्)=प्रत्येक आनेवाले उषःकाल में (जनानाम्) = मनुष्यों की (धेनुमिव) = गाय की भाँति औरों का पालन करना है। जैसे अपने उत्तम दूध से गाय अपने बछड़े व अन्य बन्धुओं का पालन करती है, वैसे ही गृहस्थ भी अपनी सन्तान व अन्य तीनों आश्रमवालों का पालन करता है। इसी उत्तरदायित्त्व के कारण गृहस्थ को ज्येष्ठाश्रमी कहा गया है।
यहाँ धेनु से समता कितनी सुन्दर है ! गृहस्थ को भी स्वयं अपनी आवश्यकताएँ यथासम्भव कम रखकर औरों का पालन करना चाहिए।
(वानप्रस्थ आश्रम) = गृहस्थ आश्रम महान् है, पर मनुष्य को सदा इसी में नहीं बने रहना। वेद कहता है कि (यह्वा:) = बड़े (इव) = पक्षी जैसे (वयाम्) = शाखा को प्र (उयिहाना:) = छोड़कर आगे बढ़नेवाले होते हैं, उसी प्रकार मनुष्य को भी बड़ी अवस्था में पहुँचकर घर को छोड़कर आगे बढ़ना ही चाहिए। उसे अब वनस्थ हो ('स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्') = सदा स्वाध्याय में लगे रहना चाहिए।
(चतुर्थ आश्रम) = और फिर (भानवः) = ज्ञान - ज्योति से दीप्त सूर्य के समान ये संन्यासी (नाकम् अच्छ) = मोक्ष की ओर (प्रसस्ते) = अग्रसर होते हैं। लोकहित के लिए सूर्य के समान अलिप्तभाव से अज्ञानान्धकार को दूर करते हुए ये संन्यासी राग-द्वेषादि सब बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
भावार्थ
मनुष्य को क्रमश: ‘अग्नि, धेनु, यह्व व भानु' बनकर जीवन के चार पड़ावों को उत्तमता से तय करने के लिए यत्नशील होना चाहिए।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( जनानां समिधा ) = लोगों की लगाई लकड़ी से जिस प्रकार ( अग्निः अबोधि ) = सामान्य अग्निहोत्र की अग्नि ( धेनुम् इव ) = दुधार कपिला गाय के समान ( आयतीम् प्रति उषासम् ) = आते हुए प्रत्येक उषाकाल में ( अबोधि ) = प्रदीप्त होती है उसी प्रकार यह ( अग्निः ) = अग्नि के समान तेजस्वी आत्मा भी ( जनानां समिधा ) = जनों के प्रदीप्त प्राणरूप काष्टों से ( प्रति उषासम् ) = प्रति प्रातःकाल प्राणायामों द्वारा ( अबोधि ) = चेताया जाता है । ( उज्जिहाना: ) = ऊपर उड़ते हुए पक्षीगण जिस प्रकार ( वयाम् प्रसिस्रते ) = शाखा पर जाते हैं । और जिस प्रकार ( यह्वाः ) = बड़े पुरुष ( वयाम् इव ) = व्यापक उदारनीति की ओर बढ़ते हैं और जिस प्रकार ( भानवः ) = सूर्य के किरण ( नाकम् ) = आकाश की और ( प्रसिस्रते ) = व्यापते हैं, उसी प्रकार ( यह्वाः ) = बड़े २ शक्तिशाली आत्मा ( उज्जिहानाः ) = उत्क्रमण करते हुए ( वयाम् ) = उस व्यापक परमेश्वरी शक्ति की तरफ़ जाते हैं और ( भानवः ) = ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित होकर आदित्य के समान तेजस्वी योगी मुक्तजन ( नाकम् ) = परमसुखमय ,आनन्दमय परम पद को ( प्र सिस्रते ) = प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
७३ - 'सिस्रते' इति ऋ० । पक्षिण इत्यधिको भावायें माधवीयविवरणे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - बुधगविष्ठरौ ।
छन्द: - त्रिष्टुभ ।
देवता :- अग्नि: ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथोषसि यज्ञाग्निपरमात्माग्न्योः समिन्धनविषयमाह।
