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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 74
ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
43
प्र꣢ भू꣣र्ज꣡य꣢न्तं म꣣हां꣡ वि꣢पो꣣धां꣢ मू꣣रै꣡रमू꣢꣯रं पु꣣रां꣢ द꣣र्मा꣡ण꣢म् । न꣡य꣢न्तं गी꣣र्भि꣢र्व꣣ना꣡ धियं꣢꣯ धा꣣ ह꣡रि꣢श्मश्रुं꣣ न꣡ वर्मणा꣢꣯ धन꣣र्चि꣢म् ॥७४॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । भूः꣣ । ज꣡य꣢꣯न्तम् । म꣣हा꣢म् । वि꣣पोधा꣢म् । वि꣣पः । धा꣢म् । मू꣣रैः꣢ । अ꣡मू꣢꣯रम् । अ꣢ । मू꣣रम् । पुरा꣢म् । द꣣र्मा꣡ण꣢म् । न꣡य꣢꣯न्तम् । गी꣣र्भिः꣢ । व꣣ना꣢ । धि꣡य꣢꣯म् । धाः꣢ । ह꣡रि꣢꣯श्मश्रुम् । ह꣡रि꣢꣯ । श्म꣣श्रुम् । न꣢ । व꣡र्म꣢꣯णा । ध꣣नर्चि꣢म् ॥७४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र भूर्जयन्तं महां विपोधां मूरैरमूरं पुरां दर्माणम् । नयन्तं गीर्भिर्वना धियं धा हरिश्मश्रुं न वर्मणा धनर्चिम् ॥७४॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । भूः । जयन्तम् । महाम् । विपोधाम् । विपः । धाम् । मूरैः । अमूरम् । अ । मूरम् । पुराम् । दर्माणम् । नयन्तम् । गीर्भिः । वना । धियम् । धाः । हरिश्मश्रुम् । हरि । श्मश्रुम् । न । वर्मणा । धनर्चिम् ॥७४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 74
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कैसे परमात्मा की पूजा करनी चाहिए और कैसे पुरुष को राजा के पद पर बैठाना चाहिए।
पदार्थ
हे मनुष्य ! तू (प्र भूः) समर्थ बन, प्रकृष्ट गुणोंवाला हो। और (जयन्तम्) विजेता, (महाम्) महान्, (विपोधाम्) बुद्धिमानों के सहायक, (मूरैः) मारनेवालों से (अमूरम्) न मारे जा सकनेवाले, (पुराम्) शत्रु-नगरियों के (दर्माणम्) विदारक, (गीर्भिः) स्तुति-वाणियों से (वना) भजने-योग्य, (धियम्) प्रज्ञा व कर्म को (नयन्तम्) प्राप्त करानेवाले, (हरिश्मश्रुं न) स्वर्णिम किरणोंवाले सूर्य के समान (वर्मणा) रक्षा के हेतु से (धनर्चिम्) ज्योतिरूप धनवाले (अग्निम्) परमात्मा को (धाः) अपने हृदय में धारण कर, और उक्त गुणोंवाले (अग्निम्) वीर पुरुष को (धाः) राजा के पद पर प्रतिष्ठित कर ॥२॥ इस मन्त्र में उपमा और अर्थश्लेष अलङ्कार हैं ॥२॥
भावार्थ
सब प्रजाजनों को चाहिए कि वे समर्थ और गुणवान् होकर सब शत्रुओं के विजेता, महामहिमाशाली, बुधजनों के मित्र, हिंसकों से भी हिंसा न किये जा सकने योग्य, शत्रु की किलेबन्दियों को तोड़नेवाले, स्तुतियों से सम्भजनीय, ज्ञानप्रदाता, सत्कर्मों में प्रेरित करनेवाले, सूर्य के सदृश ज्योतिष्मान् परमात्मा को पूजें और उक्त गुणोंवाले वीर पुरुष को राजा के पद पर प्रतिष्ठित करें ॥२॥
पदार्थ
