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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 738
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
34
य꣢स्ते꣣ अ꣡नु꣢ स्व꣣धा꣡मस꣢꣯त्सु꣣ते꣡ नि य꣢꣯च्छ त꣣꣬न्व꣢꣯म् । स꣡ त्वा꣢ ममत्तु सोम्य ॥७३८॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । ते꣣ । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣धा꣢म् । स्व꣡ । धा꣢म् । अ꣡स꣢꣯त् । सु꣣ते꣢ । नि । य꣣च्छ । त꣢꣯न्व꣢म् । सः । त्वा꣣ । ममत्तु । सोम्य ॥७३८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते अनु स्वधामसत्सुते नि यच्छ तन्वम् । स त्वा ममत्तु सोम्य ॥७३८॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । ते । अनु । स्वधाम् । स्व । धाम् । असत् । सुते । नि । यच्छ । तन्वम् । सः । त्वा । ममत्तु । सोम्य ॥७३८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 738
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः आत्मा को सम्बोधन है।
पदार्थ
हे मेरे अन्तरात्मन् ! (यः) जो ब्रह्मानन्दरस (ते) तेरी (स्वधाम् अनु) आनन्द-भोगेच्छा के अनुकूल (असत्) उत्पन्न हुआ है,उस ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस के (सुते) अनुभव में आने पर, तू (तन्वम्) अपने शरीर को (नियच्छ) यम-नियम की रस्सियों से नियन्त्रित करते हुए चल। हे (सोम्य) सौम्य आत्मन् ! (सः) वह ब्रह्मानन्द-रस (त्वा) तुझे (ममत्तु) हर्षित एवं तरङ्गित कर दे ॥२॥
भावार्थ
उपासना से जब ब्रह्मानन्द-रस आत्मा को प्राप्त होता है, तब शरीर के तथा मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि के भी सब व्यवहार सात्त्विक हो जाते हैं ॥२॥
पदार्थ
(ते) हे इन्द्र परमात्मन्! तेरा (यः) जो उपासक (सुते) उपासनारस निष्पन्न होने पर (स्वधाम्-अनु-असत्) अपनी आत्मसमर्पण क्रिया के अनुसरण हो रहा है (तन्वं नियच्छ) स्वकीय आत्मा—स्वरूप को “आत्मा वै तनूः” [श॰ ६.७.२.६] उसके लिए प्रदान कर—प्रदान करता है (सोम्य सः-त्वा ममत्तु) हे उपासनारस के योग्य परमात्मन्! वह उपासक तुझे उपासनारस से निरन्तर हर्षित करता रहे।
भावार्थ
परमात्मन्! जो उपासक उपासना समय अपने आत्मा का तेरे प्रति समर्पण करता है तू भी अपने स्वरूपदर्शन का प्रसाद उसे देता है, पुनः वह उपासक उपासनारस से तुझे तृप्त हर्षित करता रहता है॥२॥
विशेष
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विषय
स्वधा, मद, सौम्यता
पदार्थ
प्रभु कहते हैं कि हे (सोम्य) = विनीत ! सोम की रक्षा द्वारा तूने नम्रता प्राप्त की है । तू सुते इस उत्पन्न जगत् में सोम का (तन्वम्) = [तन्वाम्] शरीर में (नियच्छ) = नियमन व रक्षा कर (यः) = जो (ते) = तेरे (स्वाधाम् अनु असत्) = अपने धारण के अनुपात में है, अर्थात् जितना- जितना तू सोम का नियमन करेगा, उतना-उतना अपने जीवन का धारण करनेवाला बनेगा। (स त्वा ममत्तु) = यह सोम तुझे मदयुक्त करे । तेरे जीवन में एक मस्ती हो । निराशा व दुःख तुझे कभी न घेरें । बड़े-से-बड़े कष्ट में भी तू प्रसन्न ही हो, परन्तु ऐसा होना तो उस वीर्य की रक्षा पर ही निर्भर है । तुझे मदयुक्त करके भी यह सोम (सोम्य) = विनीत बनाये रखता है । यही तो इसकी विशेषता है कि मद और अमद इसमें साथसाथ रहते हैं। प्रभु को भी 'मदामद' इस नाम से स्मरण किया गया है, यह सोम जीव को भी 'मदामद' बना प्रभु-जैसा बना देता है।
भावार्थ