पदार्थः
(धेनुम् इव) दोग्ध्रीं गामिव (आयतीम्) आगच्छन्तीम् (उषासम् प्रति२) उषसम् अभिलक्ष्य, उषःकाले इत्यर्थः। उषासम् इत्यत्र अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः। (समिधा) इध्मेन, आत्मसमर्पणरूपेण समिद्धोमेन वा। आत्मा वा इध्मः। तै० सं० ३।२।१०।३। (अग्निः) यज्ञाग्निः परमात्माग्निर्वा (अबोधि) यज्ञवेद्यां हृदयवेद्यां वा प्रबुद्धो जातः। (वयाम्) शाखाम्। वयाः शाखाः वेतेः, वातायना भवन्ति। निरु० १।७। (प्र उज्जिहानाः३) प्रोद्गमयन्तः। ओहाङ् गतौ, शानच्। (यह्वाः४ इव) महान्तो वृक्षाः इव। यह्व इति महन्नाम। निघं० ३।३। (भानवः) यज्ञवह्नेः ज्वालाः, परमात्माग्नेः तेजोरश्मयो वा (नाकम् अच्छ) सूर्यं जीवात्मानं वा प्रति। नाक इति द्युलोकस्य सूर्यस्य च साधारणं नाम। निघं० १।४। (प्र सस्रते) प्रसरन्ति। प्र पूर्वात् सृ गतौ धातोर्लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम्, व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥१०॥५ अत्र यज्ञाग्निपरमात्माग्निरूपार्थद्वयप्रकाशनाच्छ्लेषालङ्कारः। धेनुमिव, यह्वा इव इत्युभयत्र चोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
पयस्विन्यो धेनव इव प्रकाशपूर्णा उषस्ते नभसि भुवि च विकीर्णाः सन्ति। अस्मिन् शान्तिदायके प्रभाते यथाऽग्निहोत्रिणो यज्ञवेद्यां यज्ञाग्निं प्रदीपयन्ति, तथाऽध्यात्मयाजिनो हृदि परमात्मानं प्रबोधयन्ति। यथा विशालवृक्षाणां शिखरशाखा आकाशं प्रति गच्छन्ति तथा यज्ञवेद्यां प्रज्वलितस्य यज्ञाग्नेर्ज्वालाः सूर्य प्रति, हृदि समुद्बुद्धस्य परमात्मनस्तेजांसि च जीवात्मानं प्रति प्रयान्ति ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ५।१।१, य० १५।२४ ऋषिः परमेष्ठी, साम १७४६, अ० १३।२।४६ ऋषिः ब्रह्मा, देवता रोहित आदित्यः। २. उषासम् उषसं प्रति उदयकाले इत्यर्थः—इति वि०। उषःकाले—इति भ०, सा०। ३. प्रोज्जिहानाः प्रोद्गमयन्तः—इति भ०। प्रोद्गमयन्तो वृक्षा इव—इति सा०। ४. यह्वाः महान्त इव वृक्षाः—इति भ०। महान्तो वृक्षा इव—इति ऋ० ५।१।१ भाष्ये द०। ५. दयानन्दर्षिमन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये उपदेश्योपदेशकविषये यजुर्भाष्ये चाग्निविद्याविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as fire is kindled by the people’s fuel, and a milch cow yields milk at each coming Dawn, so our soul, with the fuel of breaths, is kindled each morning through Pranayama. Just as birds flying high reach a tree, and great men follow a liberal policy, and Sun’s rays pervade the atmosphere, so mighty souls, soaring aloft, proceed to the Omnipresent God, and with the light of knowledge, the emancipated Yogis attain to the lofty abode of bliss.
Translator Comment
Our breaths are the fuel of our soul in Pranayama i.e., exercise of breaths. Lofty abode of bliss is the state of salvation, in which happiness reigns supreme.