(प्रभूः) ‘प्रभवन्ति यास्ताः प्रभुवस्ताः प्रभूः-स्त्रीलिङ्गे द्वितीया-बहुवचनप्रयोगः’ संसार रचने में सम्भव समस्त शक्तियों को (जयन्तम्) पहुँचे हुए—“जयति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (महां विपोधाम्) महान् एवं विप-मेधावी-ऋषि-मुमुक्षु उपासकों को धारण करने वाले—“विपो मेधाविनः” [निघं॰ ३.१५] (मूरैः पुरां दर्माणम्-अमूरम्) मूढ़ों—अज्ञानबद्ध जीवात्माओं द्वारा प्राप्त पुरों—शरीरों का ज्ञान प्रदान कर विदारण करने वाले—अमूढ़—ज्ञानपूर्ण-सर्वज्ञ अज्ञानबन्धन से रहित—(गीर्भिः-वनाधियं नयन्तम्) स्तुतियों द्वारा वनों—वननीय श्रेष्ठ गुणों और बुद्धि को प्राप्त कराने वाले—(वर्मणा हरिश्मश्रुं न) प्रकाशरूप वारण घेरे की दृष्टि से—ज्ञान प्रकाश का घेरा डालने वाला होने से सूर्य के समान ज्ञानसूर्य हुआ हुआ “हरिकेशः सूर्यरश्मिः” [मै॰ २.८.१०] “यद्धरिकेश इत्याह-हरिरिव ह्यग्निरादित्यः” [श॰ ८.६.१.१६] (धनर्चिं धाः) धारण करने योग्य अर्चि-ज्योति वाले परमात्मा को धारण कर—ध्यान में ला।
भावार्थ
समस्त रचनाशक्तियों वाले एवं मुमुक्षु उपासकों के आधार सर्वज्ञ तथा अज्ञान से बद्ध जीवात्माओं के उद्धारक स्वयं अज्ञानबन्धन से रहित स्तुतियों के द्वारा श्रेष्ठ गुणों और बुद्धि को प्राप्त कराने वाले सूर्य के समान स्वतः प्रकाश से पूर्ण एवं धारण करने योग्य जिसकी अर्चना या ज्योति है ऐसे परमात्मा का ध्यानोपासन करना चाहिए॥२॥
विशेष
ऋषिः—वत्सप्रिः (अपने को परमात्मा का वत्स—पुत्र समझ वैसा प्रेम करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
प्रभु की गोद में
पदार्थ
प्रभु (प्रधाः) = विशेषरूप से धारण करते हैं। किसको ?
१. (भूर्जयन्तम्)=प्राणों पर विजय पानेवाले को। जो सदा प्राण- साधना से आसुर वृत्तियों को पराजित करता है, वही प्रभु का प्रिय होता है।
२. (महाम्)= प्रभु का प्रिय वह होता है जो अपने हृदय को विशाल बनाता है।
३. (विपो-धाम्) = [विप इति मेधाविनाम - नि० ३.५.१४] प्रभु का प्यारा मेधा को धारण करता है। अपने विज्ञानमयकोश को धारक ज्ञान का खज़ाना बनाता है।
४. (मूरैः अमूरम्) = यह मूर्खों के साथ मूर्ख नहीं बनता। अपने प्राणमयकोश को असुरों के आक्रमण से सुरक्षित करके यह प्रभुभक्त अपने मनोमयकोश को विशाल तथा विज्ञानमयकोश को ज्ञान से दीप्त बनाकर व्यवहार में बुद्धिमत्ता से चलता है। यह क्रोध को प्रेम से जीतने का प्रयत्न करता है ।
५. (पुरां दर्माणम्) = यह तीनों पुरों का विदारण करनेवाला बनता है। वैदिक साहित्य असुरों की तीन नगरियों का उल्लेख है - एक स्वर्ण की, दूसरी रजत की और तीसरी ‘अयस' [लोहे] की। इन्हीं तीन नगरियों का ध्वंस करके महादेव 'त्रिपुरारि' बने हैं। ये तीन नगरियाँ ही सात्त्विक, राजस, तामस सङ्ग कहे गये हैं। ये ही उत्तम, मध्यम व अधम बन्धन हैं। इन तीनों से ऊपर उठना ही तीन नगरियों का विदारण है और ऐसा करनेवाला ही प्रभु का प्रिय होता है।
६. (गीर्भिः वना धियं नयन्तम्) = स्तुतियों के द्वारा वननीय सेवनीय बुद्धि को प्राप्त करनेवाला प्रभु का प्रिय होता है। प्रातः- सायं प्रभु के सम्पर्क में आने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है। उस शुद्ध बुद्धि में सदा शुद्ध विचार ही उत्पन्न होते हैं।