सोम की रक्षा के द्वारा मेरे जीवन में 'स्वधा' = स्वधारणशक्ति हो, मद हो तथा मद के साथ विनीतता हो ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (२) हे इन्द्र ! ( ते ) = तेरा ( यः ) = जो ( स्वधाम् ) = स्व-अर्थात् अपने स्वरूप में धारणा करने के ( अनु ) = अनन्तर ( असत् ) = प्रकट होता है ( सुते ) = उस उत्पन्न आनन्द में तू हे आत्मन् ! ( तन्वं ) = अपने स्वरूप को ( नि यच्छ ) = नियमित कर, समर्पित कर । हे सोम्य ! सोमरस के पान करने योग्य आत्मन् ! वह ज्ञानरस ( त्वा ) = तुझको ( ममत्तु ) = अति आनन्दित करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - विश्वामित्र:। देवता - इन्द्र:। स्वरः - षड्ज:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरप्यात्मानं सम्बोधयति।
पदार्थः
हे मदीय अन्तरात्मन् ! (यः) ब्रह्मानन्दरसः (ते) तव (स्वधाम् अनु) आनन्दभोगेच्छानुकूलम् (असत्) उत्पन्नोऽस्ति। [अस्तेर्लेटि रूपम्। यद्वृत्तनियोगान्निघाताभावः।] तस्मिन् ब्रह्मानन्दरूपे सोमरसे (सुते) अनुभूते सति, त्वम् (तन्वम्२) स्वकीयं शरीरम् (नियच्छ) यमनियमरज्जुभिः सन्नियन्त्रय चालय। हे (सोम्य३) सौम्य आत्मन् ! (सः) ब्रह्मानन्दरसः (त्वा) त्वाम् (ममत्तु) हर्षयतु तरङ्गयतु च ॥२॥४
भावार्थः
उपासनया यदा ब्रह्मानन्दरस आत्मानं प्राप्नोति तदा शरीरस्य मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनां चापि सर्वे व्यवहाराः सात्त्विका एव जायन्ते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ३।५१।११, ‘सो॒म्य’ इत्यत्र ‘सोम्यम्’ इति पाठः। २. ‘छन्दस्युभयथा’ (अ० ६।४।८६) इति सूत्रस्थेन ‘तन्वादीनां छन्दसि बहुलम्’ इति वार्तिकवचनेनोवङो वैकल्पिकत्वं बोध्यम्—इति सामश्रमी। ३. सोम्य सौमार्ह—इति सा०। सोमानां स्वामिन् पते—इति वि०। ४. इममपि मन्त्रमृग्भाष्ये दयानन्दर्षी राजविषये व्याचष्टे।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, dedicate thyself to the delight derived after self-concentration. O amiable soul, let the sap of knowledge grant thee extreme happiness !
Meaning
Indra, lord ruler of the world, whatever and whoever be in accord with your power and pleasure, pray control, direct, administer and order the body- politic into settled form, and may all that give you pleasure and satisfaction, lover and creator of soma peace as you are. (Rg. 3-51-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ते) હે ઇન્દ્ર પરમાત્મન્ ! તારા (यः) જે ઉપાસક (सुते) ઉપાસનારસ નિષ્પન્ન થતાં (स्वधाम् अनु असत्) પોતાની આત્મ સમર્પણ ક્રિયાને અનુસરણ થઈ રહેલ છે. (तन्वं नियच्छ) સ્વકીય આત્માસ્વરૂપને તેને માટે પ્રદાન કર-પ્રદાન કરે છે (सोम्य सः त्वा ममत्तु) હે ઉપાસનારસને યોગ્ય પરમાત્મન્ ! તે ઉપાસક તને ઉપાસનારસથી નિરંતર આનંદિત કરતો રહે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! ઉપાસક ઉપાસના સમયે પોતાના આત્માને તારા પ્રત્યે સમર્પણ કરે છે, તું પણ તારા સ્વરૂપ દર્શનનો પ્રસાદ તેને પ્રદાન કરે છે, પુનઃ તે ઉપાસક ઉપાસનારસ દ્વારા તને તૃપ્ત અને આનંદિત કરતો રહે છે. (૨)
मराठी (2)
भावार्थ
उपासनेने जेव्हा ब्रह्मानंद-रस आत्म्याला प्राप्त होतो, तेव्हा शरीर, मन, बुद्धी, प्राण, इंद्रिये इत्यादींचे सर्व व्यवहार सात्त्विक होतात ॥२॥
विषय
साधक पुन्हा आपल्या आत्म्यास संबोधून म्हणत आहे.
शब्दार्थ
हे माझ्या अंतरात्मन् (य:) जो ब्रह्मानंद रस (ते) तुझ्या (स्वधाम्) आनंदाचा उपभोग घेण्याच्या इच्छषपमाणे (असत्) उत्पन्न वा जागृत झाला आहे. (समाधी दशेत ज्या ईश आनंदाचा तू अनुभव घेत आहेस त्या आनंदाचा अनुभव घेत असताना तू आपल्या शरीराला यम नियमादि साधनांनी नियंत्रित करीत राहा (कारण शरीर जर अनियंत्रित असेल तर समाधीचा आनंद कसा घेता येईल? त्यामुळे हे सौम्य आत्मन् तो ब्रह्मानंद रस तुला हर्षित वा आनंदाच्या डोहात तरंगत करो ।।२।।
भावार्थ
जेव्हा उपासनेमुळे आत्म्यास ब्रह्मानंद रस प्राप्त होतो तेव्हा शरीराचे व मन, बुद्धी, प्राण, इंद्रिये आदींचे सर्व व्यवहार सात्विक होतात. ।।२।।
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