Meaning
Agni is seen and known while rising by the burning samidhas lighted by the yajakas at dawn coming up like a cow early in the morning, and the flames, like branches of a mighty tree, rise brilliantly and touch the sky where there is no pain, no darkness. (Rg. 5-1-1)
Translation
At the approach of dawns, who come like cows, the sacred fire is kindled by fuel offered by man. Its radiant mighty flames rise up like stately trees throwing aloft their branches towards heaven.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (जनानां समिधा) ઉપાસકજનોની સમિધ = આત્મસમિધ આત્મરૂપ ઈધ્મ - આત્મસમર્પણથી (अग्निः अबोधि) પરમાત્માગ્નિ ઉપાસકોનાં હૃદયમાં જાગૃત થાય છે (प्रति धेनुम् इव आयतीम् उषासम्) જેમ પૃથિવીનાં પ્રત્યે-પૃથિવી પર સૂર્યરૂપ અગ્નિ આવતાં ઉષા-પ્રભાતવેણામાં પ્રકટ થાય છે (यह्वाः इव वयां प्रोज्जिहानाः) જેમ મહાન-અનેક પક્ષીઓ ડાળીઓ પર પ્રકૃષ્ટરૂપથી ઉતરે છે - આશ્રય લે છે , તેમ (भानवः नाकम् अच्छ प्रसस्रते) ઉપાસકના પ્રજ્ઞાન - આત્મભાવનાઓ પ્રકાશિત થઈને તે નિતાન્ત સુખરૂપ પરમાત્માને પ્રકૃષ્ટરૂપથી પ્રાપ્ત થાય છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : આત્મ સમિધાથી-આત્મસમર્પણથી જેમ ઉષાકાળમાં સૂર્ય પૃથિવી પર પ્રકાશમાન થાય છે , તેમ ઉપાસકોના હૃદયમાં પરમાત્મા પ્રકાશમાન થાય છે. ઉપાસકની સંપૂર્ણ આત્મભાવનાઓ મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત , અહંકાર સર્વે પ્રકાશિત થઈને , જેમ શાખા-ડાળી પર પક્ષી આશ્રય લે છે , તેમ તે સુખસ્વરૂપ પરમાત્માને પ્રાપ્ત કરે છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
آتما کو پرماتم اگنی سی منّور کریں
Lafzi Maana
جیسے (دھینُوم) پراتہ کال اُتم گائے دُودھ کی دھاراؤں کے ساتھ کرتی ہے، ویسے روشنی کی کرنوں یا دھاراؤں کے ساتھ (آیہ یتم اُشاسم) آئی ہوئی اُوشا کو دیکھ کر (حنا نام) اُپاسکوں کی (سمدھا) آتم سمرپن رُوپی سمدھاؤں کے ذریعے (اگنی ابودھی) پرماتم اگنی ہِردیوں میں جاگ جاتی ہے ۔ جب کہ (یہّوا اِو) بڑے بڑے وشال برکھش جیسے (ویام) اپنی شاکھاؤں کو (پرااُجی ہانہ) آسمان کی طرف اوپر کو پھنکیتے ہیں۔ ویسے اُوشا کی (بھان وہ) چمکتی ہوئی کرنیں (ناکم اچھ) دئیو لوک کی طرف (پرسِسرتے) اپنا پھیلاؤ کر رہی ہوتی ہیں۔
Tashree
آتما کو سمدھا (ہون کی آگ میں جلانے والی پِوتّر لکڑی) بنا کر اپنے اپ کو اس ایشوریہ اگنی (مقّدس آگ) میں جلاکر روشن کرلو۔ پھرسارا ہردیہ ویسے پرلکاش سے پورُن ہوجائے گا۔ جیسے اُبھرتے ہوئے سُوریہ کی کِرنوں سےسارا آسمان روشن ہو جاتا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
दुधाने परिपूर्ण गाईप्रमाणे प्रकाशाने परिपूर्ण उषा आकाश व भूमीवर पसरलेली आहे. या शांतिदायक प्रभातवेळी जसे अग्निहोत्री लोक यज्ञवेदीमध्ये यज्ञाग्नीला प्रदीप्त करतात, तसेच अध्यात्मयाजी लोक हृदयात परमात्म्याला प्रबुद्ध करतात. जशी विशाल वृक्षाच्या शिखरावरील शाखा आकाशाकडे जातात, तसेच यज्ञवेदीत प्रज्वलित यज्ञाग्नीच्या ज्वाला सूर्याकडे व हृदयात जागृत असलेल्या परमात्म्याचे तेज जीवात्म्याकडे जाते. ॥१॥
विषय
ऋषि, देवता, छन्द, स्वर आदीचे विवरण प्रत्येक दशतीच्या आरंभी दिलेले आहे. आपण मराठी अनुवाद छापताना ते द्यायचे की नाही हे ठरवावे.