७. (हरिश्मश्रुं न)=यह प्रभुभक्त हरिश्मश्रु-सा [न=सा] बन जाता है। [श्म-श्रु-श्मनि श्रितम्] इसके शरीर में श्रित रहनेवाली प्रत्येक वस्तु- बल, भावना व ज्ञान औरों के दुःखों का हरण करनेवाली होती है। यह कभी किसी की हिंसा नहीं करता। इसका जीवन एक अ-ध्वर' हिंसाशून्य यज्ञ हो जाता है। 4
८. (वर्मणा धनर्चिम्) = यह प्रभुभक्त धन की भी अर्चना पूजा करता है, अर्थात् धन भी कमाता है, परन्तु ‘वर्मणा' उसे अपने शरीर का कवच बनाने के दृष्टिकोण से, अर्थात् जितना शरीर की आवश्यकताओं के लिए चाहिए उतना ही उसका अपने लिए विनियोग करते हुए-कभी विलास का शिकार न बनते हुए।
इन सब बातों के कारण यह प्रभु का 'वत्स' = प्रिय होता है, क्योंकि यह अपने कर्मों से प्रभु की क्रियात्मक स्तुति का उच्चारण [वद् - बोलना] करता है और अपने उत्तम कर्मों से प्रभु को प्रीणाति=प्रसन्न करता है। इस प्रकार इस मन्त्र का ऋषि ‘वत्सप्रीः' होता है।
भावार्थ
मन्त्र में वर्णित बातों को जीवन में धारण करते हुए हम प्रभु से धारणीय बनें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( भूः १ ) = सबके उत्पत्तिस्थान, भू आदि लोकों को ( प्र जयन्तं ) = उत्तम रीति से विजय करने वाले ( मूरै:) = मोहयुक्त जीवों द्वारा गृहीत (पुरां ) = शरीरों के ( दर्माणम् ) = नाश करने वाले, उनको मुक्ति दिलाने वाले, ( अमूरं ) = स्वयं मोह रहित, ( गीर्भिः ) = वेदवाणियों द्वारा ( वनां ) = भजन करने योग्य ( धियं नयन्तं ) = हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में ले जाने वाले, ( हरिश्मश्रुं न ) = सुवर्ण के समान कान्तियुक्त किरण वाले सूर्य के समान ( वर्मणा ) = कवच से ( धनर्चिम् ) = विभूतिमान् उस अग्नि को ( धाः ) = हृदय में धारण कर ।
त्रिपुरारि, पशुपति, भूतिभृत्, विद्येश्वर आदि की शिवविषयक कल्पना ब्रह्म के विषय में इसी मन्त्र के आधार पर हैं। हरिश्मश्रु, हिरण्यकेश आदि शब्दों के धात्वर्थ समान हैं ।
टिप्पणी
७४ - ( ऋ ) ‘मूरा' इति ऋ० । उतरार्धे, 'नयन्तो गर्भे वनां धियं धु र्हिरिश्मश्रुं नार्वाण धनर्चम् ।' इति ऋ० ।
१. भूग्रहणं प्रदर्शनार्थं त्रीनपीलोकान् जयन्तं इति मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वत्सप्रि: ।
छन्द: - त्रिष्टुभ ।
देवता:- अग्नि: ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कीदृशः परमेश्वरः पूजनीयः, कीदृशः पुरुषश्च राजपदे स्थापनीय इत्याह।
पदार्थः
हे मनुष्य ! त्वम् (प्र भूः२) समर्थः प्रकृष्टगुणो वा भव। प्र पूर्वाद् भवतेर्लोडर्थे लुङ्। ‘बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि।’ अ० ६।४।७५ इत्यडागमाभावः। किञ्च, (जयन्तम्) विजेतारम्, (महाम्) महान्तम्। मह शब्दाद् द्वितीयैकवचने महम् इति प्राप्ते सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (विपोधाम्) विपसां मेधाविनां धर्तारम्। विपः इति मेधाविनामसु पठितम्। निघं० ३।१५। (मूरैः३) मारयन्तीति मूराः धातुकाः तैरपि (अमूरम्) मारयितुमशक्यम्, (पुराम्) शत्रुनगरीणाम् (दर्म्माणम्) विदारयितारम्। विदारणे अन्येभ्योऽपि दृश्यते।’ अ० ३।२।७५ इति मनिन्। (गीर्भिः) स्तुतिवाग्भिः (वना ४) वनं संभजनीयम्। वन सम्भक्तौ। वन्यते संभज्यते इति वनम्। ततो द्वितीयैकवचने सुपां, सुलुक्० इति विभक्तेराकारादेशः। (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा। धीः प्रज्ञानाम कर्मनाम च। निघं० ३।९, २।१। (नयन्तम्) प्रापयन्तम्, (हरिश्मश्रुं न) हरिं स्वर्णिमं श्मश्रु किरणकूर्चकं यस्य स हरिश्मश्रुः सूर्यः तमिव (वर्मणा) रक्षणेन हेतुना (धनर्चिम्५) धनभूतरोचिष्कम्, दीप्तिधनम् इत्यर्थः। धनम् अर्चिः रोचिः यस्य तम्। धनार्चिम् इति प्राप्ते शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। (अग्निम्) परमात्मानम्, वीरपुरुषं वा (धाः) स्वहृदये धत्स्व, राजपदेऽर्भिषिञ्च वा। डुधाञ् धातोर्लोडर्थे लुङ्, अडागमाभावः ॥२॥ अत्रोपमाऽर्थश्लेषश्चालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
सर्वैः प्रजाजनैः समर्थैर्गुणवद्भिश्च भूत्वा सकलरिपुविजेता, महामहिमोपेतः, कोविदानां सुहृद्, हिंस्रैरपि हिंसितुमशक्यो, रिपुदुर्गाणां विदारकः, स्तुतिभिः संभजनीयो, ज्ञानप्रदायकः, सत्कर्मसु प्रेरकः, सूर्यवद् रोचिष्णुः परमात्मा पूजनीयस्तादृशो वीरजनश्च राजपदे प्रतिष्ठापनीयः ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।४६।५ पूर्वार्धे मूरा अमूरं इति, उत्तरार्धे च नयन्तो गर्भं वना धियं धुर्हरिश्मश्रुं नार्वाणं धनर्चम् इति पाठः। २. प्रभूः इत्याख्यातम्, अनुदात्तत्वात् पञ्चमलकारान्तम्। प्रभूः प्रगच्छ उपगच्छ अग्निं हे स्तोतः—इति भ०। प्रभूः स्तोतुं प्रभव समर्थो भव—इति सा०। विवरणकृन्मते तु भूः इति सुबन्तं पदम्, तत्र स्वरो न संगच्छते। ३. मूर इति मूढनाम। मूढैरसुरैः सार्धम्, पुराम् आसुरीणाम्, दर्माणं दारयितारम्। अमूरम् अमूढम्—इति भ०। ४. वना वननीयं संभजनीयम्—इति भ०, सा०। ५. इकारान्तोऽपि अर्चिशब्दः वेदे बहुत्र प्रयुज्यते। यथा—अर्चयः ऋ० १।३६।३, य० १२।१०६, अर्चिभिः ऋ० ५।७९।८, साम ३७, अथ० ८।३।२३। धनर्चिं धनेन अर्चितारं, धनस्य पूजयितारम्—इति वि०। धनं प्रीणनम् अर्चिः अर्चनं स्तोत्रं यस्य सः’—इति भ०।
इंग्लिश (3)
Meaning
Realize in your heart God, the Subduer of different worlds, the Destroyer through salvation, of the bodies held by infatuated souls, Free from delusion, worshipful through Vedic Verses, the Guide of our intellect on the path of virtue, the Possessor of superhuman power, with the gold-hued rays of the Sun as His armour.
Meaning
Earnest men of love, passion and faith, but, being human, limited in intelligence, hold at heart, worship and serve Agni pervading and dominating the world of existence, great, sustainer of the vibrant wise, all knowing and wise, breaker of the strong holds of negativity and darkness, the original seed and source of life, beatific, supremely intelligent, golden flamed and divinely adorable. Men hold at heart, worship and serve this omnipresent Agni being more dynamic than the dynamics of nature, the instant presence that it is. (Rg. 10-46-5)
Translation
He pervades all the three regions, and is the sustainer of celestial realms. Surrounded by flames, he shines upon the altar in the place of sacred worship; from there, having accepted the offerings of the people, he goes without a hurdle to Nature's bounties, guided by the eternal laws.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (प्रभूः) સંસાર રચનામાં સંભવ સમસ્ત શક્તિઓમાં (जयन्तम्) પહોંચેલ (महां विपोधाम्) મહાન અને વિપ = મેધાવી - ઋષિ - મુમુક્ષુ ઉપાસકોને ધારણ કરનાર (मूरैः पुरां दर्माणम् अमूरम्) મૂઢ અજ્ઞાન બદ્ધ જીવાત્માઓ દ્વારા પ્રાપ્ત પુરો = શરીરોનું પ્રદાન કરીને વિદારણ કરનાર અમૂઢ - જ્ઞાનપૂર્ણ સર્વજ્ઞ - અજ્ઞાન બંધનથી રહિત (गीर्भिः वनाधियं नयन्तम्) સ્તુતિઓ દ્વારા વનો - વનનીય શ્રેષ્ઠ ગુણો અને બુદ્ધિને પ્રાપ્ત કરાવનાર (वर्मणा हरिश्मश्रुं न) પ્રકાશરૂપ વારણ ઘેરાવની દૃષ્ટિથી જ્ઞાનપ્રકાશનો ઘેરાવો નાખનાર હોવાથી સૂર્યસમાન જ્ઞાનસૂર્ય બનેલા (धनर्चि धाः) ધારણ કરવા યોગ્ય અર્ચિ = જ્યોતિયુક્ત પરમાત્માને ધારણ કર - ધ્યાનમાં લાવ. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સમસ્ત સંસારની રચનામાં શક્તિશાળી અને મુમુક્ષુ ઉપાસકના આધાર , સર્વજ્ઞ તથા અજ્ઞાનથી બંધાયેલ જીવાત્માઓના ઉદ્ધારક , સ્વયં અજ્ઞાન બંધનથી રહિત , સ્તુતિઓ દ્વારા શ્રેષ્ઠ ગુણો અને બુદ્ધિને પ્રાપ્ત કરાવનાર , સૂર્યસમાન સ્વયં પ્રકાશથી પૂર્ણ અને ધારણ કરવા યોગ્ય જેની અર્ચના અથવા જ્યોતિ છે , એવા પરમાત્માની ધ્યાન , ઉપાસના કરવી જોઈએ. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
پربھُو کو ہردیہ میں دھارن کرکے شکتی شالی بنو!
Lafzi Maana
(جینتم) سب پروِجے کرنے والے (مہام) سب سے مہان (وِپودھام) سیدھاوی بُدھیمانوں کے پالک (مُوری رمورم) دِرڑھ اگیانی بھی جس کو پُوجتے ہیں (پُرام درمانم) شاریرک جنموں کا وِناش کر آتما کو مکتی دِلانے والے (دھیّم نینتم) ہماری بُدھیوں کو ستیہ مارگ پر چلانے والے (گِربھی ونام) وید بانیوں دوارہ بھیجن کرنی یوگیہ (ہری شمشُرومن) سُوریہ کے سمان پرکاش مان (ورمنا) وید روپی پوچ سے رکھشا کرکے (دھرجچِم) ادھیاتمک دھنوں کے داتا پربھُوکو، ہے اُپاسک! تُوہردیہ میں (دھا) دھارن کر اور شکتی شالی بن!
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व प्रजाजनांनी समर्थ व गुणवान बनून सर्व शत्रूंचा विजेता, महामहिमाशाली, विद्वानांचा मित्र, हिंसकाकडूनही हिंसा न करण्यायोग्य, शत्रूची किलेबंदी तोडणारा, स्तुतींनी भजण्यायोग्य, ज्ञानप्रदाता, सत्कर्मांना प्रेरित करणारा, सूर्याप्रमाणे ज्योतिष्मान अशा परमेश्वराची पूजा करावी व वरील गुणांच्या वीर पुरुषाला राजाच्या पदावर प्रतिष्ठित करावे ॥२॥
विषय
पुढील मंत्रात कसा परमेश्वर उपासनीय आहे आणि कसा मनुष्य राजपदाकरीता नेमावा याविषयी सांगितले आहे. -
शब्दार्थ
हे मनुष्या तू (प्र भू:) समर्थ शक्तिमान हो, प्रकृष्ट गुणवान हो. तसेच (जयन्तम्) सदा विजेता (महान) महान (विपोधाम्) बुद्धीमतांचा सहायक आणि (मूरै:) मारणाऱ्याद्वारे जो (अमूरम्) कदापि मारता येत नाही. (त्या परमेश्वराला हृदयात धारण कर.) तो परमात्मा (पुराम्) शत्रुच्या नगरी (दर्माणम्) विदीर्ण करणारा, (गीर्भि:) स्तुतिवाणीद्वारा (वना) भजनीय आहे. (धियम्) प्रज्ञा आणि कर्म यांची (नयन्तम्) प्रेरणा देणारा आहे आणि (हरिश्मश्रुं व) स्वर्णिम किरणांचा जो स्वामी त्या सूर्याप्रमाणे (वर्मणा) आपल्या रक्षण साधनांनी (धवर्चिम्) ज्योतिरूप धनाचा स्वामी आहे, अशा (अग्निम) परमेश्वराला (धा:) आपल्या हृदयात धारण कर. तसेच वर वर्णित गुण धारण करणाऱ्या (अग्निम) वीर पुरुषाला (धा:) राजा पदावर स्थानापन्न कर. ।।२।।
भावार्थ
सर्व प्रजाजनांकरीता हे कर्तव्य आहे की, त्यांनी समर्थ व गुणवंत होऊन आपल्या शत्रूवर विजय मिळवावा, महामहिमामय व्हावे, बुधजनांचे मित्र व्हावे. कोणीही हिंसक वा अत्याचारी व्यक्ती त्यांच्यावर हिंसा वा अत्याचार करू शकू नये, इतके वीर बनावे. शत्रुच्या दुर्गादी तटबंदीच्या विध्वंस करणारे व्हावे. स्तुतिपात्र, ज्ञानप्रदाता, सत्कर्म प्रेरक व्हावे. सूर्यासम ज्योतिष्मान होऊन परमेश्वराचे पूजन करावे. तसेच उपर्युक्त गुण धारण करणाऱ्या वीर पुरुषालाच राजपदावर अधिष्ठित करावे. ।।२।।
विशेष
या मंत्रात उपमा व अर्धश्लेष अलंकार आहे. ।।२।।
तमिल (1)
Word Meaning
துதிகளோடு ஜயத்தின் சித்தத்திற்கு அழைத்துச் செல்பவனாய், சுவாலையான கவசமுடன் பசுமையான சுடரோடு, மதியற்றவர்களோடு மதி சூன்யமற்று சரீரங்களின் இரட்சகனாய் உள்ள மகா மேதாவியாய் ஒளி வீசும் அக்னியை உத்தேசித்து அறிவான செயலை அளிக்கவும்.
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