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) यज्ञाग्नीपरक - (धेनम् इव) दुधाळ गायीप्रमाणे (आयतीम्) येणाऱ्या (उषासं प्रति) उष:काळात (जनानाम्) यजमानांनी अर्पित केलेल्या (समिधा) समिधांद्वारे (अन्ति:) हा यज्ञाग्नी (अबोधि) यज्ञवेदीत प्रबुद्ध झाला आहे. (वयाम्) आपल्या शाखांना (फांद्यांना) अज्जिहाना:) वरच्या दिशेकडे नेणाऱ्या (यहा:इव) विशाल वृक्षांप्रमाणे (मानव:) या यज्ञाग्नीच्या ज्वाळा (नाकम् अच्छ) सूर्याकडे (प्र सस्रते) प्रसारीत होत आहेत. ।। द्वितीय अर्थ : (परमात्मग्निपरक) (धेनुम् इव) दुधाळ गायीप्रमाणे (आयतीम्) येणाऱ्या (उषासं प्रति) उष:काळात (जमानाम्) उपासकजनांच्या (समिधा) आत्मसमर्पणरूप समिदाधानाद्वारे (अग्नि:) परमात्म अग्नी (अबोधि) हृदय वेदीत प्रबुद्ध झाला आहे. (वयाम्) आपल्या शाखा प्रशाखांना (उज्जिहाना:) उंच नेणाऱ्या (यहाइव) विशाल वृक्षांप्रमाणे (मानव:) परमात्म अग्नीचे तेज (नाकम् अच्छ) जीवात्म्याकडे (प्र सस्रते) प्रसारीत करीत आहे. ।।१।।
भावार्थ
दुधाने परिपूर्ण जिचे स्तन अशा गायीप्रमाणे प्रकाशाने परिपूर्ण उजळलेल्या उषा (उष:काळ) आकाशात व भूमीवर प्रसृत आहेत. अशा या शांतिदायक प्रभातकाळी ज्याप्रमाणे अग्निहोत्रीजन यज्ञवेदीत यज्ञाग्नी प्रज्वलित करतात. त्याप्रमाणे अध्यात्मयाजी लोक हृदयातील परमेश्वराला प्रबुद्ध करतात. जशा उंच विशाल वृक्षांच्या शाखा आकाशाकडे जातात. तसेच यज्ञकुंडात प्रज्वलित यज्ञाग्नीच्या ज्वाळा सूर्याकडे हृदयात प्रबुद्ध परमात्म्याचे तेज जीवात्म्याकडे जातात. ।।१।।
विशेष
या मंत्रात यज्ञाग्नी व परमात्माग्नी या दोष अर्थांच्या प्रकाशनामुळे येथे श्लेष अलंकार होत आहे आणि धेनुम् इव व यहाइव या शब्दात उपमालंकार आहे. ।।१।।
तमिल (1)
Word Meaning
[1] பசுவைப் போல் வரும் உஷா காலத்தைக் (அறிவு உதயத்தை) காண சனங்களின் [2] சமித்துக்களால் அக்னி எழுச்சியாகிறான். உயரத்தில் கிளை கிளம்பும் சின்ன மரங்களைப் போல் சோதியின் ஆகாசம் நோக்கி அவன் சுவாலைகள் செல்லுகின்றன.
FootNotes
[1] பசுவைப் போல் - பாதுகாப்பவனைப் போல்
[2] சமித்துக்களால் - நல்ல செயல்களால்
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal